08-29-2017, 09:29 AM
लेश्या के लक्षण कार्य एवं भेद
जो कर्मस्कंधो से आत्मा को लिप्त करती है उसे लेश्या कहते है!
यहां पर"कषायानुविद्धा योग प्रवृति लेश्यति"अर्थात कषाय से अनुरंजित योग प्रवृति को लेश्या कहते है यह अर्थ नहीं लेना चाहिए क्योकि इस अर्थ को ग्रहण करने से,सयोग केवली लेश्या रहित हुए किन्तु 'सयोगकेवली के शुक्ललेश्या पायी जाती है'!ऐसा मानने से इस वचन का आघात हो जाता है!इसलिए जो कर्मस्कंधो से आत्मा को लिप्त करती है वह लेश्या है!(धवल पु.१ पृ ३८६)
इसी बात को आचार्यश्री वीरसेनस्वामी कहते है (धवला पु. १,पृष्ट १५० )-
"कषायानुविद्धा योग प्रवृत्तिर्लेश्यति सिद्धम्!ततोऽत्र वीतरागिणां योगी लेश्येति,न प्रत्यवस्थेयं तन्त्रत्वाद्योगस्य,न कषाय स्तन्त्रं विशेषणत्व तस्तस्य प्रधान्याभावात्।"
अर्थात"कषायानुविद्धा योग प्रवृति लेश्यति"को लेश्या कहते है,सिद्ध होने से ११वे आदि गुणस्थान वर्ती वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते है !ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योकि लेश्या में योग की प्रधानता है,कषाय की नहीं,कारण है कि कषाय योग प्रवृत्ति का विशेषण है अतएव उसकी प्रधानता नहीं हो सकती!
जिसके द्वारा जीव अपने को पुण्य और पाप से अपने को लिप्त करता है उसे लेश्या कहते है (गो.जी.४८९)
लेश्या का स्वरुप जान्ने वाले गणधरादि कहते है-
"आत्म-प्रवृत्ति-संश्लेषणकरी लेश्या " (धवल १ पृ.१४९,धवल ७ ,पृ.७ )
अर्थ:-जो आत्मा और प्रकृति (कर्म) का सम्बन्ध करने वाली है उसे लेश्या कहते है!
'जीव कम्माणं संसिलेसणयरि मिच्छत्तासंजम-कषाय-जोगा त्ति भणिदं होदि' (धवल ८,पृ.३५६)
अर्थ-मिथ्यात्व,असंयम,कषाय और योग जीव के कर्म से संबंध के कारण है,अत: इनको लेश्या कहा है !
"कथं क्षिणोपशान्तकषायानाणां शुक्ललेश्येति चेन्न ,कर्मलेपनिमित्तयोगस्य तत्र सत्तापेक्षया तेषां शुक्ललेश्य स्तित्वाविरोधात् !'(धवला पु. १, पृ ३९१)
जिन जीवो की कषाय उपशांत अथवा क्षीण हो गई है,उसके शुक्ल लेश्या होना कैसे संभव है,ऐसा नहीं कहना चाहिए,क्योकि उनके कर्म लेप का कारण योग पाया जाता है !इस अपेक्षा से उनके शुक्ल लेश्या का सद्भाव मानने में कोई विरोध नहीं है !
'केण कारणेण सुक्कलेसा कम्म णोकम्म-लेव -णिमित्त जोगा अत्थि त्ति '(धवला पु.२ पृ.४३९)
जब उपशांत कषाय आदि गुणस्थानो में कषायों का उदय नहीं पाया जाता है तो शुक्ल लेश्या का क्या कारण है?उपशांत आदि गुणस्थानो में कर्म और नोकर्म के निमित्तभूत योग का सद्भाव पाया जाता है इसलिए शुक्ल लेश्या है!
"कषायानुरंजिताकायवाङ् -मनोयोग प्रवृत्तिर्लेश्यति ' ततो न केवल: कषायो लेश्या ,नापि योग: अपितु
"कषायानुविद्धा योग प्रवृत्तिर्लेश्यति सिद्धम्'(धवल पु १ पृ १४९ )
अर्थ:-कषाय से अनुरंजित काययोग,वचनयोगऔर मनोयोग की प्रवृत्ति को लेश्या कहते है!इस प्रकार लेश्या का लक्षण करने पर ,केवल कषाय या केवल योग को लेश्या नहीं कह सके अपितु कषायानुविद्धा योग प्रवृति को ही लेश्या कहते है,यह बात सिद्ध हो जाती है !
कषाय के अभाव में, केवल योग के सदभाव में केवल ईर्यापथ आस्रव होता है जो उसी समय निर्जरा को प्राप्त हो जाता है अत: यह संसार वृद्धि का कारण नहीं हो सकता!केवल कषाय भी संसार वृद्धि का कारण नहीं है क्योकि योग के द्वारा होने वाला कर्म आस्रव स्थिति और अनुभाग किसमे होगा ?(ध.पु १,पृ ३८७ )
कषाय का उदय छ प्रकार का होता है-तीव्रतम ,तीव्रतर ,तीव्र,मंद मंदतर और मंदतम इन छह प्रकार की कषायों से लेश्या भी क्रमश-कृष्ण,नील,कापोत,पीट,पद्म और शुक्ल ,होती है (ध.पु.. १ पृ ३८८ )
मिथ्यात्व,असंयम ,कषाय और योग से उतपन्न जीव के संस्कारो को भावलेश्य कहते है !तीव्र संस्कार को कापोत,तीव्रतर को नील ,तीव्रतम को कृष्ण,मंद को पीट ,मंदतर को पद्म और मंदतम को शुक्ल लेश्या कहते है!
उपयोग की व्यग्रता कषाय और योग की व्यग्रता लेश्या है !
छः लश्यों में जीव के परिणाम -- (जीव का.गा.(५०९-५१७)
१-कृष्ण लेश्या-से युक्त जीव तीव्र क्रोधी,निर्दयी ,क्रूर,बैर नहीं छोड़ने वाला,झगड़ालू ,गाली देने वाला,पंच पापो से युक्त ,परदारा अभिलाषी,असंयमी,जिनशासन से विमुख ,दुष्ट होता है !
२-नील लेश्या -से युक्त जीव मंद बुद्धि,विवेक रहित,विषय लोलुप ,अभिमानी ,मायाचारी,धार्मिक कार्य में आलसी,अतिनिद्रालु ,धोखेबाज,परिग्रहो को संजोने का अभिलाषी होता है !
३-कपोत लेश्या से युक्त रुष्ट होना,पर निंदक स्व प्रशंसक,आत्महिताहित रहित,ईर्ष्यालु,अविश्वासी,प्रशंसक को धन देता है,अविवेकी होता है !
४-पीत लेश्या युक्त जीव-कर्तव्य-अकर्तव्य का विज्ञ ,अहिंसक,सत्यबुद्धि,चोरी व परदारा त्यागी,दयादान में तत्पर कोमल परिणामी ,अणुव्रती होता है !
५-पद्म लेश्या युक्त जीव-भद्र परिणामी ,त्यागी,अपराधों को क्षमा करने वाला,ऋजु कर्मी,देव शास्त्र गुरु की पूजा में तत्पर होता है!
६-शुक्ल लेश्या से युक्त जीव-िष्टनिष्ट में समभावी ,रागद्वेष,स्नेह से रहित ,संयमी ,निदान रहित होता है !