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कुन्दकुन्दाचार्य - Printable Version

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कुन्दकुन्दाचार्य - scjain - 01-30-2020

? *कुन्दकुन्दाचार्य का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व*

      *आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले की गुटि तहसील में स्थित कौन्डकुन्दपुर (कौन्डकुन्दी) नामक ग्राम में नगरसेठ गुणकीर्ति की धर्मपरायणा पत्नी शांतला के गर्भ से ईसापूर्व 108 के शार्वरी संवत्सर के माघ मास के शुक्लपक्ष की पंचमी के दिन एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ।* चूँकि गर्भधारण के पूर्व माता शांतला ने स्वप्न में चंद्रमा की चाँदनी देखी थी, सो बालक का नाम *पद्मप्रभ* रखा गया।

      बचपन से ही माता पालने में झुलाते समय अध्यात्म की लोरियाँ सुनाती थी --

*शुद्धोSसि बुद्धोSसि निरंजनोSसि।*
*संसार  माया परिवर्जितोSसि।।*
*आजन्मलीनं  त्यज  मोहनिद्रम।*
*शान्तालसावाक्यमुपयासि पुत्र!*

      माता के मुख से ऐसी लोरियाँ सुनकर बचपन से ही आत्मरुचि और वैराग्य के संस्कार प्रबल हो गये। जब बालक *पद्मप्रभ* ने ग्यारहवें वर्ष में प्रवेश किया, तभी अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता "आचार्य अनंतवीर्य" कौन्डकुन्दी गाँव में पधारे। और बालक "पद्मप्रभ" को देखकर बोले -- *"यह बालक महान् तपस्वी और परम प्रतापी संत होगा। जब तक जैन परम्परा रहेगी, इस काल में उसका नाम अमर रहेगा।"*

          मुनिराज की वाणी सफल हुई और 11 वर्ष की अल्पायु में ही वह बालक  गृह त्यागकर नग्न दिगम्बर श्रमण के रूप में दीक्षित हुआ। दीक्षा के बाद उनका नाम *पद्मनंदी* प्रसिद्ध हुआ। "आचार्य कुन्दकुन्द" ने अपने दीक्षा गुरू के बारे में कोई उल्लेख नहीं किया है। बोधपाहुड़ में मात्र गमकगुरू के रूप मे *श्रुतकेवली भद्रबाहु* को सादर स्मरण किया है। नंदिसंघ की पट्टावलि के अनुसार *आचार्य जिनचन्द्र* इनके दीक्षा गुरू थे।और "आचार्य जयसेन" ने इन्हें "कुमारनन्दि सिद्धांतिदेव" का शिष्य बताया है।

        लगभग 33 वर्ष तक निरन्तर ज्ञानाराधना और दिगम्बर जैन श्रमण की कठिन चर्या का निर्दोष पालन करते हुये ईसापूर्व 64  में मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी, गुरूवार के दिन चतुर्विध संघ ने 44 वर्ष की आयु में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। इस पद पर रहते हुये अनेकों ग्रंथों का निर्माण किया।

        इस बीच उनके जीवन में अनेकों घटनायें घटी। विदेहगमन , चारण ऋद्धि आदि।

*विदेहगमन --*
                    *विक्रम संवत 49 में आचार्य कुन्दकुन्ददेव तमिलनाडू के पोन्नूर पर्वत से पूर्व विदेह क्षेत्र में विद्यमान सीमंधर परमात्मा के दर्शन करने गये थे, और वहाँ सात दिन रुककर साक्षात दिव्यध्वनि का श्रवण किया।*
      'आचार्य देवसेनकृत दर्शनसार' नामक ग्रंथ में स्पष्ट लिखा है कि --

*जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामि- दिव्वणाणेण।*
*ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति।।*

    अर्थात् *"यदि सीमंधर स्वामी से प्राप्त हुये दिव्यज्ञान द्वारा श्री पद्मनंदिनाथ (कुन्दकुन्दाचार्य) ने बोध नहीं दिया होता, तो मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे प्राप्त करते ?"*

        इस कलिकाल में साक्षात सर्वज्ञ परमात्मा के दर्शन कर और दिव्यध्वनि के सार रूप जो ग्रंथ रचना और वस्तु स्वरूप का सूक्ष्म विवेचन किया, आचार्य कुन्दकुन्द ने किया, इसके फलस्वरूप भरत क्षेत्र के लोगों ने उन्हें *"कलिकाल सर्वज्ञ"* के विरुद से विभूषित किया।

*चारण ऋद्धि --*
                      श्रवणबेलगोला में स्थित अनेकों शिलालेखों में "आचार्य कुन्दकुन्द" को चारण ऋद्धि की प्राप्ति एवं उनके द्वारा पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर गमन करने के स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होते हैं।

*वन्द्यो विभुर्भुवि न कैरिह कोण्डकुन्दः,*
*कुन्दप्रभाप्रणयकीर्ति- विभूषिताशः।*
*यश्चारूचारणकराम्बुज-चंचरीक -*
*श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम्।।*

                  (चन्द्रगिरि शिलालेख 54/57)

      अर्थात् "कुन्दपुष्प की प्रभा धारण करने वाली जिनकी कीर्ति के द्वारा दशों दिशायें विभूषित हुई है , जो चारणों के ऋद्धिधारी महामुनियों के सुंदर कर कमलों के भ्रमर थे, और जिन पवित्र आत्मा ने भरत क्षेत्र में श्रुत की प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किसके द्वारा वंद्य नहीं है।"

      इस तरह के और भी कई शिलालेख वहाँ स्थित हैं।

*आचार्य कुन्दकुन्द के पाँच नाम --*

*आचार्य कुण्डकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामतिः।*
*एलाचार्यो गृद्धपिच्छ इति तन्नाम पञ्चधा।।*
                    (विजयनगर दीपस्तम्भ लेख)

1-- *पद्मनंदि* -- ये उनका दीक्षा नाम था।

2-- *कोन्डकुन्द* -- ये नाम उनके गाँव से संबंधित था, क्यों कि *पद्मनंदि* नाम के और भी आचार्य रहे होंगें तो कोनसे पद्मनंदि ? ऐसे प्रश्न के उत्तर स्वरूप कि *कोन्डकुन्दपुर वाले*-- ऐसा प्रचलन रहा होगा।

        इस नाम के बारे में एक आधार और मिलता है -- जयपुर निवासी *कवि बख्तराम शाह ने 'बुद्धि विलास'* नामक ग्रंथ में लिखा है -- *कि गिरनार पर श्वेताम्बरों विवाद के समय जब विपक्षियों ने इनके कमण्डलु में मदिरा भर दी थी, और कहा कि तुम श्रमण होकर भी मदिरा क्यों लिये हुये घूमते हो ? तब आचार्य पद्मनंदि के प्रभाववश चक्रेश्वरी देवी ने उनके कमण्डलु को सुगंधित श्वेत कुन्द-पुष्पों से भर दिया था,* इसी घटना के प्रभाव से इनका *कुन्दकुन्द* नाम प्रसिद्ध हुआ --

*देवि कुन्द-पुसपनितैं  कमंडल भर दियो।*
*तब तैं लागे कहन "मुनि कुन्दकुन्द" हैं।।*
                                      (पद्य 572)

3-- *एलाचार्य --* कहा जाता है कि जब कुन्दकुन्दाचार्य विदेह क्षेत्र गये तो वहाँ तीर्थकर परमात्मा के समवसरण में, पाँच सौ धनुष की काया के सामने इनकी भरत क्षेत्र की बहुत छोटी सी काया ऐसी प्रतीत हुई जैसे हथेली पर इलायची रखी हो, तब से इनका *एलाचार्य* नाम प्रसिद्ध हुआ।

4-- *गृद्धपिच्छ --* कहा जाता है विदेह क्षेत्र से लौटते समय रास्ते में इनकी मयूर पिच्छिका गिर गई,  तब आचार्य कुन्दकुन्द गिद्धपक्षी के पंखों की पिच्छिका लेकर लौटे थे, तब से इनका *गृद्धपिच्छ* नाम  प्रसिद्ध हुआ।

5-- *वक्रग्रीव --* अाचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी लेखनी से 84 पाहुड़ लिखे, कहा जाता है कि लिखते-लिखते आचार्य देव की गर्दन टेढी हो गई थी, सो उनका नाम *वक्रग्रीव* पड़ा।

        लेकिन *आचार्य कुन्दकुन्द* ने *बारसअणुवेक्खा* नामक ग्रंथ में अपना नाम *कुन्दकुन्द* ही लिखा है --

इति णिच्छस-ववहारं जं भणियं कुंदकुंद-मुणिणाहे।
जो भावइ सुद्धमणो सो पावइ परमणिव्वाणं।।

        आचार्य कुन्दकुन्द का व्यक्तित्व जितना महान् था उनका कर्तृत्व भी उतना ही प्रभावशाली था। *तिलोयपण्णत्ति* के कर्ता *आचार्य यतिवृषभ* ने अपने ग्रंथ में *आचार्य कुन्दकुन्द* की गाथाओं को ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया है। *आचार्य उमास्वामी* ने भी *तत्त्वार्थसूत्र* में अनेकों सूत्र कुन्दकुन्द के प्राकृत वचनों के आधार पर ही लिखे हैं। *आचार्य वीरसेन स्वामी* ने भी अनेकों गाथायें *धवला टीका* में ज्यों की त्यों प्रस्तुत की है। परवर्ती अनेकों आचार्यों ने अपनी प्रामाणिकता के लिये "कुन्दकुन्दाचार्य" के वचनों को आप्तवाक्य के रूप में प्रस्तुत किया।
            आचार्य कुन्दकुन्द ने मूल आगम को प्रस्तुत करने के साथ-साथ, तत्कालीन समस्याओं, मिथ्या मान्यताओं पर भी अपनी लेखनी चलाई, जिससे उन्हें *युग का प्रतिष्ठापक या युगप्रवर्तक* भी माना गया।

      *एकत्व विभक्त आत्मा का जैसा वर्णन कुन्दकुन्द ने किया है वैसा समस्त दिगम्बर श्वेताम्बर साहित्य में कहीं नहीं मिलता।* आज जो दिगम्बर परम्परा जीवित है उसका श्रेय आचार्य कुन्दकुन्द और उनके साहित्य को ही जाता है। इसीलिये आज 2000 वर्ष के बाद भी हम अपने आप को कुन्दकुन्द की आम्नाय से जोड़कर गौरवान्वित अनुभव करते हैं।

        इस प्रकार *धर्म, समाज और राष्ट्र को नई दिशा प्रदान करते हुये 95 वर्ष 10 माह 15 दिन की दीर्घायु व्यतीतकर ईसापूर्व 12 में आचार्य कुन्दकुन्द ने समाधिमरण पूर्वक स्वर्गारोहण किया।*

ऐसे महान् आचार्य को मेरा कोटि-कोटि वंदन ?

--डाॅ रंजना जैन दिल्ली