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परमर्षि स्वस्ति (मंगल) विधान भाग १ - Printable Version

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परमर्षि स्वस्ति (मंगल) विधान भाग १ - scjain - 04-26-2016

18 बुद्धि ऋद्धियाँ

नित्या-प्रकंपाद्भुत-केवलौघाः, स्फुरन्मनः पर्यय-शुद्धबोधाः |
दिव्या-वधि-ज्ञान-बल-प्रबोधाः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ||१!!
शब्दार्थ-नित्याप्रकंपाद्भुत(नित्य+अप्रकम्प+अद्भुत)-अविनाशी+अचल+अदभुत-अनोखा ,केवलौघाः-केवलज्ञान के धारक ,स्फुरन्मनः-दैदीप्यमान/, शुद्धबोधाः-पर्यय-मन:पर्यय रूप शुद्ध ज्ञान के धारी ,
दिव्यावधिज्ञान-उत्कृष्ट अवधिज्ञान के बल प्रबोधाः-बल से प्रबुद्ध, स्वस्ति -कल्याण क्रियासुः-करे,परमर्षयो नः-परम ऋषि हम सब का 
अर्थ-अविनाशी,अचल,अद्भुत केवलज्ञान, प्रकाशमान मनःपर्यय नाम शुद्धज्ञान, दिव्य अवधिज्ञान के बल से प्रबुद्ध,ऋद्धियों के धारी परमऋषि हमारा मंगल करें !
भावार्थ-अविनाशी-सदैव रहने वाला,अचल-हीनाधिक नहीं होने वाला,जस का तस रहने वाला,अद्भुत-अनोखा-अतुल्य, केवलज्ञान धारक,प्रकाशमान मन:पर्यय नामक शुद्धज्ञान धारक,उत्कृष्ट अवधि ज्ञान धारक, परम ऋषिराज हम सब का कल्याण करे ! 
१-केवलज्ञान ऋद्धि धारी -तीनो लोकों में छह द्रव्यों की भूत और भविष्यत् संबंधी अन्नंतानंत पर्याय को,और वर्त्तमान संबंधी समस्त पर्यायों को अपनी आत्मा से बिना, क्रम के और उसके बहार अनंत लोकाकाश को 
सम्पूर्ण रूप से जानते है ,ऐसे केवली भगवान् हमारा कल्याण करे !
२-मन:पर्यय ज्ञानऋद्धिधारी-विशिष्ट ईहा मति ज्ञान द्वारा,दूसरों के मन को जान कार,मन में चिंतित पदार्थों को जान्ने वाले मन:पर्यय ऋद्धिधारी ऋषिराज हमारा कल्याण करे !
३-अवधि ज्ञान -जो द्रव्य,क्षेत्र ,काल ,भव की सीमा से ,इंद्रियों और मन के बिना, आत्मा से रुपी पदार्थों को स्पष्ट जानते है,वह अवधि ज्ञान ऋद्धिधारी होते है! 
कोष्ठस्थ-धान्योप-ममेक बीजं संभिन्न संश्रोत्रतृ पदानुसारि 
चतुर्विधं बुद्धिबलं दधानाः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः!!२!!
संधि विच्छेद-धान्योप-ममेक बीजं=धान्योपम+एक बीजं, संभिन्न संश्रोत्रतृ =संभिन्नसं+श्रोत्रतृ ,
शब्दार्थ-कोष्ठस्थ धान्योपं, एकबीजं- ,संभिन्न-संश्रोतृ-संभिन्न संश्रोतृ, पदा नुसारि पदानुसारिणी,चतुर्विधं-चार प्रकार की,बुद्धिबलं-बुद्धि ऋद्धि,दधानाः-धारी,स्वस्ति-कल्याण,क्रियासुः-करे परमर्षयो-परम ऋषि,नः-हम सब का 
अर्थ-कोष्ठस्थ धान्योपं,एक बीज,संभिन्न-संश्रोतृ और पदानुसारिणी, इन चार बुद्धि ऋद्धियों के धारी परम ऋषिराज हम सब का कल्याण करें!
४-कोष्ठस्थ धान्योपं -कोठे में रखे धान के समान /कोठे में अनाज २-३ माह रखने के बाद ,निकालने पर वैसे ही निकल आते है उसी प्रकार जिन मुनिराजों ने जैसा सुना है वैसा ही अर्द्ध एवं ,पूर्ण विराम सहित करोडो वर्षों तक याद रखते है,वे मुनिराज कोष्ठस्थ धान्योपं ऋद्धि के धारी होते है !
५-एक बीजं जैसे खेत में एक बीज बोने से अनेको दाने उत्पन्न हो जाते है,उसी प्रकार एक शब्द के हज़ारों अर्थ बताने की सामर्थ्य रखने वाले ऋषि राज एक बीज ऋद्धिधारी होते है !
६-संभिन्नसं श्रोतृ- करोड़ो व्यक्तियों के एक साथ प्रश्न करने पर उनको एक साथ सुनने और याद करने की क्षमता रखते हुए उनके क्रम से उत्तर देना,संभिन्न संश्रोतृ ऋद्धि है 
७-पदानुसारि-किसी ग्रन्थ के एक पद के आश्रय से पूरे ग्रन्थ का चिंतन कर लेने की की क्षमता होना,पदानुसारि ऋद्धिधारी होते है !जैसे 'मोक्ष मार्गस्य नेतारम् --मात्र एक पद के आश्रय से सम्पूर्ण तत्वार्थ सूत्र का चिंतन कर लेना 
विशेष- 
ऋद्धिधारी -मुनिराजों में विशेष तपश्च्रण से अद्भुत विशेष शक्ति उत्पन्न होती है उन्हें ऋद्धि कहते है!पंचमकाल में,ज्ञान के यथायोग्य क्षयोपशम और शारीरिक शक्ति के अभाव में ऋद्धिधारी मुनिराज नहीं है! 
संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरा -दास्वादन-घ्राण-विलोकनानि |
दिव्यान् -मतिज्ञान-बलाद्वहंतःस्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ||३!!
इस छंद में पांच इंद्रियों संबंधी बुद्धि ऋद्धियों का वर्णन है ये इन्द्रियां कितनी दूर की वस्तुओं को विषय कर सकती है वह निश्चित है 
शब्दार्थ-
संस्पर्शनं-दूर स्पर्शन ऋद्धि ,संश्रवणं-दूर श्रवण ऋद्धि ,च-और, दूरा दास्वादन-दूरा +आस्वादन ऋद्धि , दूरा घ्राण- दूर से घ्राण, ऋद्धि दूराद विलोकनानि-दूर से अवलोकन ऋद्धि ,दिव्यान्-उत्कृष्ट ,मतिज्ञान-मति ज्ञान के,व्लाद्वहंतः बल पर,स्वस्ति-कल्याण,क्रियासुः-करे, परमर्ष यो-परम ऋषिगण, नः-हम सब का 
अर्थ-उत्कृष्ट मतिज्ञान के क्षोपशम के बल से दूर से ही स्पर्शन,श्रवण, आस्वादन,घ्राण और चक्षु-अवलोकन,पाँचों इन्द्रयों संबंधी विषयों से संख्यात योजन अधिक जान सकने की क्षमता रखने वाले ऋषिराज अर्थात (दूर स्पर्शन,दूरा आस्वादन,दूरा घ्राण,दूरा अवलोकन और दूरा श्रवण,इन पञ्च इन्द्रिय विषय संबंधी) ऋद्धियाँ के धारक, परम ऋषि गण हम सब का कल्याण करें |
विशेष-दिव्य मतिज्ञान के बल से स्पर्शन,रसना और घ्राण इंद्रियों का उत्कृष्ट विषय अर्थात उत्कृष्टतम क्षयोपशम वाले ९ योजन दूर की वस्तु को भी बिना छुए बता सकते है,बिना चखे उसका स्वाद बता सकते है, नासिका के निकट लाये बिना गंध बता सकते है! कर्ण इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय १२ योजन और चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्टविषय ४७२६३ योजन है!जिन मुनिमहराज को तपश्च्रण से,मतिज्ञानावरण का क्षयोप शम इससे भी अधिक प्राप्त हो जाता है, जिससे वे संख्यात योजन दूर तक अपने अपने इंद्रियों के विषय को जान लेते है ,उनके ये पांच इन्द्रिय सम्बन्धी,पांच ऋद्धियाँ कहते है!दूरा-आस्वादन ऋद्धि कहते है !इसी प्रकार अन्य तीन इंद्रियों के विषयों को देखना है!जो ऋद्धियाँ,पाँचों इंद्रियों के उत्कृष्ट विषयों से भी अधिक,संख्यात योजन दूर तक ,तपस्या के बल से जानने में सामर्थ्यवान हो जाती है वे ये पांच इन्द्रिय संबंधी ऋद्धियाँ है!दूरस्पर्शन,दूरा स्वादन,दूरा घ्राण,दूरा अवलोकन और दूरा श्रवण ,ये पञ्च इन्द्रिय विषय संबंधी ऋद्धियाँ है ! 
इन ऋद्धियों का कारण मति ज्ञान का विशेष क्षयोपशम होना है 
प्रज्ञा-प्रधानाः श्रमणाः समृद्धाः,प्रत्येक-बुद्धाः दशसर्वपूर्वैं: |
प्रवादिनोऽष्टांग-निमित्त-विज्ञाः,स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ||४!!
इस छंद में ६बुद्धि ऋद्धियाँ है 
शब्दार्थ-प्रज्ञा-ज्ञान की-प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देने में समर्थ,प्रधानाः-प्रधानता वाली,श्रमणाः-श्रमण नामक ऋद्धि से,समृद्धाः समृद्ध है ,प्रत्येक-बुद्धाः-बिना किसी गुरु के बड़े बड़े शास्त्रों को पढ़ने में सामर्थ्यवान होना, दशसर्वपूर्वैं:-दश पूर्वित और सर्व पूर्वित ११ अंगो को पढ़ने के बाद १० पूर्वों को पढ़ना, प्रवादिनोऽष्टांग (प्रवादिन:+ऽष्टांग) प्रवादीन: जो वाद विवाद में अजय होते है+अष्टांग निमित्त-आठ निमित्त विज्ञाः-के ज्ञाता,स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः-ऐसे ऋषि हम सब का कल्याण करे !
अर्थ-प्रज्ञा श्रमणा,प्रत्येकबुद्ध,दश पूर्वित,सर्वपूर्वित,प्रवादीत और अष्टांग निमित्त विज्ञ: बुद्धि ऋद्धिधारी,परम ऋषिगण हम सब का कल्याण करें
विशेष:- 
१-ऋद्धि -ज्ञान/बुद्धि की प्रधानता से समृद्ध श्रमण ऋद्धि -इस ऋद्धि के उत्पन्न होने से प्रत्येक प्रश्नो के उत्तर देने की सामर्थ्य पैदा जाती है! 
२-प्रत्येक बुद्ध बुद्धि ऋद्धि;-इस ऋद्धि के धारक ज्ञानावरण के क्षयोपशम केकारण बिना किसी गुरु के स्वयं ही अध्ययन की सामर्थ्य रखते है !
३-दशपूर्वित ऋद्धिधारी-मुनिराज पहिले ११ अंग पढ़ते है,फिर क्रम से १० पूर्व पढ़े,१०वे पूर्व विद्यानुवाद है,इसके पढ़ने से समस्त विद्याएँ हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो जाती है!"हे गुरु देव हम आपको सिद्ध हुई हमे आप आज्ञा दीजिये"!जो महान मुनिराज उन्हें स्वीकार नहीं करते वे दश पूर्वित ऋद्धिधारी हो जाते हैं!इन्हे अभिन्न दश पूर्वी भी कहते हैं!ये अभि न्न दश पूर्वित ऋद्धिधारी होते है!जो उन विद्याओं को स्वीकार कर लेते हैं वे भिन्न दश पूर्वी कहलाते है और वे मिथ्यादृष्टि बन जाते है !
४-सर्वपूर्वित ऋद्धिधारी-जिन्हे १० पूर्व के बाद १४ के १४ पूर्वों का ज्ञान हो गया है वे सर्व पूर्वित ऋद्धिधारी होते है !चतुर्दशपूर्वित ऋद्धिधारी भी कह सकते है !वे मुनि राज १४ पूर्वों के ज्ञाता होते है !
५-प्रवादीन:ऋद्धि धारी -इस ऋद्धि धारी मुनिराज को किसी भी शास्त्रार्थ के वाद विवाद में कोई परास्त नहीं कर सकता,वे अजेय होते है ये प्रवादित ऋद्धिधारी होते है !
६-अष्टांग निमित्त विज्ञ: ऋद्धिधारी-महा निमित्त आठ ;अंतरिक्ष,ओम,अंग, स्वर,व्यंजन,लक्षण,चिन्ह,स्वप्न प्रकार के होते है! आठ प्रकार के निमित्तों के ज्ञाता इस ऋद्धि के धारक होते है!जैसे यदि किसी चूहे ने आपके कपड़े को किसी कोने से काट दिया तो इस ऋद्धिधारक इसका फल सही बता देंगे ! 
मुनियो को यदि सांसारिक विभूतियां स्वीकार करना अच्छा लगने लगता है तो उनका मुनित्व नष्ट हो जाता है और वे मिथ्यादृष्टि बन जाते है! ११ रूद्र घोर तपस्वी;मुनि बनते है,बड़े स्वाध्यायी होते है,११ अङ्ग और १० पूर्वों का ज्ञान प्राप्त करते है!लेकिन जब विद्याएँ इनके पास आती है तो उन्हें स्वीकार करके से भ्रष्ट हो जाते है ,मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं !इन रुद्रो कि अंतिम गति नरक ही होती है !जो १० पूर्वों का अध्ययन करने के बाद विद्याओं को स्वीकार नहीं करते है उनकी स्थानीय देवता गण महान पूजा संपन्न करते है !इस प्रकार ऐसे ऋषिराक १०पॊर्व के धारी हो जाते है ! 
नौ चारण ऋद्धियाँ
जंघा-नल-श्रेणि-फलांबु-तंतु-प्रसून-बीजांकुर-चारणाह्वाः|
नभोऽगंण-स्वैर-विहारिणश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ||५!!
शब्दार्थ-जंघा-जंघा,अनल-अनल,श्रेणि-श्रेणी,फलांबु(फल+अम्बु) फल,अम्बु,तंतु-तंतु,प्रसून-पुष्प ,बीजांकुर-बीजांकुर,चारणाह्वाः-चारण 
नभोऽगंण-आकाश रूपी आँगन में,स्वैर-अपनी इच्छानुसार, विहारिणश्च और विहार करने की सामर्थ्य होना-आकाश गामिनी ऋद्धि के धारी स्वस्ति-कल्याण, क्रियासुः -करे,परमर्षयो-परम ऋषि,नः-हम अब का 
अर्थ-चारण ऋद्धि-जमीन से ऊपर चलने वाली ऋद्धियों से है जंघा, अनल (अग्नि शिखा), श्रेणी, फल,जल, तन्तु, पुष्प, बीज-अंकुर चारण ऋद्धियों के धारी तथा आकाश गामिनी(आकाश में इच्छानुसार जीव हिंसा-विमुक्त विहार करने वाले) ऋद्धियों के धारी परम ऋषिगण हम सब का कल्याण करें !
१-जंघ चारण ऋद्धि-जंघा उठाये बिना गमन की सामर्थ्य रखने वाले ऋषि राज,जंघा चारण ऋद्धिधारी ऋषि होते है!
२-अनल चारण ऋद्धिधारी-अपना शरीर जलाये बिना तथा अग्निकायिक जीवों को बाधित करे बिना अग्नि पर चलने की सामर्थ्य रखने वाले ऋषिराज,अनल चारण ऋद्धिधारी ऋषि होते है !
३-श्रेणीचारणऋद्धिधारी-आकाश में प्रदेशों कि पंक्ति को श्रेणी कहते है!जिन ऋषियों में श्रेणी के अनुसार चलने की सामर्थ्य होती है वे श्रेणी चारण ऋद्धिधारी ऋषि होते है ! 
४-फल चारण ऋद्धिधारी-किसी फल के बगीचे में ऋषिराज के फलों के ऊपर गमन करने पर फलों और उनको किसी प्रकार की बाधा नहीं हो तथा किसी जीव की हिंसा भी नहीं होती हो तो ऐसे ऋषि फल चारण ऋद्धिधारी होते है!
५-अम्बु चारण ऋद्धिधारी-अम्बु अर्थात जल !मार्ग में कोई नदी समुद्र आदि आ जाए तो उसके ऊपर से अम्बु चारण ऋद्धि धरी ऋषि बिना किसी बाधा के चल लेते है!
६-तंतु चारण ऋद्धि धारी-तंतु अर्थात मकड़ी के जले का एक धागा !इस ऋद्धि धारक ऋषिराज उस तंतु पर चले तो वह टूटे नहीं और वे आराम से उस पर चल ले,ऐसे ऋषि तंतु चारण ऋद्धिधारी होते है !
७-प्रसून चारण ऋद्धि धारी-फूलों के बगीचे क ऊपर से उन्हें व स्वयं को बिना बाधित किये और किसी जीव हिंसा के बिना चल ले वे प्रसून चारण ऋद्धिधारी ऋषि होते है!
८-बीजांकुर चारण ऋद्धिधारी-किसे बीज में से नवीन अंकुर फूटा हो,उसके ऊपर ऋषिराज बाधा रहित और किसी जीव की हिंसा किये बने चल ले,वे बीजांकुर चारण ऋद्धिधारी होते है!
९-आकाश गामिनी ऋद्धि धारी-आकाश रूपी आँगन में अपनी इच्छानुसार जीवों की हिंसा से मुक्त ,विहार करने की सामर्थ्य रखने वाले ऋषिराज, आकाश गामिनी ऋद्धिधारी होते है!पंच मेरु पूजा में,"सुर,नर चारण वंदन आवे"पढ़ते है !चारण ऋद्धिधारी ऋषि राज आकाश में गमन करके सीधे समेरू पर्वत के पांडुक वन पर पहुँच कर तीर्थंकर बालक के अभिषेक का आनंद लेते है ! 
विशेष-१-चारण ऋद्धि धार- मुनि माहराज जो जमीन से ऊपर आकाश में गमन करते है वे आकाश गमन ऋद्धिधारी होते है !भगवान् महावीर को,उनके मोक्ष से पूर्व,दसवी सिंह पर्याय में,दो चारण ऋद्धिधारी मुनि महा राजो ने सम्बोधित किया था!वे यहाँ से उड़कर श्रीमंदर स्वामी के समव शरण में विदेह क्षेत्र में पहुँच गए !
२-चारण ऋद्धिधारी ऋषि के गमन की सीमा औदरिकशरीर सहित जीव मध्य लोक में समेंरू पर्वत की चूलिका तक ही जा सकता है,उससे ऊपर नहीं क्योकि उससे ऊपर अधोलोक की सीमा आरम्भ हो जाती है!यदि आकाश गामिनी ऋद्धिधारी के साथ ऋषि राज को विक्रिया ऋद्धि भी है तो वे शरीर को सूक्ष्मत करके,समेरू पर्वत की चूलिका के अग्रिम भाग पर बैठ कर ध्यान लगा सकते ह