प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 23 सप्तभंगी-जैन दर्शन का अनेकान्त दर्शन -
Manish Jain - 12-17-2022
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार
गाथा -23 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -125 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
अत्थि त्ति य णथि त्ति य हवदि अवत्तव्यमिदि पुणो दब्वं ।
पज्जायेण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ॥ २३ ॥
अब सब तरहके विरोधोंको दूर करनेवाली सप्तभङ्गी वाणीको कहते हैं-[द्रव्यं] जो वस्तु है, वह [केनचित्पर्यायेण] किसी एक पर्यायसे [अस्तीति ] अस्तिरूप [भवति] है, [च] और किसी एक पर्यायसे [नास्तीति] वही द्रव्य नास्तिरूप है, [च] तथा [अवक्तव्यं इति] किसी एक प्रकारसे वचनगोचर नहीं है, [तु पुनः] और [तत् उभयं] किसी एक पर्यायसे वही द्रव्य अस्तिनास्तिरूप है, [वा] अथवा किसी एक पर्यायसे [अन्यत्] अन्य तीन भंगस्वरूप [आदिष्टं] कहा गया है। भावार्थ-द्रव्यकी सिद्धि सप्तभंगोंसे होती है, वे इस प्रकार हैं-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव, इस तरह अपने चतुष्टयकी अपेक्षा द्रव्य अस्तिरूप है १, परद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा नास्तिरूप है २, एक कालमें 'अस्ति नास्ति' कह नहीं सकते, इस कारण वह अवक्तव्य है ३, क्रमसे वचनद्वारा अस्तिनास्तिरूप है ४, तथा द्रव्यमें स्यात् अस्त्यवक्तव्य चौथा भंग है, क्योंकि किसी एक प्रकार स्वचतुष्टयसे अस्तिरूप होता हुआ भी एक ही कालमें स्वपरचतुष्टयसे वचनद्वारा कहा नहीं जाता ५, और कथंचित् प्रकार परचतुष्टयसे नास्तिरूप हुआ भी एक ही समय स्वपरचतुष्टयकर वचनगोचर न होनेसे स्यान्नास्त्यवक्तव्य है ६, और किसी एक प्रकार स्वरूपसे अस्तिरूप-पररूपसे नास्तिरूप होता हुआ भी एक ही समयमें स्वपररूपकर वचनसे कह नहीं सकते, इस कारण स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्य भंगरूप है ७॥ इस प्रकार अनंतगुणात्मक द्रव्य सप्तभंगसे सिद्ध हुआ । विधिनिषेधकी मुख्यता-गौणता करके यह सप्तभंगी वाणी 'स्यात्' पदरूप सत्यमंत्रसे एकांतरूप खोटे नयरूपी विष-मोहको दूर करती है
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
पर्याय के वश किसी वह द्रव्य भी है , है , है न , है उभय , शब्द अतीत भी है।
औ शेष भंग मय भी वह है कहाता , ऐसा कथंचित् वही सबमें सुहाता ॥
अन्वयार्थ - ( दवं ) द्रव्य ( केण वि पज्जाएण दू ) किसी पर्याय से तो ( अत्थि त्ति य ) ‘ अस्ति ' ( णत्थि त्ति य ) और किसी पर्याय से ‘ नास्ति ' (पुणो) और (अवत्तव्वमिदि हवदि) किसी पर्याय से ‘ अवक्तव्य ' ( तदुभयं ) और किसी पर्याय से है ,‘ अस्ति - नास्ति ' (दोनों) (वा) अथवा ( अण्णं आदिई ) किसी पर्याय से अन्य तीन भंग रूप कहा गया है ।
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 23 सप्तभंगी-जैन दर्शन का अनेकान्त दर्शन -
Manish Jain - 12-17-2022
सप्तभंगी- जैन दर्श न का अनेकान्त दर्श न रूप प्रा ण
अब यहा ँ पर जो द्रव्यार् थिक नय और पर्यार् थिक नयों के माध्य म से हर द्रव्य के स्व रूप का यथा र्थ वर्ण न किया था , उसी में द्रव्य की अनेक पर्याय ें जो हमें दिखाई देती हैं और उन अनेक पर्याय ों को हम कि तने अधि कतम भेदों के रूप में या भंगों के रूप में जान सकते हैं, उसको यहा ँ बताया है। इस गाथा को, सप्त भंगी को समझाने वा ली गाथा कहा जाता है। जो जैन दर्श न का अनेकान्त दर्श न रूप प्रा ण है उस अनेकान्त दर्श नमय स्या द्वा द नय के माध्य म से वस्तु की व्यवस्था बनती है और उसी में ये सप्त भंग बनते हैं। ये चीजें यथा र्थ रूप से वस्तु को समझने के लि ए आवश्यक हैं। इसलि ए पहले तो ये जानना चाहि ए कि हर वस्तु अनेक धर्मा त्मक है, इसी को कहते हैं- अनेकान्त धर्म रूप हर पदार्थ। पदार्थ या नी कोई भी पदार्थ चाह े वो जीव रूप हो, अजीव रूप हो, हर पदार्थ अनेक धर् मों के साथ चलता है। इसलि ए अनेकान्त धर्म का मतलब होता है ‘न एकः धर्मः यस्मिन् वि द्यते स अनेकान्त:’ एक धर्म जिस में नहीं है, एक प्रकार का स्व भाव जिसमें नहीं है। धर्म माने क्या आया ? स्व भाव , वस्तु का गुण, धर्म , ये सब एकार्थवा ची होते हैं। धर्म कहने का मतलब यह नहीं समझ लेना जो हम धर्म कर रहे हैं, वह धर्म है। धर्म करने का मतलब वस्तु जो अपने अन्दर स्व भाव को धारण करता है, जो वस्तु अपने अन्दर अनेक गुणों को धारण करता है, वह ी वस्तु का धर्म कहलाता है। जैसे अग् नि उष्णता धारण करती है, तो उष्णता अग् नि का धर्म हो गया । जल तरलता को धारण करता है, तो तरल रूप होना उसका धर्म हो गया । जीव चैतन्य भाव को धारण करता है, जानने-देखने की शक्तिय ों को धारण करता है, तो ये सब उसके धर्म हो गए। ऐसे ही हर पदार्थ अनेक धर्म वा ला है मतलब अनेक स्व भाव वा ला है। उसके गुण धर्म अनेक रूप के होते हैं, यहा ँ तक कि अनन्त धर्मा त्मक भी कहा जाता है।
पदार्थ के अनेक गुणधर्मों के कहने की पद्धति का नाम स्याद्वाद
हर पदार्थ में कि तने धर्म हैं? अनेक भी हैं और उन अनेकों को अनन्त भी कहा जाता है। एक नहीं है, इसका नाम है- अनेक। अनेक धर्मा त्मक जो पदार्थ हैं, उस पदार्थ को जब हम समझाते हैं या जानते हैं और उसी को जब हम कहने की चेष्टा करते हैं तो उस पदार्थ को जो कहने की शैली होती है, उसको स्या द्वा द शैली कहा जाता है। अक्सर लोग पूछते हैं, अनेकान्त, स्या द्वा द, सप्त भंगी, ये क्या कहलाता है? अभी क्रम से इसी का वर्ण न सामने आ रहा है। अनेकान्त तो पदार्थ व्यवस्था हो गई; अनेक धर्मा त्मक। प्रत्ये क पदार्थ कैसा है? अनेकान्त स्व रूप है। वस्तु कैसी है? अनेकान्त स्व रूप है। हर धर्म को वह धारण करनेवा ला है और इस अनेकान्तरूप धर्म के साथ में जब हम कि सी एक धर्म को, एक गुण को, कि सी एक स्व भाव को, जब हम कहते हैं तो अन्य स्व भाव उसमें नहीं कहे जाते हैं। एक को कहेंगे तो दूसरा कहने में नहीं आएगा। जिसको हम कहेंगे वो होगा मुख्य और जो नहीं कहने में आ रहे वे सब हो गए गौण। अतः ये मुख्य और गौण को बताने के लि ए एक स्या द शब्द आता है। स्या द शब्द जो आप स्या द्वा द में सुनते हैं। स्या द् का मतलब हुआ जो हम कहना चाह रहे हैं वह तो है- मुख्य और जो हमने नही कहा है वह सब है- गौण। स्या द के साथ में जब हम कि सी भी धर्म को कहते हैं तो वह इस बात को बताने वा ला होता है कि इसमें अभी जो बताया जा रहा है, इस धर्म की तो मुख्यता है बाकी और भी हैं, नि षेध नहीं है। समझ आ रहा है न? जैसे अग् नि में उष्णता रूप ही धर्म है, ऐसा एक ही धर्म नहीं है और भी धर्म हैं। अस्तित्व रूप भी है, अग् नि की उष्णता जलाने का ही काम करती है, ऐसा भी नहीं है, पकाने का भी काम करती है। अनेक तरह के उसमें गुण धर्म हैं, वे हम एक साथ नहीं कह सकते हैं। तो हर पदार्थ का जो एक गुण धर्म कहने के लि ए हमें जो पद्धति अपनानी पड़ती है उसको कहते हैं- स्या द्वा द। जब हमने स्या द्वा द कहा तो इसका मतलब क्या हो गया ? स्या द् के साथ हम वा द कर रहे हैं। वा द माने कह रहे हैं, कथन कर रहे हैं। स्या द् के साथ वा द करने का मतलब यह हो गया कि हम कि सी भी पदार्थ को कह रहे हैं तो कि सी अपेक्षा से कह रहे हैं। उसके गुणधर्म को हम कि सी अपेक्षा से बता रहे हैं। ये स्या द् शब्द अपने आप में कथञ्चि त् का प्रतीक हो जाता है। स्या द् माने क्या हो गया ? कथञ्चि त्; वस्तु कथञ्चि त् ऐसी भी है और कथञ्चि त् ऐसी भी है। इस तरह से जो वस्तु की व्यवस्था को नि रूपि त किया जाता है, कहा जाता है, उसको स्या द्वा द शैली कहा जाता है। दिमाग में यह बात रहनी चाहि ए की हर पदार्थ अनेक धर् मों वा ला है और एक-एक धर्म को कहने के लि ए हम जो शैली अपनाते हैं उसका नाम है- स्या द्वा द शैली। स्या द्वा द तो हो गई धर्म को कहने की पद्धति और वस्तु हो गई अनेक धर्म रूप। इसलि ए अनेकान्त दर्श न कहा जाता है, जैन दर्श न को क्या कहते हैं? अनेकान्त दर्श न क्योंकि जैन दर्श न की ये पहचान है कि अनेक धर् मों वा ले पदार्थ को वो बताता है। एकान्त रूप से वस्तु को एक रूप ही नहीं मानता है अनेक धर्म रूप मानता है, अनेक स्व भाव रूप मानता है।
पर्या य बदलती चली जाती है, द्रव्य एक ही बना रहता है
जैसे पि छले दिनों में आपको बताया , वह एक भी है और अनेक भी है। है भी है और नहीं भी है। द्रव्य से वह ी है और पर्याय से भि न्न हो गया , फिर भि न्न हो गया , फिर भि न्न हो गया , फिर भि न्न हो गया , फिर अलग-अलग हो गया । पर्याय बदलती चली जा रही हैं और द्रव्य एक ही बना है। एक भी रहता है, अनेक भी रहता है, एक के साथ भि न्नता आ गई। ये जो विपरीतता का वर्ण न करने वा ली हमारी जो स्या द्वा द पद्धति है, इसी को यहा ँ पर बताया जा रहा है कि पर्याय ें या कोई भी धर्म जब हम कि सी भी रूप में कहते हैं तो उसके सात तरीके हो जाते हैं। अब जैसे अनेक धर्म हैं लेकि न एक धर्म को हम सात तरीके से समझ सकते हैं। या यूँ कहे कि जब हम एक धर्म की बात कहेंगे कि वस्तु ऐसी है माने हमने कहा वस्तु है, तो उसको कहेंगे ‘स्या द अस्ति एव’ माने वस्तु है ही। क्या कहा हमने? ‘स्या द अस्ति एव’ माने वस्तु अस्ति है। अस्ति माने है- उसका existence है। जैसे ही हमने कहा कि पदार्थ है, तो है। कहते ही आपके सामने सात तरह के question आ सकते हैं, इससे ज्या दा नहीं आएँगे। सात तरह के आपके मन में विचार आ सकते हैं, इससे ज्या दा नहीं आएँगे। उन सब विचारों को पकड़कर जो हमें कहने की पद्धति बताई जाती है कि आप सात तरीके से सोच सकते हो, सात तरीके से आपका ज्ञा न काम कर सकता है, उसी का नाम है- सप्त भंग। समझ आ रहा है? उसको क्या बोलते हैं? सप्त भंग माने सात प्रकार के उसके भंग बन जाते हैं। वह ी सात भंग यहा ँ पर इस गाथा में लि खे हुए हैं।
सप्तभंग- कथन की सात पद्धति
‘अत्थित् ति य’ माने अस्ति है। द्रव्य कैसा है? अस्ति रूपी है। नीचे जो शब्द लि खा है ‘पज्जा एण दु केण वि ’ माने कि सी भी पर्याय से वह अस्ति रूप है। ‘णत्थि त् ति य’ वह ी नास्ति रूप भी है, ‘य हवदि अवत्त व्वमिदि ’ और वह ी अवक्तव्य रूप भी है। अवक्तव्य कहते हैं- जो कहने में न आए। जब हम दोनों धर् मों को एक साथ कहना चाह ेंगे तो एक साथ कहने में नहीं आता, इसको बोलते हैं- अवक्तव्य। जो अस्ति है, वह नास्ति भी है और जो अस्ति-नास्ति दोनों को एक साथ कहने में नहीं आना, इसलि ए वो क्या है? अवक्तव्य, अनिर्व चनीय, अवाच्य। जिसको हम कह नहीं सकते कि वस्तु आखि र है कैसी? ये भी उसमें विचार आ जाता है, तीसरा भंग ये हो जाता है। फिर तदुभयम माने वो दोनों रूप भी है, जो अन्त के पद में लि खा है अस्ति भी है, नास्ति भी है, तो जब क्रम-क्रम से इसका वर्ण न करते हैं तो अस्ति और नास्ति दोनों रूप भी हो गया है। तदुभय ये चौथा भंग हो गया । फिर इसी के साथ में आदिष्ट कर लेना अन्य भंगों को। माने अस्ति के साथ में अवक्तव्य जोड़ करके एक भंग बनाना अस्ति अवक्तव्य हो जाएगा। नास्ति के साथ में अवक्तव्य जोड़ना तो नास्ति अवक्तव्य हो जाएगा और फिर उवय के साथ में अवक्तव्य जोड़ना तो अस्ति नास्ति अवक्तव्य हो जाएगा। तो सात भंग पहले लि खना और सुनना सीख लो। हमने कहा वस्तु है, अस्ति रूप अगर हम कि सी धर्म की व्याख्या कर रहे हैं तो उसको हम सात तरीके से कह सकते हैं और सात तरीके से ही सोच सकते हैं। स्या द-अस्ति, स्या द-नास्ति, स्या द-अवक्तव्य और स्या द-अस्ति-नास्ति ये चार हो गए और तीन जो हैं अस्ति, नास्ति और अस्ति-नास्ति को अवक्तव्य के साथ में मि लाने से बन जाते हैं। माने स्या द-अस्ति-अवक्तव्य ये हो गया पाँचवा । स्या द-नास्ति-अवक्तव्य ये हो गए छटवा ँ और स्या द-अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य ये हो गया सातवा ँ। क्रम से समझने के लि ए हमें इसका क्रम इस रूप से बनाना चाहि ए यूँ कि ये गाथा है इसलि ए गाथा में अवक्तव्य को पहले लि ख दिया है बाकी पहले हम अगर ऐसे लें स्या द-अस्ति, स्या द-नास्ति, स्या द-अस्ति-नास्ति। ठीक है न। ये तीन ले लि ए पहले, फिर स्या द-अवक्तव्य ये चौथा हो गया ,अब अवक्तव्य के साथ ऊपर वा ले तीनों भंगों को मि ला दो। स्या द-अस्ति-अवक्तव्य, स्या द-नास्ति-अवक्तव्य, स्या द-अस्ति नास्ति-अवक्तव्य तो ये सात भेद आसानी से समझ में आ जाते हैं। ये कहलाता है- सप्त भंग।
सप्तभंग की वि शेषताएँ
(1) द्रव्य अस्ति स्वरूप है- यानि स्या द अस्ति
इस सप्त भंगी की बड़ी विशेषताएँ हैं। क्या विशेषताएँ हैं? कोई भी पदार्थ को कहने के लि ए जब हम तैया र होते हैं तो उसके सामने सात प्रकार के प्रश्न खड़े हो सकते हैं आपको पता नहीं रहता है। हमने कहा , वस्तु कथञ्चि त् है, तो वह है, हमने कथञ्चि त् लगाया तो कथञ्चि त् कि स अपेक्षा से है? तो वहा ँ पर आपको अपेक्षा बतानी पड़ेगी। वस्तु कि स अपेक्षा से है? आचार्य कहते हैं वस्तु स्व रूप की अपेक्षा से है। क्या कहा ? अपने स्व रूप की अपेक्षा से है। माने अपना स्व -रूप का मतलब हो गया स्व -द्रव्य, स्व -क्षेत्र , स्व -काल, स्व -भाव की अपेक्षा से पदार्थ है, वस्तु है। इसको क्या कहा ? स्या द अस्ति। अस्ति क्यों हो गई? स्व -रूप की अपेक्षा से हर पदार्थ है।
(2) द्रव्य का नास्ति रूप धर्म
फिर कहा स्या द नास्ति। वह ी वस्तु नहीं है, तो कि स अपेक्षा से नहीं है? पर द्रव्य की अपेक्षा, पर-क्षेत्र , पर-काल, पर-भाव यानि पर-स्व रूप की अपेक्षा से नहीं है। हर पदार्थ स्व -रूप की अपेक्षा से होता है और पर-रूप की अपेक्षा से नहीं होता। अब आप कहोगे इसमें क्या बात हो गई? अब देखो इसमें कि तनी बड़ी विशेषता आ गई। जब हमने कह दिया कि हर पदार्थ जैसे कि मान लो ये पुस्त क है। य ग्रन्थ है, इसका अस्तित्व है यह अस्ति रूप है। अपने स्व -रूप की अपेक्षा से यह ग्रन्थ है। फिर हमने कहा यह ग्रन्थ नहीं है- दूसरे ग्रन्थ की अपेक्षा से, इस घड़ी की अपेक्षा से, इस माइक की अपेक्षा से, इस कपड़े की अपेक्षा से, इस द्रव्य की अपेक्षा से यह नहीं है। इसने क्या किया ? नास्ति धर्म ने अन्य द्रव्यों को इसमें मि लने से रोका है नहीं तो सब घटपट हो जाता, यह सब एक ही हो जाता। क्या समझ आ रहा है? अस्ति कहने से वस्तु का स्व रूप बना और नास्ति कहने से वो दूसरों को अपने में नहीं रखेगा, दूसरों को नकारेगा, मैं यह नहीं हूँ। जैसे मैं हूँ, मैं तो मैं हूँ लेकि न तुम मैं नहीं हूँ, तुम भी मैं नहीं हूँ। ये क्यों नहीं हूँ मैं, ये भी हमारे अन्दर एक धर्म है, एक स्व भाव है, इसको कहा जाता है- नास्ति स्व भाव । यूँ ही नहीं है ये भी है, तो अपनी अपेक्षा से हर कोई द्रव्य होता है। आप बोलते हैं न अपने लि ए मैं हूँ, तुम्हा री तुम जानो। मतलब मैं अपने स्व रूप से हूँ, अपने ज्ञा न से हूँ, अपने द्रव्य-क्षेत्र -काल-भाव से हूँ तो वह हो गया अपने स्व रूप की अपेक्षा हर पदार्थ का अस्तित्व होता है और फिर जब मैं अपने अस्तित्व को धारण कर रहा हूँ तो मेरा अस्तित्व जो है वह दूसरे में मि ला हुआ नहीं है। मेरा अस्तित्व मेरा ही है, दूसरे से भि न्न है, तो दूसरे से भि न्न कि स कारण हो रहा है? मेरे अन्दर जो नास्ति धर्म है, वह आपको मुझसे अलग ही रखेगा, कभी नहीं मि लाएगा।
स्वरूप की अपेक्षा से हर द्रव्य है और पर स्वरूप की अपेक्षा से वह द्रव्य नहीं है
इसीलि ए एक पदार्थ में कभी दूसरा पदार्थ मि ल नहीं सकता। परमाणु मि ल जाएँगे, स्कन्ध बन जाएगा लेकि न फिर भी परमाणु तो परमाणु ही कहलाएँगे। एक जीव में दूसरा जीव कभी मि ल नहीं सकता है। जो पदार्थ जिस रूप में अस्ति के साथ में है वह उस रूप में अस्ति के साथ है, अन्य पदार्थों के साथ वह नास्ति रूप है इसलि ए पर-द्रव्य की अपेक्षा से हर पदार्थ नास्ति रूप होता है और स्व -स्व रूप की अपेक्षा से हर पदार्थ अस्ति रूप होता है। पर-रूप की अपेक्षा से नास्ति रूप। मैं हूँ, कि स अपेक्षा से? अपने स्व -स्व रूप की अपेक्षा से। आप हैं, कि स की अपेक्षा से? आप अपने स्व -स्व रूप की अपेक्षा से। आप देखो! इसमें कि तनी अच्छी व्यवस्था बनती है। आपका अपना द्रव्य है- स्व -द्रव्य इसको स्व -चतुष्टय कहते हैं, स्व -द्रव्य, स्व -क्षेत्र , स्व -काल और स्व -भाव । इसी को स्व -स्व रूप कहते हैं, स्व रूप कहते हैं। इन चारों के मि लने को क्या बोलते हैं? स्व रूप। अपने स्व -स्व रूप की अपेक्षा से हर द्रव्य है और पर-स्व रूप की अपेक्षा से वह द्रव्य नहीं है। कि तनी भी धातु की प्रति मा बना लो, प्रति मा में धातुएँ भी अगर आप अलग-अलग देखोगे। आपने पूछा है कि अष्ट धातु की प्रति मा है, तो वह एक कही जाएगी कि अनेक कही जाएगी? स्व -स्व रूप उनका भी देखो तो क्या हो गया ? अनेक चीजें मि लकर एक पर्याय बन गई। अब एक पर्याय बनी तो हमने क्या कहा ? यह एक प्रति मा बन गई। अब वह प्रति मा अपने स्व रूप की अपेक्षा से है, अन्य प्रति मा की अपेक्षा से नहीं है। जब हमने एक पर्याय की दृष्टि से दूसरी पर्याय को भि न्न रूप देखा तो अभी हम कि सको अस्तित्व स्वी कार कर रहे हैं? आप दोनों बातें एक साथ मत बोलो। आपको धातु का अस्तित्व मानना है कि प्रति मा का? धातु में अस्ति-नास्ति घटित करना है कि प्रति मा में? पहले प्रश्न स्पष्ट रखो। समझ आ रहा है? तो धातु में है, तो प्रति मा की बात मत करो। हा ँ, अष्टधातु हैं तो आपको अष्टधातु में जो प्रति मा है, उसमें हर एक धातु आपको अस्ति रूप में मि लेगी। जो भी उसमें आठ धातुएँ मि ली हैं वो हर एक धातु उसमें अस्ति रूप में है। और एक धातु दूसरी धातु में मि ली तो है लेकि न एक धातु का जो अस्तित्व है वो उसका अपना स्व -स्व रूप की अपेक्षा से अस्तित्व उसमें बना हुआ है। अन्य धातु का अस्तित्व उसमें नहीं आया है, वह पर-स्व रूप की अपेक्षा से उसमें नहीं हैं।
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 23 सप्तभंगी-जैन दर्शन का अनेकान्त दर्शन -
Manish Jain - 12-17-2022
पदार्थ के मुख्य और गौण की व्यवस्था
हमने mixture तो बना लिया लेकि न अगर हम उस धातु की अपेक्षा से देखेंगे तो आपके लि ए जब कभी भी फिर धातुओं को उसमें से उसको नापना पड़ जाए, कि सी सुनार के पास फिर ले जाओ कि भाई इसमें कि तना सोना है, कि तनी चाँदी है, कि तना काँसा मि ला है, आपको सब बता देगा कि नहीं? सब को अलग-अलग कर देगा। सबका अस्तित्व अलग-अलग हुआ कि नहीं? स्या द-अस्ति, स्या द-नास्ति। हर पदार्थ अपने स्व रूप की अपेक्षा से रहेगा। धातु की अपेक्षा से देखोगे तो हर metal अपने आप को अलग अपना अस्तित्व बनाए हुए है। अगर उसका परिवर्त न भी होगा तो उसका परिवर्त न कि सी न कि सी परमाणु के रूप में, कि सी न कि सी रंग के रूप में हो गया लेकि न जो परमाणु है उनका अस्तित्व तो नहीं मि टेगा? ऐसी भी कुछ धातु हो सकती हैं, जो दूसरी धातुओं को अपने में खा जाती है। जैसे पारा होता है, वह सोने को खा जाता है। लेकि न फिर भी सोने के जो परमाणु हैं जो द्रव्य है, उसका अस्तित्व उसमें रहता है, मि ट नहीं जाता है। आपको दिखेगा, पारे में हम सोना मि लाए जा रहे हैं वह सब खाता जा रहा है। कुछ दिख ही नहीं रहा है, वह उसी में मि लता जा रहा है लेकि न उसका अस्तित्व कभी भी मि ट नहीं सकता। यह बात अलग है, कुछ चीजें उड़ गई वा ष्प-रूप हो गई। जैसे मान लो आपने पानी की भाप बना ली तो जो पानी था उस पानी को हमने अग् नि के सम्पर्क से भाप के रूप में परिवर्ति रिवर्तित कर दिया । उड़ गया , पानी की quantity कम रह गई तो वह पानी भाप के रूप में बन गया । उसका अस्ति स्व भाव कि सी दूसरे स्व भाव के साथ हो गया लेकि न पुद्गल तो बना ही हुआ है वो। हा ँ, पर्याय तो change होती है, परि णमन उसका हो सकता है कि सी भी रूप में। द्रव्य तो पुद्गल है, तो बना ही रहेगा। तो यह ी यहा ँ पर कहा जा रहा है कि अगर हम कि सी भी पदार्थ के एक गुणधर्म को देखते हैं तो दूसरा गुणधर्म भी उसके साथ में रहता है लेकि न हम एक को जब कहते हैं तो दूसरों का अभाव नहीं हो जाता है। इसको मुख्य और गौण की व्यवस्था कहते हैं।
अनेकान्त धर्म का फायदा
हमने कहा - आप वृद्ध हैं। समझ आ रहा है न? क्या कहा ? आप वृद्ध हैं। अब वृद्ध हैं; आप पूछ सकते हैं महा राज! हम कि स अपेक्षा से वृद्ध हैं? आपने तो कहा वृद्ध हैं, अब आप तो महा राज स्या द्वा दी हैं तो आप ही बता दो। आप कि स अपेक्षा से हमें वृद्ध कह रहे हो? अब हमें सोचना पड़ेगा कि हमने कि स अपेक्षा से आपको वृद्ध कहा है। क्योंकि अपेक्षा स्पष्ट हुए बि ना जो हम कह रहें हैं, वह चीज स्पष्ट ही होगी। फिर हम कहेंगे आपके बाल सफेद पड़ गए इसलि ए आप वृद्ध हो। फिर आप कह सकते हो, महा राज! चलो ठीक है, हमने मान लिया । केवल बाल की अपेक्षा से वृद्ध हैं न और पूरे शरीर की energy की अपेक्षा से वृद्ध नहीं है न। हम आपके बराबर चल सकते हैं, आपके बराबर दौड़ सकते हैं, आपके बराबर खा सकते हैं, आपके बराबर मेहनत कर सकते हैं। हा ँ, भैय्या और कि सी अपेक्षा से आप वृद्ध नहीं हो केवल बाल सफेद दिख रहे हैं इसलि ए मैने आपको वृद्ध कहा तो अपेक्षा स्पष्ट हो गई? तो आपके मन में ये नहीं आएगा कि मैं पूरा का पूरा वृद्ध हो गया हूँ। खाली बालों की अपेक्षा से, अब उम्र की अपेक्षा से भी नहीं क्योंकि कम उम्र में भी बाल सफेद हो सकते हैं। होते ही हैं। जब हमें यह पता पड़ गया कि केवल हमें बाल की अपेक्षा से, सफेद बालों की अपेक्षा से वृद्ध कहा जा रहा है, तो उसके मन में ऐसा तो नहीं आएगा न कि मैं बूढ़ा ही हो गया ? ये अनेकान्त धर्म का देखो ऐसा फाय दा लगाया जाता है।
एकान्त को सुनकर ही सब परेशान और दु:खी होते हैं
मान लो कोई 15-20 साल का लड़का था उसके बाल सफेद थे और कि सी ने कह दिया बूढ़े भाई, वृद्ध भाई तो वह कहेगा मैं कैसे वृद्ध हो गया ? अगर उसे केवल एकान्त रूप से वृद्ध कह दिया जाएगा तो वह परेशान हो जाएगा। है कि नहीं, क्योंकि एकान्त रूप से उसने बूढ़ा अपने को मान लिया तो परेशान हो जाएगा। उसे अगर अपेक्षा नहीं मालूम है, तो भी वह परेशान हो जाएगा। अगर वह शर्मा गया , अपेक्षा नहीं पूछ पाया , ऐसा होता है कि नहीं। रो गया , अपने घर पर आ गया , मुझे तो लोग चिड़ाते हैं, मैं वृद्ध हो गया । अब उसके मन को कैसे परिवर्ति रिवर्तित किया जाए? उसको वस्तु का यथा र्थ स्व रूप बताओगे तो उसका मन glad हो सकता है। उसको यह बताना पड़ेगा कि देखो! आप में अनेक गुणधर्म हैं, आप में बहुत सारी qualities हैं। अगर एक चीज आपके सामने आपको कही जा रही है कि आप वृद्ध हैं तो आप ये पूछ लेना कि हम कि स अपेक्षा से वृद्ध हैं। सब अपेक्षाओं से तो वृद्ध नहीं हैं। कि सी ने आपके सफेद बालों को देख कर कह दिया कि आप वृद्ध हैं तो बस इतना ही समझो कि बाल सफेद हो गया , इसलि ए वृद्ध कह रहा है कोई। उम्र तो आपकी वृद्ध के लाय क नहीं है। समझ आ रहा है? आपकी मेहनत पूरी, काम पूरा, सब कुछ चल रहा है, तो आपको समूचा अपने आपको वृद्ध मानने की जरूरत नहीं है। केवल एक गुण धर्म की अपेक्षा से आपको वृद्ध कहा है, बाकी आप में अनेक ऐसे गुणधर्म हैं जिसमें आपके वृद्धत्व का कोई आभास नहीं होता। अभी कहा ँ से वृद्ध हो गए? अभी तुम बीस साल के हो, अभी हमने आपका बीसवा ँ birthday मनाया था न। आपके सब friends हैं, वे सब कैसे हैं? वृद्धों के वृद्ध friends होते हैं और आपके friends कैसे हैं? सब युवा हैं तो आप वृद्ध नहीं हो। वृद्धों की आँखें भी खराब हो जाती हैं, दिखाई नहीं देता, सुनाई कम पड़ता है। आपको तो दिखाई भी दे रहा है, सुनाई भी पड़ रहा है। वृद्ध आपकी तरह दौड़ नहीं सकते, आपकी तरह मेहनत नहीं कर सकते, आप सब कर सकते हो तो उसके मन में अपने आप एक सन्तुष्टि का भाव आ जाएगा। ये अनेकान्त दर्श न को लागू करने का तरीका बता रहे हैं। जब भी हम दुःखी होंगे, परेशान होंगे, एकान्त को सुनकर परेशान होंगे। एक बात को अपने में मानकर परेशान होंगे।
सुखी जीवन के लिए वि चारों में अनेकान्त लाएँ
अनेकान्त का प्रयोग करोगे तो क्या समझ आएगा? अरे! कि सी ने आप को कह दिया मैं गरीब हूँ। नहीं! मैं गरीब कैसे हो गया ? कहा ँ से गरीब हूँ। मेरे पास घर है, मेरे पास भोजन-पानी करने के लि ए पर्याप्त है, मेरे पास में अपनी दुकान है, फिर भी लोग कह रहे हैं गरीब है। अपने आपको वह पूरा गरीब मान रहा है क्या ? मैं गरीब ही हूँ कि दुनिया में गरीब मैं ही हूँ। अपने ऊपर वा ले की अपेक्षा से कि सी को कोई कह रहा है, तो गरीब दिख रहा है न? कि हमेशा सबकी अपेक्षा से गरीब है? कोई आदमी आज के समय में हजार पति है, लखपति भी है, तो आज के समय मे गरीब है, समझ लो जब तक करोड़पति न हो। करोड़ों में जब तक खेलने वा ला न हो, लखपती आदमी भी आज के समय में गरीब ही है। हा ँ! बस काम चला रहा है। अब उससे कोई गरीब कहेगा वह परेशान तब होगा जब वो अनेकान्त धर्म को नहीं जानेगा। अनेकान्त दर्श न को जानेगा और कभी भी तेरे को problem हो तो भाई! उससे पूछ ले। इतना कहना सीख लो सब जैनी लोग कि मुझे ये बता दो, जो आप कह रहे हो वो कि स अपेक्षा से है क्योंकि आप तो अनेकान्त को जानने वा ले हो न। बस! हम कि सी भी बात को सुनकर तुरन्त उसे सम्पूर्ण ता के साथ मान लेते हैं कि मैं ऐसा ही हूँ। लेकि न हमें यह तो बता दो कि आप जो कह रहे हो वह सर्वथा है अथवा कि सी अपेक्षा से है। जब आप कहोगे, कि सी अपेक्षा से है, तो बस उसी अपेक्षा से है, पूरा तो नहीं हुआ न। मैं गरीब हूँ कि स अपेक्षा से? बस मैं करोड़पतिय ों की अपेक्षा से गरीब हूँ। ठीक है, करोड़ पतिय ों की अपेक्षा से मैं लखपति हूँ तो तुम भी जान लो अरब पति की अपेक्षा से तुम भी गरीब हो। तुम भी जान लो। अब सन्तुष्टि हो गई कि नहीं हो गई। अगर करोड़ पतिय ों की अपेक्षा से मैं गरीब हूँ तो मेरे नीचे इतने खड़े हैं हजार पति , सैंकड़ा पति जिनके पास में रोजाना सौ रुपये नहीं है अपना दिन नि कालने के लि ए तो उनकी अपेक्षा से तो हम बहुत बहुत बड़े हैं न। तो हम सर्वथा तो गरीब नहीं हो गए। क्या समझ आ रहा है? हर चीज को आप कि सी अपेक्षा से समझोगे तो आपके लि ए कभी भी दुःख पैदा नहीं होगा।
कोई भी आपसे कुछ भी कह दे मान लो कह दिया आपसे कि आप बुरे हो। क्या कह दिया कि सी ने? तुम बहुत-बहुत बुरे हो। हाथ जोड़ कर, पूछ लो आप यह और बता दो कि स अपेक्षा से हम बुरे हैं? यह क्या कह रहे हैं? यह अपेक्षा क्या होती है? बि ना अपेक्षा से जो भी कथन है न, मि थ्या कथन कहलाता है। आप अपेक्षा बताओ। स्या द्वा दी हैं हम। कौन हैं? स्या द्वा दी हैं। माने हमें अपेक्षा से कथन करोगे तो हम मानेंगे आप की बात। आप उससे अपेक्षा पूछ लोगे तो वो क्या कहेगा? आपको एक ही angle से बताएगा न। कि सी एक aspects में वो सोच रहा होगा कि आप इस अपेक्षा से बुरे हो। भाई! तुम्हा रे लि ए तो बुरे हैं न? वह कहेगा- आपने मेरे साथ यह बुरा किया । ठीक है! आपके लि ए ही तो बुरे हो गए, सब के लि ए तो नहीं बुरे हो गए। एक व्यक्ति कह रहा है कि मैंने आपके साथ अच्छा किया था तो आपको बुरा लगा तो चलो कोई बात नहीं। आप हमको बुरा समझ रहे हो तो हम आपकी अपेक्षा से ही बुरे हो गए न? बाकी जो और लोग हैं हमारे घर में, हमारी अपनी पत्नी है, बेटे हैं, भाई है, उन सब की अपेक्षा से तो हम अच्छे हैं। पड़ोसी की अपेक्षा से बुरे हो गए तो क्या हो गया , चलो कोई बात नहीं।
अनेकान्त दर्श न का आलम्बन लेने से, मन में हमेशा प्रसन्नता का भाव रहेगा
दुनिया में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं जो कि सी की अपेक्षा से बुरा न हो। तीर्थं कर भी नहीं बचे हैं। हा ँ, कोई होता ही नहीं। इसलि ए अपने मन में हमेशा प्रसन्नता का भाव रहेगा, अनेकान्त दर्श न का आलम्बन लेने से, स्या द्वा दी बनने से। कोई आपसे कुछ कहे, आजकल के बच्चे छोटी-छोटी बात पर बुरा मान जाते हैं। मान लो कि सी की माँ नहीं है, कि सी के पि ता नहीं है, कि सी के लि ए कोई अच्छा साधन नहीं है, कि सी के माता-पि ता ने कोई चीज नहीं दिलाई। कि सी ने कुछ comment कर दिया तुरन्त बच्चे बुरा मान जाते हैं। अगर हम उन्हें स्या द्वा द शैली समझा कर रखे और शुरू से ही हम उन्हें यह समझाएँ बेटा! कभी भी कोई तुमसे कोई बात कहे तो तुम पहले एकदम से यह मत सोच लेना कि उसकी बात सर्वथा सही है। ये सोचना कि वो कि स angle से बोल रहा है, कि स अपेक्षा से उसकी बात है। उस अपेक्षा को जानना तो तुम्हा रे लि ए कभी भी दुःख नहीं होगा। हर बेटे को यह बात समझाओ। कभी भी तुमसे कोई बात कहे, तुम्हा रे पि ता ने तुमको यह चीज नहीं दिलाई। ठीक है! यह चीज नहीं दिलाई और बहुत कुछ तो दिलाया न। इस अपेक्षा से चलो ठीक है मेरे पि ता ने यह चीज नहीं दिलाई इसलि ए तुम्हा रा यह घर अच्छा नहीं है, तुम्हा रे पि ता अच्छे नहीं हैं। चलो कोई बात नहीं लेकि न और चीजें तो हैं हमारे पास में।
अनेकान्त दर्श न की महिमा
जब तक आपको ये स्या द्वा द शैली के अनुसार अनेकान्त धर्म की विचारधारा नहीं आएगी आप कि सी से भी अपने आप को परेशान कर सकते हो और आप का मन दुःखी हो सकता है। समझ आ रहा है न? जब भी आपको कोई बुरा कहेगा तो आप देख लेना वह उसकी अपेक्षा से ही बुरा होगा। सबकी अपेक्षा से तो हर कोई बुरा होता नहीं तो आप अपने में खुश रहो। चल भाई मैं तेरी अपेक्षा से बुरा हूँ लेकि न अपने भाई, बेटे, पत्नी उनकी अपेक्षा से तो अच्छा हूँ, बस बात खत्म। जब आप यह देख लोगे कि हमारे लि ए अनेक और भी गुणधर्म हमारे अन्दर हैं तो आपके मन की प्रसन्नता पुनः बन जाएगी। क्या सुन रहे हो? अनेकान्त दर्श न का लोग आज बि लकुल भी लाभ नहीं लेते, उपयोग नहीं करते और अनेकान्त दर्श न की कोई भी व्यक्ति आज महि मा नहीं समझ रहा है। मैंने अभी कुछ दिनों पहले एक article पढ़ा था । जब ये आतंक बहुत मच रहा था विदेशों में तो उस समय पर कि सी से पूछा गया था कि इस देश में अगर ये आतंक मि ट सकता है या दूर हो सकता है, तो कैसे होगा? एक english newspaper में यह एक article नि कला था कि वर्त मान का कि तना भी आतंकवा द है वह तब दूर होगा जब हर व्यक्ति के अन्दर अनेकान्तवा द का ज्ञा न आ जाएगा और यह foreign writer ने लि खा था । क्या समझ आया ? व्यक्ति के दिमाग में जब अनेकान्त होगा, स्या द्वा द होगा तब वो क्या करेगा? वह दूसरों की बात सुनकर बुरा नहीं मानेगा। वह उसकी अपेक्षा समझेगा और अपेक्षा समझने के साथ -साथ यह भी समझेगा कि इसकी भी बात सही तो है लेकि न सर्वथा नहीं है, कि सी अपेक्षा से सही है। इसी का नाम है- अनेकान्तवा द। जब हमें कि सी की बात पूर्ण रूप से बुरी लग जाती है, तो हमारे सामने वो व्यक्ति बुरा हो जाता है, हम उसके दुश्म न बन जाते हैं। आजकल तो लोग छोटी-छोटी बातों पर गोलिया ँ चला देते हैं। कोई अपने कार से जा रहा था , बगल वा ला कोई भी कार अपनी थोड़ी सी भि ड़ा कर चला गया , उसने shoot कर दिया । कार के बाह र नि कला, कुत्ता भी उसका पालतू था उसके साथ में बाह र आया । कि सी ने उसके कुत्ते से थोड़ी सी सटा कर अपनी गाड़ी नि काल कर चला गया या उसके बगल से कोई bike नि काल कर चला गया , उसने उसको shoot कर दिया , डॉगी के कारण से। मतलब आदमी दूसरे को स्वी कार करना ही नहीं चाह रहा है।
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मारे अन्दर और भी गुणधर्म हैं- ये अनेकान्त का उपयोग है
अनेकान्तवा द के माध्य म से ही यह बात सामने आती है कि हम जो हैं वो तो हैं ही और दूसरा अगर हमसे कह रहा है, तो हम समझें यह जो कह रहा है, वह कि स अपेक्षा से कह रहा है। जिस अपेक्षा से कह रहा है उस अपेक्षा से सही है, तो हमारे लि ए उसका बुरा लगेगा ही नहीं। हा ँ इस अपेक्षा से सही है, यह हमें स्वी कार है और बाकी की अन्य अपेक्षाएँ तो हैं जिनके कारण हमारे अन्दर और भी गुणधर्म हैं। यह अनेकान्त का उपयोग है। इसलि ए आचार्य कहते हैं कि अस्ति धर्म और नास्ति धर्म और उसके साथ -साथ अस्ति-नास्ति धर्म , फिर उसके साथ -साथ अवक्तव्य, फिर उसके साथ -साथ अस्ति-अवक्तव्य, नास्ति-अवक्तव्य, अस्ति-नास्ति अवक्तव्य इन सातों भंगों को देखो। मतलब ये सात प्रकार के विचार, सात प्रकार के question आप के दिमाग में आ सकते हैं। जैसे कोई पदार्थ है, तो हमने कहा यह कपड़ा नहीं है, यह कागज है। हमने कहा यह कागज है, फिर यह कपड़ा नहीं हैं। फिर इन दोनों को हम एक साथ कह सकते हैं। हा ँ! यह कथञ्चि त् कागज है, कथञ्चि त् कपड़ा नहीं है। यह हमने क्रम-क्रम से कहा , एक साथ तो फिर भी नहीं कहा और एक साथ जब कहना चाह े तो हम देखते हैं कि एक साथ हम कह नहीं सकते तो उसका नाम है- अवक्तव्य। फिर हमने इसके एक गुणधर्म को पकड़ा। नहीं है, कथञ्चि त् कागज है लेकि न फिर भी बहुत सारा अवक्तव्य है जो हम कह नहीं पा रहे हैं। अगर हमने इसके एक गुणधर्म को पकड़ लिया ये कथञ्चि त् कागज नहीं है, ये कथञ्चि त् कापड़ा नहीं है, तो भी बहुत कुछ है जो इसमें अवक्तव्य रह गया तो वो उसके साथ जुड़ गया । अगर हमने क्रम से भी कह दिया कि ये कथञ्चि त् कागज है, कथञ्चि त् कपड़ा नहीं है और उसके साथ भी बहुत कुछ अवक्तव्य रह जाता है जो कहने में नहीं आ रहा है, तो उसके साथ भी अवक्तव्य जुड़ जाता है। इस तरह से सात प्रकार के question आप के अन्दर आएँगे, आठवा ँ आ ही नहीं सकता। यह हर धर्म के साथ लगेगा, धर्म माने हर उसकी quality जो है। जैसे अस्ति है, तो उसके साथ नास्ति, अस्ति-नास्ति, अवक्तव्य। ऐसा नि त्य धर्म है, अब जैसे पदार्थ नि त्य है कि अनि त्य है। हम कहेंगे स्या द-नि त्य तो स्या द-अनि त्य वो भी है। फिर स्या द में पूछा जाएगा कि सके अपेक्षा से नि त्य तो द्रव्यार् थिक नय की अपेक्षा से, द्रव्य की अपेक्षा से नि त्य है। पर्यायार् थिक नय से पर्याय की अपेक्षा से अनि त्य है। जब हमने कहा स्या द-नि त्य, स्या द-अनि त्य फिर हम क्रम-क्रम से भी उसको कह सकते हैं, स्या द-नि त्य स्या द-अनि त्य तीसरा भंग ये हो गया । फिर जो है बहुत कुछ अवक्तव्य रह जाता है, हम कह नहीं पाते हैं तो वो हो गया चौथा भंग- स्या द-अवक्तव्य। फिर जब हमने कहा स्या द-नि त्य-अवक्तव्य तो उसमें स्या द नि त्य तो है लेकि न उसके साथ में भी बहुत कुछ आवा च्य है, अवक्तव्य है, वो हो गया - पाँचवा ँ भंग। ऐसे जब हमने कहा स्या द-अनि त्य तो उसके साथ भी बहुत कुछ अवक्तव्य रह जाता है, कहने में नहीं आ रहा है, वो हो गया - स्या द-अनि त्य-अवक्तव्य। फिर हमने ये क्रम-क्रम से कहा तो भी कुछ अवक्तव्य रह जाता है, तो हो गया स्या द-नि त्य-अनि त्य-अवक्तव्य। इसके अलावा कोई प्रश्न आएगा ही नहीं। समझ आ रहा है न? हर तरीके से हमारे विचार को पकड़ कर आचार्यों ने हमें यह सप्त भंगी की परि कल्पना दी है कि कोई भी पदार्थ के गुणधर्म को हम अगर अधि क से अधि क भागों में विभाजित कर सकते हैं तो ये सात भंग हैं और इसके माध्य म से हम पदार्थ के पूरे स्व रूप को जान सकते हैं।
वस्तु का धर्म जब हम अपेक्षा के साथ समझेंगे तो हमको हर्ष -वि षाद नहीं होगा
कोई भी कथनी की जाती है वह कि स अपेक्षा से है, यह आपको सोचना है। कि सी ने कहा मेरा बेटा बड़ा गोरा है, तो अब यह पूछो गोरा कि स अपेक्षा से है? क्या गोरा ही है काला नहीं है, कहीं भी? नहीं-नहीं काले की अपेक्षा से नहीं उसमें भी कहीं कालापन है कि नहीं। बाल काले नहीं उसके, आँखों की भौएँ काली नहीं है, आँखों के अन्दर का काँच काला नहीं है। गोरा है यह भी उसकी एक अपेक्षा ही हुई न? बाह री skin की अपेक्षा से उसको गोरा कहा जा रहा है लेकि न यह भी सर्वथा सत्य नहीं है। कोई भी कथन देखो, कि स अपेक्षा से कहा जा रहा है? अपेक्षा पता पड़ेगी तो आपको उसकी सही स्थिति पता पड़ेगी। बि ना अपेक्षा के आप स्वी कार लोगे तो पल में तो खुश हो जाओगे, पल में मुरझा जाओगे। कि सी दिन कि सी ने कह दिया उस गोरे बेटे को कि तू काला हो गया , काला है। फिर क्या होगा? उसे फिर से समझना पड़ेगा कि स अपेक्षा से मैं काला हो गया । कोई भी वस्तु का धर्म जब हम अपेक्षा के साथ समझेंगे तो हमको हर्ष -विषाद नहीं होगा, हम अपने आप रह सकेंगे और अगर हमने अपेक्षाएँ सीखना छोड़ दी तो हम परेशान ही होंगे। आज व्यक्ति depression में जा रहा है उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उसे अपने ही गुणधर्म और जो उसके पास होते हैं, पता नहीं होता है। एक चीज को अपने दिल में बि ठा लेता है उसी में अपना मन घूमाता रहता है और बस उसी में उसका दिमाग लग जाता है। ऐसा लग जाता है कि दिन-रात बस उसी में सोचता रहता है और एक छोटी सी बात को लेकर। पत्नी ने कुछ कह दिया , boss ने कुछ कह दिया , कि सी व्यक्ति ने कुछ कह दिया , एक छोटी सी बात को लेकर और उसका मन उसमें इतना घुल गया , इतना घुल गया कि बस वो depression में चला गया । उभरने का साधन क्या है? दवा इया ँ तो कभी साधन होती ही नहीं हैं। आदमी ही अपने विचार से depression में गया है, तो विचार से ही ऊपर उभर कर आएगा। वह विचार क्या है? वह यह अनेकान्त धर्म का विचार है। जब तक हम इस अनेकान्त का उपयोग अपने जीवन में हर समय नहीं करेंगे तब तक हमारे लि ए इसकी उपयोगि ता समझ में नहीं आएगी। तो हर कथनी में यहा ँ पर यह बताया जा रहा है कि अगर हम कोई भी बात कह रहे हैं तो वे कथञ्चि त् ही, कि सी अपेक्षा से वह है और कि सी अपेक्षा से वह नहीं है। जिस अपेक्षा से है वह सत्य है और जिस अपेक्षा से नहीं है वह भी हमारे लि ए सत्य है।
इसी को कहा जाता है कि अगर हम एकान्त रूप से हमने वह ी मान लिया कि यह यह ी है, तो इसको कहा हमने ही , एक शब्द इसमें लगता है यह ऐसा ही है तो उस अपेक्षा से देखेंगे तब तो कहा जाएगा, ये ऐसा ही है लेकि न जब हम अन्य की अपेक्षा से देखेंगे तो हम कहेंगे कि ये ऐसा भी है। मतलब यह कहना कि यह गरीब ही है, यह सत्य है? यह गरीब भी है ऐसा कहोगे तो चल जाएगा। यह गोरा ही है ऐसा कहोगे तो वह नहीं चलेगा। लेकि न यह गोरा भी है और वह भी तब चलेगा भी वा ला भंग, गोरा ही है, गरीब ही है। जब आप उसकी अपेक्षा बता दोगे माने इस अपेक्षा से तो वह ही लग जाएगा कि यह इस अपेक्षा से हैं। जैसे मान लो उसके साथ में कोई अमीर व्यक्ति खड़ा है, तो उसकी अपेक्षा से वो गरीब ही है। ऐसा कहने में कुछ भी बाधा नहीं है लेकि न उसे भी यह पता होना चाहि ए कि हम गरीब ही नहीं है। समझ आ रहा है? हम गरीब भी हैं क्योंकि एक व्यक्ति की अपेक्षा से हम यह सब कुछ नहीं हैं। अन्य अनेक व्यक्ति हैं उनकी अपेक्षा से भी हम कुछ हैं।
कोई भी चीज अपने अस्तित्व में न छोटी है न बड़ी है
जैसे स्कू स्कू लों में पढ़ाया जाता है बेटा एक line खींची है। अब पूछा गया बताओ, ये line छोटी है या बड़ी है? अभी कुछ भी अपेक्षा नहीं अभी तो एक line खींची है, अब पूछा जा रहा है कि ये line छोटी है या बड़ी है। अभी तो ये छोटी है न बड़ी है। अभी तो जो है सो है। अब वो line तो वह ीं खि ंची है। वह line चार सेंटीमीटर की line थी, हमने उसके ऊपर सात सेंटीमीटर की line खींच दी। अब क्या हो गया ? छोटी हो गई। उस line को छोटा कि ए बि ना इसको छोटा करना है। ऐसा कहा गया था तो समझदार बच्चे ने क्या किया ? उसके ऊपर एक बड़ी line खींच दी। इस line की अपेक्षा से अपने-आप छोटी दिखने लगी। फिर पूछा गया इसी line को आप कुछ भी बढ़ाए बि ना इसको बड़ी करके दिखाओ। सुन रहे हो? उसके नीचे एक दो सेंटीमीटर की एक line उसने खींच दी तो उसकी अपेक्षा से वो बड़ी हो गई। अब उससे पूछा जा रहा है, बताओ इसमें तो हमने कुछ नहीं किया । न हमने इसको छोटा किया , न हमने इसको बड़ा किया । अब यह छोटी और बड़ी कैसी हो गई? समझाओ बच्चों को कि जब ऊपर बड़ी थी तो उसके कारण से छोटी हो गई। वो तो अपनी अस्तित्व में वैसी ही है न? उसका अस्तित्व तो जैसा था वैसा ही है लेकि न हमने उसके अस्तित्व को छोटा कब मान लिया । जब उसके आगे कोई बड़ा आ गया । उसी को हमने बड़ा क्यों कह दिया जब उसके नीचे कोई छोटा आ गया । बेटे को समझाओ, बूढ़े भी समझे। कोई भी चीज अपने अस्तित्व में न छोटी है, न बड़ी है। कोई भी व्यक्ति अपने अस्तित्व में न गरीब है, न अमीर है। यह सब क्या है? सब compare करके होता है। दुनिया में हर व्यक्ति एक दूसरे के साथ अपने को compare करता है और उसी को compare करके अपने-आप को छोटा या बड़ा मान लेता है। अपने आप में न वह छोटा है, न बड़ा है, वह जैसा है वैसा है। मान लो कोई बहुत नाटा व्यक्ति है, बहुत गट्टा -नाटा जिसको आप बोलते हैं, ऐसा भी कोई व्यक्ति है। उससे कहे कोई अरे या र तू बहुत नाटा है, नाटा है, नाटा है। उसे अगर ये अनेकान्त धर्म मालूम हो तो उसे पता पड़ेगा कि अरे! मुझसे ज्या दा तो इस दुनिया में कि तने अनन्त जीव हैं। कि तने कीड़े-चींटी-मकौड़े घूम रहे हैं, कि तनी चिड़िया ँ और पंछी घूम रहे हैं। मैं उनसे बहुत बड़ा हूँ। हम कि सी अपेक्षा से अपने को हमें वैसा स्वी कार करेंगे तो कहलाएगा कि हा ँ! कि सी अपेक्षा से हम ऐसे भी हैं। और अगर हमने सर्वथा ऐसा मान लिया कि हम ऐसे ही हैं तो फिर हम कभी भी सुखी नहीं हो सकते, हम depression में चले जाएँगे।
खुश रहना है, तो अपने से नीचे वालों को देखो-
यह चीज सीखने की है कि हमारा अस्तित्व जैसा है वैसा है। उसमें कहीं कुछ कमी-वेशी नहीं है। लेकि न हम दूसरों की तुलना से अपने आपको आँकते हैं और जो व्यक्ति दूसरों की तुलना से अपने को आँकता है वह अपने को कभी समझ ही नहीं सकता है। हर व्यक्ति दूसरे की तुलना से अपने को आँक रहा है, जो उसके आसपास होंगे उनसे अपनी तुलना करेगा और अपने आपको वैसा मान लेगा। मैं यहा ँ रहने वा ले लोगों के बीच में इनकी अपेक्षा से क्या हूँ? वे नहीं भी कहेंगे तो भी अपनी अपेक्षा से उनकी तुलना से वह अपने आपको वैसा मान लेगा और हर व्यक्ति तुलना कर के ही जो है अपने आप को मानने लग जाता है कि हा ँ मैं ऐसा ही हूँ। सर्वथा तो कुछ होता ही नहीं है। हमेशा हर आदमी ने तुलना की है और तुलना से ही उसके लि ए यह सब जो है सुख-दुःख प्राप्त होते रहते हैं। छोटे से तुलना करेगा तो सुखी रहेगा और बड़े से तुलना करेगा तो दुःखी रहेगा। यह पहले समझाया जाता था , बेटा कभी भी अपनी तुलना अपने बड़ों से मत करना। बड़ों को तो केवल इसलि ए देखना कि अपने को भी ऐसा बड़ा बनना है लेकि न उनसे तुलना करके यह मत सोच लेना कि हम ऐसे हैं। खुश रहना है, तो अपने से नीचे वा लों को देखो। कमाई कि तनी हो रही है? आजीविका कि तनी मि ल रही है? खुश रहना है, तो अपने से नीचे वा लों को देखो। जितना मि ल रहा है उसमें सुखी रहना है, तो अपने से नीचे वा लों को देखो। हमारे पास कि ससे बहुत ज्या दा है? उनसे बहुत ज्या दा है, सुखी रहोगे और अपने से बड़े वा लों को देखोगे तो दुःखी रहोगे। इसलि ए कहा जाता है नीचे देखकर चलो। माने अपने से नीचे वा लों को देखो तो आपके मन में सन्तुष्टि रहेगी, सुख बना रहेगा। नहीं तो आप हमेशा दूसरों से तुलना करके अपने आप को कष्ट में लाएँगे। आपके पास जो है उसका भी आपको सुख नहीं मि लेगा और वहा ँ पहुँ च भी जाओगे तो फिर तुम्हें वहा ँ पर तुलना करने की आदत पड़ गई है। फिर और बड़े होंगे और बड़ों की तुलना करोगे तो उस बड़े का तो कोई अन्त है ही नहीं। इसीलि ए हमें हमेशा पहले समझाया जाता था घरों में, माता-पि ता समझाते थे कि हमेशा अपने से छोटे वा ले को देखना, बड़े वा लों को मत देखना। तभी आप सुखी रह सकोगे मतलब सन्तुष्टि का यह सूत्र है। अगर हमें तुलना करना है, तो अपने से बड़ों से तुलना करेंगे तो हम दुःखी नहीं होना चाहि ए। अपने से बड़ों से सीख हमें मि लना चाहि ए कि हा ँ, उनकी तरह हमें भी आगे बढ़ना है लेकि न तुलना करके अपने मे दुःखी नहीं होना। इतना ज्ञा न रहेगा तो हम बड़ों से भी सीख लेंगे और छोटों से सन्तुष्टि प्राप्त कर लेंगे और इससे चलता रहेगा जीवन। समझ आ रहा है? अगर यह नहीं है, तो फिर दुःख ही दुःख है। इसीलि ए लि खा गया :–
“पर तुलना से हँसना रोना,
सुख
ी
-दुःखी यूँ पलपल होना।
पर तुलना से हँसना रोना,
सुखी-दुःखी यूँ पलपल होना।
चेतन को इन क्ष णिकाओं में,
आखि र मिलता क्या ?
जो हो सो हो, जो है सो है,
ह
मको क्
या
? हमको क्या ? हमको क्या ?
वस्तु स्वरूप जानने वाला कभी भी किसी से डरता नहीं है
बने रहो बि ंदास। दास मत बनो बि ंदास बने रहो। कोई भी व्यक्ति अपने आप में कभी भी कि सी भी तरीके से पूर्ण होता ही नहीं है। हम आपसे कहे तीर्थं करों में भी बहुत सारी कमिया ँ हैं। आज बताएँ, तीर्थं करों की कमिया ँ बताएँ? तीर्थं कर भी अपने आप में पूर्ण नहीं हैं, आप भले ही कहते रहो। स्या द्वा द को जानने वा ला कहेगा कोई भी व्यक्ति कहीं पूर्ण नहीं होता कभी। तीर्थं करों में भी कि तनी कमिया ँ हैं? जैसे? देखो! हम कि सी भी चीज को आँख से देख सकते हैं वो कि सी भी चीज को अपनी आँख से नहीं देख सकते। अरे! उससे क्या लेना-देना? हम कि सी भी चीज का स्वा द ले सकते हैं, बता सकते हैं, हा ँ, कि तनी tasty चीज है, कि तनी चटपटी चीज है। कोई भी अनुभव कर लेते हैं, सब तुम्हा री taste का भी अनुभव करते रहते हैं बैठे-बैठे। फिर कौन से taste का अनुभव आएगा? दुनिया में इतने मसाले हैं, इतने taste हैं, सब चटपटा, खट्टा -मीठा सबका अनुभव कर लेते हो बैठे-बैठे। अनुभव कर लिया , काय का अनुभव कर लेते हैं? जो अनुभव जिस इन्द्रिय का विषय है उसी इन्द्रिय से जब कोई ज्ञा न आएगा तभी तो अनुभव होगा? वो कभी नहीं बता सकते, कचौड़ी कैसी है, ये रसगुल्ला कैसा है, यूँ कह देंगे मीठा है, लेकि न उनके अन्दर वो taste नहीं आ सकता जो taste आप अधूरे हो, हमसे पूछो अभी आपने पूरा नहीं सुना न प्रवचनसार इसलि ए कहते हो, पहले सुन चुके हैं, अतीन्द्रिय ज्ञा न, इन्द्रिय ज्ञा न। आपके पास केवल एक ही ज्ञा न है, भगवा न हा ँ, बस केवलज्ञा न। हमारे पास दो ज्ञा न हैं – मति ज्ञा न, श्रुतज्ञा न, हम आपसे भी बड़े हैं। अरे आप डरते हो, यह ी तो बात है। देखो! स्या द्वा दी कभी डरेगा नहीं। उसे अपेक्षा मालूम है न, हम कि स अपेक्षा से कह रहे हैं। हम आपसे बड़े इसलि ए नहीं हो गए कि तीर्थं करों से भी कोई बड़ा होता है। नहीं! नहीं, हमारी अपेक्षा तो समझो, आप ही ने तो समझाया कि स अपेक्षा से कहा कौन छोटा, कौन बड़ा। हम आपसे बड़े हैं, आप ही ने समझाया स्या द्वा द हमें, हमसे पूछो कि स अपेक्षा से आप बड़े हो, हम बताएँगे आपको।
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 23 सप्तभंगी-जैन दर्शन का अनेकान्त दर्शन -
Manish Jain - 12-17-2022
वस्तु स्वरूप जानने वाला किसी से डरता नहीं है
अरे इतनी सामर्थ्य रखो, वस्तु स्व रूप कभी भी कि सी से भी भय नहीं पैदा करता है और वस्तु स्व रूप जानने वा ला कभी भी कि सी से डरता नहीं है और कभी दीन-हीन नहीं होता। समझ आ रहा है न? तीर्थं करों के सामने भी प्रश्न करने वा ले आचार्य समन्तभद्र महा राज हुए हैं और वह प्रश्न करते हैं। भले ही उनके सामने तीर्थं कर नहीं थे लेकि न हम जैसे लोगों को समझाने के लि ए उन्हों ने सब प्रश्न उठाए हैं। वह ी प्रश्न कौन कर सकता है? क्योंकि वह अनेकान्त को जानने वा ले हैं, स्या द्वा दी हैं इस तरीके से हम भी भगवा न के सामने प्रश्न कर सकते हैं। आपने हमें जो सि खाया अब जैसे नटखट बच्चा होता है हम उसको कुछ सीखाते हैं। वह कुछ का कुछ सुनता है, कुछ का कुछ फिर समझता है और कुछ तरीके से है वो अपने ऊपर react करता है। हमें तो मालूम है, हम नटखट बच्चे हैं। जैसे कोई बच्चे से कह दिया बेटा, कह दे पापा घर में नहीं है और उसने जा कर वहा ँ बोल दिया कि पापा ने कहा है, पापा घर पर नहीं है। यह उसका नटखटपना है। अब पापा के सामने आया तो वो कहने लगा क्यों मैंने तुझसे कहा था न बोल दे पापा घर पर नहीं है। मैंने यह ी तो बोला था , पापा घर पर नहीं है आप ही ने तो बोला था । जो बोला था आपने वह ी तो मैंने वहा ँ बोला है। मैंने कुछ नया कहा ँ बोला है? जब कोई बात हमारे सामने कही जा रही है, हमें उसकी अपेक्षा मालूम होगी तो उस अपेक्षा से हम कुछ भी कहने को समर्थ होंगे तो वो कथन हमारा गलत नहीं होगा। क्या समझ आ रहा है? संख्या की अपेक्षा से बताओ कौन बड़ा है? संख्या की अपेक्षा से ज्ञा न की संख्या पाँच हैं न, आपने ही बताया था न तीर्थं कर भगवा न, जिसमें ज्या दा संख्या का ज्ञा न होगा वो ही तो ज्या दा बड़ा ज्ञा न वा ला कहलाएगा, संख्या की अपेक्षा से। आप यह बताओ कि तनी संख्या में आपके पास ज्ञा न है? आप के पास एक ही ज्ञा न है और हमारे पास कि तने है, तो हम बड़े हो गए न? बस संख्या की अपेक्षा से कहने में कोई बाधा नहीं। ज्ञा न की संख्या की अपेक्षा से हम भगवा न से अधि क हैं। इन्द्रिय ज्ञा न की अपेक्षा से हमारे अन्दर अधि क इन्द्रिय ज्ञा न है, आप के पास नहीं है भगवा न! आप तो अतीन्द्रिय हो गए। जब भी कभी आपको कि सी भी चीज का यथा र्थ मालूम पड़ेगा तो आपके लि ए कभी भी ऐसा कहते हुए भी अहं नहीं आएगा। कम समझते हुए भी कभी दीनता नहीं आएगी। यथा र्थ स्व रूप है फिर भी हम आपको केवलज्ञा नी मान रहे हैं, आपको तीर्थं कर मान रहे हैं, आपकी पूजा कर रहे हैं क्योंकि हमको मालूम है कि जो हमारे पास है वो तो बहुत क्षुद्र है, छोटा है। लेकि न आप के पास है वो बहुत बड़ा है। लेकि न फिर भी आपका बच्चा है, तो आपसे प्रश्न तो करेगा ही न?
इन्द्रि य ज्ञा न का महत्
खुश होने के लि ए ये विचार भी काफी है, आखि र खुश तो रहना हैं न। आप कि सी भी तरीके से रह सकते हो और विचार ही हमको खुश रखते हैं। अब केवलज्ञा न नहीं हो रहा , केवलज्ञा न नहीं हो रहा , पंचम काल है, तो रोते रहे क्या ? अरे जो है उसमें खुश रहो। यह श्रुतज्ञा न क्या कम है? जो हमें सात-सात भंग बताए जा रहे हैं, इन अनेकान्त के विचारों का हम अपने-आप में ज्ञा न रखे हैं और इस तरीके का फाय दा उठाए तो यह क्या कम है। यह हमको सुनने को मि ल रहा है। जिनवा णी हमारे कान अभी हमारे पास अच्छे हैं, हम सुन सकते है, देख सकते हैं। मति ज्ञा न क्या कम है हमारे पास? जब तक हम हर एक चीज की महत्ता नहीं समझते तब तक हमारे लि ए अपने पास में कि तनी भी अच्छी चीजें हो हम उनको कोई भी है जो important नहीं समझते और दूसरे की एक बात को ध्या न में रखकर सब अपने लि ए समझते हैं, हमारे पास कुछ है ही नहीं।
अपेक्षा एँ दु:ख का कारण हैं
इसलि ए दुनिया में कोई भी इन्सा न दुःखी होने के लि ए पैदा नहीं हुआ है। अनेकान्त को समझे, हर इन्सा न तो हर इन्सा न सुखी है और अगर सुखी रह सकता है, तो ऐसी ही अपेक्षाओं से सुखी रहता है। आखि र आपके मन में दुःख आता है, तो कि ससे आता है? अपेक्षाओं से ही तो आता है। यह भी तो अपेक्षा ही है। आपने कि सी से कोई अपेक्षा रखी उसने पूरी नहीं की दुःख हो गया । अब उसी समय पर यह समझ लो, यह हमारी अपनी केवल इसकी अपेक्षा से दुःख है जो हमने इससे अपेक्षा रखी थी। यह अपेक्षा पूरी नहीं हुई इसलि ए दुःख हुआ बाकी कुछ नहीं, बाकी हमारे बहुत अन्दर सारी अपेक्षाएँ हैं दूसरों से। दूसरों से अपेक्षाओं से हम हमारे अन्दर और सुख प्राप्त कर सकते हैं। एक की अपेक्षा न हुआ तो क्या हो गया ? बच्चा एक अपेक्षा में ही suicide कर लेता है। उसके 95% आए, 99% क्यों नहीं आए? समझ आ रहा है न? बस 95% की rank बनी, मैं third रह गया , suicide कर दिया । एक ही तो चीज जानी उसने, एक ही तो अपेक्षा से वो सोचता रहा हमने कभी दूसरी अपेक्षाएँ बताई नहीं, कि तू केवल इस अपेक्षा से बड़ा नहीं हो रहा है कि तेरे 95% आ रहे हैं इसीलि ए तू अच्छा नहीं है, तू और भी कारणों से अच्छा है। तेरा स्व भाव कि तना अच्छा है, तू मेरा एक इकलौता बेटा है इसलि ए बहुत अच्छा है। तेरे प्रति हमारे प्रति और अपेक्षाएँ हैं। यह तो चलो ठीक है, यह स्कू स्कू ल की अपेक्षा से कॉलेज की अपेक्षा से हो गई, बाकी तू बहुत कुछ कर सकता है। तुझे समग्र ता का ज्ञा न उसको होता तो वो suicide कैसे करता। क्या सुन रहे हो, आज जैनी लोग दुःखी हैं इसी अनेकान्त को नहीं जानने के कारण से।
विचारों के साथ क्रा न्ति लाने वाला है अनेकान्त धर्म -
एक जमाना होता था जब इस अनेकान्त दर्श न की मतलब व्याख्या एँ हर जैनिय ों के मुँह पर रहती थी। हर व्यक्ति जो है इस अनेकान्त धर्म के मर्म को समझता था और इसी के अनुसार जो है हर चीज की कथनी होती थी, व्याख्या एँ होती थी। एक समय था लेकि न अब ये अनेकान्त दर्श न का नाम जो है, बि लकुल शून्य हो गया है। कोई भी कुछ नहीं बोलता, न जानता न कोई बताता। जब कि धर्म कोई भी रूप में हो आखि र जितने भी धर्म हैं वो सब जैसे हमने कहा , ‘अहिंसा परमो धर्म ’ यह तो हमारे चलो अहि ंसा की, हमारी जीने की एक पद्धति हो गई। ‘वत्थु सहाओ धम्मो ’ जो वस्तु का स्व भाव ही धर्म है, अरे भाई हम जो हैं सो हैं उसके लि ए हम कुछ कर ही नहीं सकते हैं। सबसे बड़ा धर्म तो वो होता है जो विचारों के साथ हमारे अन्दर क्रा न्ति लाए और वो धर्म क्या है? वह धर्म यह ी है ‘अनेकान्तात्म क धर्म :’ हर पदार्थ को अनेकान्त रूप देखो, अनेकान्त के साथ हर पदार्थ का दर्श न करो और अनेकान्त रूप हर पदार्थ को जानकर इस अपेक्षा से देखो कि हम कि स अपेक्षा से क्या जान रहे, क्या देख रहे हैं। जब आप अपने को अनेक अपेक्षाओं से जानने लगोगे, दूसरों को अनेक अपेक्षाओं से जानने लगोगे तो एक अपेक्षा से होने वा ला दुःख आपको नहीं मि लेगा और जितना भी दुःख है दुनिया में वो सब एक ही अपेक्षा से होता है।
जब भी लड़ाई-झगड़े का कारण बनेगा तो एकान्त
मान लो घर में पत्नी है। जब से विवाह हुआ तब से चलो बड़ा अच्छा जीवन चल रहा था । सब सुख ही था , सब चल रहा था । क्या हुआ? एक बार पत्नी ने कोई माँग रखी पति ने न सुनी कर दी, ठीक है! एक बार न सुनी हो गई। चलो, उसने भी कुछ मन बना लिया चलो। फिर दूसरी बार उसने फिर न कहा । वह ी बात उसने फिर कह दी पति ने फिर न सुनी कर दी। बाकी सब अच्छा चल रहा है, अच्छा खि ला रही है, अच्छा खा रही है, अच्छा घूम रही है, अच्छा सब कुछ अच्छा चल रहा है। पूरे घर में सुख है लेकि न अब उसके दिमाग में क्या बैठता जा रहा है? मैंने इससे कुछ कहा था , इनसे कुछ कहा था और ये हमारी उस demand को बार-बार न सुनी कर देते हैं, सुनकर भी उस पर ध्या न नहीं दे रहे हैं। ये जैसे ही बात उसके मन में घर करेगी तो क्या होगा? अपने पति के प्रति अब उसके अन्दर जो प्रे म है उसमें धीरे-धीरे कमी आने लगेगी। बाकी हजार चीजें हैं सब अच्छी हैं लेकि न एक अपेक्षा की पूर्ति र्ति नहीं हो रही है। आप हमारी तरफ ध्या न नहीं देते हो, मैं आप की हर बात पर ध्या न देती हूँ। आप जो कहते हैं वो सब करती हूँ और मैं जो कुछ कहती हूँ आप सुनते नहीं हो। मुझे अपने लि ए यह चाहि ए मैं दो बार कह चुकी, तीन बार कह चुकी आप सुन ही नहीं रहे हो। एक अपेक्षा के कारण से पूरा का पूरा, उसका सारा का सारा जो अच्छा पारिवारि क व्यवहा र चल रहा था , सम्बन्ध चल रहा था वो सारा का सारा बि गड़ सकता है और बि गड़ जाता है। पति यह सोच रहा है, अरे! इस बात के लि ए क्या नाराज होगी कोई बात नहीं, अभी हमारे लि ए इसकी बात को सोचने का time नहीं है, इतना अब यह सोचने का हमारे पास वो सामर्थ्य नहीं, जो इस बात की पूर्ति र्ति कर सके। चलो बाद में देखेंगे, कहने दो उसको जो कहती है। सुन रहे हो, दो बार कह दिया , तीन बार कह दिया अब तो उसकी, हा ँ, अब उसका patience जाने लगा। अब वो warning देने की तैया री करती है। अब मैं आप से last कह रही हूँ उसके बाद मैं बोलूँगी नहीं, इसके बाद मैं कहूँगी नहीं आपसे, अब आप सुन लो अन्ति म बार। सुन लो, इसके बाद में इस बात की जिक्र नहीं करूँरूँगी अगर आपने नहीं सुना। समझ आ रहा है न? और कहीं पति ने उस बार भी उसकी बात पर ध्या न नहीं दिया , यह सोचते हुए कि मेरी पत्नी है, प्या री पत्नी है, कहा ँ जाएगी। मुझसे इतना प्रे म करती आई है, इतना अच्छा घर चला रही है, वैसे ही कहती रहती है, कोई बात नहीं। वह उसको mind नहीं कर रहा है। क्या होगा? महा भारत। उस पत्नी को समझाने के लि ए कह रहा हूँ मैं कि देख, जितना कुछ भी अच्छा चल रहा था वह सब कि स कारण से बि गड़ता जा रहा है? अन्य अनेक भी अपेक्षाएँ हैं जो तेरी पति पूर्ति र्ति कर रहा है। एक अपेक्षा को ही अगर हम सामने रख लेते हैं, उसी को हम मुख्य बना लेते हैं, तो जितना भी है हमारे सामने है अच्छा वो सारा का सारा बि गड़ जाता है।
वस्तु में धर्म अनेक हैं
ह
मेशा ये सोचना चाहि ए कि कि सी अपेक्षा से कुछ अच्छा है, ये भी हमारे लि ए अच्छा है, ये भी हमारे लि ए अच्छा है, ये भी हमारे लिय े अच्छा है, ये भी हमारे लिय े अच्छा है। अब पति का पत्नी , पत्नी का पति । अरे भाई! बड़ी ही समस्या है दिल्ली के अन्दर। मेरे मुँह से हमेशा पत्नी के ही बारे में नि कलता है और पत्निया ँ कहती है, उलटा भी हो सकता है। हा ँ! हो सकता है न, उसमें कोई मैं मना नहीं कर रहा हूँ। पति भी जो है पत्नी की साथ , पत्नी जो है पति के साथ , कि तनी तरीके के व्यवहा र में कि सी की कि सी भी एक अपेक्षा से कुछ भी जो है बि गड़ सकता है। यह सब क्या है? nature है, human nature है। कि सी के अन्दर हो सकता है, स्त्री के अन्दर, पुरुष के अन्दर, पति भी ऐसे nature वा ला होता है कि वो, पत्नी उसके लि ए सब कुछ अच्छा कर रही है लेकि न एक चीज अच्छी नहीं कर पाती तो उसी के कारण परेशान हो जाता है। छोटी सी बात पर परेशान हो जाता है। आज तक बीस साल हो गए शादी कि ए हुए एक भी दिन ऐसा भोजन नहीं बना जिस दिन बराबर नमक होता है भोजन में। बस एक अपेक्षा से भी जो है वो पूरी अपनी पत्नी के जितने भी काम है जितना उसका घर का प्रे म है, वह सब नष्ट हो जाता है। हमें ये समझना है कि वस्तु में धर्म अनेक है; पति में भी अनेक गुण है और पत्नी में भी अनेक गुण है। सब के लि ए कह रहा हूँ यह मैं। स्त्रिय ों में भी अनेक गुण धर्म हैं क्योंकि वो भी एक पदार्थ है, वो भी उनकी एक आत्मा है, वो भी एक अनन्त धर्मात्मा है और पुरुषों में भी, उनकी भी आत्मा अनेक धर्मा त्मक है। कि सी में भी, कि सी की आत्मा में भी एक गुण भी कम-ज्या दा नहीं है। यह बात आपको स्त्री और पुरुष की अभी तो ख्या ल आती है, जब हम बोलते हैं तब तो स्त्री हमें टोक देती है। जब आपकी शादी होती है और उस समय जो गुण मि लाए जाते हैं तब वे गुण बराबर के मि लते हैं या थोड़े कम मि लते हैं? कि तने होते हैं बोलो? कि सके? बोलो! बोलो! जल्दी बोलो! स्त्रिय ों के कि तने गुण होने चाहि ए? ऐसा कुछ नहीं। फिर भी जब भी उनका विवाह होता है तब पुरुष की अपेक्षा उनके गुण कम ही रहते कि नहीं रहते हैं? अरे होता ही है, ऐसा कुछ नहीं है, बराबर रहते हैं? फिर तो आजकल के पण्डित भी बदल गए मतलब ऐसा हो गया । देखो! पहले जन्मपत्री मि लती थी तो उसमें ऐसा ही होता था । अब आजकल स्त्री -पुरुष के साथ होने लगा हो तो बराबर तो पण्डित भी बदल गए हो तो बात अलग है कि इनका भी दिल रखना पड़ेगा अपने को। पण्डित भी computer हो गए अब तो। कहने का मतलब यह है कि गुणों की कमी-वेशी होते हुए भी हमें यह ध्या न रखना है कि हर कि सी के अन्दर बराबर के ही गुण होते हैं। एक गुण अगर कभी कि सी में कम हो गया या एक गुण की हमें कोई कमी दिखाई दे रही है, तो हम उसको पूरा का पूरा बेकार न समझे। यह बात अगर हमारे दिमाग में रहेगी तो कभी भी हमारे छोटी सी बात पर लड़ाई-झगड़े नहीं होंगे। जब भी लड़ाई-झगड़े का कारण बनेगा तो इसी एकान्त, एक अपेक्षा के सोचने के कारण से होता है। अभी तक सब अच्छा चल रहा था , आपस में, पति -पत्नी के सम्बन्ध में, घरवा लों में भी सब अच्छे सम्बन्ध बने हुए थे। हर कि सी के माता-पि ता, चलना-बैठना सब हो रहा था और धीरे-धीरे एक छोटी सी बात के कारण से अब वह अपने माता-पि ता के घर नहीं जाती। वो उनके माता-पि ता के घर नहीं जाता। समझ आ रहा है? सब कुछ एक छोटी सी बात पर गड़बड़ हो जाता है। क्यों होता है? हमने एक अपेक्षा को ही सारे वस्तु समझ लिया , सारा पदार्थ समझ लिया जब कि वो एक angle से ही वो चीज थी, एक कि सी अपेक्षा से ही वो चीज थी, सर्वथा नहीं थी। वह ी यहा ँ समझना है। आचार्य कहते हैं यहा ँ कि सी पर्याय से सात भंग बन जाते हैं और पर्याय तो अस्थि र होती है। पर्याय तो नष्ट स्व भाव वा ली होती है। इसलि ए आप को यह समझना है कि यह कोई न कोई पर्याय की अपेक्षा से कथन है और यह पर्याय का गुणधर्म उसके अन्दर इस पर्याय की अपेक्षा से आ रहा है, सर्वथा ऐसा नहीं है। इस तरह से यह अनेकान्त का, स्या द्वा द और स्या द्वा द के हर धर्म के साथ घटने वा ली सप्त भंगी की व्यवस्था यह अपने आप में बड़ी अनमोल चीजें हैं। इनका हर जैन व्यक्ति उपयोग करे, इसका व्याख्या न करे। समझे, समझाएँ तो हमारे मन बड़े अच्छे हो सकते हैं क्योंकि विचारों से ही हमारा मन चलता है और मन अच्छा होने पर ही सब कुछ अच्छा होता है। नीचे का पद्यानुवाद पढ़ते हैं:–
पर्या य के वश किसी वह द्रव्य भी है, है न, है उभय, शब्द अतीत भी है।
औ शेष भंग मय भी वह है कहाता, ऐसा कथञ्चित् वही सब में सुहाता।l
RE: प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 23 सप्तभंगी-जैन दर्शन का अनेकान्त दर्शन -
sumit patni - 12-17-2022
According as the substance (dravya) is viewed with regard to its different modes (paryāya), it may be described by the following propositions: 1) in a way it is (asti); 2) in a way it is not (nāsti); 3) in a way it is indescribable (avaktavya); 4) in a way it is and is not (asti-nāsti); and by the remaining three propositions: 5) in a way it is and is indescribable (asti-avaktavya); 6) in a way it is not and is indescribable (nāsti-avaktavya); and 7) in a way it is, is not and is indescribable (asti-nāsti-avaktavya).
Explanatory Note: The substance (dravya) is known through the seven limbs (saptabhańga) of assertion, the one-sided but relative method of comprehension (naya). Every object admits of a four-fold affirmative predication – svacatuÈÇaya – with reference to its own-substance (svadravya), own-space (svakÈetra), own-time (svakāla), and own-nature (svabhāva). Simultaneously, a four-fold negative predication is implied with regard to other-substance (paradravya), other-space (parakÈetra), other-time (parakāla),
and other-nature (parabhāva). The substance (dravya) is viewed not only with regard to own-substance (svadravya) but also with regard to other-substance (paradravya). The substance (dravya) is of the nature of asti with regard to its svacatuÈÇaya. It is of the nature of nāsti with regard to its paracatuÈÇaya. Since both, the affirmation (asti) and the negation (nāsti) cannot be expressed ‘simultaneously’, it is indescribable (avaktavya). Viewed sequentially, it is both, the affirmation and the negation (astināsti). Further, it can be asti-avaktavya, nāsti-avaktavya, and astināsti-avaktavya, depending on the point-of-view. This seven-fold mode of predication – saptabhańgī – with its partly meant and
partly non-meant affirmation (vidhi) and negation (niÈedha), qualified by the word ‘syāt’ (literally, ‘in some respect’; indicative of conditionality of predication) dispels any contradictions that can occur in thought. The viewpoints of absolute existence, oneness, permanence, and describability, and their opposites – absolute non-existence, manyness, non-permanence, and indescribability – corrupt the nature of reality while the use of the word ‘syāt’ (conditional, from a particular standpoint) to qualify the viewpoints makes these logically sustainable.