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कल्याण मन्दिर स्तोत्र [ रचयिता हिंदी पद पूज्य मुनिश्री प्रणम्य सागरजी ] - Printable Version

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कल्याण मन्दिर स्तोत्र [ रचयिता हिंदी पद पूज्य मुनिश्री प्रणम्य सागरजी ] - scjain - 03-15-2016

कल्याणों के मन्दिर दाता अभय प्रदाता हैं निर्दोष

श्री जिनवर के चरण कमल ही जगत् पूज्य हर लेते दोष।
भव-सागर में डूबे जन को तव पद ही प्रभु एक जहाज
भक्ति भाव से अभिवन्दन है शुरु करूँ स्तुति का काज।। 1।।
सुरगुरु सम विस्तृति मति वाले करने को जिनका गुणगान
सदा रहे असमर्थ सदा से उन प्रभु का मैं करता गान।
दुष्ट कमठ के मान कर्म की भस्म बनाने अनल स्वरूप
तीर्थेश्वर श्री पाश्र्व प्रभु की गरिमा सम ना दूजा रूप।। 2।।
रवि प्रकाश के उदय समय में उल्लू हो जाता है अन्ध
अन्ध बना फिर कैसे रवि का रूप बताये वह मतिमन्द।
त्यों प्रभु धीठ हुए हम जैसे कैसे तेरे गुण गाने
लायक हो सकते वर्णन को जो थोड़ा भी ना जाने ।। 3।।
नाश हुआ हो मोह कर्म का प्रकट हुआ हो आतम ज्ञान
फिर भी गुण रत्नाकर के गुण गिनने में है किसकी शान।
प्रलय पवन ने जिस समुद्र का जल फेंका हो दूर बहुत
उस समुद्र के रत्नों को भी क्या गिन सकता मानव मुग्ध ।। 4।।
आप असंख्य गुणों से शोभित मैं जड़ बुद्धि निरा अभिमान
फिर भी मैं तैयार हुआ हूँ संस्तुति करने को नादान।
शक्ति न रहने पर भी बालक बिना विचारे निज मति से
क्या समुद्र को नहीं नापता दोनों कर फैला रति से ।। 5।।
जो प्रत्यक्ष ध्यान से भगवन् करते निज आतम अनुभव
वे योगी भी हे परमेश्वर! कह न सके तव गुण वैभव।
उन्हीं गुणों के कहने का यह बिना विचारा मेरा कार्य
ज्यों पक्षी अपनी कूँ-कूँ से व्यक्त करें अपना अभिप्राय।। 6।।
जो अचिन्त्य महिमा मण्डित है दूर रहे वह तव गुणगान
किन्तु आपका नाम मात्र ही भवदधि से दे देता त्राण।
ग्रीष्मकाल के तीव्र ताप से तप्त पथिक को भी सन्तोष
पù सरः की शिशिर पवन से क्या तन में ना आता जोश?।। 7।।
कर्म शत्रु के सघन बन्ध भी शिथिल हुए डर-डर जाते
जिस प्राणी के हृदय कमल में पाश्र्व प्रभु क्षण भर आते।
चन्दन तरु का आलिंगन कर लिपटे रहते जो विष नाग
वन मयूर के आने पर ज्यों इधर-उधर जाते हैं भाग ।। 8।।
हे जिनेन्द्र! तव दर्शन से ही रौद्र उपद्रव बाधाएँ
सहसा कहाँ चली जाती हैं कोई समझ नहीं पाएँ।
गोरक्षक मालिक को लख कर गाय चुराने वाले चोर
जैसे सहसा तितर-बितर हो भग जाते ना पाते छोर ।। 9।।
हे जिन! आप भव्य जीवों के तारक कैसे हो सकते ?
आप रूप को मन में रख के स्वयं भवोदधि वो तिरते।
जल-तल में जो मसक तैरती क्या जल उसे तिराता है ?
भीतर भरी पवन ही कारण अजब अनोखा नाता है ।। 10।।
किये पराजित कामदेव ने हरि-हर महादेव जैसे
वही आपसे हुआ पराजित क्षण में परम पुरुष कैसे ?।
जिस जल से अगनी की लपटें बुझ जाती हैं आपों आप
उस जल को क्या बड़वानल की लपटें आग न करतीं आप।। 11।।
अहो बड़ा विस्मयकारी यह आप महा गौरवधारी
फिर भी हृदय विराजित जिनके उनका मन लाघवकारी।
हलका होकर भक्त आपका शीघ्र तरे भवसागर को
कौन सोच सकता है सम्यक् आप प्रभाव विशारद को।। 12।।
हे स्वामिन्! यदि क्रोध आपने पहले ही कर दिया विनाश
कर्मचोर फिर बिना क्रोध के कैसे पाये सत्यानाश।
शीतल शिशिर काल का पाला हरे भरे तरुवर वन को
मुरझा देता और जलाता इसमें क्या संशय मन को।। 13।।
हे जिनेन्द्र! योगीजन नित ही हृदय कमल में नित्य नितान्त,
आप रूप परमात्म रूप का ध्यान लगाकर बनते शान्त।
कमल कर्णिका में ही होता कमल बीज का ज्यों स्थान
हृदय कर्णिका छोड़ कहाँ हो त्यों शुद्धातम का स्थान।। 14।।
जो भविजन तव ध्यान लगाते ज्ञान रूप परमातम का
वे क्षणभर में देह छोड़कर पद पाते परमातम का।
ज्यों पत्थर मय हुई धातुएँ पाकर तीव्र अनल का योग
शुद्ध स्वर्णमय बनीं दमकतीं यह निमित्त का क्रीड़ा योग।। 15।।
जिस शरीर के भीतर हे जिन! भक्त आपको ध्याते हैं
उस शरीर से रहित हुए नित शुद्ध चिदातम पाते हैं।
जो मध्यस्थ सदा रहते हैं राग-द्वेष से दूर सदा
महापुरुष वे ही दुष्टों को जीतें समता ही सुखदा।। 16।।
जैसा शुद्ध सदा निर्मल है पाश्र्व प्रभु का शुद्धातम
तैसा ही प्रभु जो ध्याता है बन जाता तव सम आतम।
पानी भी जब अमृत बनता मन्त्र निरन्तर मन्थन से
प्राणी परमातम बन जाए क्या विस्मय यदि चिन्तन से।। 17।।
हरि-हर-ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वर मान आपको सब पूजें
निर्मल ज्योति परम परमेश्वर जान अन्यमति सब बूझें।
क्या न देखते शुक्ल शंख को पीले आदिक रंगों में
जिन्हें पीलियादिक रोगों ने घेर लिया हो अंगों में।। 18।।
धर्मामृत उपदेश समय पर प्रभु प्रभाव की सन्निधि हो
अरु अशोक तरु शोक रहित हो क्या विस्मय प्राणी भी हो।
दिनपति उदयागत होने पर तरुवर फूल खिलें जैसे
जिनपति के सम्मुख होने पर विकसित ना हो मन कैसे?।। 19।।
देवों द्वारा कुसुम वृष्टि हो नित्य निरन्तर चारों ओर
पर डंठल नीचे मुख ऊपर करके क्यों पुष्पों का दौर।
मानों वे संकेत दे रहे आप निकटता से जगदीश
विधि बन्धन ऊपर मुख करके नष्ट हो रहे स्वयं मुनीश।। 20।।
अति अगाध हृदयोदधि से जो निकल रही तव दिव्य ध्वनि
उसको सब जन अमृत कहते उचित बात यह बहुत बनी।
क्योंकि कर्णांजुलि से पीकर अमृतमय जिनवाणी को
परम भोग को भोग भविकजन पा जाते शिवरानी को।। 21।।
स्वामिन्! समवसरण में सुरगण चँवर ढोरते दोनों ओर
नीचे झुककर ऊपर जाते मानो वह कहते कुछ और।
जो अरिहन्त परम जिनवर को बार-बार झुक नमन करें
शुद्ध भाव से सिद्ध गति को पाने ऊपर गमन करें।। 22।।
कनक रत्न मणिमय सिंहासन उस पर श्यामल ललित सुदेह
ऐसे शोभे ज्यों मेरु की चोटी पर नव काले मेह।
हो आनन्द विभोर भव्यजन लखें आपको ज्यों वन मोर
वर्षा ऋतु में मेघों को लख नाचें किलकारी कर शोर।। 23।।
नील वर्ण की प्रभा पुंज से दीप्त सभा का नीला रंग
तरु अशोक के पत्तों की भी रक्ताभा करता नीरंग।
वीतराग तव सन्निधि से यदि राग रहित तरु हो जाता
कौन सचेतन पुरुष बचेगा वीतराग ना हो जाता।। 24।।
देव दुन्दुभि देवों द्वारा नभ मण्डल में बज कर घोर
मानो बुला रही हो सबको कर सचेत नित चारों ओर।
मुक्तिपुरी ले जाने वाले सौदागर यह पाश्र्व प्रभु
तज प्रमाद आओ-आओ जी सेवा करो गूँजती भू ।। 25।।
तीन लोक जब हुए प्रकाशित हे प्रभु! तव चेतन तन में
यही देखकर मानो हतप्रभ हुआ चन्द्र तब ही क्षण में।
डरकर तत्क्षण तीन छत्र के छल से मानो तीन शरीर
धारण कर आया तव शरणा शोभित करता आप शरीर।। 26।।
माणिक स्वर्ण रजत निर्मित हैं समवसरण के त्रय प्राकार
तीन लोक की सकल सम्पदा मानो मिल लेती आकार।
प्रभु की कान्ति प्रताप कीर्ति के मुझ को तीन समूह लगे
जिनके मध्य सुशोभित श्री जिन अद्भुत आभावान लगे।। 27।।
पारस परमेश्वर के पद में इन्द्रादिक जब प्रणत हुए
उनकी रत्न मुकुट मालाएँ मुकुट छोड़ पद शरण लिए।
इसमें क्या आश्चर्य प्रभु की संगति सब ज्ञानी चाहें
रमण करें तव युगल चरण में नहीं कहीं जाना चाहें।। 28।।
जन्म-मरण के भवोदधि से आप विमुख होकर के भी 
भक्तजनों को पार लगाते कर्म शून्य होकर के भी।
अग्निपाक युत मृतिका घट को बांध पीठ जब जन तिरते
कर्म पाक से रहित आपको हृदय धार सब जन तिरते।। 29।।
विश्वेश्वर होकर जन पालक दुर्गत तुम दुष्प्राप हुए
अविनाशी अक्षर होकर भी लेख रहित निर्लेप हुए।
अज्ञ प्राणियों के संरक्षक! हे ईश्वर! तव आतम में
तीन लोक दिखलाने वाला ज्ञान प्रकाशित नित जग में।। 30।।
क्रोधित होकर क्रूर कमठ ने नभ मण्डल छूने वाली
धूलि उड़ायी तूफानों से तहस-नहस करने वाली।
दूर रहे प्रभु देह आपकी छाया को भी छू न सकी
मलिन हुआ वह स्वयं कर्म से नभ में थूँके ज्यों सनकी।। 31।।
फिर उस दैत्य कमठ ने बादल गरज-गरज करके आवाज
काली रात अंधेरी करके कड़-कड़ करती डाली गाज़।
मूसल सम मोटी जल बूँदें पटकी मानों हो तलवार
स्वयं कमठ ने अपने ऊपर मानों कीने दुस्तर वार ।। 32।।
नरमुण्डों की अति डरावनी लम्बी-लम्बी मालाएँ
बिखरे केश देखकर जिनके डर जाती हों अबलाएँ।
मुख से लाल अगनि की लपटें भूत प्रेत का डर दिखला
भव-दुख कारण हेतु कमठ ने जहर स्वयं पर ही उगला।। 33।।
हे भुवनाधिप! तीन भुवन में धन्य हुए हैं वे ही लोग
तीनों सन्ध्याओं में तुमको हृदय धार कर करते योग।
कृत्य सभी जो संसृति कारण तजकर भक्ति भाव उर धार
रोमांचित हो तन से मन से आराधक करते भवपार।। 34।।
इस अपार भव-वारिधि में प्रभु जन्म लिये अनगिनत यहाँ
किन्तु आपका नाम कभी भी सुना कान से कभी कहाँ ?।
यदि तव नाम मन्त्र सुन लेता एक बार भी भावों से
विपदाओं की नागिन मुझको कैसे डसती दावों से ?।। 35।।
ऐसा लगता है पारस प्रभु! मुझ पापी ने आप चरण
मनवांछित फलदायक तेरे पूजे नहीं कभी इक क्षण।
इस कारण इस जन्म में मेरे मन की सारी आशाएँ
कभी पूर्ण हो सकी न भगवन् बढ़ती और निराशाएँ।। 36।।
मोह अन्ध से अन्धा होकर नेत्र सहित होकर भी ईश,
देख सका ना कभी आपको पहले कभी कहीं जगदीश।
इसीलिए तो हृदय विदारक अति दुर्वार हमारे पाप,
बहु अनर्थ करते हैं प्रभुवर! और सताते आपों आप।। 37।।
हे जनबान्धव! मैंने तुमको हो सकता है खूब लखा
नाम सुना हो और लिया हो पूजा की हो दिखा-दिखा।
फिर भी भक्ति भाव से मैंने कभी नहीं चित में धारा
यही वज़ह है दुःखी रहा हूँ भाव शून्य सब बेकारा।। 38।।
शरणागत प्रतिपालक ईश्वर दुःखीजनों प्रति करुणाधाम
नाथ आप ही हो योगीश्वर और महेश्वर दया निधान।
भक्त आपका सहज भक्ति से स्वयं रुचि से तव पद लीन
मेरे दुःख दलने में अब तो जल्दी दया करो लो चीन।। 39।।
हे त्रिभुवन पावन! प्रभु रक्षक आश्रय दाता आप अनूप
शरणागत प्रतिपालक सबके कर्म विनाशक कीर्ति स्वरूप।
पाकर आप चरण कमलों का कर न सका जो नित-प्रति ध्यान
ऐसा भाग्यहीन नर मैं ही बना अभागा निपट अजान।। 40।।
देवेन्द्रों से वन्दनीय हो सकल तत्त्व के जाननहार
जगतारक त्रिभुवनपति तुम हो प्रभो दया सागर आधार।
दुःख सागर में डूब रहा हूँ देव! बचाओ दया करो
आज शरण आए बालक पे दृष्टि डाल मन पूत करो।। 41।।
नाथ आप ही एक मात्र हो मुझ पापी के आज शरण
तव चरणों की भक्ति से यदि संचित हुआ पुण्य का कण।
तो उसका फल यही चाहता आप चरण ही रहें शरण
हे शरण्य! पर भव में भी तुम नाथ बने रहना हर क्षण।। 42।।
ध्यान लगाकर इस प्रकार जो हे जिनेन्द्र! विधिवत् गुणगान
तव निर्मल मुख कमल लक्ष्य कर अपलक लखता भव्य महान्।
अरु रोमांचित तन मन होकर संस्तुति करने को तैयार
रहता है वह भव्य जीव ही पा जाता संसृति का पार।। 43।।
और कहूँ क्या संस्तुति का फल हे पारस! प्रभु हे दातार!
तुमको लख विकसित होते हैं नयन कुमुद जिन चन्द्र अपार।
भक्त आपके निश्चित पाते स्वर्ग सुखों का वैभव योग
अष्ट-कर्म बल नष्ट करन से शीघ्र मुक्ति का मिलता योग।। 44।।


RE: कल्याण मन्दिर स्तोत्र [ रचयिता हिंदी पद पूज्य मुनिश्री प्रणम्य सागरजी ] - Manish Jain - 01-08-2024

44 दीपक के साथ कल्याण मन्दिर स्तोत्र