09-26-2016, 09:01 AM
बुरे एवं पांचों पापो का त्याग कर ,अच्छे कार्य करने का नियम लेना, व्रत है!
व्रतों के भेद-
१- अणुव्रत-गृहस्थ,पाचों पापो का त्याग पूर्णतया नहीं करता,आंशिक रूप से मोटा -मोटी ,से एक देश त्याग करताहै ,ये अणुव्रत कहलाते है!
२-महाव्रत -मुनि महाराज पाँचों पापों का पूर्णतया,सर्वदेश त्याग करते ,ये महा व्रत कहलाते है!
सामान्य जैनी श्रावक नहीं होते है,वे १२ व्रतों को धारण कर ही श्रावक होते है! श्रावकों को ५ अनुव्रत,३ गुण व्रत और ४शिक्षा व्रत कुल १२ व्रत लेने होते है !
५ अणुव्रत-छोटे व्रतों को अणुव्रत कहलाते है!
भेद- हिंसा,झूठ,चोरी,कुशील,अधिक परिग्रह(परिग्रह को सीमित कर लिया) का -त्याग यदि स्थूल रूप से कियाजाता है तो क्रमश: अहिंसा,सत्य,अचौर्य ,ब्रह्मचर्य,अपरिग्रह अणुव्रत होता है!
अहिंसा अणुव्रत - जीव स्थावर और त्रस,दो प्रकार के होते है!अणुव्रत में त्रस जीवों की हिंसा का त्याग किया जाता हैक्योकि स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग गृहस्थ के लिए असंभव है फिर भी, गृहस्थों को भी, स्थावर जीवों की जहाँतक हो सके हिंसा से बचना चाहिए!वह जल,पंखा,अग्नि,विद्युत्,वनस्पति,आदि का दुरूपयोग नहीं करता और पृथ्वीको निष्प्रयोजन नहीं खोदता !इनके दुरोपयोग से बचकर वह क्रमश:वायु कायिक, अग्निकायिक,वनस्पतिकायिकऔर पृथ्वी कायिक, स्थावरजीवों की हिंसा से आंशिक रूप से बचता है!
अहिंसा अणु व्रत की परिभाषा अन्य प्रकार से-
हिंसा चार प्रकार की होते है!
१-संकल्पी-जान बूझ कर किसी जीव को मारना संकल्पी हिंसा है! श्रावक संकल्पी हिंसा नहीं करता!जैसे शिकारका त्यागी होता है!इस प्रकार की हिंसा का हम सब भी त्याग सकते है!
२-उद्यमी-दुकानदारी,व्यापार,नौकरी आदि में हिंसा होती ही है! अहिंसा अणु व्रती,व्यापार या नौकरी इस प्रकार कीचयनित करता है जिनमे कम से कम हिंसा हो जैसे ईट के भट्टे,चीनी मिल,आटा मिल,तेल मिल,खेती,चमड़े,मांस,मधुफिनायल,कीटनाशक,रेशमी साड़ी आदि के व्यापार में बहुत जीव जंतुओं की हिंसा होती है,इसलिए अहिंसाअणुव्रती इस प्रकार के कारोबार नहीं करते!वह ऐसे व्यापार कारोबार करता है जिनमे कम से कम हिंसा होते हैजैसे एकाउंट्स, टीचिंग,पठन-पाठन आदि!मिल भी लगता है तो कम हिंसा होने वली वस्तु की लगता है!
३-आरंभी-गृहस्थ आरंभी हिंसा जैसे घर की सफाई,स्नान,कपडे धोना,भोजन आदि बनाना ,इनमे हिंसा होतीहै,इनका वह सर्वथा त्याग नहीं कर सकता, किन्तु वह ध्यान रखेगा की त्रस जीवों की उससे हिंसा नहीं हो जाए!वहनियम लेता है मैं जो भी कार्य करूँगा देखभाल कर करूँगा!झाड़ू लगते समय,फूल झाड़ू से सफाई करेगा ध्यानरखेगा की कोई चींटी तो नहीं मर रही है उसकी इस क्रिया से!
४ -विरोधी-कोई यदि आक्रमण कर दे,झगडा कर ले आपसे तो बचाव में!आप सामना करेंगे,वह मरेगा नहीं!जो व्रतीसंकल्पी हिंसा और त्रस जीव की हिंसा का त्याग करता है,वह अहिंसा अणु व्रती कहलाता है!
अहिंसा अणुव्रती खटमल होने पर उन्हे दवाई से मरेगा नहीं, वह पहले से ही बैड, पलंग आदि को धूप देकर,दवाईआदि उनमे छिड़क कर रखेगा ,जिससे उनमे खटमल,दीमक आदि की उत्पत्ति ही नहीं हो ! रसोई मे कोकरोचको दवाई से मरने की जगह पहले ही ट्रीटमेंट करवाना चाहिए जिससे कोकरोच की उसमे उत्पत्ति ही नहीं हो!यदिकोकरोच फिर भी हो गए तो रसोई की अच्छी तरह से सफाई करे जिससे कोक्रोंच भाग जाए फिर दवाईछिड़कवाये !
प्रात:-सायं कालीन सहर के समय घास पर नहीं चलकर,सीमेंट के मार्ग पर चल सकते है जिससे वनस्पतिकायिकएकेंद्रिय और चतुरइन्द्रिय मच्छर आदि,त्रस जीवों की रक्षा होगी!
अहिंसा अणुव्रती यह कार्य नहीं करेगा!उसके घर में गाय-भैंस होने पर वह उन्हें कसकर नहीं बांधेगा जिससे उसकीगर्दन टेडी हो जाए,डंडे नहीं मरेगा!घोड़े आदि की गाडी पर उसकी क्षमता से अधिक वजन नहीं लादेगा !वह अपनेपाशों को समय पर भोजन अवश्य देगा!अपने सेवकों से, उनकी क्षमता से अधिक कार्य नहीं लेता है!अहिंसाअणुव्रती अत्यंत सरल परिणामी होता है,क्रोध नहीं करता क्योकि इससे सामने वाले के परिणामों को दुःख पहुंचताहै!
अत: अहिंसा अणु व्रती होना बहुत अच्छा है ,बनना चाहिए,किन्तु यदि किसी कारण नहीं बन सके तो इनमे जो बातेअच्छी लगे उन्हे अवश्य जीवन में उतारे जिससे उतनी हिंसा तो हम बच सके!
2- सत्याणुव्रत-सत्याणुव्रती -स्थूल रूप सी झूठ का त्यागी होता है,क्रोध नहीं करता क्योकि क्रोध मे झूठ बहुत बोलजाता है,वह लोभी नहीं होता इसलिए माल मे मिलावट नहीं करता,डरता नहीं किसी से क्योकि भय के कारण भीझूठ बहुत बोल जाता है,वह थोड़े अच्छे ,मधुर,प्रिय शास्त्रों के अनुसार वचन बोलता है वह कभी नहीं बोलेगा की घासपर चलने से आँखों की रोशनी बढती है क्योकि आगम विरुद्ध वचन है, क्योकि घास पर चलने से जीवों की हिंसा भीतो होती है! हंसी मजाक नहीं करता क्योकि इससे कभी कभी सामने वाले को कष्ट हो जाता है ! वह ऐसा झूठ नहींबोलता जिससे दूसरे को फांसी हो जाए! झूठी गवाही नहीं देता !व्यापार में भी वो आवश्यक झूठ से बचने का प्रयासकरता है!किसी से रूपये /माल आदि लेता है तो उस को वायदे के अनुसार वापिस कर देता है!माल का पेमेंट वायदेअनुसार करता है!किसी की वह चुगली नहीं करता है yoki इससे सामने वाले को अत्यंत कष्ट होता है!करकश वचननहीं बोलता! वह दूसरे को अधर्म मे लगने के लिए प्रेरित करने वाले वचन नही बोलता।किसी की गुप्त बात मालूम होने पर सार्वजनिक नही करता।ऐसा सच नही बोलता जिससे सामने वाले को कष्ट हो।किसी की धरोहर मे हेरा फेरी नही करता। जैसे किसी ने आपके पास ६ सोने की चूडी धरोहर के रूप म रखकर आपसे दस हहजार रूपये ६ माह के लिये लिये६माहलबाद वो आपके रूपये वापिस करने आता है और भूल से कहा है मेरी ४ चूड़ी वापिस कर दीजिेये।तब सत्याणुव्रती उसकी २ चूड़ी मारेगा नही,६ चू़ी ही वापिस करेगा।!
३-अचौर्य अणु व्रत - अचौर्य अणु व्रती स्थूल रूप से चोरी का त्याग करता है!किसी की गिरी हुई कोई वस्तु,पडी या राखी वस्तु को नहीं उठाएगा!किसी को उठाकर भी नहीं देगा!वो विज्ञापन द्वारा उस वास्तु को उसके मालिक के पास पहुंचाने का प्रयास करेगा!किसी को चोरी करने के लिए प्रेरित नहीं करेगा,किसी से चोरी का माल नहीं खरीदेगा,किसी के द्वारा चोरी करने पर उसकी प्रशंसा नहीं करेगा,किसी वास्तु मे कुछ मिलकर बेचेगा नहीं!सरकारी विभागों के करों की चोरी नहीं करेगा!टोल मे कम ज्यादा नहीं तोलेगा!अचौर्य अणु व्रती ये सब कार्य नहीं करते!
४-ब्रह्मचर्य अणु व्रती -इस व्रत का धरी श्रावक/श्राविका अपनी पत्नी/पति मे संतुष्ट रहता है!अन्यों मे माता,बहिनों/पिता भाइयों का भाव रखता है!किसी की ऒर बुरी दृष्टि नहीं रखते!वह अष्टमी और चतुर्दशी को संयम से रहते है!बदचलन औरतों/मर्दों के पास नहीं जाते!गरिष्ट-उत्तेजक भोजन का सेवन नहीं करते! क्योकि इससे इन्द्रिय संयमित नहीं रह पाती!वह किसी भी स्त्री-लडकी/पुरुष-लडके से एकांत मे बात नहीं करते!ब्रह्मचर्य अणुव्रती टीवी और सनीमा उत्तेजक द्रश्यो के देखने से बचने के लिए नहीं देखता! कदाचित धार्मिक कार्यक्रमो जैसे पञ्च कल्याणक, पाठशाला आदि को देखते है! अपने परिणामों को वह बहुत संयमित रखता है जिससे काम वासन जागृत नहीं हो!
५-परिग्रह अणु व्रत -यदि श्रावक सर्वथा परिग्रह छोड़ देगा तो मुनि ही बन जाएगा!इसलिए वह अपने लिए आवश्यक परिग्रह रखता है,पूर्णतया परिग्रहों को छोड़ता नहीं है!जैसे अपने खेत ,मकान,जेवर,कपडा,जायदाद,कार,रूपये पैसे रखने की सीमा निर्धारित कर नियम ले लेता है!इससे अधिक परिग्रह संकल्प पूर्वक नहीं रखता !यह परिग्रह परिमाण अणुव्रत होता है!
संसार मार्ग- अधिकांश लोग विषय भोगों,मांसाहार,मधु,मदिरा आदि के सेवन में लिप्त है !
मोक्षमार्ग- जिसे स्व आत्मकल्याण करना है,उसे व्रतों का धारण कर मोक्ष मार्ग पर चलना ही होगा! जो इन व्रतों का पालन करेगा उसका जीवन शांत संतुष्ट,सुखमय होगा!उसके चेहरे पर सुख शांति तृप्ति स्पष्ट दिखेगी।व्रतों को पालने मे कोई दिक्कत नहीं आयेगी ,इतना जरूर है की बहुत धन दौलत संभवत: नहीं हो किन्तु संतोषी और सुखी निराकुलता पूर्वक जीवन व्यतीत करेगा!वर्तमान मे जब १५०० पिच्छी धारी मुनि और आर्यिका साधू महाव्रतों को धारण कर सकते है तो अणुव्रत धारण करना बिलकुल भी कठिन नहीं है!हमें पापों को छोड़ने के लिए अणु व्रतों को धारण करना ही चाहिए!
अणुव्रतों को धारण करने से पाप कर्मों का आत्मा के साथ बंध कम होगा! जिससे आत्मा मे पवित्रता , जिससे आत्मा इस लोक और परलोक में सुखी होगा! नियम से अंततः मोक्ष प्राप्ति होगी!व्रती के प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जर होती है!निर्जरा आत्म कल्याणक है!अतः पांचोपापो को कम करते हुए अणु व्रतों को lलेवे का प्रयास करना चाहिए!
गुणव्रत-
गुणव्रत, -५ अणुव्रतों की विशुद्धि बढाकर गुणवान करके उनमे विशिष्टता प्रदान करते है!
गुणव्रत के भेद-
१-दिगव्रत-दिगव्रती जीव संतोषी,समयाग्द्रिष्टि,और पापों मे कम प्रवृत्ति रखने वाला होता है! ये दसों दिशाओं; उत्तर-दक्षिण,पूर्व -पश्चिम ,चार कोने की विदिशाओं ,और ऊपर-नीचे,में अपने गमन की सीमा जीवन पर्यन्त के लिए सीमित कर लेते है! जैसे वह गमन की सीमा निर्धारित करता है,वह आगरा /उत्तरप्रदेश/हिन्दुस्तान से बहार व्यापार या किसी अन्य कार्य के लिए नहीं जाऊंगा! इससे वह इस क्षेत्र के बहार होने वाली व्यापारिक हिंसा और एनी सभी हिंसाओं से अपने को सर्वथा सुरक्षित कर लेता है!उसकी हिंसा का क्षेत्र सीमित होकर आगरा/उत्तरप्रदेश,/हिंदुस्तान तक रह गया! इस प्रकार आठ दिशों का नियम हो गया!नीचे और ऊपर का वह नियम लेता है की ५०००./१०००० /१५००० मीटर से अधिक नहीं जायेगा!इस प्रकार वह दिग व्रती दसों दिशों में अपने गमन को सीमित कर उनका उल्लंघन जीवन पर्यन्त नहीं करता है अन्यथा व्रत दूषित हो जाएगा!ये नियम लिखने चाहिए अन्यथा कालांतर में याद नहीं रहते! उद्धाहरण के लिए किसी ने नीचे गमन का नियम १००० फीट का लिया है! वह भाकड़ा नंगल डैम मे नीचे देखने के लिए लिफ्ट मैंन से पूछता है की कितने नीचे तक ले जाओगे तो वह यदि कहता है की १६०० फीट तक,तब वह नीचे नहीं जायेगा! ऐसे श्रावक को,दिगव्रती श्रावक कहते है!किसी श्रावक ने गमन का नियम उत्तर प्रदेश तक का लिया जोकि ललितपुर तक है,आचार्य श्री विद्यासागर जी का चातुर्मास सागर मे है , वह व्रती वहां जायेगा क्योकि आचार्यो ने कहा है कि,मर्यादा हमने पापो को घटाने के लिये ली है ,धार्मिक कार्यो को लिये नही।वह धार्मिक कार्य के लिये निर्धारित सीमा का उल्लंघन कर सकता है किंतु वहां कोई व्यापार, अथवा घुमाई-फिराई नही करेगा।
२-देशव्रत- देशव्रत में श्रावक,अपने दिग्व्रत मे ली गयी सीमा को अल्प समय के लिए और संकुचित करता है!जैसे यदि उसने दिग्व्रत में उत्तर प्रदेश के सीमा का नियम लिया है तो इस व्रत में वह नियम लेता है की,दसलक्षण पर्व,में अपने शहर/ग्राम/कोलनी से बहार नहीं जायेगा!इससे उसकी गतिविधियाँ और संकुचित क्षेत्र मे रह जायेगी फलत: उससे पाप कार्य और कम होंगे!दिग्व्रत जीवन पर्यन्त लिया जाता है! देशव्रत १,२,---२४ घंटे,२-३---१४ दिन .१ पक्ष ,१-२-३ माह,११ माह,वर्ष आदि, किसी समय के लिए लिया जाता है!
जिसने देशव्रत लिया है,वह अपने सीमित क्षेत्र में मन,वचन और काय तीनों से रहेगा,ऐसा नहीं की फोन के माध्याम से या किसी अन्य माध्यम से,सीमित क्षेत्र के बहार संपर्क करेगा !किसी को सीमाँ से बहार भेजकर कोई काम नहीं कराएगा! वह किसी इशारे से भी अपनी बात को क्षेत्र के बहार किसी को नहीं समझाएगा!यदि वह यह सब कार्य करेगा तो पाप नहीं छूटेगा और उसका देशव्रत दूषित हो जाएगा!
देशव्रत लेने से आत्मिक शांति और सुख मिलता है क्योकि उसके परिणाम बहुत अच्छे हो जाते है!
जिसको संसार से छूटना है उसके लिए देशव्रत कठिन नहीं है! देखिये घर गृहस्थी मे भी तो हम निरंतर समस्याओं से घिरे रहते है, एक समस्या का समाधान करते है की दूसरी खड़ी हो जाती है! सिर्फ सोच की बात है,निर्णय लेने की बात है!
३-अनर्थदंडव्रत -
अनर्थदंड अर्थात निष्प्रयोजन,किसी कार्य से कोई लाभ तो नहीं है,किन्तु उससे दंड -पाप हो ही जाए! व्रत-इस प्रकार के कार्यों को छोड़ना !
अर्थात निष्प्रयोजन कार्यों का त्याग करना,अनर्थ दंड व्रत है!
अनर्थ दंड ५ प्रकार का होता है!
१- अपध्यान अनर्थ दंड- खोटा ध्यान अपध्यान है! हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए की किसी को हानि हो,किसी के घर में आग लग जाए,कोई मुकदमा या मैच हार -जीत जाए ,किसी का देहांत हो जाए,क्यो की इस प्रकार के कार्य हमारे सोचने से कभी नहीं हो सकते! ऐसा सोच कर हम पाप बंध करते है क्योकि किसी भी जीव को उसके किये कर्मों का फल मिलता है! किसी के साथ बुरा होने पर यदि आप प्रसन्न होते है तो पाप बंध होता है!ये खोटा ध्यान अर्थात अपध्यान है!
२-पापोपदेश -किसी को पाप उपदेश देना जैसे तुम बहुत कमजोर, आप कोई गलत चीज़ खा लो, ऐसा उपदेश देना गलत है! किसी को टैक्स की चोरी का उपदेश देना!किसी को चोरी का माल खरीदने के लिय प्रेरित करना!चमड़े के जूते पहनने का उपदेश देना,इस प्रकार के उपदेश पापोपदेश है,यद्यपि आपको कुछ प्राप्ति नही हुई किन्तु पाप बंध कर लिया!
३-दुश्रुति-राग-द्वेष,काम वासनाओं से परिपूर्ण कथाओं को नहीं पढ़े,फ़िल्मी किताबे लेकर पढना-पढाना नहीं चाहिए क्योकि इससे मस्तिष्क में विकार आता है!पाप बंध होता है!सनीमा नहीं देखे इन से कुछ लेना देना नहीं है! इस प्रकार की क्रियाये, दुश्रुती अनर्थदंड है!ऐसा करने से परिणामों मे विकार आने के कारण पाप का बंध होता है! आज के सामाजिक जीवन में जो बलात्कार,चोरी,आदि की बढती घटनाओ का कारण, परिणामों का विकृत होना ही है!इस प्रकार के दुश्रुत का हमें त्याग करना चाहिए क्योकि इससे कुछ भी तो लाभ नहीं है,पापबंध के रूप में हानि ही हानि है!
४-हिन्सादान-ऐसी वस्तुए किसी को देना जिनसे हिंसा होती है,जैसे किसे को चूहे मारने की दवाई देना,या पिंजड़ा देकर उन्हें बंद करवा कर बहार फेकने का उपदेश देना!इसमें आपको पाप बंध के अतिरिक्त कुछ प्राप्ति नहीं होती है!
५-प्रमादचर्या-खड़े-खड़े पेड़,पत्ती,फल, फूल तोडना,बैठे बैठे जमीन खोदना,पानी का नल खुला छोड़ना,पंखा चलता हुए छोड़ना,गैस जलती हुई छोड़ना,भोजन को कुछ खाके बाकि छोड़ना,ये सब प्रमाद चर्या है!इनसे हमें बचना चाहिए!
ये पञ्च प्रकार के कार्य है,जिन्हें करने से हमें कोई प्राप्ति नहीं होती,वरन पाप बंध होता है! नेक इंसान बनने के लिए हमें निष्प्रयोजन कार्यों का त्याग करना चाहिए, इससे हमारे अनर्थदंड व्रत का पालन भी होगा और हम संसार के सिमित संसाधनों को बचाने में भी योगदान कर पायेंगे!
लक्स,हमाम आदि साबुन सूअर की चर्बी से बनते है इसलिए इनके प्रयोग से हमें बचना चाहिए! इनके स्थान पर मेडिमिक्स,चंद्रका,संधाल,गोदरेज,साबुन के इस्तमाल से हिंसा से बचेंगे क्योकि इनमे चर्बी नहीं होती!
अनर्थदंड व्रती, १-अपध्यान -किसी के विषय में बुरा चिंतवन करना,२-पापोपदेश-टैक्स आदि की चोरी के उपदेश ३ -दुश्रुती-गलत चित्र,फिल्म आदि देखना,४-हिंसा दान-हिंसात्मक वस्तु को किसी को देना.५ प्रमाद चर्या-निष्प्रयोजन कार्य करना,!इन कार्यों का त्याग करता है!
गुणव्रत, अणुव्रतों की विशुद्धि के लिए करे जाते है,अत: बिना अणुव्रत धारण किये गुणव्रत हो ही नहीं सकते!गुणव्रत के बाद ही शिक्षाव्रत होते है!
आप हरेक व्रत का अभ्यास अलग अलग कर सकते है किन्तु वे व्रत तब ही कहलायेगे जब १२ व्रतों को एक साथ धारण करेंगे!
व्रतों को धारण करने से पापों में कमी आयेगी! आत्मा के पवित्रता बनेगी,आत्मा के साथ कर्म बंध क्षीण होगा! इनसे पुन्य का बंध होगा जिससे इस भव और अगले भवों में सांसारिक सुख भी मिलेगा और मोक्ष मार्ग प्रशस्त होगा,अंतत:मोक्ष सुख की प्राप्ति होगी! आत्मा को मलीन करने वाले कर्मों की निर्जरा होगी!आचार्यों का कहना है की जो व्रतों को धारण करते है उनके सोते,जागते,बैठते ,प्रति समय निर्जरा होती ही है! इसलिए इन व्रतों को धारण करने से लाभ ही लाभ है
शिक्षा- अणुव्रतों की विशुद्धि के लिए,हमें अपनी भाग दौड़,आने-जाने की गमन की सीमाओं को निर्धारित करना है,फिर अल्प समय के लिए उनकी सीमाओं को देशव्रत धारण कर और संकुचित करना है,कोई निष्प्रयोजन कार्य नहीं करने है,जिससे पाप-बंध से बच सके!
शिक्षाव्रत-
जो व्रत श्रावक को मुनि बनने की शिक्षा देते है, और वह दृढ़ता के साथ क्षुल्लक,ऐल्लक बनने की ऒर अग्रसर होते हुए अपनी पर्याय को सफल कर लेते है वे शिक्षा व्रत है!
शिक्षाव्रत भेद-१-सामायिक शिक्षाव्रत-२- प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत-३-भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत -४- अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत-
१-सामायिक शिक्षाव्रत-इस व्रती को प्रात:,अपरान्ह.और सायं प्रत्येक काल में,२ घड़ी =४८ मिनट, के लिए सामयिकी करनी होती है!
सामायिक विधि - सामायिक में पांचों पापों और खोटे विचारों का त्याग कर,कोलाहल रहित एकांत स्थान पर,मन को एकाग्रचित कर पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ऒर मुख करके खड़े होते है!
समायिक शिक्षा व्रती को सामयिकी ३ बार प्रति दिन करनी होती है यदि नहीं कर सके तो २ बार तो करनी ही है! सामायिक करने से अपने स्वरुप का निरंतर भान रहता है! मै कौन हूँ?मुझे इस जन्म में क्या करना है? मेरा लक्ष्य क्या है?स्वयं की आलोचना करने से अपनी गलतियों का पता लगता है जिससे उन्हें सुधारा जा सके!भगवान् की वन्न करने से उन जैसा बनने की प्रेरणा मिलती है!
२-प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत-
प्रोषधोपवास= प्रोषध-एक बार भोजन करना , उपवास-पूर्ण उपवास रखना !प्रोषधोपवास व्रत उत्तम ,माध्यम और जघन्य से 3 प्रकार का होता है!
उत्तम प्रोषधोपवास में,सप्तमी के दिन व्रती एकासन,अष्टमी को उपवास और नवमी को एकासन करता है! शक्ति हीनता के कारण यह न कर सके तो
मध्यमप्रोषधोपवास -अष्टमी/चतुर्दशी को उपवास कर सकते है !यदि यह भी नहीं किया जा सकता तो
जघन्य प्रोषधोपवास - अष्टमी/चौदश को एकासन किया जा सकता है!
इसमें व्रती को कोई सांसारिक कार्य जैसे व्यापार,नौकरी,घर गृहस्थी के कार्यों का निषेध है!किन्तु मजबूरी हो तो बात दूसरी है!
शास्त्रों के अनुसार तो सप्तमी/तेरस के दिन व्रती को एक समय भोजन लेकर १२ बजे मंदिर जी/धर्मशाला में उपवास के लिए चला जाना चाहिए,अष्टमी/चतुर्दशी को पूर्ण उपवास ,नवमी/अमावस्या-पूर्णिमा को १२ बजे घर जाकर भोजन लेना चाहिए!जब तक मंदिर/धर्मशाला में रहे ,धर्म ध्यान में लगे रहना चाहिए! व्रत के दिनों में श्रंगार,सेंट आदि का निषेध है!शरीर से निर्लिप्त होकर व्रती को मात्र स्व आत्म चिंतन करना है!
३-भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत -
भोग- जो वस्तु एक बार भोगने में आती है,जैसे दाल,रोटी,सब्जी,चावल,फल आदि उसे भोग कहते है!
उपभोग-जो वस्तु बार २ भोगने में आती है जैसे वस्त्र,चार,मकान आदि उपभोग कहलाते है!
जो भोग और उपभोग की सामग्री की सीमा हमने अपने परिमाण परिग्रह व्रत में रखी है उसे भी उस दिन व्रत के लिए संकुचित कर लेते है! जैसे परिग्रह परिमाण व्रत में १० साड़ी रखने की सीमा रखी थी,तो भोगोपभोग परिमाण शिक्षा व्रत मे इस सीमा को एक साड़ी तक व्रत के दिन के लिए सिमित कर लेते है!अथवा व्रती इस व्रत के दिन मात्र दो बार भोजन करने अथवा पेय लेने का संकल्प लेता है! शास्त्रों के अनुसार १७ वस्तुओं का इस व्रत के व्रती को नियम लेना पड़ता है जैसे व्रत के दिन स्नान करने,भोजन लेने,पेय लेने, कार में बैठने की संख्या का नियम लेता है!इस व्रत से इच्छाओं को संयमित और संकुचित करने का अभ्यास होता है!
मान लीजिये किसी स्त्री ने एक साड़ी का नियम व्रत के दिन लिया और वह साड़ी किसी सूअर आदि से छू जाने के कारण अशुद्ध हो जाती है तो वह स्त्री उसी साड़ी को उतार कर धोकर,सुखकर यदि पहनती है तो इच्छाओं के दमन के कारण महान पुन्य का बंध होता है!यही तप और नियम का पालन है !
अतिथिसंविभाग शिक्षा व्रत-
अतिथि-मुनि,श्रावक,श्राविका के लिए संविभाग -अपने भोजन में से विभाग करना!
इसका व्रती मंदिर जी आदि में देखता है की कोई आर्यिका,क्षुल्लक,मुनि तो आये हुए है या नहीं !यदि आये हुए है तो पहले उन्हें आहार कराएगा फिर स्वयं भोजन लेगा!यह अतिथि संविभाग शिक्षा व्रत है !
उत्तम पात्र-मुनि ,
माध्यम पात्र-व्रती महिला और पुरुष ,ऐल्लक,क्षुल्लक,आर्यिका माता जी
जघन्यपात्र-साध्वी जैनी भाई!
यदि कभी व्रती को पात्र नहीं मिले आहार दान के लिए तब वह अपना व्रत निभाने के लिए भावना भायेगा अपने भोजन से पूर्व की "मै हाथ जोड़कर,भावना भाता हूँ की पूरे मनुष्य लोक में जितने भी मुनि,आर्यिका माताजी,ऐल्लक, श्रावक,श्राविका जी का निरन्तराय आहार हो!" ये भावना भाने के बाद वह स्वयं भोजन ग्रहण करता है!
यह अतिथि संविभाग शिक्षा व्रत है! इसको आहार दान भी कह सकते है!
व्रतों के भेद-
१- अणुव्रत-गृहस्थ,पाचों पापो का त्याग पूर्णतया नहीं करता,आंशिक रूप से मोटा -मोटी ,से एक देश त्याग करताहै ,ये अणुव्रत कहलाते है!
२-महाव्रत -मुनि महाराज पाँचों पापों का पूर्णतया,सर्वदेश त्याग करते ,ये महा व्रत कहलाते है!
सामान्य जैनी श्रावक नहीं होते है,वे १२ व्रतों को धारण कर ही श्रावक होते है! श्रावकों को ५ अनुव्रत,३ गुण व्रत और ४शिक्षा व्रत कुल १२ व्रत लेने होते है !
५ अणुव्रत-छोटे व्रतों को अणुव्रत कहलाते है!
भेद- हिंसा,झूठ,चोरी,कुशील,अधिक परिग्रह(परिग्रह को सीमित कर लिया) का -त्याग यदि स्थूल रूप से कियाजाता है तो क्रमश: अहिंसा,सत्य,अचौर्य ,ब्रह्मचर्य,अपरिग्रह अणुव्रत होता है!
अहिंसा अणुव्रत - जीव स्थावर और त्रस,दो प्रकार के होते है!अणुव्रत में त्रस जीवों की हिंसा का त्याग किया जाता हैक्योकि स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग गृहस्थ के लिए असंभव है फिर भी, गृहस्थों को भी, स्थावर जीवों की जहाँतक हो सके हिंसा से बचना चाहिए!वह जल,पंखा,अग्नि,विद्युत्,वनस्पति,आदि का दुरूपयोग नहीं करता और पृथ्वीको निष्प्रयोजन नहीं खोदता !इनके दुरोपयोग से बचकर वह क्रमश:वायु कायिक, अग्निकायिक,वनस्पतिकायिकऔर पृथ्वी कायिक, स्थावरजीवों की हिंसा से आंशिक रूप से बचता है!
अहिंसा अणु व्रत की परिभाषा अन्य प्रकार से-
हिंसा चार प्रकार की होते है!
१-संकल्पी-जान बूझ कर किसी जीव को मारना संकल्पी हिंसा है! श्रावक संकल्पी हिंसा नहीं करता!जैसे शिकारका त्यागी होता है!इस प्रकार की हिंसा का हम सब भी त्याग सकते है!
२-उद्यमी-दुकानदारी,व्यापार,नौकरी आदि में हिंसा होती ही है! अहिंसा अणु व्रती,व्यापार या नौकरी इस प्रकार कीचयनित करता है जिनमे कम से कम हिंसा हो जैसे ईट के भट्टे,चीनी मिल,आटा मिल,तेल मिल,खेती,चमड़े,मांस,मधुफिनायल,कीटनाशक,रेशमी साड़ी आदि के व्यापार में बहुत जीव जंतुओं की हिंसा होती है,इसलिए अहिंसाअणुव्रती इस प्रकार के कारोबार नहीं करते!वह ऐसे व्यापार कारोबार करता है जिनमे कम से कम हिंसा होते हैजैसे एकाउंट्स, टीचिंग,पठन-पाठन आदि!मिल भी लगता है तो कम हिंसा होने वली वस्तु की लगता है!
३-आरंभी-गृहस्थ आरंभी हिंसा जैसे घर की सफाई,स्नान,कपडे धोना,भोजन आदि बनाना ,इनमे हिंसा होतीहै,इनका वह सर्वथा त्याग नहीं कर सकता, किन्तु वह ध्यान रखेगा की त्रस जीवों की उससे हिंसा नहीं हो जाए!वहनियम लेता है मैं जो भी कार्य करूँगा देखभाल कर करूँगा!झाड़ू लगते समय,फूल झाड़ू से सफाई करेगा ध्यानरखेगा की कोई चींटी तो नहीं मर रही है उसकी इस क्रिया से!
४ -विरोधी-कोई यदि आक्रमण कर दे,झगडा कर ले आपसे तो बचाव में!आप सामना करेंगे,वह मरेगा नहीं!जो व्रतीसंकल्पी हिंसा और त्रस जीव की हिंसा का त्याग करता है,वह अहिंसा अणु व्रती कहलाता है!
अहिंसा अणुव्रती खटमल होने पर उन्हे दवाई से मरेगा नहीं, वह पहले से ही बैड, पलंग आदि को धूप देकर,दवाईआदि उनमे छिड़क कर रखेगा ,जिससे उनमे खटमल,दीमक आदि की उत्पत्ति ही नहीं हो ! रसोई मे कोकरोचको दवाई से मरने की जगह पहले ही ट्रीटमेंट करवाना चाहिए जिससे कोकरोच की उसमे उत्पत्ति ही नहीं हो!यदिकोकरोच फिर भी हो गए तो रसोई की अच्छी तरह से सफाई करे जिससे कोक्रोंच भाग जाए फिर दवाईछिड़कवाये !
प्रात:-सायं कालीन सहर के समय घास पर नहीं चलकर,सीमेंट के मार्ग पर चल सकते है जिससे वनस्पतिकायिकएकेंद्रिय और चतुरइन्द्रिय मच्छर आदि,त्रस जीवों की रक्षा होगी!
अहिंसा अणुव्रती यह कार्य नहीं करेगा!उसके घर में गाय-भैंस होने पर वह उन्हें कसकर नहीं बांधेगा जिससे उसकीगर्दन टेडी हो जाए,डंडे नहीं मरेगा!घोड़े आदि की गाडी पर उसकी क्षमता से अधिक वजन नहीं लादेगा !वह अपनेपाशों को समय पर भोजन अवश्य देगा!अपने सेवकों से, उनकी क्षमता से अधिक कार्य नहीं लेता है!अहिंसाअणुव्रती अत्यंत सरल परिणामी होता है,क्रोध नहीं करता क्योकि इससे सामने वाले के परिणामों को दुःख पहुंचताहै!
अत: अहिंसा अणु व्रती होना बहुत अच्छा है ,बनना चाहिए,किन्तु यदि किसी कारण नहीं बन सके तो इनमे जो बातेअच्छी लगे उन्हे अवश्य जीवन में उतारे जिससे उतनी हिंसा तो हम बच सके!
2- सत्याणुव्रत-सत्याणुव्रती -स्थूल रूप सी झूठ का त्यागी होता है,क्रोध नहीं करता क्योकि क्रोध मे झूठ बहुत बोलजाता है,वह लोभी नहीं होता इसलिए माल मे मिलावट नहीं करता,डरता नहीं किसी से क्योकि भय के कारण भीझूठ बहुत बोल जाता है,वह थोड़े अच्छे ,मधुर,प्रिय शास्त्रों के अनुसार वचन बोलता है वह कभी नहीं बोलेगा की घासपर चलने से आँखों की रोशनी बढती है क्योकि आगम विरुद्ध वचन है, क्योकि घास पर चलने से जीवों की हिंसा भीतो होती है! हंसी मजाक नहीं करता क्योकि इससे कभी कभी सामने वाले को कष्ट हो जाता है ! वह ऐसा झूठ नहींबोलता जिससे दूसरे को फांसी हो जाए! झूठी गवाही नहीं देता !व्यापार में भी वो आवश्यक झूठ से बचने का प्रयासकरता है!किसी से रूपये /माल आदि लेता है तो उस को वायदे के अनुसार वापिस कर देता है!माल का पेमेंट वायदेअनुसार करता है!किसी की वह चुगली नहीं करता है yoki इससे सामने वाले को अत्यंत कष्ट होता है!करकश वचननहीं बोलता! वह दूसरे को अधर्म मे लगने के लिए प्रेरित करने वाले वचन नही बोलता।किसी की गुप्त बात मालूम होने पर सार्वजनिक नही करता।ऐसा सच नही बोलता जिससे सामने वाले को कष्ट हो।किसी की धरोहर मे हेरा फेरी नही करता। जैसे किसी ने आपके पास ६ सोने की चूडी धरोहर के रूप म रखकर आपसे दस हहजार रूपये ६ माह के लिये लिये६माहलबाद वो आपके रूपये वापिस करने आता है और भूल से कहा है मेरी ४ चूड़ी वापिस कर दीजिेये।तब सत्याणुव्रती उसकी २ चूड़ी मारेगा नही,६ चू़ी ही वापिस करेगा।!
३-अचौर्य अणु व्रत - अचौर्य अणु व्रती स्थूल रूप से चोरी का त्याग करता है!किसी की गिरी हुई कोई वस्तु,पडी या राखी वस्तु को नहीं उठाएगा!किसी को उठाकर भी नहीं देगा!वो विज्ञापन द्वारा उस वास्तु को उसके मालिक के पास पहुंचाने का प्रयास करेगा!किसी को चोरी करने के लिए प्रेरित नहीं करेगा,किसी से चोरी का माल नहीं खरीदेगा,किसी के द्वारा चोरी करने पर उसकी प्रशंसा नहीं करेगा,किसी वास्तु मे कुछ मिलकर बेचेगा नहीं!सरकारी विभागों के करों की चोरी नहीं करेगा!टोल मे कम ज्यादा नहीं तोलेगा!अचौर्य अणु व्रती ये सब कार्य नहीं करते!
४-ब्रह्मचर्य अणु व्रती -इस व्रत का धरी श्रावक/श्राविका अपनी पत्नी/पति मे संतुष्ट रहता है!अन्यों मे माता,बहिनों/पिता भाइयों का भाव रखता है!किसी की ऒर बुरी दृष्टि नहीं रखते!वह अष्टमी और चतुर्दशी को संयम से रहते है!बदचलन औरतों/मर्दों के पास नहीं जाते!गरिष्ट-उत्तेजक भोजन का सेवन नहीं करते! क्योकि इससे इन्द्रिय संयमित नहीं रह पाती!वह किसी भी स्त्री-लडकी/पुरुष-लडके से एकांत मे बात नहीं करते!ब्रह्मचर्य अणुव्रती टीवी और सनीमा उत्तेजक द्रश्यो के देखने से बचने के लिए नहीं देखता! कदाचित धार्मिक कार्यक्रमो जैसे पञ्च कल्याणक, पाठशाला आदि को देखते है! अपने परिणामों को वह बहुत संयमित रखता है जिससे काम वासन जागृत नहीं हो!
५-परिग्रह अणु व्रत -यदि श्रावक सर्वथा परिग्रह छोड़ देगा तो मुनि ही बन जाएगा!इसलिए वह अपने लिए आवश्यक परिग्रह रखता है,पूर्णतया परिग्रहों को छोड़ता नहीं है!जैसे अपने खेत ,मकान,जेवर,कपडा,जायदाद,कार,रूपये पैसे रखने की सीमा निर्धारित कर नियम ले लेता है!इससे अधिक परिग्रह संकल्प पूर्वक नहीं रखता !यह परिग्रह परिमाण अणुव्रत होता है!
संसार मार्ग- अधिकांश लोग विषय भोगों,मांसाहार,मधु,मदिरा आदि के सेवन में लिप्त है !
मोक्षमार्ग- जिसे स्व आत्मकल्याण करना है,उसे व्रतों का धारण कर मोक्ष मार्ग पर चलना ही होगा! जो इन व्रतों का पालन करेगा उसका जीवन शांत संतुष्ट,सुखमय होगा!उसके चेहरे पर सुख शांति तृप्ति स्पष्ट दिखेगी।व्रतों को पालने मे कोई दिक्कत नहीं आयेगी ,इतना जरूर है की बहुत धन दौलत संभवत: नहीं हो किन्तु संतोषी और सुखी निराकुलता पूर्वक जीवन व्यतीत करेगा!वर्तमान मे जब १५०० पिच्छी धारी मुनि और आर्यिका साधू महाव्रतों को धारण कर सकते है तो अणुव्रत धारण करना बिलकुल भी कठिन नहीं है!हमें पापों को छोड़ने के लिए अणु व्रतों को धारण करना ही चाहिए!
अणुव्रतों को धारण करने से पाप कर्मों का आत्मा के साथ बंध कम होगा! जिससे आत्मा मे पवित्रता , जिससे आत्मा इस लोक और परलोक में सुखी होगा! नियम से अंततः मोक्ष प्राप्ति होगी!व्रती के प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जर होती है!निर्जरा आत्म कल्याणक है!अतः पांचोपापो को कम करते हुए अणु व्रतों को lलेवे का प्रयास करना चाहिए!
गुणव्रत-
गुणव्रत, -५ अणुव्रतों की विशुद्धि बढाकर गुणवान करके उनमे विशिष्टता प्रदान करते है!
गुणव्रत के भेद-
१-दिगव्रत-दिगव्रती जीव संतोषी,समयाग्द्रिष्टि,और पापों मे कम प्रवृत्ति रखने वाला होता है! ये दसों दिशाओं; उत्तर-दक्षिण,पूर्व -पश्चिम ,चार कोने की विदिशाओं ,और ऊपर-नीचे,में अपने गमन की सीमा जीवन पर्यन्त के लिए सीमित कर लेते है! जैसे वह गमन की सीमा निर्धारित करता है,वह आगरा /उत्तरप्रदेश/हिन्दुस्तान से बहार व्यापार या किसी अन्य कार्य के लिए नहीं जाऊंगा! इससे वह इस क्षेत्र के बहार होने वाली व्यापारिक हिंसा और एनी सभी हिंसाओं से अपने को सर्वथा सुरक्षित कर लेता है!उसकी हिंसा का क्षेत्र सीमित होकर आगरा/उत्तरप्रदेश,/हिंदुस्तान तक रह गया! इस प्रकार आठ दिशों का नियम हो गया!नीचे और ऊपर का वह नियम लेता है की ५०००./१०००० /१५००० मीटर से अधिक नहीं जायेगा!इस प्रकार वह दिग व्रती दसों दिशों में अपने गमन को सीमित कर उनका उल्लंघन जीवन पर्यन्त नहीं करता है अन्यथा व्रत दूषित हो जाएगा!ये नियम लिखने चाहिए अन्यथा कालांतर में याद नहीं रहते! उद्धाहरण के लिए किसी ने नीचे गमन का नियम १००० फीट का लिया है! वह भाकड़ा नंगल डैम मे नीचे देखने के लिए लिफ्ट मैंन से पूछता है की कितने नीचे तक ले जाओगे तो वह यदि कहता है की १६०० फीट तक,तब वह नीचे नहीं जायेगा! ऐसे श्रावक को,दिगव्रती श्रावक कहते है!किसी श्रावक ने गमन का नियम उत्तर प्रदेश तक का लिया जोकि ललितपुर तक है,आचार्य श्री विद्यासागर जी का चातुर्मास सागर मे है , वह व्रती वहां जायेगा क्योकि आचार्यो ने कहा है कि,मर्यादा हमने पापो को घटाने के लिये ली है ,धार्मिक कार्यो को लिये नही।वह धार्मिक कार्य के लिये निर्धारित सीमा का उल्लंघन कर सकता है किंतु वहां कोई व्यापार, अथवा घुमाई-फिराई नही करेगा।
२-देशव्रत- देशव्रत में श्रावक,अपने दिग्व्रत मे ली गयी सीमा को अल्प समय के लिए और संकुचित करता है!जैसे यदि उसने दिग्व्रत में उत्तर प्रदेश के सीमा का नियम लिया है तो इस व्रत में वह नियम लेता है की,दसलक्षण पर्व,में अपने शहर/ग्राम/कोलनी से बहार नहीं जायेगा!इससे उसकी गतिविधियाँ और संकुचित क्षेत्र मे रह जायेगी फलत: उससे पाप कार्य और कम होंगे!दिग्व्रत जीवन पर्यन्त लिया जाता है! देशव्रत १,२,---२४ घंटे,२-३---१४ दिन .१ पक्ष ,१-२-३ माह,११ माह,वर्ष आदि, किसी समय के लिए लिया जाता है!
जिसने देशव्रत लिया है,वह अपने सीमित क्षेत्र में मन,वचन और काय तीनों से रहेगा,ऐसा नहीं की फोन के माध्याम से या किसी अन्य माध्यम से,सीमित क्षेत्र के बहार संपर्क करेगा !किसी को सीमाँ से बहार भेजकर कोई काम नहीं कराएगा! वह किसी इशारे से भी अपनी बात को क्षेत्र के बहार किसी को नहीं समझाएगा!यदि वह यह सब कार्य करेगा तो पाप नहीं छूटेगा और उसका देशव्रत दूषित हो जाएगा!
देशव्रत लेने से आत्मिक शांति और सुख मिलता है क्योकि उसके परिणाम बहुत अच्छे हो जाते है!
जिसको संसार से छूटना है उसके लिए देशव्रत कठिन नहीं है! देखिये घर गृहस्थी मे भी तो हम निरंतर समस्याओं से घिरे रहते है, एक समस्या का समाधान करते है की दूसरी खड़ी हो जाती है! सिर्फ सोच की बात है,निर्णय लेने की बात है!
३-अनर्थदंडव्रत -
अनर्थदंड अर्थात निष्प्रयोजन,किसी कार्य से कोई लाभ तो नहीं है,किन्तु उससे दंड -पाप हो ही जाए! व्रत-इस प्रकार के कार्यों को छोड़ना !
अर्थात निष्प्रयोजन कार्यों का त्याग करना,अनर्थ दंड व्रत है!
अनर्थ दंड ५ प्रकार का होता है!
१- अपध्यान अनर्थ दंड- खोटा ध्यान अपध्यान है! हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए की किसी को हानि हो,किसी के घर में आग लग जाए,कोई मुकदमा या मैच हार -जीत जाए ,किसी का देहांत हो जाए,क्यो की इस प्रकार के कार्य हमारे सोचने से कभी नहीं हो सकते! ऐसा सोच कर हम पाप बंध करते है क्योकि किसी भी जीव को उसके किये कर्मों का फल मिलता है! किसी के साथ बुरा होने पर यदि आप प्रसन्न होते है तो पाप बंध होता है!ये खोटा ध्यान अर्थात अपध्यान है!
२-पापोपदेश -किसी को पाप उपदेश देना जैसे तुम बहुत कमजोर, आप कोई गलत चीज़ खा लो, ऐसा उपदेश देना गलत है! किसी को टैक्स की चोरी का उपदेश देना!किसी को चोरी का माल खरीदने के लिय प्रेरित करना!चमड़े के जूते पहनने का उपदेश देना,इस प्रकार के उपदेश पापोपदेश है,यद्यपि आपको कुछ प्राप्ति नही हुई किन्तु पाप बंध कर लिया!
३-दुश्रुति-राग-द्वेष,काम वासनाओं से परिपूर्ण कथाओं को नहीं पढ़े,फ़िल्मी किताबे लेकर पढना-पढाना नहीं चाहिए क्योकि इससे मस्तिष्क में विकार आता है!पाप बंध होता है!सनीमा नहीं देखे इन से कुछ लेना देना नहीं है! इस प्रकार की क्रियाये, दुश्रुती अनर्थदंड है!ऐसा करने से परिणामों मे विकार आने के कारण पाप का बंध होता है! आज के सामाजिक जीवन में जो बलात्कार,चोरी,आदि की बढती घटनाओ का कारण, परिणामों का विकृत होना ही है!इस प्रकार के दुश्रुत का हमें त्याग करना चाहिए क्योकि इससे कुछ भी तो लाभ नहीं है,पापबंध के रूप में हानि ही हानि है!
४-हिन्सादान-ऐसी वस्तुए किसी को देना जिनसे हिंसा होती है,जैसे किसे को चूहे मारने की दवाई देना,या पिंजड़ा देकर उन्हें बंद करवा कर बहार फेकने का उपदेश देना!इसमें आपको पाप बंध के अतिरिक्त कुछ प्राप्ति नहीं होती है!
५-प्रमादचर्या-खड़े-खड़े पेड़,पत्ती,फल, फूल तोडना,बैठे बैठे जमीन खोदना,पानी का नल खुला छोड़ना,पंखा चलता हुए छोड़ना,गैस जलती हुई छोड़ना,भोजन को कुछ खाके बाकि छोड़ना,ये सब प्रमाद चर्या है!इनसे हमें बचना चाहिए!
ये पञ्च प्रकार के कार्य है,जिन्हें करने से हमें कोई प्राप्ति नहीं होती,वरन पाप बंध होता है! नेक इंसान बनने के लिए हमें निष्प्रयोजन कार्यों का त्याग करना चाहिए, इससे हमारे अनर्थदंड व्रत का पालन भी होगा और हम संसार के सिमित संसाधनों को बचाने में भी योगदान कर पायेंगे!
लक्स,हमाम आदि साबुन सूअर की चर्बी से बनते है इसलिए इनके प्रयोग से हमें बचना चाहिए! इनके स्थान पर मेडिमिक्स,चंद्रका,संधाल,गोदरेज,साबुन के इस्तमाल से हिंसा से बचेंगे क्योकि इनमे चर्बी नहीं होती!
अनर्थदंड व्रती, १-अपध्यान -किसी के विषय में बुरा चिंतवन करना,२-पापोपदेश-टैक्स आदि की चोरी के उपदेश ३ -दुश्रुती-गलत चित्र,फिल्म आदि देखना,४-हिंसा दान-हिंसात्मक वस्तु को किसी को देना.५ प्रमाद चर्या-निष्प्रयोजन कार्य करना,!इन कार्यों का त्याग करता है!
गुणव्रत, अणुव्रतों की विशुद्धि के लिए करे जाते है,अत: बिना अणुव्रत धारण किये गुणव्रत हो ही नहीं सकते!गुणव्रत के बाद ही शिक्षाव्रत होते है!
आप हरेक व्रत का अभ्यास अलग अलग कर सकते है किन्तु वे व्रत तब ही कहलायेगे जब १२ व्रतों को एक साथ धारण करेंगे!
व्रतों को धारण करने से पापों में कमी आयेगी! आत्मा के पवित्रता बनेगी,आत्मा के साथ कर्म बंध क्षीण होगा! इनसे पुन्य का बंध होगा जिससे इस भव और अगले भवों में सांसारिक सुख भी मिलेगा और मोक्ष मार्ग प्रशस्त होगा,अंतत:मोक्ष सुख की प्राप्ति होगी! आत्मा को मलीन करने वाले कर्मों की निर्जरा होगी!आचार्यों का कहना है की जो व्रतों को धारण करते है उनके सोते,जागते,बैठते ,प्रति समय निर्जरा होती ही है! इसलिए इन व्रतों को धारण करने से लाभ ही लाभ है
शिक्षा- अणुव्रतों की विशुद्धि के लिए,हमें अपनी भाग दौड़,आने-जाने की गमन की सीमाओं को निर्धारित करना है,फिर अल्प समय के लिए उनकी सीमाओं को देशव्रत धारण कर और संकुचित करना है,कोई निष्प्रयोजन कार्य नहीं करने है,जिससे पाप-बंध से बच सके!
शिक्षाव्रत-
जो व्रत श्रावक को मुनि बनने की शिक्षा देते है, और वह दृढ़ता के साथ क्षुल्लक,ऐल्लक बनने की ऒर अग्रसर होते हुए अपनी पर्याय को सफल कर लेते है वे शिक्षा व्रत है!
शिक्षाव्रत भेद-१-सामायिक शिक्षाव्रत-२- प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत-३-भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत -४- अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत-
१-सामायिक शिक्षाव्रत-इस व्रती को प्रात:,अपरान्ह.और सायं प्रत्येक काल में,२ घड़ी =४८ मिनट, के लिए सामयिकी करनी होती है!
सामायिक विधि - सामायिक में पांचों पापों और खोटे विचारों का त्याग कर,कोलाहल रहित एकांत स्थान पर,मन को एकाग्रचित कर पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ऒर मुख करके खड़े होते है!
समायिक शिक्षा व्रती को सामयिकी ३ बार प्रति दिन करनी होती है यदि नहीं कर सके तो २ बार तो करनी ही है! सामायिक करने से अपने स्वरुप का निरंतर भान रहता है! मै कौन हूँ?मुझे इस जन्म में क्या करना है? मेरा लक्ष्य क्या है?स्वयं की आलोचना करने से अपनी गलतियों का पता लगता है जिससे उन्हें सुधारा जा सके!भगवान् की वन्न करने से उन जैसा बनने की प्रेरणा मिलती है!
२-प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत-
प्रोषधोपवास= प्रोषध-एक बार भोजन करना , उपवास-पूर्ण उपवास रखना !प्रोषधोपवास व्रत उत्तम ,माध्यम और जघन्य से 3 प्रकार का होता है!
उत्तम प्रोषधोपवास में,सप्तमी के दिन व्रती एकासन,अष्टमी को उपवास और नवमी को एकासन करता है! शक्ति हीनता के कारण यह न कर सके तो
मध्यमप्रोषधोपवास -अष्टमी/चतुर्दशी को उपवास कर सकते है !यदि यह भी नहीं किया जा सकता तो
जघन्य प्रोषधोपवास - अष्टमी/चौदश को एकासन किया जा सकता है!
इसमें व्रती को कोई सांसारिक कार्य जैसे व्यापार,नौकरी,घर गृहस्थी के कार्यों का निषेध है!किन्तु मजबूरी हो तो बात दूसरी है!
शास्त्रों के अनुसार तो सप्तमी/तेरस के दिन व्रती को एक समय भोजन लेकर १२ बजे मंदिर जी/धर्मशाला में उपवास के लिए चला जाना चाहिए,अष्टमी/चतुर्दशी को पूर्ण उपवास ,नवमी/अमावस्या-पूर्णिमा को १२ बजे घर जाकर भोजन लेना चाहिए!जब तक मंदिर/धर्मशाला में रहे ,धर्म ध्यान में लगे रहना चाहिए! व्रत के दिनों में श्रंगार,सेंट आदि का निषेध है!शरीर से निर्लिप्त होकर व्रती को मात्र स्व आत्म चिंतन करना है!
३-भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत -
भोग- जो वस्तु एक बार भोगने में आती है,जैसे दाल,रोटी,सब्जी,चावल,फल आदि उसे भोग कहते है!
उपभोग-जो वस्तु बार २ भोगने में आती है जैसे वस्त्र,चार,मकान आदि उपभोग कहलाते है!
जो भोग और उपभोग की सामग्री की सीमा हमने अपने परिमाण परिग्रह व्रत में रखी है उसे भी उस दिन व्रत के लिए संकुचित कर लेते है! जैसे परिग्रह परिमाण व्रत में १० साड़ी रखने की सीमा रखी थी,तो भोगोपभोग परिमाण शिक्षा व्रत मे इस सीमा को एक साड़ी तक व्रत के दिन के लिए सिमित कर लेते है!अथवा व्रती इस व्रत के दिन मात्र दो बार भोजन करने अथवा पेय लेने का संकल्प लेता है! शास्त्रों के अनुसार १७ वस्तुओं का इस व्रत के व्रती को नियम लेना पड़ता है जैसे व्रत के दिन स्नान करने,भोजन लेने,पेय लेने, कार में बैठने की संख्या का नियम लेता है!इस व्रत से इच्छाओं को संयमित और संकुचित करने का अभ्यास होता है!
मान लीजिये किसी स्त्री ने एक साड़ी का नियम व्रत के दिन लिया और वह साड़ी किसी सूअर आदि से छू जाने के कारण अशुद्ध हो जाती है तो वह स्त्री उसी साड़ी को उतार कर धोकर,सुखकर यदि पहनती है तो इच्छाओं के दमन के कारण महान पुन्य का बंध होता है!यही तप और नियम का पालन है !
अतिथिसंविभाग शिक्षा व्रत-
अतिथि-मुनि,श्रावक,श्राविका के लिए संविभाग -अपने भोजन में से विभाग करना!
इसका व्रती मंदिर जी आदि में देखता है की कोई आर्यिका,क्षुल्लक,मुनि तो आये हुए है या नहीं !यदि आये हुए है तो पहले उन्हें आहार कराएगा फिर स्वयं भोजन लेगा!यह अतिथि संविभाग शिक्षा व्रत है !
उत्तम पात्र-मुनि ,
माध्यम पात्र-व्रती महिला और पुरुष ,ऐल्लक,क्षुल्लक,आर्यिका माता जी
जघन्यपात्र-साध्वी जैनी भाई!
यदि कभी व्रती को पात्र नहीं मिले आहार दान के लिए तब वह अपना व्रत निभाने के लिए भावना भायेगा अपने भोजन से पूर्व की "मै हाथ जोड़कर,भावना भाता हूँ की पूरे मनुष्य लोक में जितने भी मुनि,आर्यिका माताजी,ऐल्लक, श्रावक,श्राविका जी का निरन्तराय आहार हो!" ये भावना भाने के बाद वह स्वयं भोजन ग्रहण करता है!
यह अतिथि संविभाग शिक्षा व्रत है! इसको आहार दान भी कह सकते है!