भगवान् के दर्शन में आह्लाद भाव ही आपके अन्दर विशुद्धि का भाव पैदा करेगा। - Printable Version
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भगवान् के दर्शन में आह्लाद भाव ही आपके अन्दर विशुद्धि का भाव पैदा करेगा। -
Manish Jain - 10-01-2024
अध्यात्म योग
आचार्य पूज्यपादस्वामी द्वारा विरचित इष्टोपदेश पर मुनि श्री प्रणम्यसागरजी के प्रवचनों का संग्रह, अतिशयक्षेत्र बिजोलियाजी, 2016
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः। तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥१॥
आचार्य उस आत्मा को नमस्कार करते हैं जिसने स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो।
स्वभाव की प्राप्ति करने के लिए 'पर' की भी कोई आवश्यकता नहीं है।
जैसे पाषाण के अन्दर प्रतिमा छिपी हुई है वैसे ही हमारे अन्दर परमात्मा छिपा है
मन की एकाग्रता, ध्यान की परिणति कर्म काटने के औजार हैं।
जिनेन्द्र देव के दर्शन करना श्रावक का प्रथम मूलगुण है।
आपको पुण्य फल की प्राप्ति जल्दी चाहिए तो जितनी जल्दी करोगे पुण्य उतना ही छूटेगा। जो हमें जितने उपवास का फल मिलता है उतना मिलेगा लेकिन जल्दी करने से वो जल्दी नहीं मिलेगा परन्तु आपको जल्दी रहती है। जैसे आप घर से निकलते हो तब बाइक पर बैठकर सीधे आप मन्दिर आ जाते हो, आपको लगता है आप मन्दिर जल्दी आ गये और यहाँ वैसी आधुनिक मशीन तो है नहीं। पहले तो भैया बहुत देर में काम बनता था। कोई भी Product तैयार होता था तो समय लगता था। अब मशीनें ऐसी आ गई हैं, जो काम पहले 1 घंटे में होता था वो अब 10 मिनट में हो जाता है। दूसरे काम सब 10 मिनट में हो सकते है लेकिन भीतर भावों का काम 10 मिनट में नहीं हो सकता, उसके लिए आपको वह विधि अपनानी पड़ेगी जो विधि आचार्यों ने बताई है। अगर आचार्यों ने कहा कि कोई श्रावक, स्वच्छ वस्त्र पहन करके, पैरों में किसी प्रकार के जूते चप्पल नहीं पहन करके, भगवान के दर्शन करने की भावना से निकला हो, रास्ते में दया भाव धारण करके जीवों की रक्षा करते हुए मौन से चले और रास्ते में चलते हुए बिल्कुल मौन रहे तो उस श्रावक को ऐसे उपवास का फल, पुण्य फलों की प्राप्ति होगी जो हम आपको अभी यहाँ बता रहे थे। आप कहोगे महाराज ऐसा करना तो थोड़ा कठिन काम है। इससे क्या मतलब है भगवान का दर्शन करना है हम चाहे गाड़ी पर आयें या कैसे भी आकर करे भगवान का दर्शन तो कर रहे हैं। लेकिन वह जो दर्शन करने में आनंद आता है और दर्शन से पहले जो मन में भावना बनती चली जाती है, वह भावना आपकी गाड़ी पर बैठकर एकदम से 5 मिनट में आने पर नहीं बनती। जब आप इस ढंग से भगवान के दर्शन करने जाते हो, जितनी देर लगेगी उतनी ही आपकी विशुद्धि बढ़ेगी। आप विचार तो करो, अगर एक कि.मी. या आधा कि.मी. का रास्ता आप पैदल चल कर जा रहे हो, चुपचाप चले जा रहे हो, कुछ भी हो जयजिनेन्द्र के अलावा कोई दूसरी बात नहीं कर रहे हो और अन्य श्रावक देख ले कि भी यह मन्दिर जा रहा है तो वह भी अपने आप समझ जायेगा कि यह जैन श्रावक मंदिर जा रहे हैं, चुपचाप जा रहे हैं इससे अभी कोई फालतू बात नहीं करनी है, ना इससे कुछ पूछना है। आपकी भावना में जिनेन्द्र भगवान बिल्कुल तैर रहे हैं और आपके अन्दर एक आकर्षण रहेगा हमें भगवान के दर्शन हों-हों-हों यह भाव ही आपके अन्दर विशुद्धि का भाव पैदा करेगा।
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अध्यात्म योग गाथा 1
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Adhyatm Yog Gatha 1
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