09-18-2022, 07:02 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -69 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -73 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु।
उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा // 69 //
इस अधिकारमें इंद्रियजनित सुखका विचार किया जावेगा, उसमें भी पहले इंद्रियसुखका कारण शुभोपयोगका स्वरूप कहते हैं-
[यः] जो आत्मा [ देवतायतिगुरुपूजासु] देव, यति, तथा गुरुकी पूजामें [च ] और [ दाने दानों [वा] अथवा [सुशीलेषु ] गुणवत, महाव्रत, आदि उत्तम शीलों (स्वभावों ) में, [ उपवासादिषु ] आहार आदिके त्यागोंमें [एव] निश्चयसे [रक्तः] लवलीन है, [ 'स' आत्मा] वह जीव [शुभोपयोगात्मकः] शुभोपयोगी अर्थात् शुभ परिणामवाला है।
भावार्थ-जो जीव धर्ममें अनुराग (प्रीति) रखते हैं, उन्हें इंद्रियसुखकी साधनेवाली शुभोपयोगरूपी भूमिमें प्रवर्तमान कहते हैं // 69 //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 69
अन्वयार्थ - (देवदजदिगुरुपूजासु) देव, गुरु और यति की पूजा में (दाणम्मि चेव) तथा दान में (सुसीलेसुवा) एवं सुशीलों में (उववासादिसु) और उपवासादिक में (रत्तो अप्पा) लीन आत्मा (सुहोवजोगप्पगो) शुभोपयोगात्मक हैं।
जो इंद्रिय सुख प्राप्त होता हैं ,उस सुख में अंतरंग आत्मा में एक उपयोग साधन बनता हैं ,वही शुभोपयोग हैं।यहाँ उसी के बारे में बताया जा रहा हैं ।
उपयोग तीन प्रकार के होते हैं। अशुभोपयोग,शुभोपयोग,औऱ शुद्धोपयोग
जो देवपूजा व गुरुपूजा में अनुरक्त हैं ,तथा जो व्रतों की रक्षा में लगे हुए शील से सुशोभित मुनियो को दान देने मे रत हैं ,जो उपवास आदि विषयो में अनुरक्त हैं ,इस प्रकार का आत्मा शुभोपयोग स्वभाव वाला होता है।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -69 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -73 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु।
उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा // 69 //
इस अधिकारमें इंद्रियजनित सुखका विचार किया जावेगा, उसमें भी पहले इंद्रियसुखका कारण शुभोपयोगका स्वरूप कहते हैं-
[यः] जो आत्मा [ देवतायतिगुरुपूजासु] देव, यति, तथा गुरुकी पूजामें [च ] और [ दाने दानों [वा] अथवा [सुशीलेषु ] गुणवत, महाव्रत, आदि उत्तम शीलों (स्वभावों ) में, [ उपवासादिषु ] आहार आदिके त्यागोंमें [एव] निश्चयसे [रक्तः] लवलीन है, [ 'स' आत्मा] वह जीव [शुभोपयोगात्मकः] शुभोपयोगी अर्थात् शुभ परिणामवाला है।
भावार्थ-जो जीव धर्ममें अनुराग (प्रीति) रखते हैं, उन्हें इंद्रियसुखकी साधनेवाली शुभोपयोगरूपी भूमिमें प्रवर्तमान कहते हैं // 69 //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 69
अन्वयार्थ - (देवदजदिगुरुपूजासु) देव, गुरु और यति की पूजा में (दाणम्मि चेव) तथा दान में (सुसीलेसुवा) एवं सुशीलों में (उववासादिसु) और उपवासादिक में (रत्तो अप्पा) लीन आत्मा (सुहोवजोगप्पगो) शुभोपयोगात्मक हैं।
जो इंद्रिय सुख प्राप्त होता हैं ,उस सुख में अंतरंग आत्मा में एक उपयोग साधन बनता हैं ,वही शुभोपयोग हैं।यहाँ उसी के बारे में बताया जा रहा हैं ।
उपयोग तीन प्रकार के होते हैं। अशुभोपयोग,शुभोपयोग,औऱ शुद्धोपयोग
जो देवपूजा व गुरुपूजा में अनुरक्त हैं ,तथा जो व्रतों की रक्षा में लगे हुए शील से सुशोभित मुनियो को दान देने मे रत हैं ,जो उपवास आदि विषयो में अनुरक्त हैं ,इस प्रकार का आत्मा शुभोपयोग स्वभाव वाला होता है।