तत्वार्थसूत्र(मोक्ष शास्त्र)जी (अध्याय ८) भाग २
#1

सकषायत्वाज्जीवःकर्मणोयोग्यान् पुदगलानादत्तेसबन्ध: २ ।

संधि विच्छेद-सकषाय त्वात्+जीव:+कर्मणा:+योग्यान्+पुद्गलान+आदत्ते +स +बन्ध:



शब्दार्थ:-सकषायत्वात्-कषाय सहित,जीव:-जीव के ,कर्मणा:-कर्म बनने के,योग्यान्-क्षमता रखने वाले ,पुद्गलान-पुद्गल परमाणुओं का ,आदत्ते-ग्रहण करना ,स -वह ,बन्ध:-बंध है !
अर्थ-जीव के कषाय(क्रोध,मान,माय ,लोभ,नोकषाय; हास्य,रति,आरती आदि ९ ) सहित कर्म बनने योग्य पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण कर,जीव के प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रवगाह होकर बंधना  द्रव्यबंध  है 
भावार्थ :-आत्मा प्रदेशों पर अनंतानत विष्रोपचय/आगामी समय में आत्मा से साथ बंधने वाली कार्माण(कर्म रूप परिणमन करने योग्य)  वर्गणाए विराजमान है!आत्मा में कषाय रूप परिणाम होते ही उनका आत्मा के साथ एक में एक  हो कर  बंधना द्रव्य बंध  है!
बंध -तीन प्रकार से होता है


१-संयोग सम्बन्ध-जैसे कमीज में बटन लगाना! 

२ संश्लेष सम्बन्ध-दो वस्तुओं में एक क्षेत्रवगाह सम्बन्ध,एक में एक होकर समाजाना जैसे आत्मा और कर्मों मेंएक क्षेत्रवागाह सम्बन्ध होना,आत्मा व कर्मों में यही बंध होता है! ! 

३-तादात्म सम्बन्ध-गुण और गुणीमें होता है!आत्मा में ज्ञान गुण है!आत्मा और ज्ञान गुण का तादात्मकसम्बन्ध-आत्मा है तो ज्ञान दर्शन है,ज्ञान-दर्शन है तो आत्मा है!

कर्मों का और आत्मा का एक क्षेत्रवागाह सम्बन्ध अनादि काल से है!

 एक बार आत्मा कर्मों से मुक्त हो जाए तो उससे कर्म कभी बंधेगे ही नहीं क्योकि आत्मा के परिणाम कर्म बंध के योग्य होगे ही नहीं !

शंका-आत्मा अमूर्तिक है और कर्म मूर्तिक है तो इन दोनों का बंध कैसे संभव है?

समाधान

संसारी जीव की आत्मा अनादिकाल से कर्मों के साथ बंधी होने के कारण व्यवहार नय से मूर्तिक ही है,  इसकी पुष्टि धवलाकार आचार्य वीरसैन स्वामी ने भी करी है,शुद्ध निश्चय नय से ,शुद्धात्मा की तरह अमूर्तिक नहीं है,यद्यपि उसका स्वाभाविक परिणमन शुद्ध सिद्धावस्था में अमूर्तिक ही  है!इसलिए सांसारिक अवस्था में तो आत्मामूर्तिक ही है और उसका मूर्तिक पुद्गल से बंध हो जाता है!बहुत से लोग एकांत से, आगम के विरुद्धअपनी आत्मा को त्रिकाल अमूर्तिक मानते है यह अनुचित है

पुद्गल वर्गनणाये २३ प्रकार की होते है उनमे से  प्रकार की वर्गनणाये  हमारी आत्मा के ग्रहण करने योग्य है !

-नो कर्म वर्गनणायेशरीर के योग्य नोकर्म आहार वर्गणाये.इनसे शरीर निर्मित होता है!



२-कार्मणवर्गनणाये पौद्गालिक  कार्मण वर्गनणाये,इनसे कर्म बनते  है !
-भाषा वर्गनणाये-शब्द भी भाषा पौद्गालिक वर्गनणाये है !
-मनो वर्गनणाये-हमारा मन भी पौद्गालिक मनो वर्गनणाओ से बना है!
-तेजस वर्गनणाये-तेजस शरीर जो की हमें कान्तिदेता हैभोजन पचता हैपौद्गालिक तेजस वर्गनणाओ से निर्मित है!विश्व में,आठ प्रकार की ज्ञानावरण,दर्शनावरण आदि कार्माणवर्गणाये है,ज्ञानावरण योग्य ज्ञानावरण होंगी,  दर्शनावरण  योग्य दर्शनावरण बनेगी इसलिय उन उन कर्मो के योग्य वर्गणाये आत्मा ग्रहण करती हैइसी का नाम बंध है!जीव कषाय सहित दोनों कर्म के  योग्य कार्माण वर्गणाये और शरीर के योग्य नोकर्म वर्गणाये ग्रहण करता है!आस्रव और बंध दोनों एक ही समय में होते है,द्रव्य बंध और भाव बंध भी उसी समय होता है!


बंध के भेद -




प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधय:! ३


सन्धिविच्छेद:-प्रकृति+स्थिति+अनुभव+प्रदेशा:+तत्+विधय:



शब्दार्थ-प्रकृति-प्रकृति,स्थिति-स्थिति,अनुभव-अनुभव/अनुभाग,प्रदेशा:-प्रदेश का,तत्-उसके,विधय:-भेद है 

अर्थ-उस(द्रव्यबंध)के;अथिति,अनुभव/अनुभाग,स्थिति और प्रदेश,चार भेद है !

भावार्थ:-प्रकृतिबंध-आत्मा की ओर अग्रसर कार्मण वर्गणाओ का कर्मरूप परिणमन कर उनका स्व भाव निश्चित/कार्य नियत होना,प्रकृतिबंध है!जैसे;ज्ञानावरण=ज्ञान+आवरण,कर्म का स्वभाव,आत्मा के ज्ञानगुण को आवृत करना है!ज्ञानावरण कर्म की प्रकृतियों में ज्ञान आवृत करने के  स्वभाव को प्रकृति बंध कहते है!  

स्थितिबंध-इन कर्मरूप परिणमन करने वाली वर्गणाए/बंधे कर्म का आत्मा के साथ जुड़े रहने का समय,स्थितिबंध है!आने वाली कार्मणवर्गणाओ में ठहरने वाले काल का निश्चित होना स्थितिबंध है! 

अनुभव/अनुभाग बंध-बंधेकर्मों की फलदान शक्ति,तीव्र/मंद को अनुभव/अनुभागबंध कहते है!

प्रदेशबंध-आत्मा और कार्मणवर्गणाओ का एक दूसरे में एक में एक हो कर मिलना/आत्मा और कर्मों के प्रदेशों को एक दूसरे में समाजाना /आने वाली कार्मणवर्गणाओ की संख्या का ज्ञानावरण, दर्शना वरण,वेदनीय,मोहनीय आदि का विभाजन होना,प्रदेशबंध है! 

शंका:-क्या सब जीवों में बंध एक सामान होता है या अलगअलग  ? 
समाधान-
 प्रकृतिबंध-संसार का प्रत्येक जीव १०वे गुणस्थान तक प्रतिसमय आयुकर्म के अतिरिक्त, (जिसका बंध सातवे गुणस्थान तक ही होता है) का बंध करता है उसके बाद ग्रहण की गयी कर्म वर्गणाओ में आयुकर्म का स्वभाव नहीं पड़ता,शेष सातकर्मों के योग्य वर्गणाओ को ग्रहण करता है!कषाय रूप परिणाम दसवे गुणस्थान तक होते है!मोहनीय और आयुकर्म के अतिरिक्त अन्य छ:कर्मों के योग्य वर्गणाओ का ग्रहण १०वें गुणस्थान तक होता है!११वें,से १३वें गुणस्थान तक,कर्मों के बंध योग्य वर्गणाओ को ग्रहण कर उनका मात्र सातावेद्नीय में बंध होता है!जैसे परिणाम होते है तदानु सार कर्मोंबंध होता है! 
स्थिति बंध-प्रत्येक जीव में स्थितिबंध भिन्न भिन्न प्रकार का होता है!कर्म प्रकृतियों की १४८ प्रकृतियों को दो भागों;देवायु,तिर्यन्चायु,मनुष्यायु को एक तरफ और बाकी १४५ को दूसरी तरफ रखे !जीव के तीव्रकषाय,परिणामों की कम विशुद्धि के कारण,इन तीन शुभायु में से किसी एक के बंध का अपकर्ष काल(समय) होने से इन तीन शुभायु का स्थितिबंध कम और शेष १४५ प्रकृतियों का अधिक होगा!किन्तु मंदकषाय में,परिणामों की अधिक विशुद्धि के कारण इन तीन शुभायु का स्थिति बंध अधिक और शेष १४५ प्रकृतियों का कम स्थितिबंध होगा ! 
प्रत्येक जीव के भिन्न भिन्न परिणाम होते है इसलिए उनका स्थिति बंध भी भिन्न भिन्न होता है! 
अनुभाग बंध-कर्मो के फल देने की शक्ति भी आत्मा के परिणामों पर निर्भर करती है!इसके लिए हम समस्त १४८ कर्मप्रकृतियों को शुभ-पुन्य १०० और पाप ६८ प्रकृतियों में विभाजित करते है!४७ घातिया कर्मों की समस्त प्रकृतिया पापरूप है.बाकी अघातियाकर्मों की १०१ प्रकृतियों में कुछ पापरूप जैसे; सातावेदनीय,उच्चगोत्र आदि तथा कुछ पाप रूप जैसे असातावेदनीय नीच्चगोत्र आदि है!
२०-स्पर्श,रस, गंध और वर्ण की प्रकृतिया पाप और पुन्य दोनों रूप है इसलिए कुल प्रकृतियाँ १६८ हो जाती है!जीव के तीव्रकषाय के समय उसके बंधे पापकर्मों की फल देने की शक्ती अधिक होगी,पुन्य कर्मों की शक्ति कम होगी! इसके विपरीत मंद कषाय के साथ बंधे पापकर्मों में फल देने की शक्ति कम होगी और पुन्य कर्मों की शक्ति अधिक होगी!अर्थात पापकर्मो का फल कम और पुन्य कर्मों का अधिक होगा!


४-प्रदेश बंध-जीव के प्रदेशबंध हीनाधिक होता है!एक समय एक जीव कितनी (संख्या) वर्गणाओ को बांधता है!आचार्यों ने कहा है समयप्रबद्ध (अनंतानंत) वर्गणाओ को जीव प्रति समय बांधता है!प्रदेश बंध में सदा एक सी वर्गणाओ की संख्या नहीं आती है!मन,वचन,काय तीन योगो में किसी की क्रिया से यदि आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन कम है तो आने वाले कर्म कम आयेगे किन्तु यदि अधिक  है तो कर्म अधिक आयेगे!यह प्रदेशबंध-वर्गणाओ की संख्या-समयप्रबद्ध,आत्मा के प्रदेशों के परिस्पंदन पर निर्भर करता है!अत: प्रदेशबंध जीव के योग पर निर्भर करता है!जैसे जब जीव सामायिक में ध्यान मग्न होकर बैठा है तो आने वाले कर्म के प्रदेश कम आयेगें,छोटा समयप्रबद्ध और इसके विपरीत यदि किसी के साथ वह  झगडा कर रहा है तो कर्म प्रदेश अधिक आयेंगे,बड़ा समयप्रबद्ध! इसलिए कर्मो की संख्या-समय प्रबद्ध,हमारे आत्मा के परिणामों पर निर्भर करती है 
योग से प्रकृति और प्रदेशबंध तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बंध होता है! इन चारो बंधों में मिथ्यात्व का कोई रोल नहीं है! ये चारो प्रकार का बंध १३वे गुणस्थान तक होता है! 




शंका:-कुछ लोगो का मत है की ११,१२,१३वे गुणस्थान में कषाय का सद्भाव है नहीं फिर स्थिति और अनुभाग बंध कैसे होता है?

समाधान-इसके लिए धवलाकर आचार्य वीरसैन स्पष्ट करते है किजब भी बंध होगा, चारों प्रकार का ही होगा!१३वें गुणस्थान में अर्हन्त भगवान् के योग है,मन,वचन,काय की क्रिया है,वे बैठते है,खड़े होते है,विहार करते है,उनकी दिव्य्ध्वानी होती है,श्वासोच्छ्वास होता है,इन सब के कारण योग है जो की बंध का कारण है!जब बंध है तो असंभव है की स्थिति और अनुभागबंध न हो!इसलिए कषाय रहित जीवों के बंध तो चारों प्रकार का होगा,प्रकृतिबंध मात्र सातावेद्नीय का होगा,प्रदेशबंध पूरा समयप्रबद्ध होगा,स्थितिबंध एक समय मात्र होगा और अनुभाग बंध १०वें गुणस्थान से असंख्यात्व भागहीन होगा!बहुत थोडा!अत: चारो प्रकार के बंध १३वें गुणस्थान तक प्रत्येक जीव के होगा!

प्रकृतिबंध भेद-



आद्योज्ञानदर्शनावरण वेदनीयमोह्नीयायुर्नामगोत्रान्तराय: ४ 




संधिविच्छेद-आद्य:+ज्ञानावरण+दर्शनावरण+वेदनीय+मोह्नीय+आयु:+नाम+गोत्र+अन्तराय:
शब्दार्थ-आद्य:-पहले/प्रकृतिबंध के;ज्ञानावरण,दर्शनावरण,वेदनीय,मोह्नीय,आयु,नाम,गोत्र और अन्तराय: कर्म भेद है 
अर्थ
ज्ञानावरणकर्म-आत्मा के ज्ञानगुण को  स्वभावत: आवृत करता है,आयी कार्मण वर्गणाए मे से कुछ में ज्ञानगुण को ढकने का स्वभाव पड़ने से,उन्हें ज्ञानावरण कर्म कहते है !      
दर्शनावरण-आत्मा के दर्शन-सामान्य अवलोकन गुण को स्वभावत: आवृत करता है,आयी कार्मण वर्गणाए मे से कुछ में दर्शनगुण को ढकने का स्वभाव पड़ने से,उन्हें दर्शनावरण कर्म कहते हैवेदनीयकर्म-आत्मा को सुख और दुःख का स्वभावत: वेदन कराने वाला वेदनीय कर्म है!
मोहनीयकर्म-आत्मा को स्वभावत: मोहित कर ५-आस्तिकाय,६ द्रव्यों ७ तत्वों,नव पदार्थों के परिचय में बाधक,मिथ्यात्व/कषायों को प्रेरित करने वाला मोहनीयकर्म है! 
आयुकर्म-आत्मा को नरक,तिर्यंच,मनुष्य व देव के शरीर में स्वभावत: निश्चित समय तक रोकता हैनामकर्म-आत्मा को स्वभावत:नाम देता है;उसके शरीर;देव,तिर्यंच,मनुष्य,नारकी का निर्माण करता है 
गोत्रकर्म-आत्मा को उच्च या नीच्च कुल में स्वाभावत:उत्पन्न कराता है!
अन्तरायकर्म-आत्मा के दान,लाभ,भोगोपाभोग,वीर्य गुण में स्वभावत: बाधक होता है!
भावार्थ-प्रकृतिबंधकर्म के सामान्यत:;ज्ञानावरण,दर्शनावरण,वेदनीय,मोह्नीय,आयु,नाम,गोत्र और अन्तराय,८ भेद है! 
प्रकृतिबंध के उत्तर भेद-


पञ्चनवद्व्यष्टाविंशतिचतुदर्विचत्वारिंशद्-द्विपञ्चभेदायथाक्रमम् ५ 



संधिविच्छेद-पञ्च+नव+द्वि+अष्टा+विंशति+चतु:+द्वि+चत्वारिंशद्+द्वि+पञ्च+भेदा+यथा+क्रमम् 

शब्दार्थ-पञ्च-५,नव-९,द्वि-२,{अष्टा-८,विंशति-२०)}=२८,चतु:-४,द्वि -२  {चत्वारिंशद्-४x१०+द्वि-२)}-४२,पञ्च-५,भेदा-भेद,यथा-उक्त सूूत्र मे कहे गये,क्रमम्-क्रमश: 

अर्थ-ज्ञानवरणीय-५,दर्शनावरणीय-९,वेदनीय-२,मोहनीय-२८,आयु-४,नाम-४२,गोत्र-२,अंतरायकर्म-५ भेद है!  
भावार्थ-प्रकृतिबंध;ज्ञानावरण-५,दर्शनावरण-९,वेदनीय-२,मोहनीय-२८,आयु-,नाम-४२,गोत्र-२ और अन्तराय -५ उत्तर भेद है ! 




विशेष-४ घातियाकर्म;ज्ञानावरण,दर्शनावरण,मोहनीय और अन्तराय आत्मा के अणुजीवी गुणों का घात करते है,४ अघातिया कर्म:वेदनीय,आयु,नाम और गोत्र कर्म प्रीतिजीवी गुणों,(जिनके अभाव में भी जीव का जीवत्व,सुरक्षित रहता है),का ही घात करते है!
इन कर्मों को इसी क्रम में रखने का कारण- 


वेदनीयकर्म का अनुभव मोहनीय के साथ ही होता है,इसलिए उसे मोहनीय से पहले रखा है! अन्तराय कर्म अंत में इसलिए रखा है क्योकि यह घातियाकर्म;दान,लाभ,भोगोपभोग और वीर्य का घात पूर्णतया नहीं करता,संसार में कोई जीव ऐसे नहीं है जिनका इन ५ गुणों का क्षयोपशम नहीं हो,अंत: पूर्णतया नाश न करने से अघातियाकर्म के सामान ही कार्य करता है!अन्तराय कर्म;अपना फल तभी देता है जब आयु,गोत्र और नामकर्म अपना कार्य करते है!
कर्म के तीन भेद है!- 
१-द्रव्यकर्म-आत्मा के साथ संश्लेषित होने वाली 
पुद्गल कार्मण वर्गणाए द्रव्यकर्म है!जैसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि 'अजीव' द्रव्यकर्म है ! 

२-भावकर्म-उन द्रव्य कर्मो के उदय से जीव के जो भाव होते है या जिन भावों के कारण द्रव्य कर्म आत्मा से संलेषित होते है,वे भावकर्म जीव के अत: 'जीव' है 
३-नोकर्म-शरीर को नोकर्म कहते है!ये 'अजीव' है!
पुद्गलकार्मणवर्गणाए,आत्मा के राग-द्वेष आदि परिणामों के निमित्त से,कर्मरूप परिणमन कर,आत्मा से बंधती है और द्रव्य क्षेत्र,काल,भाव के अनुसार फल देती है!इनमे पुद्गल होने पर भी फल देने की शक्ति होती है!कार्मण वर्गणाओ के अतिरिक्त अन्य वर्गणा में फल देने की शक्ति नहीं होती है!


मतिश्रुतावधिमन:पर्यायकेवलानाम् ६ 
सन्धिविच्छेद-मति+श्रुत+अवधि+मन:पर्याय+केवलानाम् 
शब्दार्थ-मति,श्रुत,अवधि,मन:पर्याय और+केवल ज्ञानवरण उनके(ज्ञानावरण कर्म प्रकृति के)नाम् है 
अर्थ:-मतिज्ञानावरण-जिस कर्म के उदय में,मन और इन्द्रियों द्वारा होने वाले मतिज्ञान का आवरण होता है,मतिज्ञानावरण कर्म है!
श्रुत ज्ञानावरण-पदार्थों के मतिज्ञानपूर्वक जाने गए विशेषज्ञान को श्रुतज्ञान कहते है!जो कर्म श्रुतज्ञान का आवरण करता,वह श्रुतज्ञानावरणकर्म है!
अवधिज्ञानावरण-जिस कर्म के उदय से जीव के अवधिज्ञान का आवरण होता है,उसे होने नहीं देता, वह अवधिज्ञानावरणकर्म है!अवधिज्ञान;द्रव्य,क्षेत्र,काल,भाव की मर्यादा सहित रुपी पदार्थों को इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना,आत्मा से स्पष्ट जानता है!
मन:पर्यायज्ञानावरण-जिस कर्म के उदय में मन:पर्ययज्ञान का आवरण होता है,मन;पर्यायज्ञानावरण कर्म है!मन: पर्ययज्ञान दूसरे के मन को जानकर,उसके चिंतित और अचिंतित पदार्थों को जानता है केवलज्ञानावरण-केवल ज्ञान त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों की अनंतांत पर्याय को क्रम रहित,आत्मा से युगपत स्पष्ट जानना है!जो कर्म केवलज्ञान का आवरण करता है वह केवलज्ञानावरण कर्म है! 
भावार्थ-ज्ञानावरण प्रकृति कर्म के;मति,श्रुत,अवधि,मन:पर्याय और केवलज्ञानावरण ५ भेद है! 
क्या हमारे पाँचों ज्ञानों का उदय रहता है?
समाधान-हमारे पाँचों ज्ञानों का उदय रहता है!घातियाकर्मों के दो भेद;
१-देशघाती प्रकृति:-गुण का एकदेश और सर्वदेश दोनों तरह से घात करती है;मति,श्रुत,अवधि और मन:पर्यय देशघाती कर्म प्रकृति है और 
२-सर्वघाती प्रकृति:-गुण का पूर्ण रूप से घात करती है! ज्ञानावरण की मात्र केवलज्ञानावरण सर्वघाती प्रकृति है!हमारे केवल ज्ञानावरण का उदय है इसलिए केवलज्ञान नही है,उसने केवलज्ञान को पूर्णतया आवृत कर रखा है!
हमें मन:पर्यायज्ञानावरण और अवधिज्ञानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों का उदय है,इसलिए मन:पर्याय और अवधिज्ञान नहीं है!हमारे सिर्फ मति और श्रुतज्ञान का उदय,इन दोनों के देशघाती स्पर्धकों का उदय होने के कारण है,पूर्णतया ढका हुआ नहीं है,इसलिए आंशिक मति और श्रुतज्ञान है!उदय पाँचों ज्ञान का है!अवधि,मन:पर्यय के सर्वघाती स्पर्धकों का,केवलज्ञान के सर्वघातीप्रकृति का,मति और श्रुत के देशघाती स्पर्धकों का उदय रहता है जिस के कारण मति और श्रुतज्ञान थोडा थोडा हमें रहता है ! 
शंका-अभव्य जीव के मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान की शक्ति होती है या नही?यदि है तो अभव्य नही और यदि नही है तो उसके ये दोनों के ज्ञानावरण मानना व्यर्थ है!
समाधान- द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा इन दोनों ज्ञान की शक्ति अभव्य जीवों में होती है किन्तु पर्यार्थिक नय की अपेक्षा नहीं होती है !
शंका-यदि भव्य और अभव्य दोनों में ही इन ज्ञानो को प्रगट करने की शक्ति होती है तो भव्य और अभव्य 
का भेद नहीं बनता !
समाधान-शक्ति होने या नहीं होने की अपेक्षा भव्य और अभव्य का भेद नहीं है बल्कि उन् शक्तियों को प्रगट करने और नहीं करने की क्षमता की अपेक्षा भव्य और अभव्य जीव में भेद है!जिस जीव के कभी सम्यग्दर्शनादि गुण प्रगट होंगे वे भव्य और जिनके प्रगट नहीं होंगे उन्हें अभव्य जीव कहते है!


दर्शनावरण प्रकृति के ९ भेद -
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