Front Desk Architects and Planners Forum
प्रवचनसारः गाथा -43, 44 ज्ञान ज्ञेय रूप परिणमन कैसे करता है? | - Printable Version

+- Front Desk Architects and Planners Forum (https://frontdesk.co.in/forum)
+-- Forum: जैन धर्मं और दर्शन Jain Dharm Aur Darshan (https://frontdesk.co.in/forum/forumdisplay.php?fid=169)
+--- Forum: Jainism (https://frontdesk.co.in/forum/forumdisplay.php?fid=119)
+--- Thread: प्रवचनसारः गाथा -43, 44 ज्ञान ज्ञेय रूप परिणमन कैसे करता है? | (/showthread.php?tid=3418)



प्रवचनसारः गाथा -43, 44 ज्ञान ज्ञेय रूप परिणमन कैसे करता है? | - Manish Jain - 08-08-2022

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -43
उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया।
तेसु विमूढो रत्तो दुट्ठो वा बंधमणुभवदि // 43 //

अन्वयार्थ- (उदयगदा कम्मंसा) (संसारी जीव के) उदय प्राप्त कर्मांश (ज्ञानावरणादि पद्गल कर्म के भेद) (णियदिणा) नियम से (जिणवरवसहेहिं) जिनवर वृषभों ने (भणिदा) कहे है। (तेसु हि) (जीव) उन कर्मांशों के होने पर, (मुहिदो रत्तो वा दुट्ठो वा) मोही, रागी अथवा द्वेषी होता हुआ (बंधमणुहवदि) बन्ध का अनुभव करता है

आगे कहते हैं, कि ज्ञान बंधका कारण नहीं है, ज्ञेयपदार्थोंमें जो राग द्वेषरूप परिणति है, वही बंधका कारण है—[जिनवरवृषभैः] गणधरादिकोंमें श्रेष्ठ अथवा बड़े ऐसे वीतरागदेवने [उद्यगताः कर्माशाः] उदय अवस्थाको प्राप्त हुए कौके अंश अर्थात् ज्ञानावरणादि भेद [नियत्या निश्चयसे [भणिताः कहे हैं। [तेषु] उन उदयागत कर्मोंमें [हि निश्चयकरके [मूढः] मोही, [रक्तः] रागी [वा] अथवा [दुष्टः] द्वेषी [बन्धं] प्रकृति, स्थिति आदि चार प्रकारके बन्धको [अनुभवति] अनुभव करता है, अर्थात् भोगता है।
भावार्थ-
संसारी सब जीवोंके कर्मका उदय है, परंतु वह उदय बंधका कारण नहीं है / यदि कर्म जनित इष्ट अनिष्ट भावोंमें जीव रागी द्वेषी मोही होकर परिणमता है, तभी बंध होता है। इससे यह बात सिद्ध हुई, कि ज्ञान तथा कर्मके उदयसे उत्पन्न क्रियायें बंधका कारण नहीं हैं, बंधके कारण केवल राग द्वेष मोहभाव हैं, इस कारण ये सब तरहसे त्यागने योग्य हैं|

गाथा -44

ठाणणिसेन्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं।
अरहंताणं काले मायाचारो व्व इस्थीणं // 44 //


अन्वयार्थ- (तेसिं अरहंताणं) उन अरहन्त भगवन्तों के (काले) उस समय (ठाणणिसेज्ज-विहारो) खड़े रहना,  बैठना, बिहार (धम्मुवदेसं च) और धर्मोपदेश (इत्थीणं मायाचारव्व) स्त्रियों के मायाचार की भाँति (णियदओ) स्वाभाविक ही-प्रयत्न बिना ही-होता है।


आगे केवलीके कर्मका उदय है, और वचनादि योग क्रिया भी है, परन्तु उनके रागादि भावोंके अभावसे बंध नहीं होता है[तेषामहंतां] उन अरहंतदेवोंके [काले] कर्मोंके उदयकालमें [स्थाननिषद्याविहाराः] स्थान, आसन, और विहार ये तीन काययोगकी क्रियायें [च] और [धर्मोपदेशः] दिव्यध्वनिसे निश्चय व्यवहार स्वरूप धर्मका उपदेश यह वचनयोगकी क्रिया [स्त्रीणां] स्त्रियोंके स्वाभाविक [मायाचार इव] कुटिल आचरणकी तरह [नियतयः] निश्चित होती हैं / भावार्थ-वीतरागदेवके औदयिकभावोंसे काय, वचन योगकी क्रियायें अवश्य होती हैं, परन्तु उन क्रियाओंमें भगवानका कोई यत्न नहीं है, मोहके अभावसे इच्छाके विना स्वभावसे ही होती हैं। जैसे स्त्रीवेदकर्मके उदयसे स्त्रीके हाव, भाव, विलास विभ्रमादिक स्वभाव ही से होते हैं, उसी प्रकार अरहंतके योगक्रियायें सहज ही होती हैं। तथा जैसे मेघके जलका वरसना, गर्जना, चलना, स्थिर होना, इत्यादि क्रियायें पुरुषके यत्नके विना ही उसके  स्वभावसे होती हैं, उसी प्रकार इच्छाके विना औदयिकभावोंसे अरहंतोंके क्रिया होती हैं / इसी कारण केवलीके बंध नहीं है। रागादिकोंके अभावसे औदयिकक्रिया बंधके फलको नहीं देती


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  गाथा -43,44

मुनि श्री इस गाथा 043 कि माध्यम से बताते हैं कि
* संसारी जीव में कर्मांश का उदय हर समय चलता रहता है।
* जो कर्म सत्व में रहते हैं उनका उदय वर्तमान में चलता रहता है।
* हर जीव के लिए कर्म का उदय बना रहता है और वह उस कर्म फल को अनुभव करता रहता है।वह अपनी हर क्रिया उस कर्म फल के अनुसार करता है।
* कर्म के उदय में मोह/राग/द्वेष करता है और पुनः कर्म बंध करता है।
* ये चक्र सदेव चलता रहता है। यदि जीव ज्ञान से समझे कि कर्म मेरा स्वभाव नहीं तो वह थोड़ा सा उस समय कर्म के बंध से हल्का हो सकता है।
* केवल देशना को सुनने से भी मोहनीय कर्म के फल मंद पड़ जाते हैं।

गाथा संख्या 44 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि अरिहंत भगवान के लिए आहार,विहार,उठना,बैठना आदि क्रियाएँ सहजता से स्वभाव के साथ चलती है। उन्हें इन क्रियाओं के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता है। वे इंद्रियों और मन से रहित होते हैं, इसलिए यह सब वे बुद्धिपूर्वक नहीं करते हैं।




RE: प्रवचनसारः गाथा -43, 44 - sandeep jain - 08-08-2022

Gatha 43 
The Supreme Lord Jina has expounded that certainly the karmas, on fruition, appear in form of their subdivisions. Surely, the soul with delusion (moha), attachment (rāga) and aversion (dvesa), engenders four kinds of bondage on fruition of the karmas.

Explanatory Note: All worldly souls witness fruition of their past bound karmas. Karmas have eight main divisions: knowledge-obscuring (jñānāvaranīya), perception-obscuring
(darśanāvaranīya), feeling-producing (vedanīya), deluding (mohanīya), life-determining (āyuÍ), name-determining or physique-making (nāma), status-determining (gotra), and
obstructive (antarāya). Fruition of the karmas, by itself, is not the cause of bondage of karmas. When the soul entertains delusion (moha), attachment (rāga) and aversion (dveÈa) on fruition of the karmas, it enters into bondage of fresh karmas. Bondage of the karmas is of four kinds: nature or species (prakrti), duration (sthiti), fruition (anubhāga), and quantity of space-points (pradeśa). Both, knowledge and fruition of karmas, do not cause fresh bondage of karmas; only delusion, attachment and aversion that the soul entertains cause fresh bondage of karmas. These – delusion (moha), attachment (rāga) and aversion (dveÈa) – are to be discarded.

Gatha 44
During the period of being the Omniscient Lord – the Arhat (Tīrthańkara, Kevalī, Sarvajña) – bodily activities of standing, sitting and moving, and speech activity of delivering the divine discourse (divyadhvani), take place without effort on his part; these activities are natural to the Arhat, like deceitfulness to women.

Explanatory Note: 
On fruition of auspicious karmas, activities of the body and the speech take place in the Arhat without effort on his part. Since the Arhat entertains no delusion (moha), such activities take place naturally, without desire. As women, by nature, have typical gestures, amorous sentiments and capriciousness, the Arhat, by nature, undertakes activities of the body and the speech. As the clouds, by nature, without human intervention, perform activities of raining, thundering, and moving around, in the same way, activities of the Arhat take place naturally, without volition, on fruition of auspicious karmas.


RE: प्रवचनसारः गाथा -43, 44 ज्ञान ज्ञेय रूप परिणमन कैसे करता है? | - sumit patni - 08-15-2022

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -43,44
उदयागतविधि नियतरूपसे जिनवरके खिर जाता है
मोह रोष या रागभाव से जीव बंध कर पाता है
स्थान गमन धर्मोपदेश ये क्रिया नियत हो जिनजी के ।
बिना यत्न ही देखा जाता हीणपना ज्यों युवती के ॥ २२ ॥


गाथा -43,44
सारांश:- कर्मबंध कारक संसारी आत्मा में मोटी ४ बातें पाई जाती हैं। १ चेतना, २ कर्मोदय, ३ चेष्टा और ४ विकार। इनमें से चेतना अर्थात् ज्ञान तो बंधका कारण हो ही नहीं सकता है क्योंकि ज्ञान तो आत्मा का स्वभाव है। यदि ज्ञान को ही बंधका कारण माना जावे तो फिर ज्ञान तो सिद्ध दशा में भी रहता है। वहाँ भी बंध होना चाहिये।

कर्मोदय और उससे होने वाली चेष्टा ये दोनों भी कर्मबंध के कारण नहीं होते हैं क्योंकि कर्मों का उदय और उनकी चेष्टा- क्रिया चलना ठहरना बोलना वगैरह अरहन्त भगवान के भी पाई जाती हैं जिनसे उनके भी ईर्यापथ आस्रव मात्र होता है। बंध नहीं होता है। बंध तो राग द्वेष मोह भावरूप विकार के द्वारा ही होता है जो अरहन्त अवस्थामें बिलकुल नहीं होता है।
कर्मों का उदय दो प्रकारका होता है। एक तो प्रदेशोदय और दूसरा विपाकोदय प्रदेशोदय बालविवाह की तरह विकारकारक न होकर प्रक्रम मात्र होता है और विपाकोदय वयस्कविवाह की तरह विकारकारक होता है। निरीहा और समीहा के भेदसे चेष्टा भी दो प्रकारकी होती है। हम जब निद्रित अवस्था में कुछ बोलने लगते हैं अथवा हिलते डुलते हैं तब वह हमारी चेष्टा जागृत अवस्थामें होनेवाली चेष्टा के समान इच्छापूर्वक नहीं होती है किन्तु बिना इच्छाके ही होती है।
इसीप्रकार भगवान् अरहन्तके जो चलना और बैठना आदि क्रियाएं होती हैं वे बिना इच्छा के ही होती हैं तथा उनके कर्मों का उदय भी प्रदेशोदय मात्र होता है। जैसे स्त्रियों के युवावस्था में अनायास ही हाव भाव विलास विभ्रमादि चेष्टाएं विकसित होजाती हैं वैसे ही श्री जिन भगवान के तीर्थङ्कर नामकर्मादि के उदय से दिव्यध्वनि होना आदि क्रियायें हुआ करती हैं। ये सब क्रियायें भगवान् के कर्मोदयसे होनेवाली होती हैं परन्तु आगे के लिए कुछ भी बन्धकारक न होकर पूर्व बन्ध के क्षयके के लिए ही होती हैं