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उत्तम शौच धर्म - Printable Version

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उत्तम शौच धर्म - scjain - 09-10-2016

उत्तम शौच धर्म
१. *धरि ह्रदय संतोष,*
*करहूँ तपस्या देह सों।*
*शौच सदा निर्दोष,*
*धरम बड़ो संसार में।।*
*अर्थात -* मनुष्य को ह्रदय में संतोष धारण करना चाहिए। शौच गुण अर्थात पवित्रता अथवा निर्लोभता होना जीवन में सबसे बड़ा गुण है।
२. *उत्तम शौच सर्व जग जाना,*
*लोभ पाप को बाप बखाना।*
*आसा-पास महादुखदानी,*
*सुख पावे संतोषी प्राणी।।*
*अर्थात -*लोभ को पाप का बाप कहा गया है। अर्थात लोभ के कारण मनुष्य बड़े से बड़ा पाप करने के लिए तैयार हो जाता है। मनुष्य के जीवन में असंतुष्टि ही उसके महादुख का कारण होता है, जबकि जीवन में संतोष धारण करने वाला हमेशा सुखी रहता है।
३. *प्राणी सदा शुची शील जप तप,*
*ज्ञान ध्यान प्रभावतैं।*
*अर्थात -*मनुष्य अपने जीवन में शील, आत्म स्मरण तथा तपश्चरण आदि के माध्यम से पवित्रता धारण करता है।
४. *ऊपर अमल मल भरयो भीतर,*
*कौन विधि घट सुचि कहे।*
*बहु देह मैली, सुगुन थैली,*
*शौच गुण साधु लहै।।*
*अर्थात -*मनुष्य ऊपर से तो साफ स्वछय दिखता है लेकिन उसका शरीर अंदर से घृणिततम पदार्थो से भरा हुआ है उसको कैसे पवित्र किया जा सकता है। संसार में यथार्थ में शौच गुण, लोभ का त्याग कर आत्मसाधना में संलग्न साधुओं का होता है।