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१४ गुणस्थान भाग २ - Printable Version

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१४ गुणस्थान भाग २ - scjain - 08-17-2017

5- *संयतसांयत/देशसंयत गुणस्थान*

चौथे गुणस्थान में रहते हुए जीव आत्मविकास की ओर अग्र्सर होता है, तब उसे ऐसा विचार आता है कि मैं जिन भोगों को भोग रहा हूँ, ये कर्म बंधन के कारण हैं, विनश्वर हैं और अंत में दुखों को ही देने वाले हैं ...
ऐसा चिंतवन करते हुए वह पांच पापों(हिंसा,झूठ,चोरी,कुशील और परिग्रह) का स्थूल त्याग करता है,
 
इन पांच महाव्रतों को अंगीकार करता है, और साथ ही तीन गुण-व्रत और चार शिक्षा-व्रत रूप साथ शीलव्रतों को भी धारण करता है !

6 - *प्रमत्तसंयत गुणस्थान*

यद्धपि वह संयम का पालन करता है, इसलिए संयत है, लेकिन उसके "जब तक प्रमाद बना रहता है" तब तक उसे प्रमत्तसंयत कहते हैं
किन्तु वह साधु हमेशा ही प्रमत्त दशा में नहीं रहता, थोड़ी देर में वह सावधान होकर आत्मचिंतन करता रहता, और जब वह आत्मचिंतन में होता है तब उसके *अप्रमत्त संयत दशा* जाती है !
यह अप्रमत्त संयत दशा ही सांतवा गुणस्थान है !!!
इस प्रकार साधु प्रमत्त और अप्रमत्त दशा में आता-जाता रहता है !

प्रमाद के 15 भेद हैं :-
-
चार कषाय 
-
चार विकथाएं
-
पांच इंद्रियों के विषयों में झुकाव
-
प्रणय(स्नेह), और
-
निद्रा
साधु की प्रवत्ति इन 15 प्रमादों में से किसी किसी प्रमाद की ओर घडी-आध घडी के लिए होती रहती है !!!
जितनी देर उसकी प्रवत्ति प्रामाद रूप होती है,उसकी वो अवस्था *छट्ठा प्रमत्तसंयत* गुणस्थान है !!!
7 - *अप्रमत्तसंयत गुणस्थान*
साधु की सावधान दशा का नाम ही "सांतवा *अप्रमत्तसंयत गुणस्थान* है !!!
जितनी देर वह आत्म-चितन और उसके मनन में जागरूक रहता है, उतनी देर के लिए वह सांतवे गुणस्थान में पहुँचता है, और किसी एक प्रमाद रूप परिणिति के प्रकट होते ही छट्ठे गुणस्थान में जाता है !
यद्यपि इन छठे और सांतवे गुणस्थान का काल साधारणतः अन्तर्मुहुर्त बतलाया है, किन्तु छठे गुणस्थान से सांतवे गुणस्थान का काल आधा है,
याने,
कि साधु आत्म-चिंतन में लीन रह कर जितनी देर अंतर्मुख रहता है उससे अधिक काल तक वह बहिर्मुख रहता है !!!
यहाँ इतना विशेष रूप से पता चलता है कि जिन साधुओं कि प्रवर्ति निरंतर बहिर्मुखी(खानपान में, विकथाओं में और निद्रा में) रहती है, समझ लीजिये कि वह भावलिंगी साधु नहीं हैं !
नोट :- वर्तमान काल में कोई भी साधु सांतवे गुणस्थान से ऊपर नहीं चढ़ सकता है, क्यूंकि ऊपर चढ़ने के लिए तो योग्य संहनानादि आज हैं और नाही मनुष्यों में उतनी पात्रता ही है !
सांतवे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक का काल परम समाधि का है !
अब आगे सांतवे गुणस्थान के 2 भेद हैं :-
- स्व-स्थान अप्रमत्त गुणस्थान
- सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान
कल हमने पढ़ा था कि साधु छठे-सांतवे गुणस्थान में आता-जाता रहता है, सो अप्रमत्त गुणस्थान के होता है !
कित्नु जो साधु मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय करने के लिए उद्धत होते हैं, सातिशय अप्रमत्त दशा उन्ही के होती है !
उस समय ध्यान अवस्था में ही मोहनीय कर्म के उपशमन या क्षपण के कारण 
- अधः करण 
- अपूर्वकरण, और 
- निवृति करण नाम वाले एक विशेष प्रकार के परिणाम उस जीव में प्रकट होते हैं, जिनके द्वारा वह जीव मोहनीय कर्म का उपशमन या क्षपण करने में समर्थ होता है !
इनमे से अधः करण रूपी विशेष परिणाम सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान याने सांतवे गुणस्थान में ही प्रकट होते हैं !
इन परिणामों के द्वारा वह आगे मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय के लिए उत्साहित होता है !
यह सब सहज होता है, ये परिणाम सहज ही उत्त्पन्न होते हैं !!!
आगे के गुणस्थानों का स्वरुप जानने से पहले या समझ लेना चाहिए कि आंठवे गुणस्थान से 2 श्रेणियाँ शुरू होती हैं :-
- उपशम श्रेणी 
- क्षपक श्रेणी
- उपशम श्रेणी के चार गुणस्थान हैं :- ,,१० और ११वां 
- क्षपक श्रेणी के भी चार गुणस्थान हैं :- ,,१० और १२वां
दूसरी याने क्षपक श्रेणी पर केवल उसी भव से मोक्ष जाने वाला तदभव मोक्षगामी क्षायिक सम्यग्दृष्टि साधु ही चढ़ सकता है !
और 
पहली याने उपशम श्रेणी पर तदभव मोक्षगामी तथा अतदभव मोक्षगामी औपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि दोनों ही प्रकार के जीव चढ़ सकते हैं !
ये भी समझ लेना चाहिए, कि उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाला साधु ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच कर अन्तर्मुहुर्त के लिए मोहनीय कर्म का पूर्ण उपशम करके वीतरागता का अनुभव करने के बाद भी नियम से नीचे गिरता है !
संभल गया तो छठे-सांतवे में वर्ना और भी नीचे जा सकता है !
8 - *अपूर्वकरणः गुणस्थान*
अपूर्व का अर्थ होता है "जो पूर्व में नहीं हुआ हो"औरकरण का अर्थ होता है "परिणाम" ...
सो जिस गुणस्थान में जीव के परिणाम प्रत्येक क्षण में अपूर्व-अपूर्व (जो पहले नहीं बने हो) होते हैं, और प्रत्येक समय उसके परिणामों की विशुद्धि अनन्तगुणी होती जाती है, सो अपूर्वकरणः गुणस्थान है !
इस गुणस्थान में तो किसी कर्म का सम्पूर्ण उपशम होता है और ही संपूर्ण क्षय होता है, किन्तु उसके लिए तैयारी होती है !
इसे "निवृति बादर गुणस्थान" भी कहा है ...
दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय करके जो भी उपशम या क्षपक श्रेणी चढ़ते हैं, उन जीवों के अपूर्व परिणाम होते हैं !
इस गुणस्थान का काम मोहकर्म के उपशमन या क्षपण कि भूमिका तैयार करना है, यद्यपि इस गुणस्थान में मोहकर्म की किसी भी प्रकृति का उपशम या क्षय नहीं होता है

9 - *अनिवृतिकरण गुणस्थान*
आंठवें गुणस्थान में अन्तर्मुहुर्त काल रहकर और अपूर्व-अपूर्व विशुद्धि को प्राप्त करके, विशिष्ठ आत्म-शक्ति का संचय करके यह जीव नौवें गुणस्थान में प्रवेश करता है !
इस गुणस्थान में विवक्षित किसी एक समय में विद्यमान सब जीवों के परिणाम परस्पर में समान होते हैं, उनमे कोई विषमता नहीं पायी जाती है !
आंठवें अपूर्वकरणः गुणस्थान में तो जीवों के परिणाम समान भी होते हैं और असमान भी, किन्तु इस गुणस्थान में सामान ही होते हैं ! परिणाम सदृश होने के कारण ही इसे अनिवृतिकरण गुणस्थान कहते हैं !!!
प्रतिसमय कर्म प्रदेशों की निर्जरा असंख्यात गुना बढ़ जाती है !
आत्म-विशुद्धि निरंतर बढ़ती चलती है !
उपशम श्रेणी वाला जीव इस गुणस्थान में मोहकर्म की एक सूक्ष्म "लोभ" प्रकृति को छोड़ कर शेष सर्व प्रकर्तियों का उपशमन कर देता है,औरक्षपक श्रेणी वाला जीव उन्ही कर्मों का क्षय करके दंसवें गुणस्थान में प्रवेश करता है !
यहाँ इतना विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि क्षपक श्रेणी वाला जीव मोहकर्म की प्रकृतियों के साथ अन्य कर्मों की भी अनेक प्रकृतियों का क्षय करता है !