10-01-2024, 04:06 AM
अध्यात्म योग
आचार्य पूज्यपादस्वामी द्वारा विरचित इष्टोपदेश पर मुनि श्री प्रणम्यसागरजी के प्रवचनों का संग्रह, अतिशयक्षेत्र बिजोलियाजी, 2016
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः। तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥१॥
आचार्य उस आत्मा को नमस्कार करते हैं जिसने स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो।
स्वभाव की प्राप्ति करने के लिए 'पर' की भी कोई आवश्यकता नहीं है।
अगर हम उस पाषाण को प्रतिमा में ढलते हुए देखें तो पता चलेगा कि उस पाषाण में से प्रतिमा बनती चली जा रही है, पाषाण स्वयं ही प्रतिमा के रूप में बनता चला जा रहा है। इसके लिए उसमें किसी बाहरी चीज को मिलाने की आवश्यकता नहीं है, जो कुछ है वो सब उसी में है बस उसको उसमें से निकालने की आवश्यकता है। कुछ ऐसा जो उस प्रतिमा को घुमाये हुए है, पाषाण में प्रतिमा छिपी हुई है उस प्रतिमा को आप नहीं देख पाओगे उसे वो कारीगर देख लेगा। जिसे प्रतिमा बनाना आता है या जो प्रतिमा की जानकारी रखता है वह कारीगर उस पाषाण को देखते ही समझ लेता है कि कहाँ पर इसको कैसा अक्ष देना है, इसके लिए कहाँ पर नाक नक्श बनाना है और वह उस पाषाण को देखकर अपने अन्दर पहले ही प्रतिमा बना लेता है। पहले उसकी प्रतिमा कहाँ बन जाती है? अपने अन्दर बन जाती है। हम कहते हैं कि ऐसी पद्मासन या खड्गासन प्रतिमा बनाना है और वह कह देता है आप निश्चिंत रहें जैसा आप चाह रहे हैं वैसी प्रतिमा बनाकर दे देंगे क्योंकि उसकी छवि हमारे अन्दर उतर गयी है। सबसे पहले प्रतिमा अपने अन्दर बन गई, अभी बाहर वो पाषाण ज्यों का त्यों पड़ा है। आप देखोगे इस पाषाण में कहीं कुछ नहीं है और वो प्रतिमा बनाने वाला देखेगा तो वह देखता है कि इसमें प्रतिमा बनी हुई है। हमें कुछ नहीं करना है, इस प्रतिमा पर किसी ने कुछ ढँक रखा है, उसे हमें हटाना है। यह ढँकना वैसा नहीं जैसे कपड़े के द्वारा फोटो का ढँकना। वह भी ढंकना है और यह भी ढँकना लेकिन इन दोनों में बहुत अन्तर है, पाषाण के अन्दर जैसे प्रतिमा छिपी हुई है।
आचार्य कहते कि हैं ही ऐसे हमारे अन्दर हमारा परमात्मा छिपा हुआ है, हमारा स्वभाव हमारे अन्दर ऐसे ही ढका हुआ है। कहने में तो आयेगा ढँका हुआ है, छिपा हुआ है, गुप्त है, हमें वह पकड़ने में नहीं आ रहा है लेकिन हमें उसे पकड़ना है और पकड़ने के लिए थोड़ा सा कलाकार बनना पड़ेगा। उस प्रतिमा को बनाने वाले मूर्तिकार की तरह हमें भी थोड़ी सी कला सीखनी होगी और वो कला क्या है? जब उसके सामने एक दूसरा फोटो लाकर रख दिया जाता है और वह फोटो प्रतिमा में नहीं है, वह फोटो वह प्रतिमा नहीं है, वह प्रतिमा वह फोटो नहीं है फिर भी उस फोटो को देखकर वह मूर्तिकार उस पाषाण के अंदर उस फोटो को समाहित कर लेता है और कह देता है कि बिल्कुल ऐसी की ऐसी प्रतिमा इसके अंदर छिपी हुई है आपको प्रकट करके दे देंगे। 2-4 मास का समय लगेगा। फोटो कहीं और पाषाण कहीं और वह बनाने वाला तीसरा उसके दिमाग में दोनों की संयोजना हो गई है कि यह फोटो इस पाषाण में छिपा हुआ है। ऐसे ही आचार्य यहाँ कह रहे हैं एक फोटो तुम्हारी आत्मा में भी छिपा हुआ है। और वह फोटो क्या है? वह जिन्होंने अपने स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो उसको अपना फोटो बनाकर सामने रख लो। जिन्होंने मतलब वह अन्य है वो आप नहीं हैं। जिन्होंने उस स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो, उनको अपने सामने रख लो, उनको अपनी दृष्टि का विषय बना लो और उनको विषय बनाने के बाद क्या करना? वह सब हम आगे के विषय में बतायेंगे लेकिन पहले जिस रूप में हमको ढलना है उन्हें अपना विषय बना लो। हमें कैसा बनना है? तो आचार्य कहते हैं हमें ना महावीर भगवान बनना है, ना ऋषभदेव बनना है, ना पारसनाथ बनना है, क्या बनना है? यह सब तो बाहरी नाम है, यह सब तो शरीर से संबंध रखते हैं और इन नामों के पीछे जुड़ा वो आत्म तत्त्व है। वह जो बन गया है, उसकी तरफ अपनी दृष्टि डालो और जिन्होंने भी अपने आप को बनाया है, वैसे ही तुम्हें बनना है लेकिन पहले एक बात समझ लेना है कि हमें किस जैसा बनना है? मंगलाचरण इसलिए किया जाता है कि आपको वह ध्यान आ जाये जो आप होना चाहते हैं। मंगलाचरण कोई खानापूर्ति नहीं है, एक औपचारिकता नहीं है। ऐसे आध्यात्मिक संत, महान आचार्य इसलिए मंगलाचरण करते हैं कि मंगलाचरण के माध्यम से हमारे सामने एक फोटो खिच जाता है और हम उसी को चाहेंगे, उसी के गुणों की प्राप्ति के लिए हम अपने आप को तैयार करेंगे। अगर ऐसे परमात्मा को नमस्कार कर रहे हैं जिसने स्वयं स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो तो इसका मतलब है कि हमें भी अपने स्वभाव की प्राप्ति करनी है।
मन की एकाग्रता, ध्यान की परिणति कर्म काटने के औजार हैं।
For more detail ... अध्यात्म योग गाथा 1
English Translation .... Adhyatm Yog Gatha 1
अध्यात्म योग स्वाध्याय
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आचार्य पूज्यपादस्वामी द्वारा विरचित इष्टोपदेश पर मुनि श्री प्रणम्यसागरजी के प्रवचनों का संग्रह, अतिशयक्षेत्र बिजोलियाजी, 2016
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः। तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥१॥
आचार्य उस आत्मा को नमस्कार करते हैं जिसने स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो।
स्वभाव की प्राप्ति करने के लिए 'पर' की भी कोई आवश्यकता नहीं है।
अगर हम उस पाषाण को प्रतिमा में ढलते हुए देखें तो पता चलेगा कि उस पाषाण में से प्रतिमा बनती चली जा रही है, पाषाण स्वयं ही प्रतिमा के रूप में बनता चला जा रहा है। इसके लिए उसमें किसी बाहरी चीज को मिलाने की आवश्यकता नहीं है, जो कुछ है वो सब उसी में है बस उसको उसमें से निकालने की आवश्यकता है। कुछ ऐसा जो उस प्रतिमा को घुमाये हुए है, पाषाण में प्रतिमा छिपी हुई है उस प्रतिमा को आप नहीं देख पाओगे उसे वो कारीगर देख लेगा। जिसे प्रतिमा बनाना आता है या जो प्रतिमा की जानकारी रखता है वह कारीगर उस पाषाण को देखते ही समझ लेता है कि कहाँ पर इसको कैसा अक्ष देना है, इसके लिए कहाँ पर नाक नक्श बनाना है और वह उस पाषाण को देखकर अपने अन्दर पहले ही प्रतिमा बना लेता है। पहले उसकी प्रतिमा कहाँ बन जाती है? अपने अन्दर बन जाती है। हम कहते हैं कि ऐसी पद्मासन या खड्गासन प्रतिमा बनाना है और वह कह देता है आप निश्चिंत रहें जैसा आप चाह रहे हैं वैसी प्रतिमा बनाकर दे देंगे क्योंकि उसकी छवि हमारे अन्दर उतर गयी है। सबसे पहले प्रतिमा अपने अन्दर बन गई, अभी बाहर वो पाषाण ज्यों का त्यों पड़ा है। आप देखोगे इस पाषाण में कहीं कुछ नहीं है और वो प्रतिमा बनाने वाला देखेगा तो वह देखता है कि इसमें प्रतिमा बनी हुई है। हमें कुछ नहीं करना है, इस प्रतिमा पर किसी ने कुछ ढँक रखा है, उसे हमें हटाना है। यह ढँकना वैसा नहीं जैसे कपड़े के द्वारा फोटो का ढँकना। वह भी ढंकना है और यह भी ढँकना लेकिन इन दोनों में बहुत अन्तर है, पाषाण के अन्दर जैसे प्रतिमा छिपी हुई है।
आचार्य कहते कि हैं ही ऐसे हमारे अन्दर हमारा परमात्मा छिपा हुआ है, हमारा स्वभाव हमारे अन्दर ऐसे ही ढका हुआ है। कहने में तो आयेगा ढँका हुआ है, छिपा हुआ है, गुप्त है, हमें वह पकड़ने में नहीं आ रहा है लेकिन हमें उसे पकड़ना है और पकड़ने के लिए थोड़ा सा कलाकार बनना पड़ेगा। उस प्रतिमा को बनाने वाले मूर्तिकार की तरह हमें भी थोड़ी सी कला सीखनी होगी और वो कला क्या है? जब उसके सामने एक दूसरा फोटो लाकर रख दिया जाता है और वह फोटो प्रतिमा में नहीं है, वह फोटो वह प्रतिमा नहीं है, वह प्रतिमा वह फोटो नहीं है फिर भी उस फोटो को देखकर वह मूर्तिकार उस पाषाण के अंदर उस फोटो को समाहित कर लेता है और कह देता है कि बिल्कुल ऐसी की ऐसी प्रतिमा इसके अंदर छिपी हुई है आपको प्रकट करके दे देंगे। 2-4 मास का समय लगेगा। फोटो कहीं और पाषाण कहीं और वह बनाने वाला तीसरा उसके दिमाग में दोनों की संयोजना हो गई है कि यह फोटो इस पाषाण में छिपा हुआ है। ऐसे ही आचार्य यहाँ कह रहे हैं एक फोटो तुम्हारी आत्मा में भी छिपा हुआ है। और वह फोटो क्या है? वह जिन्होंने अपने स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो उसको अपना फोटो बनाकर सामने रख लो। जिन्होंने मतलब वह अन्य है वो आप नहीं हैं। जिन्होंने उस स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो, उनको अपने सामने रख लो, उनको अपनी दृष्टि का विषय बना लो और उनको विषय बनाने के बाद क्या करना? वह सब हम आगे के विषय में बतायेंगे लेकिन पहले जिस रूप में हमको ढलना है उन्हें अपना विषय बना लो। हमें कैसा बनना है? तो आचार्य कहते हैं हमें ना महावीर भगवान बनना है, ना ऋषभदेव बनना है, ना पारसनाथ बनना है, क्या बनना है? यह सब तो बाहरी नाम है, यह सब तो शरीर से संबंध रखते हैं और इन नामों के पीछे जुड़ा वो आत्म तत्त्व है। वह जो बन गया है, उसकी तरफ अपनी दृष्टि डालो और जिन्होंने भी अपने आप को बनाया है, वैसे ही तुम्हें बनना है लेकिन पहले एक बात समझ लेना है कि हमें किस जैसा बनना है? मंगलाचरण इसलिए किया जाता है कि आपको वह ध्यान आ जाये जो आप होना चाहते हैं। मंगलाचरण कोई खानापूर्ति नहीं है, एक औपचारिकता नहीं है। ऐसे आध्यात्मिक संत, महान आचार्य इसलिए मंगलाचरण करते हैं कि मंगलाचरण के माध्यम से हमारे सामने एक फोटो खिच जाता है और हम उसी को चाहेंगे, उसी के गुणों की प्राप्ति के लिए हम अपने आप को तैयार करेंगे। अगर ऐसे परमात्मा को नमस्कार कर रहे हैं जिसने स्वयं स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो तो इसका मतलब है कि हमें भी अपने स्वभाव की प्राप्ति करनी है।
मन की एकाग्रता, ध्यान की परिणति कर्म काटने के औजार हैं।
For more detail ... अध्यात्म योग गाथा 1
English Translation .... Adhyatm Yog Gatha 1
अध्यात्म योग स्वाध्याय
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