06-04-2018, 09:17 AM
जिन सहस्रनाम अर्थसहित तृतीय अध्याय भाग १
स्थविष्ठ: स्थविरो ज्येष्ठ: पृष्ठ: प्रेष्ठो वरिष्ठधी: । स्थेष्ठो गरिष्ठो बंहिष्ठ: श्रेष्ठोऽ णिष्ठो गरिष्ठगी:॥१
२०१. आपने मानो समस्त जीवोंको अपने उपदेश द्वारा अवकाश दिया है, अर्थात कैसे रहना बताया है, ऐसि स्थिर शक्ति होनेसे आपको "स्थविष्ठ" कहा जाता है।
२०२. अनादि अनंत होनेसे आप अत्यंत वृध्द है, इसलिये "स्थविर" भि कहे जाते है।
२०३. आप सब जीवोंमे मुख्य है, अर्थात गुण, बल, सुख, ज्ञान से आप सबमे मुख्य है, इसलिये आप" ज्येष्ठ" हो।
२०४. सबसे अग्रसर या नेता होनेसे "पृष्ठ" हो।
२०५. सबमे प्रिय होनेसे "प्रेष्ठ" हो।
२०६. अतिशय बुध्दि के धारी होनेसे " वरिष्ठधी" हो।
२०७. अत्यंत स्थिर अर्थात अविनाशी होनेसे "स्थेष्ठ" हो।
२०८. सबके गुरु होनेसे या सबके महान होनेसे "गरिष्ठ" हो।
२०९. आपके दॄष्य स्वरुपसे परे अनंत स्वरुप होनेसे अथवा अनन्त गुणोके धारक होनेसे "बंहिष्ठ" हो।
२१०. सबसे प्रशंसनीय होनेसे अथवा सबमे महान होनेसे "श्रेष्ठ" हो।
२११. मात्र केवलज्ञान के गोचर होनेसे अथवा अतिशय सुक्ष्म होनेसे "अनिष्ठ" हो।
२१२. आपकी कल्याणकारी हितोपदेशी वाणी सबको पुज्य होनेसे आपको "गरिष्ठगी" भि कहा जाता है।
विश्वभृद् विश्वसृड् विश्वेड् विश्वभृग् विश्वनायक:। विश्वाशी र्विश्वरुपात्मा विश्वजित् विजितान्तक:॥ २॥
२१३. चतुर्गति विश्व अर्थात संसार का नाश करनेसे आपको "विश्वभृद्" हो।
२१४. विश्व के विधी विधान के सर्जन होनेसे "विश्वसृड्" हो।
२१५. तीन लोकोंमे श्रेष्ठ होनेसे या तीन लोक रुपी भुवन के स्वामी होनेसे "विश्वेट्" हो।
२१६. विश्व के रक्षक अर्थात कर्मशत्रुसे रक्षा करनेवाला उपदेश देनेसे "विश्वसृक्" हो।
२१७. सब विश्व के नाथ होनेसे अग्रणीअ होनेसे उनका नेता रहनेसे "विश्वनायक" हो।
२१८. समस्त प्राणीयोंका विश्वासयोग्य होनेसे तथा अपने केवलज्ञानसे तीन लोक मे निवास करनेसे "विश्वाशी" हो।
२१९. सम्पुर्ण विश्व का स्वरुप आपके आत्मा मे होनेसे अथवा केवलज्ञान जो समस्त विश्वरुपी है, जो आपके आत्मा का स्वरुप होनेसे "विश्वरुपात्मा" हो।
२२०. आपके सदैव चलने वाले संसारको अपने आत्मस्वरुपसे जित लिया है, अर्थात आपके समक्ष संसार भि हार जाने से " विश्वजित्" हो।
२२१. अन्तक अर्थात नाश करनेवाले काल के उपर विजय पानेसे आपको "विजितान्तक" भि कहा जाता है।
विभावो विभयो वीरो विशोको विजरो जरन्। विरागो विरतोऽसंगो विविक्तो वीतमत्सर:॥ ३
२२२. किसी भि तरह के मनोविकार अर्थात भाव नही रहने से "विभाव" हो।
२२३. भयरहित होनेसे अर्थात आपके शत्रुहि नही है, तब भय कहासे " विभय" हो।
२२४. अनंतवीर्य होनेसे "वीर" हो।
२२५. शोक अर्थात दु:ख रहित होनेसे अर्थात अनंतसुख के स्वामि होनेसे "विशोक" हो।
२२६. जरा रहित अर्थात आप् कदापि जरावस्था को प्राप्त नही होंगे इसलिये " विजर" हो।
२२७. लेकिन अनादिकालीन होनेसे "जर - व्रुद्ध" हो।
२२८. रागरहित होनेसे "विराग" हो।
२२९. विषय रहित होने से "विरत" हो।
२३०. स्व मे रममाण रहनेसे अर्थात पर का कोई संग नही रहनेसे "असंग" हो।
२३१. एकाकि होनेसे अथवा स्वभाव मे रहनेसे मात्र स्वयम् का साथ होनेसे "विविक्त" हो।
२३२. किसीसे इर्ष्या, द्वेष, मत्सर ना होनेसे आप "वीत मत्सर" भि कहलाते है।
विनेय जनता बंधु र्विलीना शेष कल्मष:। वियोगो योगविद् विद्वान् विधाता सुविधि सुधी:॥४
२३३. जो आपके लिये विनय धारण करते है, आपकि भक्ति करते है, प्रार्थना करते है, ऐसे जनो के बन्धू अर्थात उनके हितैषी होनेसे आप "विनेयजनताबंधु" हो. २३४. समस्त कर्मरुपी कालिमासे रहीत होनेसे "विलीनाशेषकल्मष" हो ।
२३५. मन, वच, कायसे किसी भि परपदार्थ के कोई भि योग ना होनेसे "वियोग" हो।
२३६. योग के ज्ञाता होनेसे "योगवित्" हो।
२३७. सम्पुर्ण ज्ञान के धारी होनेसे "विद्वान" हो।
२३८. धर्म रूपी सृष्टीसे कर्ता होनेसे अथवा सबके गुरु होनेसे "विधाता" हो।
२३९. आपकि समस्त क्रिया अत्यंत प्रशंसनीय होनेसे "सुविधी" हो।
२४०. अतिशय बुध्दिमान होनेसे "सुधी" कहलाते है।
क्षान्ति भाक़् पृथ्वीमूर्ति: शान्ति भाक् सलिलात्मक:। वायुमूर्ति रसंगात्मा वन्हि मूर्ति धर्मधृक् ॥५॥
२४१. उत्तम क्षमा को धारण करनेवाले होनेसे "क्षान्तिभाक्" हो।
२४२. पृथ्वी के समान सहनशीलता होनेसे "पृथ्वीमूर्ति" हो।
२४३. शांत होनेसे "शान्तिभाक्" हो।
२४४. जलके समान निर्मल होनेसे अथवा जल के समान सबका कर्ममल धोनेवाले होनेसे "सलीलात्मक" हो।
२४५. वायु समस्त जीवोंको स्पर्श करते हुए किसीसे संबंध नही बनाता ऐसे होनेसे "वायुमूर्ति" हो।
२४६. किसीभि परिग्रह रहित होनेसे (आप बहिरंग तथा अंतरंग लक्ष्मीके स्वामी होते हुए भि) "असंगात्मा" हो।
२४७. आपने अग्निके समान कर्मरुपी इंधन को जलानेसे अथवा अग्नि के समान हि उर्ध्वगमन (सिध्दशीला) का स्वभाव होनेसे "वन्हिमूर्ति" हो।
२४८. अधर्म का नाश करनेसे " अधर्मधृक्" भि कहे जाते है।
सुयज्वा यजमानात्मा सुत्वा सूत्राम पूजित:। ऋत्विग्यज्ञ पति र्यज्ञो यज्ञांगम मृतं हवि:॥६॥
२४९. जैसे यज्ञ मे सामग्री का होम किया जाता है, वैसेहि आपने कर्मरुपी सामग्री को जलाया है, इसलिये आपको "सुयज्वा" कहा जाता है।
२५०. स्वयं के आत्मा कि हि अथवा स्वभाव भाव कि आराधना करनेसे अथवा भावपूजा के कर्ता होनेसे "यजमानात्मा" हो।
स्थविष्ठ: स्थविरो ज्येष्ठ: पृष्ठ: प्रेष्ठो वरिष्ठधी: । स्थेष्ठो गरिष्ठो बंहिष्ठ: श्रेष्ठोऽ णिष्ठो गरिष्ठगी:॥१
२०१. आपने मानो समस्त जीवोंको अपने उपदेश द्वारा अवकाश दिया है, अर्थात कैसे रहना बताया है, ऐसि स्थिर शक्ति होनेसे आपको "स्थविष्ठ" कहा जाता है।
२०२. अनादि अनंत होनेसे आप अत्यंत वृध्द है, इसलिये "स्थविर" भि कहे जाते है।
२०३. आप सब जीवोंमे मुख्य है, अर्थात गुण, बल, सुख, ज्ञान से आप सबमे मुख्य है, इसलिये आप" ज्येष्ठ" हो।
२०४. सबसे अग्रसर या नेता होनेसे "पृष्ठ" हो।
२०५. सबमे प्रिय होनेसे "प्रेष्ठ" हो।
२०६. अतिशय बुध्दि के धारी होनेसे " वरिष्ठधी" हो।
२०७. अत्यंत स्थिर अर्थात अविनाशी होनेसे "स्थेष्ठ" हो।
२०८. सबके गुरु होनेसे या सबके महान होनेसे "गरिष्ठ" हो।
२०९. आपके दॄष्य स्वरुपसे परे अनंत स्वरुप होनेसे अथवा अनन्त गुणोके धारक होनेसे "बंहिष्ठ" हो।
२१०. सबसे प्रशंसनीय होनेसे अथवा सबमे महान होनेसे "श्रेष्ठ" हो।
२११. मात्र केवलज्ञान के गोचर होनेसे अथवा अतिशय सुक्ष्म होनेसे "अनिष्ठ" हो।
२१२. आपकी कल्याणकारी हितोपदेशी वाणी सबको पुज्य होनेसे आपको "गरिष्ठगी" भि कहा जाता है।
विश्वभृद् विश्वसृड् विश्वेड् विश्वभृग् विश्वनायक:। विश्वाशी र्विश्वरुपात्मा विश्वजित् विजितान्तक:॥ २॥
२१३. चतुर्गति विश्व अर्थात संसार का नाश करनेसे आपको "विश्वभृद्" हो।
२१४. विश्व के विधी विधान के सर्जन होनेसे "विश्वसृड्" हो।
२१५. तीन लोकोंमे श्रेष्ठ होनेसे या तीन लोक रुपी भुवन के स्वामी होनेसे "विश्वेट्" हो।
२१६. विश्व के रक्षक अर्थात कर्मशत्रुसे रक्षा करनेवाला उपदेश देनेसे "विश्वसृक्" हो।
२१७. सब विश्व के नाथ होनेसे अग्रणीअ होनेसे उनका नेता रहनेसे "विश्वनायक" हो।
२१८. समस्त प्राणीयोंका विश्वासयोग्य होनेसे तथा अपने केवलज्ञानसे तीन लोक मे निवास करनेसे "विश्वाशी" हो।
२१९. सम्पुर्ण विश्व का स्वरुप आपके आत्मा मे होनेसे अथवा केवलज्ञान जो समस्त विश्वरुपी है, जो आपके आत्मा का स्वरुप होनेसे "विश्वरुपात्मा" हो।
२२०. आपके सदैव चलने वाले संसारको अपने आत्मस्वरुपसे जित लिया है, अर्थात आपके समक्ष संसार भि हार जाने से " विश्वजित्" हो।
२२१. अन्तक अर्थात नाश करनेवाले काल के उपर विजय पानेसे आपको "विजितान्तक" भि कहा जाता है।
विभावो विभयो वीरो विशोको विजरो जरन्। विरागो विरतोऽसंगो विविक्तो वीतमत्सर:॥ ३
२२२. किसी भि तरह के मनोविकार अर्थात भाव नही रहने से "विभाव" हो।
२२३. भयरहित होनेसे अर्थात आपके शत्रुहि नही है, तब भय कहासे " विभय" हो।
२२४. अनंतवीर्य होनेसे "वीर" हो।
२२५. शोक अर्थात दु:ख रहित होनेसे अर्थात अनंतसुख के स्वामि होनेसे "विशोक" हो।
२२६. जरा रहित अर्थात आप् कदापि जरावस्था को प्राप्त नही होंगे इसलिये " विजर" हो।
२२७. लेकिन अनादिकालीन होनेसे "जर - व्रुद्ध" हो।
२२८. रागरहित होनेसे "विराग" हो।
२२९. विषय रहित होने से "विरत" हो।
२३०. स्व मे रममाण रहनेसे अर्थात पर का कोई संग नही रहनेसे "असंग" हो।
२३१. एकाकि होनेसे अथवा स्वभाव मे रहनेसे मात्र स्वयम् का साथ होनेसे "विविक्त" हो।
२३२. किसीसे इर्ष्या, द्वेष, मत्सर ना होनेसे आप "वीत मत्सर" भि कहलाते है।
विनेय जनता बंधु र्विलीना शेष कल्मष:। वियोगो योगविद् विद्वान् विधाता सुविधि सुधी:॥४
२३३. जो आपके लिये विनय धारण करते है, आपकि भक्ति करते है, प्रार्थना करते है, ऐसे जनो के बन्धू अर्थात उनके हितैषी होनेसे आप "विनेयजनताबंधु" हो. २३४. समस्त कर्मरुपी कालिमासे रहीत होनेसे "विलीनाशेषकल्मष" हो ।
२३५. मन, वच, कायसे किसी भि परपदार्थ के कोई भि योग ना होनेसे "वियोग" हो।
२३६. योग के ज्ञाता होनेसे "योगवित्" हो।
२३७. सम्पुर्ण ज्ञान के धारी होनेसे "विद्वान" हो।
२३८. धर्म रूपी सृष्टीसे कर्ता होनेसे अथवा सबके गुरु होनेसे "विधाता" हो।
२३९. आपकि समस्त क्रिया अत्यंत प्रशंसनीय होनेसे "सुविधी" हो।
२४०. अतिशय बुध्दिमान होनेसे "सुधी" कहलाते है।
क्षान्ति भाक़् पृथ्वीमूर्ति: शान्ति भाक् सलिलात्मक:। वायुमूर्ति रसंगात्मा वन्हि मूर्ति धर्मधृक् ॥५॥
२४१. उत्तम क्षमा को धारण करनेवाले होनेसे "क्षान्तिभाक्" हो।
२४२. पृथ्वी के समान सहनशीलता होनेसे "पृथ्वीमूर्ति" हो।
२४३. शांत होनेसे "शान्तिभाक्" हो।
२४४. जलके समान निर्मल होनेसे अथवा जल के समान सबका कर्ममल धोनेवाले होनेसे "सलीलात्मक" हो।
२४५. वायु समस्त जीवोंको स्पर्श करते हुए किसीसे संबंध नही बनाता ऐसे होनेसे "वायुमूर्ति" हो।
२४६. किसीभि परिग्रह रहित होनेसे (आप बहिरंग तथा अंतरंग लक्ष्मीके स्वामी होते हुए भि) "असंगात्मा" हो।
२४७. आपने अग्निके समान कर्मरुपी इंधन को जलानेसे अथवा अग्नि के समान हि उर्ध्वगमन (सिध्दशीला) का स्वभाव होनेसे "वन्हिमूर्ति" हो।
२४८. अधर्म का नाश करनेसे " अधर्मधृक्" भि कहे जाते है।
सुयज्वा यजमानात्मा सुत्वा सूत्राम पूजित:। ऋत्विग्यज्ञ पति र्यज्ञो यज्ञांगम मृतं हवि:॥६॥
२४९. जैसे यज्ञ मे सामग्री का होम किया जाता है, वैसेहि आपने कर्मरुपी सामग्री को जलाया है, इसलिये आपको "सुयज्वा" कहा जाता है।
२५०. स्वयं के आत्मा कि हि अथवा स्वभाव भाव कि आराधना करनेसे अथवा भावपूजा के कर्ता होनेसे "यजमानात्मा" हो।