10-01-2024, 04:10 AM
अध्यात्म योग
आचार्य पूज्यपादस्वामी द्वारा विरचित इष्टोपदेश पर मुनि श्री प्रणम्यसागरजी के प्रवचनों का संग्रह, अतिशयक्षेत्र बिजोलियाजी, 2016
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः। तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥१॥
आचार्य उस आत्मा को नमस्कार करते हैं जिसने स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो।
स्वभाव की प्राप्ति करने के लिए 'पर' की भी कोई आवश्यकता नहीं है।
जैसे पाषाण के अन्दर प्रतिमा छिपी हुई है वैसे ही हमारे अन्दर परमात्मा छिपा है
स्वभाव की प्राप्ति कैसे?
उस स्वभाव की प्राप्ति कैसे करनी है तो आचार्य कहते हैं कि 'अभावे कृत्स्नकर्मणः' अभाव तो करना पड़ेगा किसी न किसी का जो द्रव्य उसमें ऐसा कुछ मिला हुआ है जिसके कारण वह प्रतिमा, प्रतिमा के रूप में दिखाई नहीं दे रही है, यह एक पाषाण बनी हुई है, उसमें कुछ अभाव करना है। अभाव मतलब उसमें से कुछ निकालना है, कुछ कमी करना है, जोड़ना नहीं है, अगर जोड़ना भी पड़े तो उसमें कुछ निकालने के लिए जोड़ना। जब कोई मूर्तिकार किसी पाषाण के अन्दर से वह प्रतिमा निकालता है तो वह कहता है कि मुझे छैनी, हथौड़ा दे दो। आप कहोगे इसमें से निकालते जाओ अपने आप प्रतिमा बन जायेगी, अलग से छैनी हथौड़े की क्या जरूरत है? तो वह छैनी हथौड़ा भी उसको निकालने के लिए ही चाहिए, जोड़ने के लिए नहीं चाहिए। वह उस छैनी को उस पाषाण के ऊपर रखेगा, हथौड़ा मारेगा, आपको लगेगा कि इसमें कुछ जुड़ रहा है लेकिन वह जोड़ नहीं रहा है, तोड़ रहा है। आपकी आत्मा के अन्दर भी वह स्वभाव पड़ा हुआ है जो स्वभाव परमात्मा ने प्राप्त कर लिया। लेकिन आपको भी अपने अन्दर किसी छैनी, हथौड़े के माध्यम से कुछ तोड़ना पड़ेगा और वह क्या तोड़ना पड़ेगा? 'कृत्स्नकर्मणः' यहाँ पर आचार्य कहते हैं- कृत्स्न मतलब सभी प्रकार के कर्मणः कर्मों को। जिन्होंने अपनी आत्मा में अभाव कर लिया है, उन्हें स्वभाव की प्राप्ति अपने आप हो गई है। स्वभाव की प्राप्ति कब होगी? कर्मों के अभाव हो जाने पर। जब तक कर्मों का अभाव नहीं होगा तब तक अपने को स्वभाव की प्राप्ति नहीं होगी। उस स्वभाव की प्राप्ति करने के लिए जो छैनी, हथौड़े की जरूरत है, वह भी आपको बाद में बतायेंगे कौन सी छैनी आत्मा में चलेगी। और कोई दूसरी छैनी, हथौड़ा लेकर मत जाना। महाराज ने कहा है कि कर्मों को काटना है, कर्मों को काटने के छैनी हथौड़े सबके अलग-अलग होते हैं, श्रावकों के छोटे-छोटे मोटे-मोटे छैनी हथौड़े होते हैं और वीतरागी आत्माओं के बड़े-बड़े, पैने-पैने छैनी हथौड़े होते हैं और वो पैने छैनी हथौड़े हैं मन की एकाग्रता, ध्यान की परिणति । जिसके पास ध्यान का जितना पैनापन होगा वह उतनी जल्दी कर्मों को काट लेगा और जिसके ध्यान के अन्दर जितना विचलन होगा, जितना मोथरापन होगा, उसके कर्मों को काटने में उतनी देर लगेगी। श्रावक के लिए ध्यान ऐसा है, जैसे आप सुन रहे थे, मैं धरती तू आसमान, मिलें तो मिलें कैसे? श्रावक के लिए ध्यान करना ऐसा है जैसे कि वह धरती पर बैठा है और आसमान को छूना चाह रहा है। उसके लिए ध्यान करना बहुत टेढ़ी खीर है और ध्यान करने में सबसे ज्यादा पसीना आता है। ध्यान के अलावा सब करा लो, सब कुछ करने को तैयार है। भगवान की पूजा करा लो, विधान करा लो, बड़े-बड़े एक साथ जाप करा लो, हवन करा लो, सबके लिए तैयार है। जैसे ही ध्यान की बात आती है, अरे महाराज ध्यान तो होता नहीं और ध्यान ही एक ऐसी चीज है जिसके माध्यम से कर्म कटते हैं। ध्यान उस श्रावक के लिए होता नहीं, और ध्यान के बिना कर्म कटते नहीं और जब तक ध्यान नहीं होता तब तक आचार्य कहते हैं कि तू ध्यान की परिणति आने तक कुछ तो कर, क्या कर? आचार्य कहते हैं 'प्रात्रुत्थाय देवता गुरु दर्शनम्' सबसे पहले प्रातःकाल उठकर क्या करना? देवता, गुरु का दर्शन करना यानि भगवान जिनेन्द्र देव का दर्शन करना। श्रावक के लिए सबसे पहले यह कहा गया है। मुनिराज के लिए सबसे पहले कहा गया है- स्वाध्याय करना, सामायिक करना, ध्यान करना। श्रावक के लिए कहा गया है कि तुम उठकर सबसे पहले देवता का दर्शन करना। मुनिराज के लिए कहा गया है तुम अपनी आत्मा का ध्यान करना। अपने ही अन्दर उस परमात्मा का ध्यान बैठे-बैठे करना तुम्हें दर्शन के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है। देव दर्शन करना श्रावक का मूलगुण है, मुनि महाराज का नहीं, फिर भी मुनि महाराज करते हैं। वंदना एक आवश्यक कार्य है, वंदना को मूलगुण में रखा गया है लेकिन वह बाद में, पहले उन्हें प्रातः उठकर सामायिक करना, प्रतिक्रमण करना, स्वाध्याय करना यह सब पहले करना, फिर सब लोग उठ जाये तो देव दर्शन करने वंदना करने, के लिए जाना।
जिनेन्द्र देव के दर्शन करना श्रावक का प्रथम मूलगुण है।
For more detail ... अध्यात्म योग गाथा 1
English Translation .... Adhyatm Yog Gatha 1
अध्यात्म योग स्वाध्याय
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आचार्य पूज्यपादस्वामी द्वारा विरचित इष्टोपदेश पर मुनि श्री प्रणम्यसागरजी के प्रवचनों का संग्रह, अतिशयक्षेत्र बिजोलियाजी, 2016
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः। तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥१॥
आचार्य उस आत्मा को नमस्कार करते हैं जिसने स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो।
स्वभाव की प्राप्ति करने के लिए 'पर' की भी कोई आवश्यकता नहीं है।
जैसे पाषाण के अन्दर प्रतिमा छिपी हुई है वैसे ही हमारे अन्दर परमात्मा छिपा है
स्वभाव की प्राप्ति कैसे?
उस स्वभाव की प्राप्ति कैसे करनी है तो आचार्य कहते हैं कि 'अभावे कृत्स्नकर्मणः' अभाव तो करना पड़ेगा किसी न किसी का जो द्रव्य उसमें ऐसा कुछ मिला हुआ है जिसके कारण वह प्रतिमा, प्रतिमा के रूप में दिखाई नहीं दे रही है, यह एक पाषाण बनी हुई है, उसमें कुछ अभाव करना है। अभाव मतलब उसमें से कुछ निकालना है, कुछ कमी करना है, जोड़ना नहीं है, अगर जोड़ना भी पड़े तो उसमें कुछ निकालने के लिए जोड़ना। जब कोई मूर्तिकार किसी पाषाण के अन्दर से वह प्रतिमा निकालता है तो वह कहता है कि मुझे छैनी, हथौड़ा दे दो। आप कहोगे इसमें से निकालते जाओ अपने आप प्रतिमा बन जायेगी, अलग से छैनी हथौड़े की क्या जरूरत है? तो वह छैनी हथौड़ा भी उसको निकालने के लिए ही चाहिए, जोड़ने के लिए नहीं चाहिए। वह उस छैनी को उस पाषाण के ऊपर रखेगा, हथौड़ा मारेगा, आपको लगेगा कि इसमें कुछ जुड़ रहा है लेकिन वह जोड़ नहीं रहा है, तोड़ रहा है। आपकी आत्मा के अन्दर भी वह स्वभाव पड़ा हुआ है जो स्वभाव परमात्मा ने प्राप्त कर लिया। लेकिन आपको भी अपने अन्दर किसी छैनी, हथौड़े के माध्यम से कुछ तोड़ना पड़ेगा और वह क्या तोड़ना पड़ेगा? 'कृत्स्नकर्मणः' यहाँ पर आचार्य कहते हैं- कृत्स्न मतलब सभी प्रकार के कर्मणः कर्मों को। जिन्होंने अपनी आत्मा में अभाव कर लिया है, उन्हें स्वभाव की प्राप्ति अपने आप हो गई है। स्वभाव की प्राप्ति कब होगी? कर्मों के अभाव हो जाने पर। जब तक कर्मों का अभाव नहीं होगा तब तक अपने को स्वभाव की प्राप्ति नहीं होगी। उस स्वभाव की प्राप्ति करने के लिए जो छैनी, हथौड़े की जरूरत है, वह भी आपको बाद में बतायेंगे कौन सी छैनी आत्मा में चलेगी। और कोई दूसरी छैनी, हथौड़ा लेकर मत जाना। महाराज ने कहा है कि कर्मों को काटना है, कर्मों को काटने के छैनी हथौड़े सबके अलग-अलग होते हैं, श्रावकों के छोटे-छोटे मोटे-मोटे छैनी हथौड़े होते हैं और वीतरागी आत्माओं के बड़े-बड़े, पैने-पैने छैनी हथौड़े होते हैं और वो पैने छैनी हथौड़े हैं मन की एकाग्रता, ध्यान की परिणति । जिसके पास ध्यान का जितना पैनापन होगा वह उतनी जल्दी कर्मों को काट लेगा और जिसके ध्यान के अन्दर जितना विचलन होगा, जितना मोथरापन होगा, उसके कर्मों को काटने में उतनी देर लगेगी। श्रावक के लिए ध्यान ऐसा है, जैसे आप सुन रहे थे, मैं धरती तू आसमान, मिलें तो मिलें कैसे? श्रावक के लिए ध्यान करना ऐसा है जैसे कि वह धरती पर बैठा है और आसमान को छूना चाह रहा है। उसके लिए ध्यान करना बहुत टेढ़ी खीर है और ध्यान करने में सबसे ज्यादा पसीना आता है। ध्यान के अलावा सब करा लो, सब कुछ करने को तैयार है। भगवान की पूजा करा लो, विधान करा लो, बड़े-बड़े एक साथ जाप करा लो, हवन करा लो, सबके लिए तैयार है। जैसे ही ध्यान की बात आती है, अरे महाराज ध्यान तो होता नहीं और ध्यान ही एक ऐसी चीज है जिसके माध्यम से कर्म कटते हैं। ध्यान उस श्रावक के लिए होता नहीं, और ध्यान के बिना कर्म कटते नहीं और जब तक ध्यान नहीं होता तब तक आचार्य कहते हैं कि तू ध्यान की परिणति आने तक कुछ तो कर, क्या कर? आचार्य कहते हैं 'प्रात्रुत्थाय देवता गुरु दर्शनम्' सबसे पहले प्रातःकाल उठकर क्या करना? देवता, गुरु का दर्शन करना यानि भगवान जिनेन्द्र देव का दर्शन करना। श्रावक के लिए सबसे पहले यह कहा गया है। मुनिराज के लिए सबसे पहले कहा गया है- स्वाध्याय करना, सामायिक करना, ध्यान करना। श्रावक के लिए कहा गया है कि तुम उठकर सबसे पहले देवता का दर्शन करना। मुनिराज के लिए कहा गया है तुम अपनी आत्मा का ध्यान करना। अपने ही अन्दर उस परमात्मा का ध्यान बैठे-बैठे करना तुम्हें दर्शन के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है। देव दर्शन करना श्रावक का मूलगुण है, मुनि महाराज का नहीं, फिर भी मुनि महाराज करते हैं। वंदना एक आवश्यक कार्य है, वंदना को मूलगुण में रखा गया है लेकिन वह बाद में, पहले उन्हें प्रातः उठकर सामायिक करना, प्रतिक्रमण करना, स्वाध्याय करना यह सब पहले करना, फिर सब लोग उठ जाये तो देव दर्शन करने वंदना करने, के लिए जाना।
जिनेन्द्र देव के दर्शन करना श्रावक का प्रथम मूलगुण है।
For more detail ... अध्यात्म योग गाथा 1
English Translation .... Adhyatm Yog Gatha 1
अध्यात्म योग स्वाध्याय
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