प्रवचनसारः गाथा -21, 22 केवल ज्ञान का स्वरूप -
Manish Jain - 08-03-2022
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -21 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -22 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया।
सो णेव ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहि किरियाहिं // 21 //
अन्वयार्थ- (खलु) वास्तव में (णाणं परिणमदो) ज्ञान रूप से (केवलज्ञान रूप से) परिणमित होते हुए केवली भगवान् के (सव्वदचपज्जाया) सर्व द्रव्य-पर्यायें (पच्चक्खा) प्रत्यक्ष है, (सो) वे (ते) उन्हें (ओग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं) अवग्रहादि क्रियाओं से (णेव विजाणदि) नहीं जानते।
आगे केवलीको अतीन्द्रियज्ञानसे ही सब वस्तुका प्रत्यक्ष होता है, यह कहते हैं-[ज्ञानं परिणममानस्य] केवलज्ञानको परिणमता हुआ जो केवली भगवान् है, उसको [खलु] निश्चयसे [सर्वद्रव्यपर्यायाः ] सब द्रव्य तथा उनकी तीनोंकालकी पर्यायें [प्रत्यक्षाः] प्रत्यक्ष अर्थात् प्रगट हैं / जैसे स्फटिकमणिके अंदर तथा बाहिरमें प्रगट पदार्थ दीखते हैं। उसी तरह भगवानको सब प्रत्यक्ष हैं। [सः] वह केवली भगवान् [तान् ] उन द्रव्यपर्यायोंको [अवग्रहपूर्वाभिः क्रियाभिः ] अवग्रह आदि अर्थात् अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणारूप जो क्रिया हैं, उनसे [नैव विजानाति] नहीं जानता है / सारांश यह है कि-जैसे कर्मोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए ज्ञानवाले, अवग्रह आदि जो मतिज्ञानकी भेदरूप क्रिया हैं, उनसे जानते हैं, वैसे केवली नहीं जानते / क्योंकि उन केवलीभगवानके सब तरफसे कौके पड़दे दूर होजानेके कारण अखंड अनन्त शक्तिसे पूर्ण, आदि अन्त रहित, असाधारण, अपने आप ही प्रगट हुआ केवलज्ञान है, इस कारण एक ही समयमें सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ज्ञानरूपी भूमिमें प्रत्यक्ष झलकते हैं |
गाथा -22 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -23 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
णत्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स /
अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स // 22 //
अन्वयार्थ- (सदा अक्खातीदस्स) जो सदा इन्द्रियातीत (समंतसव्वक्ख-गुण-समिद्धस्स) जो सर्व ओर से इन्द्रिय गुणों से समृद्ध हैं (सयमेव हि णाणजादस्स) और जो स्वयमेव ज्ञानरूप हुए है, उन केवली भगवान् को (किंचि वि) कुछ भी (परोक्खं णत्थि) परोक्ष नहीं है।
आगे इस भगवानके अतीन्द्रियज्ञानरूप परिणमन करनेसे कोई भी वस्तु परोक्ष नहीं है, यह कहते हैं-[अस्य भगवतः] इस केवलीभगवानके [किंचिदपि] कुछ भी पदार्थ [परोक्षं नास्ति] परोक्ष नहीं है / एक ही समय सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको प्रत्यक्ष जानता है, इसलिये परोक्ष नहीं। कैसे हैं ? वे भगवान्
[अक्षातीतस्य ] इन्द्रियोंसे रहित ज्ञानवाले हैं, अर्थात् इन्द्रियें संसारसंबंधी ज्ञानका कारण हैं / और परोक्षरूप मर्यादा लिये पदार्थोंको जानती हैं, इस प्रकारकी भावइंद्रियें भगवानके अब नहीं, इसलिये सत् प्रत्यक्ष स्वरूप जानते हैं। फिर कैसे हैं ? [समन्ततः] सब आत्माके प्रदेशों(अंगों )में
[ सर्वाक्षगुणसमृद्धस्य] सब इंद्रियोंके गुण जो स्पर्श वगैरःको ज्ञान उस कर पूर्ण है, अर्थात् जो एक एक इन्द्रिय एक एक गुणको ही जानती हैं, जैसे आँख रूपको, इस तरहके क्षयोपशमजन्यज्ञानके अभाव होनेपर प्रगट हुए केवलज्ञानसे वे केवलीभगवान् , सब अंगों द्वारा सब स्पर्शादि विषयोंको जानते हैं / फिर कैसे हैं ? [स्वयमेव] अपने आप ही [हि निश्चय कर
[ज्ञानजातस्य] केवलज्ञानको प्राप्त हुए हैं।
भावार्थ-अपने और परवस्तुके प्रकाशनेवाला नाशरहित लौकिकज्ञानसे जुदा ऐसा अतीन्द्रियज्ञान (केवलज्ञान) जब प्रगट हुआ, तब परोक्षपना किस तरह हो सकता है ? (नहीं होता)
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी
RE: प्रवचनसारः गाथा -22, 23 -
sandeep jain - 08-03-2022
Gatha 21
For sure, all substances (dravya) and their modes (paryāya) reflect directly (and simultaneously) in the perfect-knowledge (kevalajñāna) of the Omniscient. The Omniscient knows all substances and their modes directly and simultaneously as he does not rely on the sensory-knowledge that knows substances in stages – apprehension (avagraha) etc.
Explanatory Note: Sensory-knowledge, being indirect, acquires knowledge of substances in four stages: apprehension (avagraha), and retention (dhāraõā). The Omniscient knows all substances (dravya) and their modes (paryāya) directly and simultaneously, without gradation. This is possible because on destruction of karmas that hinder its natural power, the soul, on its own, attains omniscience (kevalajñāna) – infinite, indestructible, perfect knowledge – that knows all substances of the three worlds and the three times directly and simultaneously, in respect of their substance (dravya), place (ksetra), time (kāla), and being (bhāva).
Pravacanasāra Gatha-22
The knowledge of the Omniscient Lord is direct and simultaneous, always beyond the senses. The space-points of his pristine soul are not only inclusive of the power of the senses but, more than that, reflect simultaneously all objects. Certainly, the Omniscient Lord, by own making, is the embodiment of perfect knowledge (kevalajñāna).
Explanatory Note:
The function of knowledge is to know and there is no limit to knowledge. The Omniscient Lord has infinite knowledge and he knows directly, without gradation, every object of-
knowledge (jñeya) in the three worlds and the three times. This all-encompassing and indestructible knowledge is beyond sensory knowledge of the world.
RE: प्रवचनसारः गाथा -21, 22 केवल ज्ञान का स्वरूप -
sumit patni - 08-14-2022
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -20,21
नहीं केवलज्ञानयानके सुख दुख शरीरगत होते ।
क्योंकि इन्द्रियादीत बोधसे सबको एकसाथ जोते
मतिज्ञानपूर्वक क्रमार्जित नहीं काम उनका होता ।
फिर क्यों खाने पोने जैसी आठोंका हो समझोता ॥ ११
गाथा -22,23
नहीं जानने लायक जिनके रहा जरा भी तो बाकी ।
समुपलब्ध हो चुकी सदाके लिए अतीन्द्रिय विद्याकी ॥
ज्ञानमात्र वस्तुतया आत्मा ज्ञान ज्ञेय मित होता है।
ज्ञेय अलोक लोक सब ऐसे सर्वज्ञपनको ढोता है ॥ १२ ॥
गाथा -19,20a, 20,21
सारांश:- कुछ लोगोंका यह प्रश्न हो सकता है कि वीतराग सर्वज्ञ होजाने पर जबतक यह आत्मा शरीरमें विद्यमान रहता है तबतक तो छद्मस्थकी तरह वह भी खाना पीना करता ही होगा? इसी प्रश्नका यहाँ उत्तर दिया गया है। जब भगवान् सर्वज्ञ होगये, सब बातों को युगपत् जानने लगे और किसी भी बातकी चाह नहीं रही तब फिर उन्हें खानेकी क्या आवश्यकता है? खानेका मतलब तो यह है कि भोजनस्वाद जिह्वाके द्वारा लिया जावे।
गाथा -22,23, 24,25
सारांश :- आत्मा गुणी है और ज्ञान उसका गुण एवं ज्ञान और आत्मामें तादात्म्य है। ज्ञान आत्माको छोड़कर कहीं अन्यत्र नहीं रहता है और ज्ञानसे शून्य आत्माका एक भी प्रदेश कभी नहीं होता है। भगवान् आत्माका ज्ञान सम्पूर्ण संसारके सभी पदार्थोंको एक साथ स्पष्ट जानता है। कोई भी पदार्थ उनके ज्ञानसे बाहर नहीं है। वह सम्पूर्ण लोकाकाशके पदार्थोंकी तरह अलोकाकाशको भी जानता है, अतः विषय विषयीके रूपमें वह सर्वगत है। ज्ञान आत्मारूप है किन्तु आत्माके ज्ञानरूप होते हुए भी उसमें और भी गुण पाये जाते हैं, यही बताते हैं