प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा -6 द्रव्य से द्रव्यान्तर होना -
Manish Jain - 10-26-2022
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार
गाथा -6 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -108 (आचार्य
प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
दव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा /
सिद्धं तध आगमदो णेच्छदि जो सो हि परसमओ // 6 //
आगे द्रव्योंसे अन्य द्रव्यकी उत्पत्तिका निषेध करते हैं, और द्रव्यसे सत्ताकी जुदाईका निषेध करते हैं-[द्रव्यं] गुणपर्यायरूप वस्तु [स्वभावसिद्धं ] अपने स्वभावसे निष्पन्न है / और वह [सत् इति] सत्तास्वरूप है, ऐसा [जिनाः] जिनभगवान् [तत्त्वतः] स्वरूपसे [समाख्यातवन्तः। भले प्रकार कहते हैं। [यः] जो पुरुष आगमतः1 शास्त्रसे [तथा सिद्धं ] उक्त प्रकार सिद्ध [न इच्छति] नहीं मानता है, [हि] निश्चयकरके [सः] वह [परसमयः] मिथ्यादृष्टि है |
भावार्थ-द्रव्य अनादिनिधन है, वह किसीका कारण पाके उत्पन्न नहीं हुआ है, इस कारण स्वयंसिद्ध है। अपने गुण पर्याय स्वरूपको मूलसाधन अंगीकार करके आप ही सिद्ध है। और जो द्रव्योंसे उत्पन्न होते हैं, वे कोई अन्य द्रव्य नहीं, पर्याय होते हैं; परंतु पर्याय स्थायी नहीं होतेनाशवान होते हैं। जैसे परमाणुओंसे द्वचणुकादि स्कंध तथा जीव पुद्गलसे मनुष्यादि होते हैं / ये सब द्रव्यके पर्याय हैं, कोई नवीन द्रव्य नहीं हैं। इससे सिद्ध हुआ, कि द्रव्य त्रिकालिक स्वयंसिद्ध है, वही सत्ता स्वरूप है / जैसे द्रव्य स्वभावसिद्ध है, वैसे ही सत्ता स्वभावसिद्ध है / परंतु सत्ता द्रव्यसे कोई जुदी वस्तु नहीं है, सत्ता गुण है, और द्रव्य गुणी है / इस सत्ता गुणके संबंधसे द्रव्य 'सत्' कहा जाता है। सत्ता और द्रव्यमें यद्यपि गुणगुणीके भेदसे भेद है, तो भी जैसे दंड और दंडीपुरुषमें भेद है, वैसा भेद नहीं है। भेद दो प्रकारका है-एक प्रदेशभेद और दूसरा गुणगुणीभेद / इनमें से सत्ता और द्रव्यमें प्रदेश मेद तो है नहीं, जैसे कि दंड और दंडीमें होता है, क्योंकि सत्ताके और द्रव्यके जुदा जुदा प्रदेश नहीं हैं, गुणगुणीभेद है; क्योंकि जो द्रव्य है, सो गुण नहीं है, और जो गुण है, सो द्रव्य नहीं है। इस प्रकार संज्ञा संख्या लक्षणादिसे भेद कहते हैं / द्रव्य-सत्तामें सर्वथा भेद नहीं हैं / कथंचित्रकार भेद है, किसी एक प्रकारसे अभेद है। इस भेदाभेदको द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयके भेदसे दिखलाते हैं-जब पर्यायार्थिकनयसे द्रव्यका कथन करते हैं, तब द्रव्य गुणवाला है, यह उसका गुण हैं / जैसे वस्त्र द्रव्य है, यह उसका उज्ज्वलपना गुण है / इस प्रकार गुणगुणी भेद प्रगट होता है। और जब द्रव्यार्थिकनयसे द्रव्यका कथन करते हैं, तब समस्त गुणभेदकी वासना मिट जाती है, एक द्रव्य ही रहता है, गुणगुणी भेद नष्ट हो जाता है / और इस प्रकार भेदके नष्ट होनेसे गुणगुणी भेदरूप ज्ञान भी नष्ट होता है, तथा ज्ञानके नष्ट होनेसे वस्तु अभेदभावसे एकरूप होकर ठहरती है। पर्याय कथनसे जब द्रव्यमें भेद उछलते हैं, तब उसके निमित्तसे भेदरूप ज्ञान प्रगट होता है, और उस भेदरूप ज्ञानके उछलनेसे गुणोंका भेद उछलता है / जिस तरह समुद्रमें उछलते हुए जलके कल्लोल समुद्रसे जुदे नहीं हैं, उसी प्रकार पर्याय कथनसे द्रव्यसे ये भेद जुदे नहीं हैं। इससे सिद्ध हुआ, द्रव्यसे सत्तागुण पृथक् नहीं है, द्रव्य उस स्वरूप ही है / गुणगुणीके भेदसे भेद है, स्वरूपसे भेद नहीं है। जो ऐसा नहीं मानते हैं, वे मिथ्यादृष्टी हैं |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
◼ इस वीडियो में जीवादि द्रव्यों के वर्णन को समझेंगे।
◼ जब कोई पदार्थ अन्य पदार्थ के रूप में हमें परिवर्तित होता हुआ दिखाई देता है तो हमें परिवर्तन उसकी पर्याय के कारण दिखाई देता है। द्रव्य वही रहता है।
◼ सत्ता कभी भी परिवर्तित नही होती है।
◼ इस गाथा में दो मुख्य बातें बताई गई हैं जिस पर विश्वास होने से अनेक बातों का खण्डन जो जाता है।
◼ परसमय का अर्थ है जिसे द्रव्य, गुण पर्यायों की जानकारी नही है जो सत् रूप में हर उस पदार्थ को नहीं मानता जिसका अस्तित्व उसके साथ बना हुआ है तो वह भी परसमय वाला कहलाता है।
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा -6 द्रव्य से द्रव्यान्तर होना -
sumit patni - 10-26-2022
The substance (dravya) – with its qualities (guna) and modes (paryāya) – rests in own nature (svabhāvasiddha). Lord Jina, the expounder of the Reality, has said that existence (sat) is the nature of the substance (dravya). He, who does not have faith in this Reality, is engaged in impure-soul nature (parasamaya); he is a wrong-believer (mithyādrasti).
Explanatory Note:
The substance (dravya) has existence for eternity and it is not the result of any external entity. It rests in own-nature (svabhāvasiddha), with its qualities (guna) and modes (paryāya). Anything produced out of the substance (dravya) is not a new substance but a new mode (paryāya) of the same substance. Modes (paryāya) are transient. Combination of atoms forms molecules and combination of the soul (jīva) and the matter (pudgala) forms beings like humans. The substance (dravya) exists in the three times, with its inherent power-to-exist (sattā) or the quality of existence. Both, the substance (dravya) and the power-to-exist (sattā), have own nature. But, the power-to-exist (sattā) does not have an identity separate from the substance (dravya); the power-to-exist (sattā) is the quality (guõa), and the substance (dravya) is the possessor-of-quality (guõī). Because of this quality (guna) of the power-to-exist (sattā), the substance (dravya) has existence (sat). Though there is difference of guõaguõī in the substance (dravya) and its power-to-exist (sattā), these are not different as in case of the stick-holder (dańdī) and the stick (dańda). Differences are of two kinds, difference of space-points (pradeśabheda) and difference of quality and its possessor(gunagunībheda). The substance (dravya) and its power-to-exist (sattā) have the gunagunībheda and not the pradeśabheda; both exist in the same space-points. The gunagunībheda highlights differences of designation, number or mark; it does not indicate difference as in case of the stick-holder (dańdī) and the stick (dańda). This is further explained with regard to the standpoint-of- substance (dravyārthika naya) and the standpoint-of-mode (paryāyārthika naya). The standpoint-of-mode (paryāyārthika naya) highlights the guõaguõībheda, as the cloth and its brightness. The standpoint-of-substance (dravyārthika naya) does not highlight the gunagunībheda; in this standpoint, insistence on the qualities (guna) vanishes and the substance (dravya), as a whole, remains. The quality (guna) of power-to-exist (sattā) is not separate from the substance (dravya); it is the nature of the substance (dravya). Those who do not accept this are wrongbelievers (mithyādrsti).
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा -6 द्रव्य से द्रव्यान्तर होना -
sandeep jain - 10-26-2022
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -5,6
निजनिजरूपयुत द्रव्योंको सबको सदा सुहाया है।
धर्मोपदेशदायक जिनको सल्लक्षण गाया है ॥
सहजसिद्ध उस लक्षणमुक्त वस्तुत्वको जो न गहे ।
वही परसमय होता है ऐसा जिनशासन सदा कहे ॥ ३ ॥
सारांश:- जीव चेतनावान् है और पुद्गल रूपादिमान् है इसप्रकार प्रत्येक द्रव्य अपनी अपनी विशेषताको लिये हुए होनेसे एक दूसरेसे भिन्न है। फिर भी अस्तित्व सामान्यकी अपेक्षासे सब द्रव्य एक होजाते हैं। प्रत्येक पदार्थके अन्य गुण जैसे और द्रव्योंसे हटकरके उसके उसीमें रहते हैं वैसेही प्रत्येक पदार्थका अस्तित्व सामान्य भी उसका उसीमें रहता है। ऐसा कभी नहीं है कि अस्तित्व बिछी हुई जाजमकी तरह या फैले हुए दीपकके प्रकाशकी तरह अखण्ड एक चीज हो और वहाँ पर बैठे हुए मनुष्यादिकी तरह सब पदार्थ हों जो उस सत्ता सामान्यको स्वीकार किये हुए उससे पृथक् हों। यह अवश्य है कि जैसा एक द्रव्यका अस्तित्व है वैसे ही दूसरे द्रव्यका भी है। जैसे एक मनुष्य, मनुष्य है वैसे ही दूसरा मनुष्य भी मनुष्य है।
इस समानताको लेकर ही सब द्रव्य एक और उनकी सत्ता भी एक कही जाती है, जो अस्तित्वसामान्य है अर्थात् यह भी है और यह भी है। इसप्रकारके अनुगत विचारके द्वारा सब पदार्थगत ठहरती है। अन्यथा सब पदार्थ अपनी अपनी सत्ता भिन्न भिन्न रखते हैं। यह बात दूसरी है कि कोई भी पदार्थ सत्ताविहीन न तो कभी हुआ है, न है ही और न होगा ही क्योंकि सत्ता पदार्थका स्वभाव है। जो सत्ताविहीन है, वह पदार्थ ही नहीं है, जैसे वंध्या पुत्र। इस बातको नहीं मानकर और तरहसे माननेवाला मिध्यादृष्टि है, वह भूल करता है, सही रास्ते पर नहीं है। इसीका समर्थन आगे और भी किया जाता है