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जिन सहस्रनाम अर्थसहित अष्ठम अध्याय भाग १ - Printable Version

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जिन सहस्रनाम अर्थसहित अष्ठम अध्याय भाग १ - scjain - 06-04-2018

जिन सहस्रनाम अर्थसहित अष्ठम अध्याय भाग १




बृहन् बृहस्पती र्वाग्मी वाचस्पती रुदारधी:। मनीषी धिषणो धीमान् शेमुषीशो गिरांपति:॥१
७०१. देवोंके गुरु बृहस्पती के भि गुरु या श्रेष्ठ होनेसे "बृहद बृहस्पती" हो। 
७०२. आपकी वाणी अतुलनीय, नय और प्रमाण से युक्त है. आप विलक्षण वक्ता अर्थात"वाग्मीहो। 
७०३. आपका वाणीपर प्रभुत्व है, आपसे विवाद या तर्क मे कोई जीत नही सकता, अथवा आपकी वाणी सदैव सत्य होती है इसलिये "वाचस्पतीहो। 
७०४. आपकी बुध्दी उदार है, आप उपदेश देते हुए समानतासे उदारता से सबके लिए देते है, इसलिये "उदारधी" है। 
७०५. बुध्दीमान होनेसे अथवा सबके हृदय मे वांछित रहनेसे "मनीषीहै। 
७०६. केवलज्ञान धारण करनेवाली आपकी बुध्दी अपार होनेसे "धीषणहै। 
७०७. इसी कारण से आप"धीमान्है। 
७०८. आप"शेमुषीशहो। 
७०९. सब मुख्य तथा गौण भाषाओंके स्वामी होनेसे "गिरांपतिके नामसे भि जाने जाते है। 

नैकरुपो नयोत्तुंगो नैकात्मा नैकधर्मकृत्। अविज्ञेयोऽ प्रतर्क्यात्मा कृतज्ञ: कृतलक्षण:॥ २॥
७१०. अनेकांत के व्याख्याता होनेसे अथवा जन्म, भाषा, पुरुषार्थ, बुध्दी, चारित्र्य, ज्ञान, गुण, सुख के परिवेक्षमेआपके हर के मनमे अनेक रुप होनेसे "नैकरुपहो। 
७११. नयोंका उत्कृष्ट स्वरुप कहके द्रव्यको परिभाषित करनेसे "नयोत्तुंगहो। 
७१२. आपके आत्मा मे अनेक गुण है, सुख है, बल है, ज्ञान है, शांति है इसलिये"नैकात्मा" हो। 
७१३. पदार्थ का अनेकांतसे अनेक धर्म बतानेसे" नैकधर्मकृतहो। 
७१४. साधारण जनोके ज्ञानके अपार होनेसे "अविज्ञेय" हो। 
७१५. आपके स्वरुपमे, वाणीमे, वचन में कोई वितर्क नही चल सकता अर्थात आप तर्कसे परे हो, इसलिये " अप्रतर्क्यात्माहो। 
७१६. आप ज्ञानकृत हो, विशाल हृदय हो, सर्वव्यापी हो, इसलिये "कृतज्ञ" हो। 
७१७. एक हजार आठ सुलक्षणोसे युक्त होनेसे "कृतलक्षणभि कहलाते है। 

ज्ञानगर्भो दयागर्भो रत्नगर्भ: प्रभास्वर:। पद्मगर्भो जगद्गर्भो हेमगर्भ: सुदर्शन:॥३॥
७१८. अंतरंग मे अर्थात आत्मा मे ज्ञान होनेसे अथवा गर्भसे हि तीन ज्ञानके धारी होनेसे "ज्ञानगर्भहो। 
७१९. दयालु होनेसे, करुणामय होनेसे अथवा गर्भ मे आप माता को पीडा ना हो इसलिये हलन चलन नही करते थे इसलिये "दयागर्भहो। 
७२०. रत्नत्रय् रुपी आत्मा होनेसे, आपके गर्भ मे आते हि, आपके पिता के आंगन मे रत्नवर्षा होनेसे "रत्नगर्भहो। 
७२१. आपकी वाणी प्रभावी है, कल्याणकारी है, इसलिये "प्रभास्वरहो। 
७२२. गर्भसे लक्ष्मी प्राप्त होनेसे अथवा आपके गर्भमे आते हि, माता पिता का वैभव बढनेसे "पद्मगर्भ" हो। 
७२३. आपके ज्ञान मे समस्त जगत समाहित है, अथवा आपने जगत् के कल्याण के लिये हि मानो जन्म लिया है, इसलिये "जगद् गर्भ" हो। 
७२४. हिरण्यगर्भ ( जिसके कोई बाह्य लक्षण नही दिखते) होनेसे आप "हेमगर्भहो। 
७२५. आप का दर्शन सुंदर है, अथवा आपने सम्यक पथ दर्शाया है, इसलिये "सुदर्शनभि कहे गये है । 

लक्ष्मीवान्स्त्री दशाध्यक्षो दृढीयानिन ईशिता। मनोहारो मनोज्ञांगो धीरो गम्भीरशासन:॥४॥
७२६. समवशराणादि तथा केवलज्ञान रुप लक्ष्मी के अधिपती होनेसे "लक्ष्मीवान" हो। 
७२७. तेरह प्रकार के उत्तम चारित्र्य के धारी होनेसे अथवा तिनो दशाओंमे (बाल-युवा- वृध्द) एक समान दिखनेसे, लगनेसे, होनेसे "त्रिदशाध्यक्ष" हो। 
७२८. दृढ होनेसे "दृढीयानहो। 
७२९. सबके स्वामी होनेसे "इनहो। 
७३०. महान होनेसे, जेता होनेसे, स्वामी होनेसे "ईशिताहो। 
७३१. भव्य जीवोंके अंत:करण को हरनेवाले "मनोहरहो। 
७३२. आपक समचतुरस्त्र संस्थान है, आपके अंगोपांग मनोहर है, आपने मन को हरनेवाले ज्ञान कि, अंगोकि रचना कि है, इसलिए"मनोज्ञांग" हो। 
७३३. बुध्दी को प्रेरित कर भव्य जीवोंको सुबुध्दी बनानेवाले होनेसे अथवा आपकि वाणी सम्मोहित करनेवाली होनेसे "धीर" हो। 
७३४. आपका शासन सखोल तथा सशक्त होनेसे "गम्भीरशासनके नामसे भी आपको जाना जाता है। 

धर्मयुपो दयायागो धर्मनेमी र्मुनीश्वर:। धर्मचक्रायुधो देव: कर्महा धर्मघोषण:॥५॥
७३५. धर्म के आधार स्तंभ होनेसे अथवा धर्म कि विजय कि यशोगाथा कहनेवाला किर्तीस्तंभ होनेसे "धर्मयुप" हो। 
७३६. जीवोंपर दया करना हि आपका याग अथवा यज्ञ है, इसलिये "दयायागहो। 
७३७. धर्मरथ कि धुरा अथवा परिधी होनेसे "धर्मनेमीहो। 
७३८. मुनीयोंके पुज्य ईश्वर होनेसे "मुनीश्वर" हो। 
७३९. धर्म का चक्र तथा धर्म का चलना हि आपका शस्त्र है, इसलिये "धर्मचक्रायुध" हो। 
७४०. परमानंद मे लीन होनेसे अथवा आत्मा मे स्वभाव मे हि क्रीडा करनेसे " देवहो। 
७४१. कर्मोंके नाशक"कर्महा" हो। 
७४२. धर्म का उपदेश देने से अथवा धर्म के उन्नयन कि घोषणा करनेसे "धर्मघोषण" भि कहे जाते है। 

अमोघवाग मोघाज्ञो निर्मलोऽ मोघशासन:। सुरुप: सुभगस्त्यागी समयज्ञ समाहित:॥ ६॥
७४३. यथार्थ का बोध करानेवाली वाणी होनेसे अथवा निर्दोष, सफल, लक्ष्य तक पहुंचानेवाली वाणी होनेसे "अमोघवाकहो। 
७४४. कभी व्यर्थ ना होनेवाली आज्ञा होनेसे "अमोघाज्ञहो। 
७४५. मलरहित होनेसे "निर्मलहो। 
७४६. कभी व्यर्थ ना होनेवाला, अंतिम लक्ष्य "मोक्ष" तक ले जाने वाला आपका शासन होनेसे "अमोघशासन" हो। 
७४७. आप का रुप सौख्यदायी, आनंदकारी, कल्याणप्रद होनेसे "सुरुप" हो। 
७४८. शुभंकर होनेसे अथवा ज्ञान का अतिशय माहात्म्य होनेसे "सुभग" हो। 
७४९. आपके पादमूल मे समस्त जीव प्राण का अभय तथा ज्ञान पाते है, अर्थात आप अभयदान तथा ज्ञानदान करनेसे आप को "त्यागी" भि कहा जाता है। 
७५०. समय अर्थात आत्मा का और समय अर्थात काल का यथार्थ सकल् ज्ञान होनेसे "समयज्ञ" हो।