उत्तम_आकिंचन_धर्म - Printable Version
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उत्तम_आकिंचन_धर्म -
scjain - 09-04-2017
उत्तम_आकिंचन_धर्म
*परिग्रह चौबीस भेद,*
*त्याग करै मुनिराज जी।*
*तिसना भाव उच्छेद,*
*घटती जान घटाइये।।*
*अर्थात -*जीव के साथ सम्पूर्ण परिग्रह को देखा जाए तो उसको २४ तरह से व्यक्त किया जा सकता है, निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैन मुनिराज सभी प्रकार के परीग्रहों से रहित होते हैं। अपने अंदर की तृष्णा को समाप्त करना चाहिए।
२. *उत्तम आकिंचन्य गुण जानों,*
*परिग्रह चिंता दुख ही मानों।*
*फाँस तनक सी तन में सालै,*
*चाह लंगोटी की दुख भालै।।*
*अर्थात -*उत्तम आकिंचन्य गुण को धारण करना चाहिए क्योकिं इसके विपरीत परिग्रह चिंता व दुख का ही कारण होता है। जिस प्रकार शरीर में लगी छोटी सी भी फाँस का दुखद अनुभव पूरे शरीर में होता है उसी प्रकार जीव के पास थोड़ा भी परिग्रह दुख का कारण रहता है। दिगम्बर मुनिराज सभी प्रकार के परिग्रह त्यागी होने के कारण संसार में सबसे अधिक सुखी होते हैं।
३. *भालै न समता सुख कभी नर,*
*बिना मुनि मुद्रा धरै।*
*धनि नगन पर तन-नगन ठाढ़े,*
*सुर असुर पायनि परै।।*
*अर्थात -*मनुष्य कभी भी परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ अवस्था धारण किए बिना सबसे अधिक सुखी हो ही नहीं सकता। नग्न वेश होते हुए भी इंद्र आदि चरणों की वंदना करते है।
*घर माही तृष्ना जो घटावे रुचि नही संसार सो*
*बहु धन बीयर हु भला कहिये लीन पर उपगार सो*
घर मे रहकर जो मनुष्य तृष्ना को कम करते है वह संसार के प्रति अपने आकर्षण को कम करते है।