10-23-2017, 08:36 AM
आठ कर्म
घातिया और अघातिया के भेद से 8 कर्मों को २ वर्गों में बांटा गया है :-
१- घातिया कर्म :-
जो कर्म आत्मा के असली स्वरुप को पूरी तरह से घात करने वाले हैं , वो घातिया कर्म हैं.
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय !!!
२- अघातिया कर्म :-
जो कर्म आत्मा के गुणों को सीधे घात करने कि शक्ति नहीं रखते, किन्तु घातिया कर्मों के सहायक हैं ! वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म
चार अघातिया कर्मों को नाश करने के बाद ही जीव को मुक्ति प्राप्त होती है !
अरिहंत भगवान् के चार घातिया कर्म नष्ट होते हैं और सिद्ध भगवान् के आठों कर्म नष्ट हुआ करते हैं …
कर्म – प्रकर्तियाँ
प्रकृति याने स्वभाव …
कर्मों के घातिया और अघातिया रूप से 2 भेद हैं, जिनकी दोनों की 4-4 कुल 8 प्रकृतियाँ हैं
और प्रकृति के अपेक्षा से कर्म के इन आठ मूल भेद के उत्तरोत्तर 148 भेद हैं … और इन्ही प्रकृतियों पर निर्भर करती है किसी कर्म की फलदान शक्ति, कुछ प्रकृतियाँ पुण्य रूपी हैं और कुछ पाप रूपी …
1 – ज्ञानावरणीय कर्म
– जिस कर्म के उदय से आत्मा के ज्ञान पर आवरण पड़ जाता है, उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं !
केवल पर्दा पड़ता है, आत्मा का ज्ञान नष्ट नहीं होता है … इस कर्म का क्षय करलेने पर आत्मा अनंत ज्ञान को पा लेती है !
ज्ञानावरणीय कर्म बंध के कारण :-
किसी के पढ़ने में विघ्न करना, पुस्तकें फाड़ देना, गुरु की निंदा करना, ज्ञानी से ईर्या करना, ज्ञान के प्रचार-प्रसार में बाधा डालना इत्यादि से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है !!!
-प्रकृतियाँ:- ज्ञानावरणीय कर्म की 5 प्रकृतियाँ होती ह
-प्रभाव :- आत्मा के सम्यक ज्ञान पर पर्दा
2 – दर्शनावरणीय कर्म
– जिस कर्म के उदय से आत्मा के यथार्थ अवलोकन/दर्शन पर आवरण पड़ जाता है, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं !
केवल पर्दा पड़ता है, आत्मा का दर्शन गुण नष्ट नहीं होता है … इस कर्म का क्षय करलेने पर आत्मा अनंत दर्शन गुण को पा लेती है !
दर्शनावरणीय कर्म बंध के कारण :-
किसी के देखने में विघ्न करना, अपनी वास्तु किसी को न दिखाना, अपनी दृष्टि पर गर्व करना, किसी को मंदिर जाने से रोकना, किसी की आँखों को कष्ट पहुचाने इत्यादि से दर्शनावरणीय कर्म का बंध होता है !!!
-प्रकृतियाँ:- दर्शनावरणीय कर्म की 9 प्रकृतियाँ होती हैं
-श्रेणी :- घातिया कर्म
-प्रभाव :- आत्मा के निर्मल दर्शन पर पर्दा
-इसके नाश होने पर उत्त्पन्न गुण :- अनंत दर्शन
3 – वेदनीय कर्म
– जिस कर्म के उदय से हम वेदना अर्थात सुख-दुःख का अनुभव करते हैं, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं !
इस कर्म से आत्मा के अव्याबाध गुण अर्थात आकुलता रहित सुख का घात होता है … इस कर्म का क्षय करलेने पर आत्मा अनंत सुख को पा लेती है !
वेदनीय बंध के कारण :-
साता वेदनीय :- जीवों पर दया करना, दान करना, संयम पालना, लोभ नहीं करना, वात्सल्य रखना, वैय्यावृत्ति करना, व्रत पालना, क्षमा भाव रखना आदि शुभ क्रियाओं से !
असाता वेदनीय :- शोक करना, पश्चाताप करना, रोना, मारना, वध करना आदि अशुभ कार्यों से !
-प्रकृतियाँ:- वेदनीय कर्म की 2 प्रकृतियाँ होती हैं, साता वेदनीय और असाता वेदनीय
-प्रभाव :- सुख-दुःख का अनुभव
4 – मोहनीय कर्म
– जिस कर्म के उदय से हम मोह, राग, द्वेष आदि विकार भावों का अनुभव करते हैं, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं !
अर्थात, जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व व चारित्र गुणों का घात करता है वो मोहनीय कर्म है !
मोहनीय कर्म का स्वभाव नशीले पदार्थ के सेवन कि तरह है, इसके उदय से यह जीव अपना विवेक खो देता है, उसे हित-अहित का होश नहीं रहता !
काम-क्रोध-माया-लोभ आदि भी मोहनीय कर्म के उदय से ही होते हैं !
यह कर्मों का राजा है ! जैसे राजा के न होने पर उसकी प्रजा असमर्थ याने बेकार हो जाती है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के अभाव में बाकी सारे कर्म अपने कार्य में असमर्थ हो जाते हैं !
मोहनीय कर्म बंध के कारण :-
सच्चे देव-शास्त्र-गुरु को दोष लगाने, मिथ्या देव-शास्त्र-गुरु की प्रशंसा करने, आगम विरुद्ध कार्य करने, क्रोध, लोभ, हिंसा, आदि करने से मोहनीय कर्म का बंध होता है !!!
सबसे पहले इस मोहनीय कर्म का ही क्षय होता है, उसके बाद बाकी के घातिया और अघातिया कर्मों का क्षय होता है !
-प्रकृतियाँ:- मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियाँ होती है
-प्रभाव :- हित-अहित का विवेक नहीं रहता
-इसके नाश होने पर उत्त्पन्न गुण :- क्षायिक सम्यक्त्व
5 – आयु कर्म
– जिस कर्म के उदय से जीव किसी एक शरीर में निश्चित समय तक रुका रहता है, उसे आयु कर्म कहते हैं !
अर्थात, किसी शरीर में रुके रहने कि अवधि/समय का नाम आयु कर्म है !
जैसे हम मनुष्य पर्याय में रुके हुए हैं, आयु कर्म के क्षय होने के बाद हमारी आत्मा इस मनुष्य देह को छोड़ कर अन्य शरीर में चला जायेगा !
किस गति का क्या कारण :-
1 – नरकगति – बहुत ज्यादा आरम्भ(आलोचना पाठ वाला आरम्भ) और बहुत परिग्रह करने से
2 – त्रियंचगति – मायाचारी से
3 – देवगति – स्वभाव की कोमलता, बाल-तप और धर्म करने से
4 – मनुष्यगति – थोडा आरम्भ और थोडा परिग्रह करने से
-प्रकृतियाँ:- आयु कर्म की 4 प्रकृतियाँ होती हैं, (देवायु, मनुष्यायु, नरकायु और त्रियंचायु
-प्रभाव :- मनुष्य-देव-नारकी-त्रियंच आदि भव धारण करना
6 – नाम कर्म
– जिस कर्म के उदय से अलग-अलग प्रकार के शरीर प्राप्त होते हैं, हमे देखते हैं कि कोई इतना सुंदर है, कोई कम सुंदर, कोई बलशाली, कोई कमज़ोर… शरीर के अंग-उपांग, सुंदरता-कुरूपता देने में जो कर्म फलदायी है उसे नाम कर्म कहते हैं !
बंध के कारण :-
मन-वचन-काय को सरल रखना, शुभ भावनाएं भाना आदि से शुभ नाम कर्म प्रकृतियों का बंध होता है,
और
मन-वचन-काय को कुटिल रखना, दुसरो को नीचा दिखाना, उनकी हंसी उड़ाना, नक़ल करना, आपस में लड़ाने से अशुभ नाम कर्म प्रकृतियों का बंध होता है !!!
कोई अत्यंत सुंदर है, तो वो उसके शुभ नाम कर्म का उदय है , किसी की आवाज़ बहुत मीठी है तो वो उसके सुस्वर नाम कर्म के उदय के कारण है …
-प्रकृतियाँ:- नाम कर्म की सबसे ज्यादा 93 प्रकृतियाँ होती हैं
-प्रभाव :- शरीरों कि रचना
-इसके नाश होने पर उत्त्पन्न गुण :- सूक्ष्मत्व गुण
7 – गोत्र कर्म
– जिस कर्म के उदय से उच्च य़ा नीच कुल कि प्राप्ति होती है, उसे गोत्र कर्म कहते हैं !
गोत्र कर्म कि 2 प्रकृतियाँ हैं :-
१- उच्च गोत्र कर्म :-
इसके उदय से जीव लोक-पूजित, धार्मिक, बड़े घरों में जन्म लेता है !
अच्छा आचरण रखने वाले, पाप न करने वाले, अपनी-प्रशंसा व दूसरों कि निंदा न करने वाले आदि जीव इस गोत्र में जन्म लेते हैं !!!
२- नीच गोत्र कर्म :-
इसके उदय से जीव का जन्म लोक-निन्दित, हिंसक, दुराचारी, दरिद्री आदि कुलों में होता है !
हिंसा, चोरी, झूठ, घमंड, स्व-प्रशंसा,पर-निंदा करने वाले इस गोत्र में जन्म लेते हैं !
देव व भोग-भूमि के मनुष्यों का उच्च गोत्र होता है,
नारकी और त्रियंचों का नीच गोत्र होता है, और
कर्म-भूमि के मनुष्यों के दोनों गोत्र होते हैं !!!
-प्रकृतियाँ:- गोत्र कर्म की 2 प्रकृतियाँ होती हैं
-प्रभाव :- कुल में जन्म
-इसके नाश होने पर उत्त्पन्न गुण :- अगुरुलघुत्व गुण
8 – अंतराय कर्म
– जिस कर्म के उदय से किसी भी सही या अच्छे काम को करने में बाधा/दिक्कत उत्त्पन्न होती है, उसे अंतराय कर्म कहते हैं !
बंध के कारण :-
किसी को लाभ नहीं होने देना, नौकर-चाकर को धर्म सेवन नहीं करने देना, दान देने वाले को रोकना, दुसरो को दी जाने वाली वस्तु में विघ्न पैदा करना इत्यादि अंतराय कर्म के बंध के कारण बतलाये हैं !
इसी कर्म के उदय में आने के कारण भगवान आदिनाथ को छह महीने तक आहार नहीं मिला था !!!
-प्रकृतियाँ:- गोत्र कर्म की 5 प्रकृतियाँ होती हैं
-श्रेणी :- घातिया कर्म
-प्रभाव :- दान आदि में बाधा होना
-इसके नाश होने पर उत्त्पन्न गुण :- अनन्तवीर्य गुण
-उत्कृष्ठ(ज्यादा से ज्यादा) स्थिति :- 3० कोड़ा-कोड़ी सागर
-जघन्य(कम से कम) स्थिति :- अन्तर्मुहुर्त
*** यह अंतराय कर्म “घातिया कर्म” है … अघातिया नहीं …
आठ कर्मों की 148 प्रकृतियाँ
– कुल 8 कर्म होते हैं !
– कर्म आठ होते हैं या केह सकते हैं कि प्रकृति के हिसाब से आठ कर्म होते हैं … हर कर्म प्रकर्ति कि अपनी आगे उप-प्रकृतियाँ होती हैं !
कुल मिला कर आठ कर्मों कि 148 प्रकृतियाँ होती हैं !!!
हम “देव-शास्त्र-गुरु पूजा” कि जयमाला में बोलते हैं :- “कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि |1|
जे परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवत के छयालिस गुणगंभीर |2|”
63 प्रकृतियाँ के नाश होने पर जीव को केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, कौनसी 63 प्रकृतियाँ हैं ये ???
ज्ञानावरणीय कर्म की सारी 5 प्रकृतियाँ,
दर्शनावरणीय कर्म की सारी 9 प्रकृतियाँ,
मोहनीय कर्म की सारी 28 प्रकृतियाँ,
अंतराय कर्म की सारी 5 प्रकृतियाँ,
ये चारों घातिया कर्म हैं इनकी सारी (47) प्रकृतियाँ
और
अघातिया कर्मों की
आयु कर्म की 3 प्रकृतियाँ,
नाम कर्म की 13 प्रकृतियाँ … कुल 16 प्रकृतियाँ ..
16+47 = 63 प्रकृतियाँ , इनके नाश होने पर जीव को केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है !!!
और केवली के चौदहवें गुणस्थान में पहुँचते ही बाकी की (148-63 यानि 85) कर्म प्रकृतियों में से 72 का नाश हो जाता है ! और वे अपने जीवन काल के अंतिम समय में बाकी की बची हुई 13 प्रकृतियों का नाश करके सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर सिद्धशिला पर विराजमान हो जाते हैं !!!
घातिया और अघातिया के भेद से 8 कर्मों को २ वर्गों में बांटा गया है :-
१- घातिया कर्म :-
जो कर्म आत्मा के असली स्वरुप को पूरी तरह से घात करने वाले हैं , वो घातिया कर्म हैं.
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय !!!
२- अघातिया कर्म :-
जो कर्म आत्मा के गुणों को सीधे घात करने कि शक्ति नहीं रखते, किन्तु घातिया कर्मों के सहायक हैं ! वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म
चार अघातिया कर्मों को नाश करने के बाद ही जीव को मुक्ति प्राप्त होती है !
अरिहंत भगवान् के चार घातिया कर्म नष्ट होते हैं और सिद्ध भगवान् के आठों कर्म नष्ट हुआ करते हैं …
कर्म – प्रकर्तियाँ
प्रकृति याने स्वभाव …
कर्मों के घातिया और अघातिया रूप से 2 भेद हैं, जिनकी दोनों की 4-4 कुल 8 प्रकृतियाँ हैं
और प्रकृति के अपेक्षा से कर्म के इन आठ मूल भेद के उत्तरोत्तर 148 भेद हैं … और इन्ही प्रकृतियों पर निर्भर करती है किसी कर्म की फलदान शक्ति, कुछ प्रकृतियाँ पुण्य रूपी हैं और कुछ पाप रूपी …
1 – ज्ञानावरणीय कर्म
– जिस कर्म के उदय से आत्मा के ज्ञान पर आवरण पड़ जाता है, उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं !
केवल पर्दा पड़ता है, आत्मा का ज्ञान नष्ट नहीं होता है … इस कर्म का क्षय करलेने पर आत्मा अनंत ज्ञान को पा लेती है !
ज्ञानावरणीय कर्म बंध के कारण :-
किसी के पढ़ने में विघ्न करना, पुस्तकें फाड़ देना, गुरु की निंदा करना, ज्ञानी से ईर्या करना, ज्ञान के प्रचार-प्रसार में बाधा डालना इत्यादि से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है !!!
-प्रकृतियाँ:- ज्ञानावरणीय कर्म की 5 प्रकृतियाँ होती ह
-प्रभाव :- आत्मा के सम्यक ज्ञान पर पर्दा
2 – दर्शनावरणीय कर्म
– जिस कर्म के उदय से आत्मा के यथार्थ अवलोकन/दर्शन पर आवरण पड़ जाता है, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं !
केवल पर्दा पड़ता है, आत्मा का दर्शन गुण नष्ट नहीं होता है … इस कर्म का क्षय करलेने पर आत्मा अनंत दर्शन गुण को पा लेती है !
दर्शनावरणीय कर्म बंध के कारण :-
किसी के देखने में विघ्न करना, अपनी वास्तु किसी को न दिखाना, अपनी दृष्टि पर गर्व करना, किसी को मंदिर जाने से रोकना, किसी की आँखों को कष्ट पहुचाने इत्यादि से दर्शनावरणीय कर्म का बंध होता है !!!
-प्रकृतियाँ:- दर्शनावरणीय कर्म की 9 प्रकृतियाँ होती हैं
-श्रेणी :- घातिया कर्म
-प्रभाव :- आत्मा के निर्मल दर्शन पर पर्दा
-इसके नाश होने पर उत्त्पन्न गुण :- अनंत दर्शन
3 – वेदनीय कर्म
– जिस कर्म के उदय से हम वेदना अर्थात सुख-दुःख का अनुभव करते हैं, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं !
इस कर्म से आत्मा के अव्याबाध गुण अर्थात आकुलता रहित सुख का घात होता है … इस कर्म का क्षय करलेने पर आत्मा अनंत सुख को पा लेती है !
वेदनीय बंध के कारण :-
साता वेदनीय :- जीवों पर दया करना, दान करना, संयम पालना, लोभ नहीं करना, वात्सल्य रखना, वैय्यावृत्ति करना, व्रत पालना, क्षमा भाव रखना आदि शुभ क्रियाओं से !
असाता वेदनीय :- शोक करना, पश्चाताप करना, रोना, मारना, वध करना आदि अशुभ कार्यों से !
-प्रकृतियाँ:- वेदनीय कर्म की 2 प्रकृतियाँ होती हैं, साता वेदनीय और असाता वेदनीय
-प्रभाव :- सुख-दुःख का अनुभव
4 – मोहनीय कर्म
– जिस कर्म के उदय से हम मोह, राग, द्वेष आदि विकार भावों का अनुभव करते हैं, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं !
अर्थात, जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व व चारित्र गुणों का घात करता है वो मोहनीय कर्म है !
मोहनीय कर्म का स्वभाव नशीले पदार्थ के सेवन कि तरह है, इसके उदय से यह जीव अपना विवेक खो देता है, उसे हित-अहित का होश नहीं रहता !
काम-क्रोध-माया-लोभ आदि भी मोहनीय कर्म के उदय से ही होते हैं !
यह कर्मों का राजा है ! जैसे राजा के न होने पर उसकी प्रजा असमर्थ याने बेकार हो जाती है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के अभाव में बाकी सारे कर्म अपने कार्य में असमर्थ हो जाते हैं !
मोहनीय कर्म बंध के कारण :-
सच्चे देव-शास्त्र-गुरु को दोष लगाने, मिथ्या देव-शास्त्र-गुरु की प्रशंसा करने, आगम विरुद्ध कार्य करने, क्रोध, लोभ, हिंसा, आदि करने से मोहनीय कर्म का बंध होता है !!!
सबसे पहले इस मोहनीय कर्म का ही क्षय होता है, उसके बाद बाकी के घातिया और अघातिया कर्मों का क्षय होता है !
-प्रकृतियाँ:- मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियाँ होती है
-प्रभाव :- हित-अहित का विवेक नहीं रहता
-इसके नाश होने पर उत्त्पन्न गुण :- क्षायिक सम्यक्त्व
5 – आयु कर्म
– जिस कर्म के उदय से जीव किसी एक शरीर में निश्चित समय तक रुका रहता है, उसे आयु कर्म कहते हैं !
अर्थात, किसी शरीर में रुके रहने कि अवधि/समय का नाम आयु कर्म है !
जैसे हम मनुष्य पर्याय में रुके हुए हैं, आयु कर्म के क्षय होने के बाद हमारी आत्मा इस मनुष्य देह को छोड़ कर अन्य शरीर में चला जायेगा !
किस गति का क्या कारण :-
1 – नरकगति – बहुत ज्यादा आरम्भ(आलोचना पाठ वाला आरम्भ) और बहुत परिग्रह करने से
2 – त्रियंचगति – मायाचारी से
3 – देवगति – स्वभाव की कोमलता, बाल-तप और धर्म करने से
4 – मनुष्यगति – थोडा आरम्भ और थोडा परिग्रह करने से
-प्रकृतियाँ:- आयु कर्म की 4 प्रकृतियाँ होती हैं, (देवायु, मनुष्यायु, नरकायु और त्रियंचायु
-प्रभाव :- मनुष्य-देव-नारकी-त्रियंच आदि भव धारण करना
6 – नाम कर्म
– जिस कर्म के उदय से अलग-अलग प्रकार के शरीर प्राप्त होते हैं, हमे देखते हैं कि कोई इतना सुंदर है, कोई कम सुंदर, कोई बलशाली, कोई कमज़ोर… शरीर के अंग-उपांग, सुंदरता-कुरूपता देने में जो कर्म फलदायी है उसे नाम कर्म कहते हैं !
बंध के कारण :-
मन-वचन-काय को सरल रखना, शुभ भावनाएं भाना आदि से शुभ नाम कर्म प्रकृतियों का बंध होता है,
और
मन-वचन-काय को कुटिल रखना, दुसरो को नीचा दिखाना, उनकी हंसी उड़ाना, नक़ल करना, आपस में लड़ाने से अशुभ नाम कर्म प्रकृतियों का बंध होता है !!!
कोई अत्यंत सुंदर है, तो वो उसके शुभ नाम कर्म का उदय है , किसी की आवाज़ बहुत मीठी है तो वो उसके सुस्वर नाम कर्म के उदय के कारण है …
-प्रकृतियाँ:- नाम कर्म की सबसे ज्यादा 93 प्रकृतियाँ होती हैं
-प्रभाव :- शरीरों कि रचना
-इसके नाश होने पर उत्त्पन्न गुण :- सूक्ष्मत्व गुण
7 – गोत्र कर्म
– जिस कर्म के उदय से उच्च य़ा नीच कुल कि प्राप्ति होती है, उसे गोत्र कर्म कहते हैं !
गोत्र कर्म कि 2 प्रकृतियाँ हैं :-
१- उच्च गोत्र कर्म :-
इसके उदय से जीव लोक-पूजित, धार्मिक, बड़े घरों में जन्म लेता है !
अच्छा आचरण रखने वाले, पाप न करने वाले, अपनी-प्रशंसा व दूसरों कि निंदा न करने वाले आदि जीव इस गोत्र में जन्म लेते हैं !!!
२- नीच गोत्र कर्म :-
इसके उदय से जीव का जन्म लोक-निन्दित, हिंसक, दुराचारी, दरिद्री आदि कुलों में होता है !
हिंसा, चोरी, झूठ, घमंड, स्व-प्रशंसा,पर-निंदा करने वाले इस गोत्र में जन्म लेते हैं !
देव व भोग-भूमि के मनुष्यों का उच्च गोत्र होता है,
नारकी और त्रियंचों का नीच गोत्र होता है, और
कर्म-भूमि के मनुष्यों के दोनों गोत्र होते हैं !!!
-प्रकृतियाँ:- गोत्र कर्म की 2 प्रकृतियाँ होती हैं
-प्रभाव :- कुल में जन्म
-इसके नाश होने पर उत्त्पन्न गुण :- अगुरुलघुत्व गुण
8 – अंतराय कर्म
– जिस कर्म के उदय से किसी भी सही या अच्छे काम को करने में बाधा/दिक्कत उत्त्पन्न होती है, उसे अंतराय कर्म कहते हैं !
बंध के कारण :-
किसी को लाभ नहीं होने देना, नौकर-चाकर को धर्म सेवन नहीं करने देना, दान देने वाले को रोकना, दुसरो को दी जाने वाली वस्तु में विघ्न पैदा करना इत्यादि अंतराय कर्म के बंध के कारण बतलाये हैं !
इसी कर्म के उदय में आने के कारण भगवान आदिनाथ को छह महीने तक आहार नहीं मिला था !!!
-प्रकृतियाँ:- गोत्र कर्म की 5 प्रकृतियाँ होती हैं
-श्रेणी :- घातिया कर्म
-प्रभाव :- दान आदि में बाधा होना
-इसके नाश होने पर उत्त्पन्न गुण :- अनन्तवीर्य गुण
-उत्कृष्ठ(ज्यादा से ज्यादा) स्थिति :- 3० कोड़ा-कोड़ी सागर
-जघन्य(कम से कम) स्थिति :- अन्तर्मुहुर्त
*** यह अंतराय कर्म “घातिया कर्म” है … अघातिया नहीं …
आठ कर्मों की 148 प्रकृतियाँ
– कुल 8 कर्म होते हैं !
– कर्म आठ होते हैं या केह सकते हैं कि प्रकृति के हिसाब से आठ कर्म होते हैं … हर कर्म प्रकर्ति कि अपनी आगे उप-प्रकृतियाँ होती हैं !
कुल मिला कर आठ कर्मों कि 148 प्रकृतियाँ होती हैं !!!
हम “देव-शास्त्र-गुरु पूजा” कि जयमाला में बोलते हैं :- “कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि |1|
जे परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवत के छयालिस गुणगंभीर |2|”
63 प्रकृतियाँ के नाश होने पर जीव को केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, कौनसी 63 प्रकृतियाँ हैं ये ???
ज्ञानावरणीय कर्म की सारी 5 प्रकृतियाँ,
दर्शनावरणीय कर्म की सारी 9 प्रकृतियाँ,
मोहनीय कर्म की सारी 28 प्रकृतियाँ,
अंतराय कर्म की सारी 5 प्रकृतियाँ,
ये चारों घातिया कर्म हैं इनकी सारी (47) प्रकृतियाँ
और
अघातिया कर्मों की
आयु कर्म की 3 प्रकृतियाँ,
नाम कर्म की 13 प्रकृतियाँ … कुल 16 प्रकृतियाँ ..
16+47 = 63 प्रकृतियाँ , इनके नाश होने पर जीव को केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है !!!
और केवली के चौदहवें गुणस्थान में पहुँचते ही बाकी की (148-63 यानि 85) कर्म प्रकृतियों में से 72 का नाश हो जाता है ! और वे अपने जीवन काल के अंतिम समय में बाकी की बची हुई 13 प्रकृतियों का नाश करके सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर सिद्धशिला पर विराजमान हो जाते हैं !!!