03-31-2016, 08:14 AM
इस अध्याय में उमास्वामी आचार्यश्री ३९ सूत्रों के माध्यम से तीसरे 'आस्रव' तत्व के शुभ आस्रव के उपायों;पंच पापो से अपने को सुरक्षित रखने के लिए व्रतों ,उनकी भावनाओं और उनमें लगने वाले अतिचारों पर उपदेश देते हुए प्रथम सूत्र में व्रतों के लक्षण बताते हुए कहते है-
व्रत का लक्षण -
हिंसाऽनृतस्तेयाबृह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् !१!
[b]संधि विच्छेद:-{(हिंसा+अनृत+स्तेय+अबृह्म+परिग्रहे+)भ्य:+विरति:}+व्रतम्[/b]
-हिंसाभ्य:विरति:+अनृतभ्य:विरति:+स्तेयभ्य:विरति:+अबृह्मभ्य:विरति:+परिग्रहेभ्य:विरति:+र्व्रतम्!
शब्दार्थ-हिंसाभ्य:-हिन्सा का,विरति:-त्याग,अनृतभ्य:-झूठ का,विरति:-त्याग,स्तेयभ्य:-चोरी का,विरति- त्याग,अबृह्मभ्य:-अब्रहम/कुशील का,विरति-त्याग,परिग्रहेभ्य:-परिग्रहों का,विरति-त्याग,व्रतम्-व्रत है!
अर्थ-हिंसा,झूठ,चोरी,कुशील और परिग्रहो;पंच पापों का जीवनपर्यन्त बुद्धिपूर्वक त्याग व्रत है!इनके त्याग से क्रमशपंचव्रत;अहिंसाव्रत,सत्यव्रत,अचौर्यव्रत बृह्मचर्यव्रत और अपरिग्रहव्रत,५ व्रत होते है!
विशेष-
१-पंचव्रतों में अहिंसाव्रत प्रधान है इसलिए,सूत्र में सर्वप्रथम रखा है क्योकि शेष चारो;अहिंसा की रक्षा के लिए खेत की बाढ़ के समान है!
शंका-व्रत संवर का कारण होते है,यहाँ आस्रव का कारण क्यों लिया?
समाधान-संवर निवृत्ति रूप होता है,जबकि व्रत यहाँ प्रवृत्तिरूप कहा है क्योकि यहाँ हिंसादि त्यागकर, अहिंसा रूप प्रवृत्ति की चर्चा हो रही है,वह शुभआस्रव का कारण है!इन व्रतों का अभ्यास/प्रवृत्ति भली भांति करने वाले ही संवर भी कर पाते है!मात्र निवृत्ति की चर्चा संवर का कारण होता !
व्रतों के भेद -
देशसर्वतोऽणुमहती !२!
संधिविच्छेद-देश+सर्वत:+अणु+महती
शब्दार्थ-देशत:-एकदेश/आंशिक त्याग-अणुव्रत,सर्वत:-सर्वदेश/सकल/पूर्णतया त्याग,महती-महाव्रत है !
अर्थ-व्रतों के दो भेद है!पांच पापों हिंसा,असत्य,चोरी,कुशील और परिग्रह का आंशिक रूप से त्याग अणुव्रत और सकल/पूर्णतया त्याग महाव्रत है!
भावार्थ-पञ्च पापों के एक देश त्याग से अणुव्रत और पूर्णतया त्याग से महाव्रत कहलाते है!
जैसे हिंसा के एक देश त्याग में-मात्र त्रसजीवों की हिंसा का त्याग करने से अहिंसाणु व्रत किन्तु पूर्णतया-स्थावर जीवों की भी हिंसा का त्याग करने से अहिंसामहाव्रत कहलाता है,यह महान कार्य महानपुरषों द्वारा होता है इनका एकदेश पालकजीवों का पंचम देशविरतगुणस्थान,प्रतिमाधरियों से आर्यिका माता जी का और सर्वदेशपालक का,छठा-प्रमत /सातवाँ अप्रमत्त गुणस्थान,महान मुनि राजों का होता है!इन गुणस्थानों में इनका पालन करने से जीव की असंख्यातगुणी निर्जरा,प्रतिसमय होती है अर्थात संसार बंधन शिथिल पड़ता है!इसलिए इनका पालन अत्यंत महत्वपूर्ण है!
विशेष-(अणु-महाव्रत)
१-अहिंसाव्रत-संसारी जीव षट प्रकार,५ स्थावर और एक त्रस के है ,इनमे केवल त्रस जीवों की हिंसा /घात त्याग अणु अहिंसाव्रत है;स्थावर व त्रस दोनों की हिंसा/घात का त्याग महा(अहिंसा) व्रत है!कषायों के वशी भूत दस प्राणों का घात करना हिंसा है !
२-सत्य व्रत-स्थूल असत्य का त्याग सत्य अणु व्रत है जैसे किसी घटना को जस की तस कहना , बिनाविचार किये की उस सत्य से किसी का घात भी हो सकता है!सूक्ष्म असत्य का त्याग,सत्य महाव्रत है जैसे ऐसे सत्य भी नहीं बोलना जिससे किसी जीव का घात हो जाए!कषायिक भाव पूर्वक अन्यार्थ भाषण करना असत्य है !
३-अचौर्यव्रत-किसी की वस्तु उसकी आज्ञा बिना ले लेना /गिरी हुई वस्तु उठाना आदि चोरी है!स्थूल चोरी का त्याग अचौर्य अणुव्रत है जैसे किसी से पुस्तक/वस्तु उसके पीछे उसके बैग से निकालना , इच्छा के विरुद्ध किसी को दान देने के लिए बाध्य करना, सरकारी राजस्व(टैक्सों ) की चोरी करना आदि!सूक्ष्म चोरी का भी त्याग अचौर्य महाव्रत है,जैसे हाथ धोने के लिए मिटटी भी किसी के द्वारा दिए बिना नहीं लेना! कषाय के वशीभूत किसी का धन सम्पत्ति हड़पना चोरी है !
४-बृह्मचर्य व्रत-अबृह्म/कुशील का स्थूल रूप से त्याग अणु बृह्मचर्य व्रत है जैसे अपनी विवा हितपत्नी/पति से वासनात्मक संबंध छट्टी प्रतिमाधारी तक रखना!सूक्ष्म रूप त्याग में स्त्री/पुरुष मात्र से संबंध नहीं रखना बृह्मचर्य महाव्रत है !इसमें विपरीत लिंगी एक दुसरे के आसान/चादर पर भी नहीं बैठते,वे अपनी आत्मा में ही रमण करते है! कषाय वश किसी के साथ जबरदस्ती संबंध बनना अब्रह्म/कुशील है!
५-अपरिग्रह व्रत-किसी वस्तु रुपया पैसे जमीन जयदाद आदि होना [b]परिग्रह नहीं है अपितु उसमे ममत्व बुद्धि होना कि यह मेरा है 'परिग्रह' है!क्योकि कोई भी वस्तु सदैव हमारे पास नहीं रहेगी/नहीं होगी वह किसी शुभ/अशुभ कर्म के उदय से है/नहीं है! इसलिए हमारे में [/b]परिग्रह के त्याग का भाव स्वेच्छा से होना चाहिए !परिग्रह का स्थूल त्याग अणु अपरिग्रह व्रत है जैसे अपने लाभ भोगोपभोग की सामग्री की एक सीमा निर्धारित क्र उस सीमा का उल्लंघन नहीं करना! परिग्रह का सूक्ष्मत: त्यागअपरिग्रह महाव्रत मुनिराज के होता है जिनके पास पिच्छी कमंडल और शस्त्र के अतिरिक्त अन्य कोई षगरह नहीं होता
उक्त पांचों व्रतों को यथाशक्ति पालन करने से ही हमे कल्याणकारी पथ मिलेगा! अत: इनको अपने जीवन में अंगीकार करना चाहिए
२८-३-१६
आचर्यश्री उमास्वामी जी निम्न सूत्र में मन की चंचलता को रोककर पांच व्रतों की स्थिरता के लिए भावनाओं भाने का उपदेश देते है -
व्रतों की स्थिरता के लिए -
तत्स्थैर्यार्थं भावनाःपञ्च-पञ्च ! ३!
सन्धिविच्छेद-तत्+ स्थैरय:+अर्थं+भावनाः+पञ्च+पञ्च!
अर्थ-तत-उन(अणु/महा)व्रतों;की,[b] स्थैरय:-[/b]स्थिरता,अर्थं-के लिए,भावना:-भावनाए,पञ्च-पञ्च-पांच-पांच है!
भावार्थ-अणु/महाव्रतों की पुष्टि/निर्दोष पालन [b]हेतु,प्रत्येक की पञ्च पञ्च भावनाए है![/b]
विशेष-ये पांच-पांच भावनाए मुख्यतःमहाव्रतो तथा गौण रूप से अणुव्रतो की पुष्टि और निर्दोष पालन हेतु उपदेशित है,इन भावनाओं का ध्यान रखने से अणुव्रती अपने व्रतों को उत्कृष्टपालन कर सकेगें !
अहिंसाव्रत की पञ्च भावनाए-वाड्.मनोगुप्तिर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि-पञ्च !!४!!
सन्धिविच्छेद-वाड्.+मनोगुप्ति+ईर्या+आदाननिक्षेपण+समित्य+आलोकित+पान+भोजनानि+पञ्च
शब्दार्थ-
वाड्.गुप्ति-हितमित,पीड़ारहित,न्यूनतमव नियंत्रित वचन बोलना,वाग्गुप्ति है,अन्यथा हिंसा हो ही जायेगी!
मनोगुप्ति-मन में अवांछित चिंतवन होना भाव हिंसा है,अत:मन को भी वश में रखना चाहिए मन में अशुभ विचारों का चिंतवन नही करना मनोगुप्ती है मन से ,नियंत्रित और उचित चिंतवन करने से भाव-हिंसा नही होती!
ईर्या निक्षेपण समिति-चार हाथ जमीन देखकर चलना चाहिए जिससे जीव की हिंसा न हो!आदाननिक्षेपण समिति-किसी वस्तु को एक स्थान से दुसरे स्थान पर रखने/उठाने से पूर्व देख शोध कर उठाना/रखना आदान निक्षेपण समिति है !
आलोकित पान भोजन-सूर्य के प्रकाश में बनाया और उससे प्रकाशित समय में ही भोजन/आहार,जल ग्रहण करना!इसके विपरीत रात्रि /अन्धकार में,(जहा सूर्य का प्रकाश नहीं आ रहा है) बनाये/ग्रहण किये गए भोजन में जीव हिंसा से बचना असंभव है क्योकि वे दिखगे नहीं! जीव रक्षा का ध्यान रखना अनिवार्य है
पञ्च-इन पांच भावनाए का निरंतर ध्यान रहने से अहिंसामहाव्रत का दोषरहित पालन होता है,परिणा मों की विशुद्धि के कारण कर्मों की असंख्यात गुणि निर्जरा होगी,महान पुन्यबंध होगा !
विशेष:-,सूर्योदय होने के एक घड़ी पश्चात भोजन बनाने का विधान है,रसोई के समस्त कार्य चक्की की सफाई,आटा,मसाले की पिसाई,पीने का पानी,दुग्धादि गर्म करना सूर्योदय के एक घड़ी बाद ही करने चाहिए अन्यथा सूक्ष्म जीव जंतु देखना असंभव होगा और उनकी हिंसा से बच नहीं पायेगे तथा आलोकित पान भोजन नहीं कहलायेगा! अनेको जीव सूर्योदय होने के एक घड़ी के बाद तथा सूर्यास्त से १ घड़ी पूर्व तक उत्पन्न नहीं होते इसलिए रात्रि में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म जीवों की हिंसा के घात से तो हम दिन में भोजन ग्रहण करने से बच जाते है !
इन भावनाओं के भाने से व्रतों का निर्दोष पालन होता है,भावों की निरंतर विशुद्धता बढ़ती है !
सत्यव्रत की पांच भावनाये -
"क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च" !!५!!
संधि विच्छेद-(क्रोध+लोभ+भीरुत्व+हास्य)+प्रत्याख्यान+अनुवीचि+भाषणं+च+पञ्च
शब्दार्थ-क्रोधप्रत्याख्यान,लोभप्रत्याख्यान,भीरुत्वप्रत्याख्यान,हास्यप्रत्याख्यान,अनुवीचिभाषणं-आगमनुसार वचन बोलना,च-और,५-५ सत्यव्रत की भावनाये है !
अर्थ-क्रोधप्रत्याख्यान-क्रोध का त्याग;क्रोध में कठोर,कडवे,गाली रूप अभद्र वचन,विवेकहीन होने से असत्य है!
लोभप्रत्याख्यान-लोभ का त्याग;लोभवश झूठ बोलकर,स्वर्ण में ताम्बा/पीतल मिलाकर बेचना असत्य है
भीरुत्वप्रत्याख्यान-भय का त्याग;डर के कारण असत्य बोला जाता है!जो की असत्य है!
हास्यप्रत्याख्यान-हास्य का त्याग;हसीं-मजाक में चुभने वाले असत्य वचन बोले जाते है!अनुवीचिभाषणं-आगमानुसार निर्दोष सत्य वचन बोलना!जैसे किसी को अदरक की चाय रोग निवारण के लिए,लेने के लिए नहीं कहना क्योकि अदरक के सेवन से जीवहिंसा होती है या किसी को घस्स पर प्रांत अथवा सायंकालीन सहर के लिए नहीं कहना!
च पञ्च-ये पांच भावनाए सत्यव्रत की है !
भावार्थ-क्रोध,लोभ,भीरुत्व,हास्य के;प्रत्याख्यान और अनुवीचिभाषण,इन ५ भावनाओं के भाने से निर्दोष सत्यव्रत का पालन हो सकेगा,इसलिए इनका ध्यान रखना नितांत आवष्यक है
विशेष- क्रोध,हास्य,भीरु,हास्य वश बोले सत्य वचन भी असत्य होते है!वचन किसी को कष्ट देने वाले नहीं हो पर ही सत्य है !
अचौर्य व्रत की पञ्च भावनाए -
'शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धिसधर्माऽविसंवादापञ्च!' !!६!!
संधि विच्छेद-शून्यागार+विमोचित+आवास+पर+उपरोधाकरण+भैक्ष्यशुद्धि+सधर्मा+अविसंवादा+पञ्च
शब्दार्थ -शून्यागार-निर्जन स्थान,विमोचित-छोड़े हुए खाली,आवास-स्थान धर्मशालादि,पर उपरोधाकरण-अन्यों को,अपने द्वारा रोके हुए स्थान पर ठहरने से रोकना,भैक्ष्यशुद्धि-४६ दोषो रहित आहार ग्रहण करना,सधर्मा-सहधर्मी से,अविसंवादा- मेरा है./तेरा है जैसे विसंवाद नहीं करना,पञ्च-पांच
अर्थ-शून्यागारवास-निर्जन स्थान जैसे वृक्ष की कोटर,पर्वतों की गुफाओं,स्कूल में रहना!जिससे,गृहस्थ के साथ रहने से,उसकी किसी वस्तु के चोरी/ग्रहण करने के भाव ही जागृत नहीं हो!
विमोचित आवास-धर्मशालादि,छोड़े हुए खाली स्थानों में निवास करना!जिससे वहां भी,निमित्त के अभाव में विकारी भाव उतपन्न नहीं होवे !
परउपरोधाकरण-अपने ठहरे हुए स्थान पर किसी अन्य के आने पर,उसके ठहरने में बाधा नहीं डालना क्योकि वह स्थान आपका अपना नहीं है,उसे अपना नहीं माना जा सकता है!
भैक्ष्यशुद्धि-आहार की शुद्धि ४६ दोषों रहित,निर्दोष शुद्ध [b]आहार लेना चाहिए!भोजन अशुद्ध है,अथवा अनुचित व्यवसाय/नौकरी से अर्जित धन से निर्मित है तो उसे ग्रहण करने से परिणाम दूषित होंगे!तपस्या में विघ्न पडेगा![/b]
सधर्मा अविसंवादा-सधर्मियों के साथ यह तेरा/मेरा है,इस प्रकार का विसंवाद नहीं करना! मंदिर के फण्ड को हत्याने की कुचेष्टा/उसका दुरूपयोग करना!इनसे अचौर्यव्रत,व्रती नहीं रह पायेगा ! ]
पञ्च-पञ्च भावनाए अचौर्य व्रत की है!
भावार्थ-शून्यागारवास,विमोचितआवास,परउपरोधाकरण,भैक्ष्यशुद्धि एवं सधर्मी अविसंवाद ,इन पांच भावनाएं भाने से, निर्दोष सत्य व्रत का पालन हो सकेगा,इसलिए इनका ध्यान रखना नितांत आवष्यक है!
अध्याय ७ - शुभ आस्रव
ब्रह्मचर्यव्रत की पञ्च भावनाए -
स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाःपञ्च !!७!!
संधि विच्छेद -
(स्त्री+रागकथा+श्रवण+तत्+मनोह+अंग+निरीक्षण+पूर्वरत+अनुस्मरण+वृष्य+ईष्ट+रस+स्वशरीर+संस्कार) +त्यागाः पञ्च
शब्दार्थ-स्त्रीरागकथा-स्त्री राग कथा,श्रवण-सुनने,तत्-उनके,मनोह-मनोहर +अंग- अंगों के,निरीक्षण-निरिक्षण,पूर्वरत-पूर्व में भोगे भोगों,अनुस्मरण-केस्मरण, वृष्य-गरिष्ट,ईष्ट-ईष्ट,रस- रस,स्वशरीर-अपने शरीर का,संस्कार-श्रृंगार करने,त्यागाः-का त्याग करना,पञ्च-पांच ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाए है
भावार्थ:-स्त्री राग कथा श्रवण त्यागाः-स्त्री में राग बढाने वाली कथाओं जैसे,सनीमा,टी.वी,पत्रिकाओं में उत्तेजक विज्ञापनों के सुनने/देखने का त्याग करना!
तन्मनोहर अंगनिरीक्षण का त्यागाः-उन(स्त्रियों/पुरुषों)के मनोहर अंगों को घूरने,अश्लील चित्रों, वीडि यो आदि के देखने का त्याग करना !
पूर्व रत अनुस्मरण त्यागाः-ग्रहस्थावस्था में भोगे गए भोगों के स्मरण का त्याग करना क्योकि उनके स्मरण करने से परिणाम दूषित होते है!!
वृष्य [b]ईष्ट रस त्यागाः-[/b]वृष्ट-गरिष्ट जैसे;दाल-बाटी,बादाम के हलवे,घेवर आदि, इष्ट रसों -अपने को अच्छे लगने वाले रसों नमक.मीठा आदि का त्याग करना जिससे भोजन स्वादरहित होने से इन्द्रियां नियंत्रित रहेगी!
स्वशरीर संस्का रत्यागाः-अपने शरीर का सेंट आदि से श्रृंगारित करने का त्याग करना! व्रती के वस्त्र साधारण होने चाहिए! अन्यथा व्रतों में दोष लगता है
पञ्च-ये ब्रह्मचर्य व्रत की पांच भावनाए है!
विशेष उक्त पंच भावनाएं निरंतर भाने से [b]ब्रह्मचर्यव्रत का निर्दोष पालन होता है [/b]
परिग्रहत्याग व्रत की पांच भावनाए -
मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानिपञ्च !!८!!
संधिविच्छेद:-{(मनोज्ञ+अमनोज्ञ)+इन्द्रियविषय+राग}-द्वेष+वर्जनानि पञ्च
शब्दार्थ-मनोज्ञ-मन को अच्छे लगने वाले,अमनोज्ञ-मन को अच्छे नहीं वाले, इन्द्रियविषय-इन्द्रिय विषय,राग-द्वेष-राग और द्वेष रूप,वर्जनानि-त्याग करना , पञ्च-पांच
अर्थ-मनोज्ञ इन्द्रिय विषय राग वर्जनानि -मन को अच्छे लगने वाले इन्द्रिय विषयों में राग होने से परिग्रह आयेगा अतःपंचेन्द्रिय विषयों में राग का त्याग करना !
अमनोज्ञ इन्द्रिय विषय द्वेष वर्जनानि-मन को बुरे लगने वाले इन्द्रिय विषयों में द्वेष होने से भी परिग्रह आयेगा!अतः अमनोज्ञ पंचेन्द्रिय विषयों में द्वेष का त्याग करना,ऐसे नहीं करने पर पंचेन्द्रिय विषयों का संग्रह बढता ही जाएगा !
पञ्च -पांच परिग्रह व्रत की भावनाए है!
भावार्थ- इन्द्रिये पांच;स्पर्शन,रसना,घ्राण,चक्षु,कर्ण है! इन पांचो इन्द्रियो,के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग का और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना जैसे -
१-स्पर्शन इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना! किसी वस्तु को राग वश नहीं छोड़ना और अन्य वस्तु को द्वेष व[b]श छोड़ना,इन दोनों का ही त्याग करना है ![/b]
२-रसना इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!जैसे जीव्हा को अच्छे लगने वाले मीठे रसों से राग होना तथा कड़वे रसों को द्वेष वश अच्छा नहीं लग्न -दोनों का ही त्याग करना है
३-घ्राण इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!जैसे सुगंधित वस्तुओं को राग वष सूघना और दुर्गन्धित वस्तुओं को नहीं सूघना ,दोनों का ही त्याग करना है !
४-चक्षु इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!-जैसे खूबसूरत लोगों को राग वष देखने और कुरूप को नहीं देखा ,दोनों का ही त्याग करना है
५-कर्ण इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में, राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!जैसे मधुर संगीत को सुनने में राग और भोंडे संगीत को द्वेष के वशीभूत न सुनने का त्याग !
उक्त पाँचों भावनाये भाने से निर्दोष अपरिग्रहव्रत का पालन होता है!
हिंसादि पंच पापों से विरक्त होने की भावना
हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् !!९!!
संधिविच्छेद:-हिंसादिषु+इह+अमुत्र+अपाय+अवद्य+दर्शनम्।
शब्दार्थ -हिंसादिषु-हिंसादि,इह-इस,अमुत्र-परलोक,अपाय-दुःख,अवद्य-निंदा,दर्शनम्-देखनी/होती है ।
भावार्थ- हिन्सादी पांच पापों से,इस लोक और परलोक दोनों में हमें दुःख और निंदा प्राप्त होते है , ऐसे विचारने से हिन्सादी पांच पापों में मन लगेगा ही नहीं! पांच भावनाए परिग्रहव्रत की है!
पापों से विरक्ति की भावना
दु:खमेव वा !!१०!!
संधिविच्छेद -दुखम+इव+वा
शब्दार्थ-दुखम-दुःख,इव-ये,वा-रूप ही है
अर्थ -ये हिंसादि पाँचों पाप दुःख देने वाले ही है,अत: ये त्याज्य है!
विशेष- यहां किरण मे कार्य का उपचार है ,क्योकि हिंसादि दुःख के कारण है किन्तु उन्हें कार्य दुःख रूप कहा है !
व्रती सम्यग्दृष्टि की भावनाये -
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानिचसत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाऽविनयेषु!!११!!संधि विच्छेद-मैत्री+प्रमोद+कारुण्य+माध्यस्थानि+च+सत्त्व+गुणाधिक+क्लिश्यमाना+अविनयेषुशब्दार्थ-मैत्री- प्रमोद-प्रसन्नता,कारुण्य-करुणामय भाव,माध्यस्थानि-मध्यस्थ भाव च सत्त्व-समस्त जीवों ,गुणाधिक-अधिक गुणवानों,क्लिश्यमाना-दुखियों ,/भिन्नमतियों और ,अविनयेषु-अविनय भाव रखना चाहिए अर्थ-और जीव मात्र के,अधिक गुणवानों,दुखियों और अविनयशील जीवों के प्रति क्रमश: मैत्री, प्रसन्ता, करुणा और मध्यस्था का भाव होना चाहिए!भावार्थ-समस्त जीवों के प्रति मैत्री,रत्नत्रय की अपेक्षा अधिक गुणवानों के प्रति प्रमोद-प्रसन्नता का भाव चेहरे पर होना चाहिए जिसे अंतरंग से भक्ति भाव जागृत हो,जैसे; मुनिराज के पधारने से धर्मा- मृत की वर्षा होगी!,असता कर्म के उदय से दुखियों/क्लिष्टों के प्रति करुणा का भाव -अर्थात उनके कष्टों को दूर करने का भाव होना चाहिए तथा अविनयशील-जो तत्वार्थ श्रद्धानन रहित है /अन्य मतियों जिनसे हमारे रहन,सहन,खाने-पीने में तारतम्यता नही है,के प्रति मध्यस्थता;/अर्थात उनके अच्छे/उनकी समृद्धि बढ़ने पर,बुरा न लगे और उनके बुरा होने पर या कोई आपत्ति आने पर अच्छा न लगे,ऐसे विचार की उन्हें सदबुद्धि आये) के भाव होने चाहिए!
संसार व शरीर के स्वभाव का विचार
जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् -!!१२!! संधि विच्छेद-जगत्काय+स्वभावौ+वा+संवेग+वैराग्यार्थम्शब्दार्थ -जगत-संसार,काय-शरीर ,स्वभावौ-स्वाभाव,वा-अथवा ,संवेग-संसार से भय,वैराग्यार्थम्-वैराग्य अर्थात राग-द्वेष के अभाव हेतु, अर्थ-संसार के स्वभाव का चिंतन करने से संवेग अर्थात संसार से भय और शरीर के चितवन से वैराग्य (राग-द्वेष से मुक्ति) होता है!भावार्थ-संवेग के लिए संसार के स्वभाव/स्वरुप और वैराग्य के लिए काय के स्वरुप का चिंतवन करना चाहिए!इससे व्रतों का पालन निर्दोष होगा !
विशेष-१-यदि संवेगभाव,अर्थात संसार में अरुचि भाव है/संसार शरीर भोगों से वैराग्य हो गया/अथवा वैराग्य निरंतर वृद्धिगत है तो व्रतों का भली प्रकार,दोष रहित/उचित पालन के लिए संवेग और वैराग्य परिणाम अत्यंत सहकारी है!संवेग परिणाम के लिए संसार का चिंतवन करना है!यह अनादिनिधन,अनादिकाल से है!वेत्रासन के ऊपर झालर और उसके ऊपर मृदंग के समान लोक का आकार है!इसमें अनंत काल से जीव नाना योनियों में दुःख भोग रहा है!इसमे कोई भी वस्तु नियत नहीं है !जीवन जल के बुलबुले समान नश्वर है!भोग संपदाये बिजली के इन्द्रधनुष के समान भंगुर व् चंचल है यहाँ सभी स्वार्थवश अपने सगे संबंधी होते है,किन्तु कटु सत्य है कि यहाँ कोई किसी का नहीं है अत:संसार असार है इसलिए इसमें रूचि क्यों होनी चाहिए!इस प्रकार चिंतवन करने से संसार से अरुचि होती है वैराग्य के लिए शरीर के स्वभाव का चिंतवन करे,इससे क्या रति करनी,नश्वर है अशुचिता-मल,मूत्र,अस्थि,मांस रुधिर इत्यादि सप्त धातुओं का भंडार है!इसलिए निरंतर संसार और शरीर का चिंतवन करने से क्रमश संवेग और वैराग्य भावना वृद्धिगत होती है जिससे निर्दोष व्रतों का पालन होता है !हिंसापाप का लक्षण-
व्रत का लक्षण -
हिंसाऽनृतस्तेयाबृह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् !१!
[b]संधि विच्छेद:-{(हिंसा+अनृत+स्तेय+अबृह्म+परिग्रहे+)भ्य:+विरति:}+व्रतम्[/b]
-हिंसाभ्य:विरति:+अनृतभ्य:विरति:+स्तेयभ्य:विरति:+अबृह्मभ्य:विरति:+परिग्रहेभ्य:विरति:+र्व्रतम्!
शब्दार्थ-हिंसाभ्य:-हिन्सा का,विरति:-त्याग,अनृतभ्य:-झूठ का,विरति:-त्याग,स्तेयभ्य:-चोरी का,विरति- त्याग,अबृह्मभ्य:-अब्रहम/कुशील का,विरति-त्याग,परिग्रहेभ्य:-परिग्रहों का,विरति-त्याग,व्रतम्-व्रत है!
अर्थ-हिंसा,झूठ,चोरी,कुशील और परिग्रहो;पंच पापों का जीवनपर्यन्त बुद्धिपूर्वक त्याग व्रत है!इनके त्याग से क्रमशपंचव्रत;अहिंसाव्रत,सत्यव्रत,अचौर्यव्रत बृह्मचर्यव्रत और अपरिग्रहव्रत,५ व्रत होते है!
विशेष-
१-पंचव्रतों में अहिंसाव्रत प्रधान है इसलिए,सूत्र में सर्वप्रथम रखा है क्योकि शेष चारो;अहिंसा की रक्षा के लिए खेत की बाढ़ के समान है!
शंका-व्रत संवर का कारण होते है,यहाँ आस्रव का कारण क्यों लिया?
समाधान-संवर निवृत्ति रूप होता है,जबकि व्रत यहाँ प्रवृत्तिरूप कहा है क्योकि यहाँ हिंसादि त्यागकर, अहिंसा रूप प्रवृत्ति की चर्चा हो रही है,वह शुभआस्रव का कारण है!इन व्रतों का अभ्यास/प्रवृत्ति भली भांति करने वाले ही संवर भी कर पाते है!मात्र निवृत्ति की चर्चा संवर का कारण होता !
व्रतों के भेद -
देशसर्वतोऽणुमहती !२!
संधिविच्छेद-देश+सर्वत:+अणु+महती
शब्दार्थ-देशत:-एकदेश/आंशिक त्याग-अणुव्रत,सर्वत:-सर्वदेश/सकल/पूर्णतया त्याग,महती-महाव्रत है !
अर्थ-व्रतों के दो भेद है!पांच पापों हिंसा,असत्य,चोरी,कुशील और परिग्रह का आंशिक रूप से त्याग अणुव्रत और सकल/पूर्णतया त्याग महाव्रत है!
भावार्थ-पञ्च पापों के एक देश त्याग से अणुव्रत और पूर्णतया त्याग से महाव्रत कहलाते है!
जैसे हिंसा के एक देश त्याग में-मात्र त्रसजीवों की हिंसा का त्याग करने से अहिंसाणु व्रत किन्तु पूर्णतया-स्थावर जीवों की भी हिंसा का त्याग करने से अहिंसामहाव्रत कहलाता है,यह महान कार्य महानपुरषों द्वारा होता है इनका एकदेश पालकजीवों का पंचम देशविरतगुणस्थान,प्रतिमाधरियों से आर्यिका माता जी का और सर्वदेशपालक का,छठा-प्रमत /सातवाँ अप्रमत्त गुणस्थान,महान मुनि राजों का होता है!इन गुणस्थानों में इनका पालन करने से जीव की असंख्यातगुणी निर्जरा,प्रतिसमय होती है अर्थात संसार बंधन शिथिल पड़ता है!इसलिए इनका पालन अत्यंत महत्वपूर्ण है!
विशेष-(अणु-महाव्रत)
१-अहिंसाव्रत-संसारी जीव षट प्रकार,५ स्थावर और एक त्रस के है ,इनमे केवल त्रस जीवों की हिंसा /घात त्याग अणु अहिंसाव्रत है;स्थावर व त्रस दोनों की हिंसा/घात का त्याग महा(अहिंसा) व्रत है!कषायों के वशी भूत दस प्राणों का घात करना हिंसा है !
२-सत्य व्रत-स्थूल असत्य का त्याग सत्य अणु व्रत है जैसे किसी घटना को जस की तस कहना , बिनाविचार किये की उस सत्य से किसी का घात भी हो सकता है!सूक्ष्म असत्य का त्याग,सत्य महाव्रत है जैसे ऐसे सत्य भी नहीं बोलना जिससे किसी जीव का घात हो जाए!कषायिक भाव पूर्वक अन्यार्थ भाषण करना असत्य है !
३-अचौर्यव्रत-किसी की वस्तु उसकी आज्ञा बिना ले लेना /गिरी हुई वस्तु उठाना आदि चोरी है!स्थूल चोरी का त्याग अचौर्य अणुव्रत है जैसे किसी से पुस्तक/वस्तु उसके पीछे उसके बैग से निकालना , इच्छा के विरुद्ध किसी को दान देने के लिए बाध्य करना, सरकारी राजस्व(टैक्सों ) की चोरी करना आदि!सूक्ष्म चोरी का भी त्याग अचौर्य महाव्रत है,जैसे हाथ धोने के लिए मिटटी भी किसी के द्वारा दिए बिना नहीं लेना! कषाय के वशीभूत किसी का धन सम्पत्ति हड़पना चोरी है !
४-बृह्मचर्य व्रत-अबृह्म/कुशील का स्थूल रूप से त्याग अणु बृह्मचर्य व्रत है जैसे अपनी विवा हितपत्नी/पति से वासनात्मक संबंध छट्टी प्रतिमाधारी तक रखना!सूक्ष्म रूप त्याग में स्त्री/पुरुष मात्र से संबंध नहीं रखना बृह्मचर्य महाव्रत है !इसमें विपरीत लिंगी एक दुसरे के आसान/चादर पर भी नहीं बैठते,वे अपनी आत्मा में ही रमण करते है! कषाय वश किसी के साथ जबरदस्ती संबंध बनना अब्रह्म/कुशील है!
५-अपरिग्रह व्रत-किसी वस्तु रुपया पैसे जमीन जयदाद आदि होना [b]परिग्रह नहीं है अपितु उसमे ममत्व बुद्धि होना कि यह मेरा है 'परिग्रह' है!क्योकि कोई भी वस्तु सदैव हमारे पास नहीं रहेगी/नहीं होगी वह किसी शुभ/अशुभ कर्म के उदय से है/नहीं है! इसलिए हमारे में [/b]परिग्रह के त्याग का भाव स्वेच्छा से होना चाहिए !परिग्रह का स्थूल त्याग अणु अपरिग्रह व्रत है जैसे अपने लाभ भोगोपभोग की सामग्री की एक सीमा निर्धारित क्र उस सीमा का उल्लंघन नहीं करना! परिग्रह का सूक्ष्मत: त्यागअपरिग्रह महाव्रत मुनिराज के होता है जिनके पास पिच्छी कमंडल और शस्त्र के अतिरिक्त अन्य कोई षगरह नहीं होता
उक्त पांचों व्रतों को यथाशक्ति पालन करने से ही हमे कल्याणकारी पथ मिलेगा! अत: इनको अपने जीवन में अंगीकार करना चाहिए
२८-३-१६
आचर्यश्री उमास्वामी जी निम्न सूत्र में मन की चंचलता को रोककर पांच व्रतों की स्थिरता के लिए भावनाओं भाने का उपदेश देते है -
व्रतों की स्थिरता के लिए -
तत्स्थैर्यार्थं भावनाःपञ्च-पञ्च ! ३!
सन्धिविच्छेद-तत्+ स्थैरय:+अर्थं+भावनाः+पञ्च+पञ्च!
अर्थ-तत-उन(अणु/महा)व्रतों;की,[b] स्थैरय:-[/b]स्थिरता,अर्थं-के लिए,भावना:-भावनाए,पञ्च-पञ्च-पांच-पांच है!
भावार्थ-अणु/महाव्रतों की पुष्टि/निर्दोष पालन [b]हेतु,प्रत्येक की पञ्च पञ्च भावनाए है![/b]
विशेष-ये पांच-पांच भावनाए मुख्यतःमहाव्रतो तथा गौण रूप से अणुव्रतो की पुष्टि और निर्दोष पालन हेतु उपदेशित है,इन भावनाओं का ध्यान रखने से अणुव्रती अपने व्रतों को उत्कृष्टपालन कर सकेगें !
अहिंसाव्रत की पञ्च भावनाए-वाड्.मनोगुप्तिर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि-पञ्च !!४!!
सन्धिविच्छेद-वाड्.+मनोगुप्ति+ईर्या+आदाननिक्षेपण+समित्य+आलोकित+पान+भोजनानि+पञ्च
शब्दार्थ-
वाड्.गुप्ति-हितमित,पीड़ारहित,न्यूनतमव नियंत्रित वचन बोलना,वाग्गुप्ति है,अन्यथा हिंसा हो ही जायेगी!
मनोगुप्ति-मन में अवांछित चिंतवन होना भाव हिंसा है,अत:मन को भी वश में रखना चाहिए मन में अशुभ विचारों का चिंतवन नही करना मनोगुप्ती है मन से ,नियंत्रित और उचित चिंतवन करने से भाव-हिंसा नही होती!
ईर्या निक्षेपण समिति-चार हाथ जमीन देखकर चलना चाहिए जिससे जीव की हिंसा न हो!आदाननिक्षेपण समिति-किसी वस्तु को एक स्थान से दुसरे स्थान पर रखने/उठाने से पूर्व देख शोध कर उठाना/रखना आदान निक्षेपण समिति है !
आलोकित पान भोजन-सूर्य के प्रकाश में बनाया और उससे प्रकाशित समय में ही भोजन/आहार,जल ग्रहण करना!इसके विपरीत रात्रि /अन्धकार में,(जहा सूर्य का प्रकाश नहीं आ रहा है) बनाये/ग्रहण किये गए भोजन में जीव हिंसा से बचना असंभव है क्योकि वे दिखगे नहीं! जीव रक्षा का ध्यान रखना अनिवार्य है
पञ्च-इन पांच भावनाए का निरंतर ध्यान रहने से अहिंसामहाव्रत का दोषरहित पालन होता है,परिणा मों की विशुद्धि के कारण कर्मों की असंख्यात गुणि निर्जरा होगी,महान पुन्यबंध होगा !
विशेष:-,सूर्योदय होने के एक घड़ी पश्चात भोजन बनाने का विधान है,रसोई के समस्त कार्य चक्की की सफाई,आटा,मसाले की पिसाई,पीने का पानी,दुग्धादि गर्म करना सूर्योदय के एक घड़ी बाद ही करने चाहिए अन्यथा सूक्ष्म जीव जंतु देखना असंभव होगा और उनकी हिंसा से बच नहीं पायेगे तथा आलोकित पान भोजन नहीं कहलायेगा! अनेको जीव सूर्योदय होने के एक घड़ी के बाद तथा सूर्यास्त से १ घड़ी पूर्व तक उत्पन्न नहीं होते इसलिए रात्रि में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म जीवों की हिंसा के घात से तो हम दिन में भोजन ग्रहण करने से बच जाते है !
इन भावनाओं के भाने से व्रतों का निर्दोष पालन होता है,भावों की निरंतर विशुद्धता बढ़ती है !
सत्यव्रत की पांच भावनाये -
"क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च" !!५!!
संधि विच्छेद-(क्रोध+लोभ+भीरुत्व+हास्य)+प्रत्याख्यान+अनुवीचि+भाषणं+च+पञ्च
शब्दार्थ-क्रोधप्रत्याख्यान,लोभप्रत्याख्यान,भीरुत्वप्रत्याख्यान,हास्यप्रत्याख्यान,अनुवीचिभाषणं-आगमनुसार वचन बोलना,च-और,५-५ सत्यव्रत की भावनाये है !
अर्थ-क्रोधप्रत्याख्यान-क्रोध का त्याग;क्रोध में कठोर,कडवे,गाली रूप अभद्र वचन,विवेकहीन होने से असत्य है!
लोभप्रत्याख्यान-लोभ का त्याग;लोभवश झूठ बोलकर,स्वर्ण में ताम्बा/पीतल मिलाकर बेचना असत्य है
भीरुत्वप्रत्याख्यान-भय का त्याग;डर के कारण असत्य बोला जाता है!जो की असत्य है!
हास्यप्रत्याख्यान-हास्य का त्याग;हसीं-मजाक में चुभने वाले असत्य वचन बोले जाते है!अनुवीचिभाषणं-आगमानुसार निर्दोष सत्य वचन बोलना!जैसे किसी को अदरक की चाय रोग निवारण के लिए,लेने के लिए नहीं कहना क्योकि अदरक के सेवन से जीवहिंसा होती है या किसी को घस्स पर प्रांत अथवा सायंकालीन सहर के लिए नहीं कहना!
च पञ्च-ये पांच भावनाए सत्यव्रत की है !
भावार्थ-क्रोध,लोभ,भीरुत्व,हास्य के;प्रत्याख्यान और अनुवीचिभाषण,इन ५ भावनाओं के भाने से निर्दोष सत्यव्रत का पालन हो सकेगा,इसलिए इनका ध्यान रखना नितांत आवष्यक है
विशेष- क्रोध,हास्य,भीरु,हास्य वश बोले सत्य वचन भी असत्य होते है!वचन किसी को कष्ट देने वाले नहीं हो पर ही सत्य है !
अचौर्य व्रत की पञ्च भावनाए -
'शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धिसधर्माऽविसंवादापञ्च!' !!६!!
संधि विच्छेद-शून्यागार+विमोचित+आवास+पर+उपरोधाकरण+भैक्ष्यशुद्धि+सधर्मा+अविसंवादा+पञ्च
शब्दार्थ -शून्यागार-निर्जन स्थान,विमोचित-छोड़े हुए खाली,आवास-स्थान धर्मशालादि,पर उपरोधाकरण-अन्यों को,अपने द्वारा रोके हुए स्थान पर ठहरने से रोकना,भैक्ष्यशुद्धि-४६ दोषो रहित आहार ग्रहण करना,सधर्मा-सहधर्मी से,अविसंवादा- मेरा है./तेरा है जैसे विसंवाद नहीं करना,पञ्च-पांच
अर्थ-शून्यागारवास-निर्जन स्थान जैसे वृक्ष की कोटर,पर्वतों की गुफाओं,स्कूल में रहना!जिससे,गृहस्थ के साथ रहने से,उसकी किसी वस्तु के चोरी/ग्रहण करने के भाव ही जागृत नहीं हो!
विमोचित आवास-धर्मशालादि,छोड़े हुए खाली स्थानों में निवास करना!जिससे वहां भी,निमित्त के अभाव में विकारी भाव उतपन्न नहीं होवे !
परउपरोधाकरण-अपने ठहरे हुए स्थान पर किसी अन्य के आने पर,उसके ठहरने में बाधा नहीं डालना क्योकि वह स्थान आपका अपना नहीं है,उसे अपना नहीं माना जा सकता है!
भैक्ष्यशुद्धि-आहार की शुद्धि ४६ दोषों रहित,निर्दोष शुद्ध [b]आहार लेना चाहिए!भोजन अशुद्ध है,अथवा अनुचित व्यवसाय/नौकरी से अर्जित धन से निर्मित है तो उसे ग्रहण करने से परिणाम दूषित होंगे!तपस्या में विघ्न पडेगा![/b]
सधर्मा अविसंवादा-सधर्मियों के साथ यह तेरा/मेरा है,इस प्रकार का विसंवाद नहीं करना! मंदिर के फण्ड को हत्याने की कुचेष्टा/उसका दुरूपयोग करना!इनसे अचौर्यव्रत,व्रती नहीं रह पायेगा ! ]
पञ्च-पञ्च भावनाए अचौर्य व्रत की है!
भावार्थ-शून्यागारवास,विमोचितआवास,परउपरोधाकरण,भैक्ष्यशुद्धि एवं सधर्मी अविसंवाद ,इन पांच भावनाएं भाने से, निर्दोष सत्य व्रत का पालन हो सकेगा,इसलिए इनका ध्यान रखना नितांत आवष्यक है!
अध्याय ७ - शुभ आस्रव
ब्रह्मचर्यव्रत की पञ्च भावनाए -
स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाःपञ्च !!७!!
संधि विच्छेद -
(स्त्री+रागकथा+श्रवण+तत्+मनोह+अंग+निरीक्षण+पूर्वरत+अनुस्मरण+वृष्य+ईष्ट+रस+स्वशरीर+संस्कार) +त्यागाः पञ्च
शब्दार्थ-स्त्रीरागकथा-स्त्री राग कथा,श्रवण-सुनने,तत्-उनके,मनोह-मनोहर +अंग- अंगों के,निरीक्षण-निरिक्षण,पूर्वरत-पूर्व में भोगे भोगों,अनुस्मरण-केस्मरण, वृष्य-गरिष्ट,ईष्ट-ईष्ट,रस- रस,स्वशरीर-अपने शरीर का,संस्कार-श्रृंगार करने,त्यागाः-का त्याग करना,पञ्च-पांच ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाए है
भावार्थ:-स्त्री राग कथा श्रवण त्यागाः-स्त्री में राग बढाने वाली कथाओं जैसे,सनीमा,टी.वी,पत्रिकाओं में उत्तेजक विज्ञापनों के सुनने/देखने का त्याग करना!
तन्मनोहर अंगनिरीक्षण का त्यागाः-उन(स्त्रियों/पुरुषों)के मनोहर अंगों को घूरने,अश्लील चित्रों, वीडि यो आदि के देखने का त्याग करना !
पूर्व रत अनुस्मरण त्यागाः-ग्रहस्थावस्था में भोगे गए भोगों के स्मरण का त्याग करना क्योकि उनके स्मरण करने से परिणाम दूषित होते है!!
वृष्य [b]ईष्ट रस त्यागाः-[/b]वृष्ट-गरिष्ट जैसे;दाल-बाटी,बादाम के हलवे,घेवर आदि, इष्ट रसों -अपने को अच्छे लगने वाले रसों नमक.मीठा आदि का त्याग करना जिससे भोजन स्वादरहित होने से इन्द्रियां नियंत्रित रहेगी!
स्वशरीर संस्का रत्यागाः-अपने शरीर का सेंट आदि से श्रृंगारित करने का त्याग करना! व्रती के वस्त्र साधारण होने चाहिए! अन्यथा व्रतों में दोष लगता है
पञ्च-ये ब्रह्मचर्य व्रत की पांच भावनाए है!
विशेष उक्त पंच भावनाएं निरंतर भाने से [b]ब्रह्मचर्यव्रत का निर्दोष पालन होता है [/b]
परिग्रहत्याग व्रत की पांच भावनाए -
मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानिपञ्च !!८!!
संधिविच्छेद:-{(मनोज्ञ+अमनोज्ञ)+इन्द्रियविषय+राग}-द्वेष+वर्जनानि पञ्च
शब्दार्थ-मनोज्ञ-मन को अच्छे लगने वाले,अमनोज्ञ-मन को अच्छे नहीं वाले, इन्द्रियविषय-इन्द्रिय विषय,राग-द्वेष-राग और द्वेष रूप,वर्जनानि-त्याग करना , पञ्च-पांच
अर्थ-मनोज्ञ इन्द्रिय विषय राग वर्जनानि -मन को अच्छे लगने वाले इन्द्रिय विषयों में राग होने से परिग्रह आयेगा अतःपंचेन्द्रिय विषयों में राग का त्याग करना !
अमनोज्ञ इन्द्रिय विषय द्वेष वर्जनानि-मन को बुरे लगने वाले इन्द्रिय विषयों में द्वेष होने से भी परिग्रह आयेगा!अतः अमनोज्ञ पंचेन्द्रिय विषयों में द्वेष का त्याग करना,ऐसे नहीं करने पर पंचेन्द्रिय विषयों का संग्रह बढता ही जाएगा !
पञ्च -पांच परिग्रह व्रत की भावनाए है!
भावार्थ- इन्द्रिये पांच;स्पर्शन,रसना,घ्राण,चक्षु,कर्ण है! इन पांचो इन्द्रियो,के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग का और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना जैसे -
१-स्पर्शन इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना! किसी वस्तु को राग वश नहीं छोड़ना और अन्य वस्तु को द्वेष व[b]श छोड़ना,इन दोनों का ही त्याग करना है ![/b]
२-रसना इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!जैसे जीव्हा को अच्छे लगने वाले मीठे रसों से राग होना तथा कड़वे रसों को द्वेष वश अच्छा नहीं लग्न -दोनों का ही त्याग करना है
३-घ्राण इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!जैसे सुगंधित वस्तुओं को राग वष सूघना और दुर्गन्धित वस्तुओं को नहीं सूघना ,दोनों का ही त्याग करना है !
४-चक्षु इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!-जैसे खूबसूरत लोगों को राग वष देखने और कुरूप को नहीं देखा ,दोनों का ही त्याग करना है
५-कर्ण इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में, राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!जैसे मधुर संगीत को सुनने में राग और भोंडे संगीत को द्वेष के वशीभूत न सुनने का त्याग !
उक्त पाँचों भावनाये भाने से निर्दोष अपरिग्रहव्रत का पालन होता है!
हिंसादि पंच पापों से विरक्त होने की भावना
हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् !!९!!
संधिविच्छेद:-हिंसादिषु+इह+अमुत्र+अपाय+अवद्य+दर्शनम्।
शब्दार्थ -हिंसादिषु-हिंसादि,इह-इस,अमुत्र-परलोक,अपाय-दुःख,अवद्य-निंदा,दर्शनम्-देखनी/होती है ।
भावार्थ- हिन्सादी पांच पापों से,इस लोक और परलोक दोनों में हमें दुःख और निंदा प्राप्त होते है , ऐसे विचारने से हिन्सादी पांच पापों में मन लगेगा ही नहीं! पांच भावनाए परिग्रहव्रत की है!
पापों से विरक्ति की भावना
दु:खमेव वा !!१०!!
संधिविच्छेद -दुखम+इव+वा
शब्दार्थ-दुखम-दुःख,इव-ये,वा-रूप ही है
अर्थ -ये हिंसादि पाँचों पाप दुःख देने वाले ही है,अत: ये त्याज्य है!
विशेष- यहां किरण मे कार्य का उपचार है ,क्योकि हिंसादि दुःख के कारण है किन्तु उन्हें कार्य दुःख रूप कहा है !
व्रती सम्यग्दृष्टि की भावनाये -
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानिचसत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाऽविनयेषु!!११!!संधि विच्छेद-मैत्री+प्रमोद+कारुण्य+माध्यस्थानि+च+सत्त्व+गुणाधिक+क्लिश्यमाना+अविनयेषुशब्दार्थ-मैत्री- प्रमोद-प्रसन्नता,कारुण्य-करुणामय भाव,माध्यस्थानि-मध्यस्थ भाव च सत्त्व-समस्त जीवों ,गुणाधिक-अधिक गुणवानों,क्लिश्यमाना-दुखियों ,/भिन्नमतियों और ,अविनयेषु-अविनय भाव रखना चाहिए अर्थ-और जीव मात्र के,अधिक गुणवानों,दुखियों और अविनयशील जीवों के प्रति क्रमश: मैत्री, प्रसन्ता, करुणा और मध्यस्था का भाव होना चाहिए!भावार्थ-समस्त जीवों के प्रति मैत्री,रत्नत्रय की अपेक्षा अधिक गुणवानों के प्रति प्रमोद-प्रसन्नता का भाव चेहरे पर होना चाहिए जिसे अंतरंग से भक्ति भाव जागृत हो,जैसे; मुनिराज के पधारने से धर्मा- मृत की वर्षा होगी!,असता कर्म के उदय से दुखियों/क्लिष्टों के प्रति करुणा का भाव -अर्थात उनके कष्टों को दूर करने का भाव होना चाहिए तथा अविनयशील-जो तत्वार्थ श्रद्धानन रहित है /अन्य मतियों जिनसे हमारे रहन,सहन,खाने-पीने में तारतम्यता नही है,के प्रति मध्यस्थता;/अर्थात उनके अच्छे/उनकी समृद्धि बढ़ने पर,बुरा न लगे और उनके बुरा होने पर या कोई आपत्ति आने पर अच्छा न लगे,ऐसे विचार की उन्हें सदबुद्धि आये) के भाव होने चाहिए!
संसार व शरीर के स्वभाव का विचार
जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् -!!१२!! संधि विच्छेद-जगत्काय+स्वभावौ+वा+संवेग+वैराग्यार्थम्शब्दार्थ -जगत-संसार,काय-शरीर ,स्वभावौ-स्वाभाव,वा-अथवा ,संवेग-संसार से भय,वैराग्यार्थम्-वैराग्य अर्थात राग-द्वेष के अभाव हेतु, अर्थ-संसार के स्वभाव का चिंतन करने से संवेग अर्थात संसार से भय और शरीर के चितवन से वैराग्य (राग-द्वेष से मुक्ति) होता है!भावार्थ-संवेग के लिए संसार के स्वभाव/स्वरुप और वैराग्य के लिए काय के स्वरुप का चिंतवन करना चाहिए!इससे व्रतों का पालन निर्दोष होगा !
विशेष-१-यदि संवेगभाव,अर्थात संसार में अरुचि भाव है/संसार शरीर भोगों से वैराग्य हो गया/अथवा वैराग्य निरंतर वृद्धिगत है तो व्रतों का भली प्रकार,दोष रहित/उचित पालन के लिए संवेग और वैराग्य परिणाम अत्यंत सहकारी है!संवेग परिणाम के लिए संसार का चिंतवन करना है!यह अनादिनिधन,अनादिकाल से है!वेत्रासन के ऊपर झालर और उसके ऊपर मृदंग के समान लोक का आकार है!इसमें अनंत काल से जीव नाना योनियों में दुःख भोग रहा है!इसमे कोई भी वस्तु नियत नहीं है !जीवन जल के बुलबुले समान नश्वर है!भोग संपदाये बिजली के इन्द्रधनुष के समान भंगुर व् चंचल है यहाँ सभी स्वार्थवश अपने सगे संबंधी होते है,किन्तु कटु सत्य है कि यहाँ कोई किसी का नहीं है अत:संसार असार है इसलिए इसमें रूचि क्यों होनी चाहिए!इस प्रकार चिंतवन करने से संसार से अरुचि होती है वैराग्य के लिए शरीर के स्वभाव का चिंतवन करे,इससे क्या रति करनी,नश्वर है अशुचिता-मल,मूत्र,अस्थि,मांस रुधिर इत्यादि सप्त धातुओं का भंडार है!इसलिए निरंतर संसार और शरीर का चिंतवन करने से क्रमश संवेग और वैराग्य भावना वृद्धिगत होती है जिससे निर्दोष व्रतों का पालन होता है !हिंसापाप का लक्षण-