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उत्तम मार्दव धर्म - Printable Version

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उत्तम मार्दव धर्म - scjain - 09-07-2016

.उत्तम मार्दव धर्म
*मान महा विषरूप,*
*करहि नीच गति जगत में।*
*कोमल सुधा अनूप,*
*सुख पावै प्राणी सदा।।*


*अर्थ -* अभिमान या घमंड भयंकर विष के समान है जिसके कारण मनुष्य को निकृष्ट अवस्था प्राप्त होती है। जबकि विनम्रता अमृत के समान होती है, विनम्र व्यक्ति जीवन में सुखी रहता है।
२. *उत्तम मार्दव गुण मन माना,*
*मान करन को कौन ठिकाना।*
*वस्यो निगोद माँहि तैं आया,*
*दमरी रुकन भाग विकाया।।*

*अर्थ -* अभिमान के आभाव में मनुष्य मार्दव गुण उत्पन्न होता है, यह मनुष्य का बहुत बड़ा गुण है। अभिमानी व्यक्ति को सूक्ष्म जीव, पशु आदि की पर्यायों को धारण कर दुःख भोगना पड़ता है।
३. *रुकन विकाया भाग वशतैं,*
*देव इक-इंद्री भया।*
*उत्तम मुआ चांडाल हूवा,*
*भूप कीड़ों में गया।।*

*अर्थ -* अभिमान के कारण देव अवस्था से भी जीव मरण के उपरांत पेड़-पौधों आदि के शरीर को भी प्राप्त करते हैं। मान के कारण राजा भी कीड़ो आदि की पर्याय को प्राप्त करता है।
४. *जीतव्य जोवन धन गुमान,*
*कहा करैं जल बुद-बुदा।*
*करि विनय बहु-गुन बड़े जनकी,*
*ज्ञान का पावै उदा।।*

*अर्थ -*मनुष्य अपने युवावस्था, धन आदि का अभिमान किस आधार पर करता है जबकि यह जीवन पानी के बुद बुंदे के समान क्षणिक है। इसलिए सभी को बड़े तथा गुणवान लोगों की विनय करना चाहिए। विनय गुण के कारण ही मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति होती है।
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