तत्वार्थ सुत्र अध्धाय ३ सुत्र ८से १५ तक
#1

मध्यलोक का विस्तार,रत्नप्रभा पृथ्वी के १००० योजन मोटी  चित्रा  भाग  के मूल  से,एक लाख ४० योजन ऊँचे सुदर्शन मेरु पर्वत  जम्बूद्वीप के केंद्र पर स्थित लेकर स्वयंभूरमण समुद्र तक १ राजू तिर्यक विस्तार का क्षेत्र है अर्थात मध्य लोक १रज्जु x१०००४० योजन तक तिर्यकदिशा में फैला है!ढाई द्वीप;जम्बू द्वीप.लवण समुद्र,धातकीखण्ड,कालोदधि समुद्र और अर्द्धपुष्कवर द्वीप तक का क्षेत्र मनुष्य लोक है !इसके भार मध्य लोक में मनुष्य नही उत्पन्न होते !मनुष्यलोक में ज्योतिष्क देवो का परिवार सुदर्शन मेरु की निरंतर परिक्रमा करते है जिससे व्यवहारकाल समय मिनट दिन आदि का वर्तन होता  है !मनुष्यलोक के बहार मध्य लोक में  समस्त ज्योतिष्क देव अवस्थित है वे भ्रमण नही करते! समस्त लोक में काल का वर्तन मनुष्य लोक से ही व्यवहारित होता है !

मध्यलोक में सूत्र ७ में  आचार्यश्री उमास्वामी जी कहते है -

 जम्बूद्वीप का चित्र -

जम्बूद्वीपलवणोदादय:शुभनामानोद्वीपसमुद्रा :-!!७ !!
सन्धिविच्छेद-जम्बूद्वीप+लवण:+आदय:+शुभ+नामानो+द्वीपसमुद्रा:-!!
शब्दार्थ-जम्बूद्वीप आदि+लवण समुद्र+आदि+शुभ,शुभ,नामानो-नामों के ,द्वीप-द्वीप , समुद्र:-और समुद्र है !!
अर्थ-मध्य लोक में जम्बूद्वीप आदि द्वीप और लवण आदि समुद्र है !
भावार्थ-मध्यलोक में  शुभनाम वाले जम्बूद्वीपादि और लवण समुद्रादि असंख्यात द्वीप और समुद्र  है !
विशेष -
१-बहुवचन  'द्वीपसमुद्रा:'पद  से मध्य लोक में असंख्यात द्वीप समुद्रों का अस्तित्व कहा गया   है !  

द्वीपों और समुद्रों का  विस्तार -
द्विर्द्विर्विष्कम्भाःपूर्वपूर्वपरिक्षेपिणोवलयाकृतयः॥८॥
संधि विच्छेद-द्वि+द्वि+विष्कम्भा:+पूर्व+पूर्व+परिक्षेपिण:+वलयाकृतयः
शब्दार्थ-द्वि-दुगने,द्वि-दुगने,विष्कम्भा:-विस्तारवाले,पूर्व-पहिले,पूर्व-पहिले,परिक्षेपिण:-चारो ओर से  घेरे हुए दूसरा (वेष्ठित) वलयाकृतयः -वलयाकार (चूड़ी के सामान  आकारवान )
अर्थ-सभी द्वीप समुद्र क्रमश: दुगने दुगने अर्थात एक दुसरे से क्रमश: द्वीप समुद्र  दुगने दुगने विस्तार का  है;पहिले द्वीप को वलयाकार (चूड़ी के समान आकारवान) समुद्र, पहिले  द्वीप से दुगने विस्तार का है और उसे वेष्टित करता है पहिले समुद्र को वेष्टित (घेरते ) हुए  वलयाकार (चूड़ी के आकार के समान) दूसरा  द्वीप  पहिले समुद्र से दुगने विस्तार का है!
 जम्बू द्वीप का विस्तार १ लाख योजन है, लवण समुद्र का विस्तार २ लाख योजन है इसी प्रकार क्रमश सभी समुद्र मध्यलोक के अंत,स्वयंभूरमणसमुद्र तक,असंख्यात द्वीप व् समुद्र दुगने दुगने विस्तार के क्रमश पहिले वाले द्वीप/समुद्र को घेरे  है!लवण समुद्र को घेरे हुए घातकीखंड द्वीप ४ लाखयोजन,इसे घेरे हुए कालोदधि समुद्र ८ लाख योजन ,इसे घेरे हुए पुष्कवर द्वीप १६ लाख योजन विस्तार का है.!जम्बूद्वीप से अर्द्धपुष्कवर द्वीप तक ,ढाई द्वीप  मनुष्य लोक है क्योकि मनुष्य यही तक रहते है !
शब्द संख्यात है किन्तु  असंख्यात है इसलिए इनके  नामो की  पुनरावृत्ति होती है

जम्बूद्वीप का स्वरुप -
तन्मध्येमेरु,नाभिर्वृत्तोयोजनशतसहस्रविष्कम्भोजम्बूद्वीपः ॥९॥
संधि विच्छेद -तन्मध्ये+मेरु+नाभि:+वृत्त:+योजन+शत+सहस्र+विष्कम्भ:+जम्बूद्वीपः
शब्दार्थ-तन्मध्ये-उन(सबद्वीप/समुद्रों)के मध्य में,नाभि:-नाभि:पर,वृत्त:-वृत्ताकार(थाली के  आकार   समान),योजन-योजन ,शत-सौ,सहस्र-हज़ार,विष्कम्भ:-व्यास ,जम्बूद्वीपः-जम्बूद्वीप है !
अर्थ-उन सब द्वीपों और समुद्रों के मध्यस्थ  वृत्ताकार,(थाली के आकार वाला),  एक लाख योजन विस्तार  का जम्बूद्वीप  है जिसके केंद्र पर सुमेरु पर्वत स्थित है !
१ योजन =२००० कोस=४००० मील = ६४०० किलो मीटर
विशेष-
१-इस द्वीप के विदेहक्षेत्र के उत्तरकुरु ,उत्कृष्ट भोगभूमि में अकृत्रिम पृथ्वीकायिक जम्बूवृक्ष  इसका नाम जम्बूद्वीप सार्थक है !
२-जम्बूद्वीप के चारों ओर ८ योजन ऊंची रत्नमयी कोट रूप एक बेदी है जिसकी नीव आधा योजन/२ कोस जमीन में है!वह पृथिवी सतह पर १२ योजन,बीच में ८ योजन और ऊपर ४ योजन चौड़ी है!यह बेदी मूलनीव में वज्रमयी , मध्य में सर्वरत्नमयी और अंत में वैडूर्यमणिमयी है!इसके ऊपर २ कोस ऊंची ५०० धनुष चौड़ी  सुंदर स्वर्णमयी छोटी बेदी है!इसके दोनों ओर बावड़ी और व्यंतर देवों  के निवासस्थान है!यह बेदी गवाक्षजाल, घंटाजाल, कनक रत्नजाल,मुक्ताफलजाल, सुवर्णजाल,मणिजाल, क्षुद्रघंटिकाजाल,पदमपनजाल;नौ प्रकार के जालों  से युक्त है
३- इसके पूर्वादि चारो दिशाओं में अनुक्रम से विजय,वैजयंत,जयंत और अपराजित ४ द्वार है,प्रत्येक ८  ऊँचा ,४ योजन चौड़ा है!इन द्वारों के नाम के धारक व्यंतर देवों के निवास इन द्वारों के ऊपर है!पूर्व के विजय द्वार से दक्षिण के वैजयंत द्वार का अंतराल उन्यासी हज़ार ५३ योजन है ,अन्य द्वारो का भी यही अंतराल है !
४-जम्बूद्वीप वेदी सम्बन्धी चार मुख्य द्वारों के अतिरिक्त १४ नदियों संबंधी ,१४ प्रवेश द्वार है ,कुल १८ द्वार है हीनाधिक नहीं !इन १८ द्वारों सहित जम्बूद्वीप की परिधि ३ लाख १६ हज़ार २२८ योजनहै!
५-आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान अनुसार जम्बूद्वीप -मिल्की वे गैलेक्सी वृताकार मोटाई लिए है जिसका  व्यास १लाख प्रकाशवर्ष है जिसमे हमारी पृथ्वी,(जैन दर्शनानुसार भरत क्षेत्र का मात्र आर्यखण्ड) भी है!जबकि जैनदर्शन अनुसार जम्बूद्वीप का व्यास एक लाख योजन उपदेशित है!योजन =१ प्रकाश वर्ष तो यह विसंगती दूर हो सकती है!हमारे आगाम का बहुभाग समय के साथ नष्ट हो गया अथवा विद्वेषपूर्वक  अन्य धर्मावलम्बियों ने नष्ट कर दिया है,अत: वर्तमान में केवली भगवान के अभाव में वस्तु स्थिति का सही आंकलन  असम्भव है! भविष्य में वह दिन दूर नही जब वैज्ञानिक भी अपनी शोध द्वारा जैनागम के निष्कर्षों पर पहुंचेगे !
जम्बूद्वीप में  ६ कुलांचलो द्वारा ७ क्षेत्रों का विभाजन

भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाःक्षेत्राणि॥१०॥

सन्धिविच्छेद-(भरत+हैमवत+हरि+विदेह+रम्यक+हैरण्यवत+ऐरावत)+वर्षाः+क्षेत्राणि
शब्दार्थ-जम्बू द्वीप में भरत,हेमवत,हरि,विदेह,रम्यक,हैरण्यवत और ऐरावत सात  क्षेत्र है
अर्थ-जम्बू द्वीप में भरतवर्ष ,हेमवतवर्ष,हरिवर्ष,विदेहवर्ष,रम्यकवर्ष,हैरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष, सात क्षेत्र है!
 
पर्वत के नाम
तद्विभाजनःपूर्वापरायताहिमवन् महाहिमवन् निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः॥११॥
संधिविच्छेद-तद्विभाजनः+पूर्व+अपर+आयता+(हिमवन्+महाहिमवन्निषध+नील+रुक्मि+शिखरिणSmile+ वर्ष धर+पर्वताः
शब्दार्थ -
तद्विभाजनः-उन क्षेत्रों के बिभाग करने  वाले,पूर्व-पूर्व से ,अपर- से  आयता- अर्थात पश्चिम तक,हिमवन्-हिमवत् , महाहिमवन्निषध-महाहिमवान,निषध ,नील-नील,रुक्मि-रुक्मी,शिखरिण:शिखरिन ,वर्षधर-कुलाचल,पर्वताः-पर्वत है !
अर्थ-उन सात क्षेत्रो का विभाग करने वाले पश्चिम से पूर्व तक फैले हुए हिमवन् वर्षधर,महाहिमवन वर्षधर,निषधवर्षधर, नीलवर्षधर, रुक्मीवर्षधर, शिखरिनवर्षधर, छ कुलांचल ( पर्वत) है !
जम्बूद्वीप के क्षेत्रों में  भोगभूमि,कर्मभूमि और पर्वतों की व्यवस्था -
एक लाख योजन विस्तार (व्यास )के जम्बूद्वीप को हिमवन्,महाहिमवन,निषध,रुक्मि और शिखरिन छः वर्षधर-कुलाँचल;क्रमश:भरतवर्ष,हेमवतवर्ष,हरिवर्ष,विदेहवर्ष,रम्यकवर्ष, हैरण्यवत वर्ष और ऐरावतवर्ष,सात क्षेत्रों में विभक्तकरते है!
विदेह क्षेत्र के मध्य में,जम्बूद्वीप की नाभि पर, सुदर्शन सुमेरु पर्वत है जिसके उत्तर में, उत्तरकुरु और ,दक्षिण में देवकुरु क्षेत्र,विदेह के ही भाग है!इन ७ क्षेत्रों में से ;उत्तरकुरु-देवकुरु,हरी-रम्यक तथा हेमवत-हैरण्यवत में क्रमश उत्तम,माध्यम और जघन्य शाश्वत भोगभूमियों की तथा भरत-ऐरावत के आर्य खंड और विदेह क्षेत्र में कर्मभूमि,भरत-ऐरावत के म्लेच्छ खंड में जघन्य शाश्वत भोग भूमि की व्यवस्था अनादिकाल से है और रहेगी !भरत और ऐरावत  के आर्यखंड में अशाश्वत भोगभूमि भी होती है!  
भोगभूमि-भोगभूमिज जीवों की नित्य आवश्यकताओं जैसे;गृह,भोजन,वस्त्र,बर्तन,भोजन,संगीत के यंत्र, ज्योति के यंत्र ,आदि सभी वस्तुओं  की आपूर्ति १० प्रकार के कल्पवृक्षो,१-मद्यंग, २-वादित्र ,३-भूषणांग, ४-मालंग, ५-दीपांग, ६-ज्योतिरांग, ७-गृहरांग,८-भोजनांग,९-भाजनांग ,१०-वस्त्रांग  के नीचे खड़े होकर याचना करने से  हो जाती है,उन्हें अपनी जीविका के लिए कर्मभूमि के जीवों  की भांति किसी पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं होती !
भरत /ऐरावत के आर्यखण्ड में भोगभूमि की रचना-अवसर्पिणी के प्रथम,द्वितीय और तृतय   तथा उत्सर्पिणी के चतुर्थ,पंचम,और षष्टम काल में भोगभूमि की रचना होती है ,इसलिए ये अशाश्वत भोगभूमि है!
भोगभूमि का काल-इन क्षेत्रों में भोगभूमि का कालकल्प के २० कोड़ा कोडी सागर में से १८ कोड़ा कोडी सागर है !
भोगभूमि में जन्म लेने वाले जीवो -पांच पापो के त्यागी,मंद कषायी,ब्रह्मचारी,व्रती,निर्मल परिणामी,दानी (चार प्रकार का दान सुपात्र को  देने वाले जीव आयु पूर्ण कर भोगभूमि में जन्म लेते है!
भोगभूमि में शरीर त्यागने(मृत्यु) और अगले भव में जन्म लेने  की व्यवस्था -भोगभूमि में माता-पिता के युगली  संतान ही जन्म लेते है ,उनके जन्म लेते ही  माता पिता क्रमश:जवाई और छींक लेकर अपने शरीर को त्याग देते है !शरीर शरद ऋतू के मेघ के समान छीन-भिन्न हो जाता है!इनमे मिथ्यादृष्टि जीव मरणोपरान्त  भवनत्रिक (भवनवासी,व्यंतर,अथवा ज्योतिष्क) में उत्पन्न होते है सम्यग्दृष्टि वैमानिक डिवॉन में दुसरे स्वर्ग तक उत्पन्न होते है !
भोगभूमियों में जीव का विकास -
१-जघन्य भोग भूमि -जन्म लेने पर बच्चे सोते सोते ७ दिन तक अंगूठा चूसते है ,दुसरे सप्ताह में घुटने के बल  चलते है,तीसरे सप्ताह में मधुर तुतलाती भाषा बोलते है,चौथे सप्ताह में पैरो पर चलने लगते है,पांचवे सप्ताह में कला और रूप आदि गुणों से युक्त हो जाते है,छठे सप्ताह में युवावस्था को प्राप्त करते है,सातवे सप्ताह में सम्यग्दर्शन के धारण की योग्यता प्राप् कर लेते है !ये आवले के समान  दूसरे  दिन  आहार लेते है !इनकी आयु १ पल्य लम्बाई १ कोस होती है!
२-मध्यम भोगभूमि
जन्म लेने पर बच्चे सोते सोते ५  दिन तक अंगूठा चूसते है ,५ दिन में घुटने के बल  चलते है,फिर ५ दिन  में मधुर तुतलाती भाषा बोलते है,फिर ५ दिनों  में पैरो पर चलने लगते है,फिर ५ दिनों  में कला और रूप आदि गुणों से युक्त हो जाते है,फिर ५ दिनोमें  में युवावस्था को प्राप्त करते है,फिर  ५ दिनों में  सम्यग्दर्शन  धारण करने  की योग्यता प्राप् कर लेते है !ये बेहड़ा फल  के समान  तीसरे  दिन  आहार लेते है !इनकी आयु २ पल्य लम्बाई २  कोस होती है!
३-उत्तम-भोगभूमि -
जन्म लेने पर बच्चे सोते सोते ३  दिन तक अंगूठा चूसते है ,३ दिन  में घुटने के बल  चलते है,फिर ३ दिन  में मधुर तुतलाती भाषा बोलते है,फिर ३  दिनों  में पैरो पर चलने लगते है,फिर ३ दिनों  में कला और रूप आदि गुणों से युक्त हो जाते है,फिर ३  दिनोमें  में युवावस्था को प्राप्त करते है,फिर ३ दिनों में  सम्यग्दर्शन  धारण करने  की योग्यता प्राप् कर लेते है !ये बेर के फल  के समान  चौथे दिन  आहार लेते है!इनकी आयु ३ पल्य लम्बाई ३ कोस होती है!
भोगभूमि में जीवों के  सम्यक्त्व के कारण-यहाँ भव्य जीवों को जातिस्मरण,देवों  के उपदेशों ,सुखों/दुखो के अवलोकन से,जिनबिम्ब दर्शन से और स्वभावत:  सम्यक्त्व होता है !
भोगभूमि की अन्य विशेषताए -
भोगभूमि का जीवों को सुख भरत क्षेत्र के चक्रवर्ती से भी अधिक होता है !जीवों का बल ९००० हाथियों के बराबर होता है !भोगभूमि में विकलत्रय जीव उत्पन्न नहीं होते ,विषैले सर्प ,बिच्छू  आदि जंतु नहीं उत्पन्न होते !वहां ऋतुओं का परिवर्तन नहीं होता,मनुष्यों की यहाँ  वृद्धावस्था,रोग,चिंता,निंद्रा  रहित होते है !
भोगभूमि में युगल बच्चे ही युवा होने पर पति पत्नी की तरह रहकर सन्तानोत्पत्ति करते  है,कोई विवाह व्यवस्था नहीं है !
कुभोगभूमि -लवण समुद्र और कालोदधि समुद्रों में ९६ अंतरद्वीपों में जघन्य कुभोग भूमिया है !यहाँ पर पूर्व जन्म में  कुपात्रों को चार प्रकार के दान ,आहार आदि देने से ,कुशास्त्रों का स्वाध्याय एवं कुदेवों की आराधना भक्ति करने से जन्म कुमानुषों( मनुष्य का मुख होता है  पूछ या धड़  किसी पशु की)  के रूप में लेते है !
जम्बू द्वीप में पर्वतों का विवरण -
जम्बूद्वीप में सुदर्शन नामक पर्वत १००० योजन चित्त्रा  पृथ्वी मर है,९९००० योजन ऊपर है उसकी ४० योजन चूलिका है,कुल लम्बाई १ लाख ४० योजन है इसके तीन काण्ड है ,पहला जमीन से ५०० योजन का दूसरा ६२५०० योजन,तीसरा ३६००० योजन प्रत्येक काण्ड पर एक एक कटनी है जिसका विस्तार ५०० योजन है केवल अंतिम कटनी का विस्तार ६ योजन कम है !इन चार वन क्रमश:भद्रसाल ,नंदन,सोमनस  और पाण्डुक है !पहली और दूसरी कटनी के बाद मेरु ११००० योजन तक मेरु सीधा है(कल प्रकाशित मेरु के चित्र में देखे ) फिर क्रमश: घटने लगता है मेरु पर्वत के चारो वनो में चारों दिशों के कुल १६ अकृत्रिम चैत्यालय है और पाण्डुक वन की विदिशाओं में चार पाण्डुक शिलाये है जिनपर उन दिशाओं में उत्पन्न हुए  तीर्थंकरों के जन्माभिषेक इन्द्रो द्वारा किये जाते है !यह स्वर्ण वर्ण का है !
यहाँ छ कुलांचल पर्वत है,चार यमक गिरी,दो सौ कांचन गिरी,आठ दिग्गज पर्वत,सोलह वक्षार गिरी,
चार गजदंत,चौतीस विजयार्ध ,चौतीस वृषभांचल,चार नाभागिरी ,इस प्रकार कुल ३११ पर्वत है !
पर्वतों का वर्ण (रंग)/धातु से बने है
हेमार्जुनतपणीयवैडूर्यरजतहेममया: १२
संधि विच्छेद -
(हेम+अर्जुन+तपणीय+वैडूर्य+रजत+हेम)+मया :
शब्दार्थ-
हेम-स्वर्ण,अर्जुन-चांदी,तपणीय-तप्तस्वर्ण समान,वैडूर्य-नीला,रजत-चांदी,हेममया:--स्वर्ण समान वर्ण/या इनसे बने है  !
अर्थ -इन छ पर्वतों के क्रमश: वर्ण;स्वर्ण,चांदी,तप्तस्वर्ण नीला,चांदी और स्वर्ण के समान है /अथवा इनसे बने हुए है !स्वामी अकलंक देव ने इनका वर्ण कहा है !
विशेष-इन पर्वतों की ऊंचाई ऊपर से नीचे तक एक समान क्रमश १००,२००,४००,४००,२००,१०० योजन है १  योजन=४००० मील अर्थात  महायोजन है (त्रिलोकसार गाथा ५९६)!
पर्वतों का आकार -
मणिविचित्रपार्श्वाउपरिमूलेचतुल्यविस्तार :१३
संधि विच्छेद: मणि+विचित्र+पार्श्वा+उपरि+मूले+ च+ तुल्य+ विस्तार:
शब्दार्थ -मणि-मणियों से ,विचित्र-विचित्र ,पार्श्वा-पार्श्व भाग में ,उपरि-ऊपर,मूले-नीचे ,च-मध्यमें ,तुल्य+  एक समान ,विस्तार:-विस्तार (मोटे ) के है !
अर्थ -ये पर्वत दोनों पार्श्वों  (भुजाओं )में विचित्र मणियो से खचित है ,ऊपर  ,मध्य और नीचे तक समान विस्तार के है !
भावार्थ -ये पर्वत ऊपर से नीचे तक एक समान मोटे,दोनों ओर मणियों द्वारा खचित दीवार के समान है!


पर्वतों पर स्थित सरोवर (तालाब ) का स्वरुप -
पद्म महापद्मतिगिंछकेशरिमहापुण्डरीकपुंडरीकहृदास्तेषामुपरि-१४
सन्धिविच्छेद -पद्म+महापद्म+तिगिंछ+केशरि+महापुण्डरीक+पुंडरीक+हृदा+तेषां+उपरि
शब्दार्थ -पद्म,महापद्म,तिगिंछ,केशरि,महापुण्डरीक,पुंडरीक,हृदा-सरोवर ,तेषां-उनके ,उपरि=ऊपर क्रम से है
अर्थ-उन पर्वतों के ऊपर क्रमश:  पद्म,महापद्म,तिगिंछ,केशरि,महापुण्डरीक और पुंडरीक सरोवर है
भावार्थ-हिमवन्,महाहिमवन,निषध,नील,रुक्मी,शिखरिन;छ:कुलांचलपर्वतों के ऊपर क्रमश: पद्म,महापद्म, तिगिंछ, केशरि,महापुण्डरीक और पुंडरीक सरोवर है !
प्रथम 'पद्म सरोवर' का विस्तार; लम्बाई- चौड़ाई -
प्रथमोयोजनसहस्रायामस्तदर्धविष्कम्भोहृद:-१५
संधि विच्छेद - प्रथमो+योजन+सहस्रा+आयाम:+तत्+अर्ध +विष्कम्भ: +हृद:-
शब्दार्थ -प्रथमो-पहिले,योजन-योजन,सहस्रा-एक हज़ार,आयाम:-पूर्व से पश्चिम की ऒर लम्बाई,तत्-उससे,अर्ध आधी , विष्कम्भो-उत्तर से दक्षिण की ओर्र (चौड़ाई),  हृद:-सरोवर की है !
अर्थ -हिमवन पर्वत पर स्थित प्रथम (पद्म ) सरोवर की  पूर्व से पश्चिम दिशा में १०००  महायोजन लम्बा   और उत्तर से दक्षिण की ओर  ५०० महायोजन चौड़ा है !
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#2

अधिक जानकारी के लिए.... 
तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
अध्याय 1 
अध्याय 2
अध्याय 3
अध्याय 4
अध्याय 5
अध्याय 6
अध्याय 7
अध्याय 8
अध्याय 9
अध्याय 10

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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