भक्तामर स्तोत्र
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भक्तामर स्तोत्र 

भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् ।
सम्यक्प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा-वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ॥1॥
यःसंस्तुतः सकल-वांग्मय-तत्त्वबोधा-दुद्भूत-बुद्धि-पटुभिः सुरलोक-नाथै ।
स्तोत्रैर्जगत्त्रितय-चित्त-हरै-रुदारैः स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥2॥
बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ,स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोsहम् ।
बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-मन्यःक इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥3॥
वक्तुं गुणान् गुण-समुद्र! शशांक-कांतान्,कस्ते क्षमः सुर-गुरु-प्रतिमोपि बुद्धया ।
कल्पांत-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं,को वा तरीतु-मलमम्बु निधिं भुजाभ्याम् ॥4॥
सोहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश! कर्तुं स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृतः ।
प्रीत्यात्म-वीर्यमविचाचार्य मृगी मृगेन्द्रं, नाभ्येति किं निज-शिशोः परिपालनार्थम् ॥5॥
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति,तच्चाम्र-चारु-कालिका-निकरैक-हेतु ॥6॥
त्वत्संस्तवेन भव-संतति-सन्निबद्धं पापं क्षणात्क्षय-मुपैति शरीर-भाजाम् ।
आक्रांत-लोक-मलिनील-मशेष-माशु,सूर्यांशु-भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम्॥7॥
मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद-मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,मुक्ताफल-द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दुः ॥8॥
आस्तां तव स्तवनमस्त-समस्त-दोषं,त्वत्संकथाsपि जगतां दुरितानि हंति ।
दूरे सहस्त्र-किरणः कुरुते प्रभैव,पद्माकरेषु जलजानि विकास-भांजि ॥9॥
नात्यद्भुतं भुवन-भूषण-भूतनाथ,भूतैर्गुणैर्भुवि भवंत-मभिष्टु-वंतः ।
तुल्या भवंति भवतो ननु तेन किं वा,भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥10॥
दृष्ट्वा भवंत-मनिमेष-विलोकनीयं,नान्यत्र तोष-मुपयाति जनस्य चक्षुः ।
पीत्वा पयः शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धो,क्षारं जलं जलनिधे रसितुं क इच्छेत् ॥11॥
यैः शांत-राग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं,निर्मापितस्त्रि-भुवनैक-ललाम-भूत ।
तावंत एव खलु तेsप्यणवः पृथिव्यां,यत्ते समान-मपरं न हि रूपमस्ति ॥12॥
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरगनेत्र-हारि,निःशेष-निर्जित-जगत्त्रित-योपमानम् ।
बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य,यद्वासरे भवति पाण्डु-पलाश-कल्पम् ॥13॥
सम्पूर्ण-मण्डल-शशांक-कला कलाप-शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंग्घयंति ।
ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर-नाथमेकं,कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम ॥14॥
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांङ्गनाभि-र्नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् ।
कल्पांत-काल-मरुता चलिता चलेन किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित् ॥15॥
निर्धूम-वर्त्ति-रपवर्जित-तैलपूरः,कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी-करोषि ।
गम्यो न जातु मरुतां चलिता-चलानां, दीपोपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः ॥16॥
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहु-गम्यः,स्पष्टी-करोषि सहसा युगपज्जगंति ।
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभावः,सूर्यातिशायि-महिमासिमुनीन्द्र लोके ॥17॥
नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारं,गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् ।
विभ्राजते तव मुखाब्ज-मनल्प-कांति,विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशांक-विम्बम् ॥18॥
किं शर्वरीषु शशिनान्हि विवस्वता वा,युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषुतमःसु नाथ ।
निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके,कार्यं कियज्-जलधरैर्जल-भारनम्रैः ॥19॥
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,नैवं तथा हरि-हरादिषु नायकेषु ।
तेजःस्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं,नैवं तु काच-शकले किरणा-कुलेपि ॥20॥
मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा,दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः,कश्चिन्मनो हरति नाथ भवांतरेपि ॥21॥
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंति पुत्रान्-नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्र-रश्मिं,प्राच्येव दिग्जनयति स्फुर-दंशु-जालम् ॥22॥
त्वामा-मनंति मुनयः परमं पुमांस-मादित्य-वर्ण-ममलं तमसः पुरस्तात्
त्वामेव सम्य-गुपलभ्य जयंति मृत्युं,नान्यः शिवः शिव-पदस्य मुनीन्द्र पंथाः ॥23॥
त्वा-मव्ययं विभु-मचिंत्य-मसंखय-माद्यं,ब्रह्माण-मीश्वर-मनंत-मनंग केतुम् ।
योगीश्वरं विदित-योग-मनेक-मेकं,ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदंति संतः ॥24॥
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्, त्वं शंकरोsसि भुवन-त्रय-शंकरत्वात् ।
धातासि धीर! शिव-मार्ग-विधेर्-विधानात्, व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोसि ॥25॥
तुभ्यं नम स्त्रिभुवनार्ति-हराय नाथ, तुभ्यं नमः क्षिति-तलामल-भूषणाय ।
तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ॥26॥
को विस्मयोत्र यदि नाम गुणैरशेषै,स्त्वं संश्रितो निरवकाश-तया मुनीश ।
दोषै-रुपात्त-विविधाश्रय-जात-गर्वैः,स्वप्नांतरेपि न कदाचिद-पीक्षितोसि ॥27।।
उच्चैर-शोक-तरु-संश्रित-मुन्मयूख-माभाति रूप-ममलं भवतो नितांतम् ।
स्पष्टोल्लसत-किरणमस्त-तमोवितानं,बिम्बं रवेरिव पयोधर-पार्श्ववर्ति ॥28॥
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,विभाजते तव वपुः कानका-वदातम ।
बिम्बं वियद्-विलस-दंशु-लता-वितानं,तुंगोदयाद्रि-शिरसीव सहस्त्र-रश्मेः ॥29॥
कुन्दावदात-चल-चामर-चारु-शोभं,विभ्राजते तव वपुः कलधौत-कांतम् ।
उद्यच्छशांक-शुचि-निर्झर-वारि-धार-मुच्चैस्तटं सुर-गिरेरिव शात-कौम्भम् ॥30॥
छत्र-त्रयं तव विभाति शशांक-कांत-मुच्चैः स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम् ।
मुक्ता-फल-प्रकर-जाल-विवृद्ध-शोभं,प्रख्यापयत्-त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥31॥
गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्वभाग-स्त्रैलोक्य-लोक-शुभ-संगम-भूति-दक्षः ।
सद्धर्म-राज-जय-घोषण-घोषकः सन्,खे दुन्दुभिर्-ध्वनति ते यशसः प्रवादि ॥32॥
मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजातसंतानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टिरुद्धा ।
गन्धोद-बिन्दु-शुभ-मन्द-मरुत्प्रपाता,दिव्या दिवः पतति ते वयसां ततिर्वा ॥33॥
शुम्भत्प्रभा-वलय-भूरि-विभा विभोस्ते,लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमा-क्षिपंती ।
प्रोद्यद्दिवाकर्-निरंतर-भूरि-संख्या,दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ॥34॥
स्वर्गा-पवर्ग-गममार्ग-विमार्गणेष्टः,सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक-पटुस-त्रिलोक्याः ।
दिव्य-ध्वनिर-भवति ते विशदार्थ-सर्व-भाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणैः प्रयोज्यः ॥35॥
उन्निद्र-हेम-नवपंकजपुंज-कांती,पर्युल्लसन्नख-मयूख-शिखा-भिरामौ ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्तः,पद्मानि तत्र विबुधाः परि-कल्पयंति ॥36॥
इत्थं यथा तव विभूति-रभूज्जिनेन्द्र,धर्मोप-देशन विधौ न तथा परस्य ।
यादृक् प्रभा दिनकृतः प्रहतान्ध-कारा,तादृक्कुतो ग्रह-गणस्य विकासिनोपि ॥37॥
श्च्योतन-मदा-विल-विलोल-कपोल-मूल-मत्त-भ्रमद-भ्रमर-नादविवृद्ध-कोपम् ।
ऐरावताभ-मिभ-मुद्धत-मापतंतं,दृष्टवा भयं भवति नो भवदा-श्रितानाम् ॥38॥
भिन्नेभ-कुम्भ-गल-दुज्ज्वल-शोणिताक्त-मुक्ताफल-प्रकर-भूषित-भूमिभागः ।
बद्ध-क्रमः क्रम-गतं हरिणा-धिपोपि,नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ॥39॥
कल्पांत-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पं,दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल-मुत्स्फुलिंगम् ।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख-मापतंतं,त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्य-शेषम् ॥40॥
रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलं,क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण-मापतंतम् ।
आक्रामति क्रमयुगेन निरस्त-शंकस्-त्वन्नाम-नाग-दमनी हृदि यस्य पुंस ॥41॥
वल्गत्तुरंग-गज-गर्जित-भीम-नाद-माजौ बलं बलवतामपि भू-पतीनाम् ।
उद्यद्-दिवाकर-मयूख-शिखा-पविद्धं,त्वत्कीर्त्तनात्-तम इवाशु भिदा-मुपैति ॥42॥
कुंताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह-वेगावतार-तरणातुर-योध-भीमे ।
युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्-त्वत्-पाद-पंकज-वना-श्रयिणो लभंते ॥43॥
अम्भो-निधौ क्षुभित-भीषण-नक्र- चक्र-पाठीन-पीठ-भय-दोल्वण-वाडवाग्नौ ।
रंगत्तरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रास्-त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद्-व्रजंति ॥44॥
उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाः,शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशाः
त्वत्पाद-पंकज-रजोमृतदिग्ध-देहाः,मर्त्या भवंति मकर-ध्वज-तुल्य-रूपाः ॥45॥
आपाद-कण्ठ-मुरुशृंखल-वेष्टितांगा,गाढं बृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जंघाः ।
त्वन्नाम-मंत्र-मनिशं मनुजाः स्मरंतःसद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवंति ॥46॥
मत्त-द्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहि-संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थम् ।
तस्याशु नाश-मुपयाति भयं भियेव,यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमान-धीते ॥47॥
स्तोत्र- स्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्-निबद्धां,भक्त्या मया विविध-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् ।
धत्ते जनो य इह कण्ठ- गतामजस्रं,तं ‘मानतुंग’ मवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥48॥
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"आदिनाथ भगवान की जय ! मानातुंगाचार्य की जय ! भक्तामर स्तोत्र की जय ! "
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भक्तामर स्तोत्र (भाषा)
भक्त अमर नत मुकुट सु-मणियों, की सु-प्रभा का जो भासक। पाप रूप अति सघन तिमिर का, ज्ञान-दिवाकर-सा नाशक॥
भव-जल पतित जनों को जिसने, दिया आदि में अवलंबन। उनके चरण-कमल को करते, सम्यक बारम्बार नमन ॥१॥
सकल वाङ्मय तत्वबोध से, उद्भव पटुतर धी-धारी। उसी इंद्र की स्तुति से है, वंदित जग-जन मन-हारी॥
अति आश्चर्य की स्तुति करता, उसी प्रथम जिनस्वामी की| जगनामी सुखधामी तद्भव, शिवगामी अभिरामी की ॥२॥
स्तुति को तैयार हुआ हूँ, मैं निर्बुद्धि छोड़ि के लाज। विज्ञजनों से अर्चित है प्रभु! मंदबुद्धि की रखना लाज॥
जल में पड़े चंद्र मंडल को, बालक बिना कौन मतिमान। सहसा उसे पकड़ने वाली, प्रबलेच्छा करता गतिमान ॥३॥
हे जिन! चंद्रकांत से बढ़कर, तव गुण विपुल अमल अति श्वेत। कह न सके नर हे गुण के सागर! सुरगुरु के सम बुद्धि समेत॥
मक्र, नक्र चक्रादि जंतु युत, प्रलय पवन से बढ़ा अपार। कौन भुजाओं से समुद्र के, हो सकता है परले पार ॥४॥
वह मैं हूँ कुछ शक्ति न रखकर, भक्ति प्रेरणा से लाचार। करता हूँ स्तुति प्रभु तेरी, जिसे न पौर्वापर्य विचार॥
निज शिशु की रक्षार्थ आत्मबल बिना विचारे क्या न मृगी? जाती है मृगपति के आगे, प्रेम-रंग में हुई रंगी ॥५॥
अल्पश्रुत हूँ श्रृतवानों से, हास्य कराने का ही धाम। करती है वाचाल मुझे प्रभु, भक्ति आपकी आठों याम॥
करती मधुर गान पिक मधु में, जग जन मन हर अति अभिराम। उसमें हेतु सरस फल फूलों के, युत हरे-भरे तरु-आम ॥६॥
जिनवर की स्तुति करने से, चिर संचित भविजनो के पाप। पलभर में भग जाते निश्चित, इधर-उधर अपने ही आप॥
सकल लोक में व्याप्त रात्रि का, भ्रमर सरीखा काला ध्वान्त। प्रातः रवि की उग्र-किरण लख, हो जाता क्षण में प्राणांत ॥७॥
मैं मति-हीन-दीन प्रभु तेरी, शुरू करूँ स्तुति अघ-हान। प्रभु-प्रभाव ही चित्त हरेगा, संतों का निश्चय से मान॥
जैसे कमल-पत्र पर जल कण, मोती कैसे आभावान। दिखते हैं फिर छिपते हैं, असली मोती में हैं भगवान ॥८॥
दूर रहे स्रोत आपका, जो कि सर्वथा है निर्दोष। पुण्य कथा ही किंतु आपकी, हर लेती है कल्मष-कोष॥
प्रभा प्रफुल्लित करती रहती, सर के कमलों को भरपूर। फेंका करता सूर्य किरण को, आप रहा करता है दूर ॥९॥
त्रिभुवन तिंलक जगपति हे प्रभु ! सद्गुरुओं के हें गुरवर्य्य । सद्भक्तों को निजसम करते, इसमें नहीं अधिक आश्चर्य ॥
स्वाश्रित जन को निजसम करते, धनी लोग धन करनी से । नहीं करें तो उन्हें लाभ क्या? उन धनिकों की करनी से ॥१०॥
हे अमिनेष विलोकनीय प्रभु, तुम्हें देखकर परम पवित्र। तौषित होते कभी नहीं हैं, नयन मानवों के अन्यत्र॥
चंद्र-किरण सम उज्ज्वल निर्मल, क्षीरोदधि का कर जलपान। कालोदधि का खारा पानी, पीना चाहे कौन पुमान ॥११॥
जिन जितने जैसे अणुओं से, निर्मापित प्रभु तेरी देह। थे उतने वैसे अणु जग में, शांत-रागमय निःसंदेह॥
हे त्रिभुवन के शिरोभाग के, अद्वितीय आभूषण रूप। इसीलिए तो आप सरीखा, नहीं दूसरों का है रूप ॥१२॥
कहाँ आपका मुख अतिसुंदर, सुर-नर उरग नेत्र-हारी। जिसने जीत लिए सब-जग के, जितने थे उपमाधारी॥
कहाँ कलंकी बंक चंद्रमा, रंक समान कीट-सा दीन। जो पलाशसा फीका पड़ता, दिन में हो करके छवि-छीन ॥१३॥
तब गुण पूर्ण-शशांक का कांतिमय, कला-कलापों से बढ़ के। तीन लोक में व्याप रहे हैं जो कि स्वच्छता में चढ़ के॥
विचरें चाहें जहाँ कि जिनको, जगन्नाथ का एकाधार। कौन माई का जाया रखता, उन्हें रोकने का अधिकार ॥१४॥
मद की छकी अमर ललनाएँ, प्रभु के मन में तनिक विकार। कर न सकीं आश्चर्य कौनसा, रह जाती है मन को मार॥
गिरि गिर जाते प्रलय पवन से तो फिर क्या वह मेरु शिखर। हिल सकता है रंचमात्र भी, पाकर झंझावत प्रखर ॥१५॥
धूप न बत्ती तैल बिना ही, प्रकट दिखाते तीनों लोक। गिरि के शिखर उड़ाने वाली, बुझा न सकती मारुत झोक॥
तिस पर सदा प्रकाशित रहते, गिनते नहीं कभी दिन-रात। ऐसे अनुपम आप दीप हैं, स्वपर-प्रकाशक जग-विख्यात ॥१६॥
अस्त न होता कभी न जिसको, ग्रस पाता है राहु प्रबल। एक साथ बतलाने वाला, तीन लोक का ज्ञान विमल॥
रुकता कभी न प्रभाव जिसका, बादल की आ करके ओट। ऐसी गौरव-गरिमा वाले, आप अपूर्व दिवाकर कोट ॥१७॥
मोह महातम दलने वाला, सदा उदित रहने वाला। राहु न बादल से दबता, पर सदा स्वच्छ रहने वाला॥
विश्व-प्रकाशक मुखसरोज तव, अधिक कांतिमय शांतिस्वरूप। है अपूर्व जग का शशिमंडल, जगत शिरोमणि शिव का भूप ॥१८॥
नाथ आपका मुख जब करता, अंधकार का सत्यानाश। तब दिन में रवि और रात्रि में, चंद्र बिंब का विफल प्रयास॥
धान्य-खेत जब धरती तल के, पके हुए हों अति अभिराम। शोर मचाते जल को लादे, हुए घनों से तब क्या काम? ॥१९॥
जैसा शोभित होता प्रभु का, स्वपर-प्रकाशक उत्तम ज्ञान। हरिहरादि देवों में वैसा, कभी नहीं हो सकता भान॥
अति ज्योतिर्मय महारतन का, जो महत्व देखा जाता। क्या वह किरणाकुलित काँच में, अरे कभी लेखा जाता? ॥२०॥
हरिहरादि देवों का ही मैं, मानूँ उत्तम अवलोकन। क्योंकि उन्हें देखने भर से, तुझसे तोषित होता मन॥
है परंतु क्या तुम्हें देखने से, हे स्वामिन मुझको लाभ। जन्म-जन्म में भी न लुभा पाते, कोई यह मम अमिताभ ॥२१॥
सौ-सौ नारी सौ-सौ सुत को, जनती रहतीं सौ-सौ ठौर। तुमसे सुत को जनने वाली, जननी महती क्या है और?॥
तारागण को सर्व दिशाएँ, धरें नहीं कोई खाली। पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापी, दिनपति को जनने वाली ॥२२॥
तुम को परम पुरुष मुनि मानें, विमल वर्ण रवि तमहारी। तुम्हें प्राप्त कर मृत्युंजय के, बन जाते जन अधिकारी॥
तुम्हें छोड़कर अन्य न कोई, शिवपुर पथ बतलाता है। किंतु विपर्यय मार्ग बताकर, भव-भव में भटकाता है ॥२३॥
तुम्हें आद्य अक्षय अनंत प्रभु, एकानेक तथा योगीश। ब्रह्मा, ईश्वर या जगदीश्वर, विदित योग मुनिनाथ मुनीश॥
विमल ज्ञानमय या मकरध्वज, जगन्नाथ जगपति जगदीश। इत्यादिक नामों कर मानें, संत निरंतर विभो निधीश ॥२४॥
ज्ञान पूज्य है, अमर आपका, इसीलिए कहलाते बुद्ध। भुवनत्रय के सुख संवर्द्धक, अतः तुम्हीं शंकर हो शुद्ध॥
मोक्ष-मार्ग के आद्य प्रवर्तक, अतः विधाता कहें गणेश। तुम सब अवनी पर पुरुषोत्तम, और कौन होगा अखिलेश ॥२५॥
तीन लोक के दुःख हरण, करने वाले है तुम्हें नमन। भूमंडल के निर्मल-भूषण, आदि जिनेश्वर तुम्हें नमन॥
हे त्रिभुवन के अखिलेश्वर, हो तुमको बारम्बार नमन। भव-सागर के शोषक-पोषक, भव्य जनों के तुम्हें नमन ॥२६॥
गुणसमूह एकत्रित होकर, तुझमें यदि पा चुके प्रवेश। क्या आश्चर्य न मिल पाएँ हों, अन्य आश्रय उन्हें जिनेश॥
देव कहे जाने वालों से, आश्रित होकर गर्वित दोष। तेरी ओर न झाँक सके वे, स्वप्नमात्र में हे गुण-दोष ॥२७॥
उन्नत तरु अशोक के आश्रित, निर्मल किरणोन्नत वाला। रूप आपका दिखता सुंदर, तमहर मनहर छवि वाला॥
वितरण किरण निकर तमहारक, दिनकर धन के अधिक समीप। नीलाचल पर्वत पर होकर, निरांजन करता ले दीप ॥२८॥
मणि-मुक्ता किरणों से चित्रित, अद्भुत शोभित सिंहासन। कांतिमान् कंचन-सा दिखता, जिस पर तब कमनीय वदन॥
उदयाचल के तुंग शिखर से, मानो सहस्त्र रश्मि वाला। किरण-जाल फैलाकर निकला, हो करने को उजियाला ॥२९॥
ढुरते सुंदर चँवर विमल अति, नवल कुंद के पुष्प समान।शोभा पाती देह आपकी, रौप्य धवल-सी आभावान॥
कनकाचल के तुंगृंग से, झर-झर झरता है निर्झर।चंद्र-प्रभा सम उछल रही हो, मानो उसके ही तट पर ॥३०॥
चंद्र-प्रभा सम झल्लरियों से, मणि-मुक्तामय अति कमनीय।दीप्तिमान् शोभित होते हैं, सिर पर छत्रत्रय भवदीय॥
ऊपर रहकर सूर्य-रश्मि का, रोक रहे हैं प्रखर प्रताप।मानो अघोषित करते हैं, त्रिभुवन के परमेश्वर आप ॥३१॥
ऊँचे स्वर से करने वाली, सर्वदिशाओं में गुंजन।करने वाली तीन लोक के, जन-जन का शुभ-सम्मेलन॥
पीट रही है डंका-हो सत् धर्म-राज की जय-जय।इस प्रकार बज रही गगन में, भेरी तव यश की अक्षय ॥३२॥
कल्पवृक्ष के कुसुम मनोहर, पारिजात एवं मंदार।गंधोदक की मंद वृष्टि, करते हैं प्रभुदित देव उदार॥
तथा साथ ही नभ से बहती, धीमी-धीमी मंद पवन।पंक्ति बाँध कर बिखर रहे हों, मानो तेरे दिव्य-वचन ॥३३॥
तीन लोक की सुंदरता यदि, मूर्तिमान बनकर आवे।तन-भामंडल की छवि लखकर, तब सन्मुख शरमा जावे॥
कोटिसूर्य के प्रताप सम, किंतु नहीं कुछ भी आताप।जिसके द्वारा चंद्र सुशीतल, होता निष्प्रभ अपने आप ॥३४॥
मोक्ष-स्वर्ग के मार्ग प्रदर्शक, प्रभुवर तेरे दिव्य-वचन।करा रहे हैं, ‘सत्यधर्म’ के अमर-तत्व का दिग्दर्शन॥
सुनकर जग के जीव वस्तुतः कर लेते अपना उद्धार।इस प्रकार में परिवर्तित होते, निज-निज भाषा के अनुसार ॥३५॥
जगमगात नख जिसमें शोभें, जैसे नभ में चंद्रकिरण।विकसित नूतन सरसीरूह सम, है प्रभु! तेरे विमल चरण॥
रखते जहाँ वहीं रचते हैं, स्वर्ण-कमल सुरदिव्य ललाम।अभिनंदन के योग्य चरण तव, भक्ति रहे उनमें अभिराम ॥३६॥
धर्म-देशना के विधान में, था जिनवर का जो ऐश्वर्य।वैसा क्या कुछ अन्य कु देवों, में भी दिखता है सौंदर्य॥
जो छवि घोर-तिमिर के नाशक, रवि में है देखी जाती।वैसी ही क्या अतुल कांति, नक्षत्रों में लेखी जाती ॥३७॥
लोल कपोलों से झरती है, जहाँ निरंतर मद की धार।होकर अति मदमत्त कि जिस पर, करते हैं भौंरे गुंजार॥
क्रोधासक्त हुआ यों हाथी, उद्धत ऐरावत सा काल।देख भक्त छुटकारा पाते, पाकर तव आश्रय तत्काल ॥३८॥
क्षत-विक्षत कर दिए गजों के, जिसने उन्नत गंडस्थल।कांतिमान् गज-मुक्ताओं से, पाट दिया हो अवनीतल॥
जिन भक्तों को तेरे चरणों, के गिरि की हो उन्नत ओट।ऐसा सिंह छलाँगे भर कर, क्या उस पर कर सकता चोट ॥३९॥
प्रलय काल की पवन उठाकर, जिसे बढ़ा देती सब ओर।फिफें फुलिंगे ऊपर तिरछे, अंगारों का भी होवे जोर॥
भुवनत्रय को निगला चाहे, आती हुई अग्नि भभकार।प्रभु के नाम-मंत्र जल से वह, बुझ जाती है उस ही बार ॥४०॥
कंठ कोकिला सा अति काला, क्रोधित हो फण किया विशाल।लाल-लाल लोचन करके यदि, झपटें नाग महा विकराल॥
नाम रूप तव अहि- दमनी का, लिया जिन्होंने हो आश्रय।पग रखकर निःशंक नाग पर, गमन करें वे नर निर्भय ॥४१॥
जहाँ अश्व की और गजों की, चीत्कार सुन पड़ती घोर।शूरवीर नृप की सेनाएँ, रव करती हों चारों ओर।
वहाँ अकेला शक्तिहीन नर, जप कर सुंदर तेरा नाम।सूर्य-तिमिर सम शूर-सैन्य का, कर देता है काम-तमाम ॥४२॥
रण में भालों से वेधित गज, तन से बहता रक्त अपार।वीर लड़ाकू जहाँ आतुर हैं, रुधिर-नदी करने को पार॥
भक्त तुम्हारा हो निराश तहँ, लख अरिसेना दुर्जयरूप।तव पादारविंद पा आश्रय, जय पाता उपहार-स्वरूप ॥४३॥
वह समुद्र कि जिसमें होवें, मच्छमगर एवं घड़ियाल|तूफाँ लेकर उठती होवें, भयकारी लहरें उत्ताल॥
भँवर-चक्र में फँसी हुई हो, बीचों बीच अगर जलयान।छुटकारा पा जाते दुःख से, करने वाले तेरा ध्यान ॥४४॥
असहनीय उत्पन्न हुआ हो, विकट जलोदर पीड़ा भार।जीने की आशा छोड़ी हो, देख दशा दयनीय अपार॥
ऐसे व्याकुल मानव पाकर, तेरी पद-रज संजीवन।स्वास्थ्य-लाभ कर बनता उसका, कामदेव सा सुंदर तन ॥४५॥
लोह-श्रंखला से जकड़ी है, नख से शिख तक देह समस्त।घुटने-जंघे छिले बेड़ियों से, अधीर जो हैं अतित्रस्त॥
भगवन ऐसे बंदीजन भी, तेरे नाम-मंत्र की जाप॥जप कर गत-बंधन हो जाते, क्षण भर में अपने ही आप ॥४६॥
वृषभेश्वर के गुण के स्तवन का, करते निश-दिन जो चिंतन।भय भी भयाकुलित हो उनसे, भग जाता है हे स्वामिन॥
कुंजर-समर सिंह-शोक-रुज, अहि दानावल कारागर।इनके अतिभीषण दुःखों का, हो जाता क्षण में संहार ॥४७॥
हे प्रभु! तेरे गुणोद्यान की, क्यारी से चुन दिव्य- ललाम।गूँथी विविध वर्ण सुमनों की, गुण-माला सुंदर अभिराम॥
श्रद्धा सहित भविकजन जो भी कंठाभरण बनाते हैं।मानतुंग-सम निश्चित सुंदर, मोक्ष-लक्ष्मी पाते हैं ॥४८॥
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