06-04-2018, 08:55 AM
जिन सहस्रनाम अर्थसहित द्वितीय अध्याय भाग २
१५१. धर्म को तीन लोकमे प्रसिध्द करनेसे "वृषकेतु" है।
१५२. कर्म के नाश करने हेतु आपने मात्र धर्मके आयुध धारण किये है, इसलिये "वृषायुध" हो।
१५३. धर्म कि वृष्टी करने वाले आप"वृष" हो।
१५४. धर्मके नायक - स्वामि होनेसे "धर्मपति" हो।
१५५. सबके स्वामी होनेसे "भर्ता" हो।
१५६. बैल का चिन्ह होनेसे अथवा बैल आपका लांछन होनेसे आप"वृषभांक" हो।
१५७. माता के स्वप्नमे शुभ चिन्ह वृषभ दिखनेसे एवं उसके उपरांत आप पैदा हुए है, इसलिये आप"वृषभोद्भव" है।
हिरण्यनाभि र्भूतात्मा भूतभृद् भूतभावन:। प्रभवो विभवो भास्वान् भवो भावो भवान्तक:॥७
१५८. आप हिरण्यगर्भ थे, नाभिराज के संतति है, इसलिये आप"हिरण्यनाभि" कहलाते है।
१५९. आप अविनाशी है, यथार्थ आत्मस्वरूप है, इसलिए आपको "भूतात्मा" कहा जाता है।
१६०. आप समस्त जीवोंकि रक्षा बंधू के समान"भूतभृत" कहलाते है।
१६१. यथार्थ मंगलस्वरूप भावना के होनेसे "भूतभावन" है।
१६२. आपके जन्मसे आपके वंश कि वृध्दी हुई है, आपका जन्म प्रशंसनीय तथा प्रभावशाली है, इसलिये "प्रभव" हो।
१६३. आपके भव समाप्त हुए है, अर्थात यह आपका अंतीम भव है, इसलिए"विभव" हो।
१६४. आप केवलज्ञान रूप कांतिसे प्रकाशमान है इसलिये "भास्वान" हो।
१६५. समय समयसे आपमे उत्पाद होता रहता है, इसलिये "भव" हो।
१६६. आत्मस्वभाव मे सदैव लीन होनेसे "भाव" है।
१६७. समस्त भवोंका नाश करनेवाले होनेसे आपको "भवान्तक" कहा जाता है।
हिरण्यगर्भ: श्रीगर्भ: प्रभूत विभवोद्भव: स्वयंप्रभु प्रभूतात्मा भूतनाथो जगत्प्रभु:॥८॥
१६८. गर्भावतर के समय हिरण्य कि वृष्टी होनेसे "हिरण्यगर्भ" अथवा आपकि माता को गर्भकाल मे कोई भि वेदना तथा दु:ख नहि हुआ इसलिये आपको "हिरण्यगर्भ" कहा जाता है।
१६९. आपके गर्भमे होते हुए श्री आदि देवीयाँ आपके माता कि सेवा करती थि अथवा आपके अंतरंग के स्फुरायमान लक्ष्मी विराजमान है, इसलिये "श्रीगर्भ" हो।
१७०. भवोका नाश करनेवाले मे आप प्रभु है, अथवा आप अनन्तविभूति के स्वामी है इसलिये "प्रभूतविभव" है।
१७१. अब जन्मरहित है, इसलिये "अभव" है।
१७२. स्वयं समर्थ होनेसे अथवा आपहि खुद आपके स्वामी होनेसे अथवा आपका कोई स्वामी ना होनेसे आपको "स्वयंप्रभु" भि कहा जाता है।
१७३. केवलज्ञान के द्वारा आप सब आत्माओमे व्याप्त होनेसे अर्थात जो भि जिसकि अंतर मे है, आपके जानने से "प्रभूतात्मा" है।
१७४. समस्त जीवोंके नाथ अथवा स्वामी होने से " भूतनाथ" हो।
१७५. तीनो लोक अर्थात सम्पुर्ण जगत के स्वामी होनेसे आप“जगत्पति” भि कहे जाते है।
सर्वादि: सर्वदृक् सार्व: सर्वज्ञ: सर्वदर्शन:। सर्वात्मा सर्वलोकेश: सर्ववित् सर्व लोकजित्॥९
१७६. आप सब मे प्रथम होनेसे "सर्वादि" है ।
१७७. केवलज्ञान द्वारा लोकालोक सहज हि देखनेसे "सर्वदृक्" है।
१७८. कल्याणकारी हितोपदेश देनेसे "सार्व" है।
१७९. सर्व विश्व का सर्व विषय एक साथ जाननेसे "सर्वज्ञ" है।
१८०. सर्वार्थ से सम्यक दर्शन धारी होनेसे "सर्वदर्शन" है ।
१८१. समस्त जगत के जीवोंके प्रिय रहनेसे "सर्वात्मा" है।
१८२. समस्त लोक अर्थात तीन लोक के स्वामी होनेसे "सर्वलोकेश" है।
१८३. आपको सर्व विद् है, अर्थात ज्ञात है, इसलिये "सर्वविद्" हो।
१८४. तीन लोक को जीतनेसे या अनंतवीर्य होनेसे आपको "सर्वलोकजित्" भि कहा जाता है।
सुगति: सुश्रुत: सुश्रुत सुवाक सुरि र्बहुश्रुत:। विश्रुतो विश्वत: पादो विश्वशिर्ष: शुचिश्रवा:॥१०॥
१८५. आपका ज्ञान प्रशंसनीय है, सुगति देनेवाला है, तथा आपकि अगली गति पंचम गति अर्थात मोक्ष है, इसलिए आपको "सुगति" कहते है।
१८६. आपका ज्ञान अत्युत्तम है तथा आपके बारेमे सबने सुना है, अर्थात आप प्रसिध्द है इसलिये "सुश्रुत:" हो।
१८७. आप समस्त भक्तोंकि भावना अच्छे से सुनते है इसलिये "सुश्रुत्" है।
१८८. आपकी वाणी हितोपदेशी है तथा सप्तभंगरूप होनेसे सम्पुर्ण है इसलिये "सुवाक्" है।
१८९. सबके गुरु होनेसे "सुरि" हो।
१९०. शास्त्रोंमे पारंगत होनेसे "बहुश्रुत" हो।
१९१. आप जगत मे प्रसिध्द है तथा कोई भि शास्त्र मे आपका यथार्थ वर्णन ना पाया जानेसे आप"विश्रुत" हो।
१९२.
१९३. लोक के अग्र मे जाकर आप विराज मान होने वाले है, इसलिये "विश्वशिर्ष" हो।
१९४. आप का ज्ञान निर्दोष है, निर्मल है, शुचित है, इसलिये आपको "शुचिश्रवा" भि कहा जाता है ।
सहस्रशीर्ष: क्षेत्रज्ञ: सहस्राक्ष: सहस्रपात्। भूतभव्य भवद्भर्ता विश्वविद्या महेश्वर:॥११॥
१९५. आप के मानो सहस्र शीर्ष है, अर्थात सहस्र प्रकारके बुध्दीके धारक है इसलिए"सहस्रशीर्ष" हो।
१९६. आप लोकालोक समस्त क्षेत्र के समस्त्र पदार्थोंके समस्त पर्यायोंको जानते है, या आप समस्त क्षेत्रोंमे केवलज्ञान द्वारा व्याप्त है, इसलिये "क्षेत्रज्ञ" है।
१९७. आप मानो सहस्र नेत्रोंसे देख रहे हो, अर्थात आपके दृष्टी अपार, अथाह है, इसलिये "सहस्रदर्शी" है।
१९८. अनंतवीर्य होनेसे आपके बल के बारेमे आपको "सहस्रपात्" भि कहा जाता है।
१९९. वर्तमान, भूत तथा भविष्य तीनो काल के स्वामी तथा तिनो काल के जीवोंके बंधुसमान होनेसे "भूतभव्यभवद्भर्ता" हो।
२००. समस्त विश्वके समस्त श्रेष्ठ विद्याओमें पारंगत होनेसे तथा आपके समान इन विद्याओ मे कोई और पारंगत नही है, इसलिये " विश्वविद्यामहेश्वर" भि आपको हि कहा जाता है, यह नाम आपके अलावा किसी और का हो हि नही सकता ॥
१५१. धर्म को तीन लोकमे प्रसिध्द करनेसे "वृषकेतु" है।
१५२. कर्म के नाश करने हेतु आपने मात्र धर्मके आयुध धारण किये है, इसलिये "वृषायुध" हो।
१५३. धर्म कि वृष्टी करने वाले आप"वृष" हो।
१५४. धर्मके नायक - स्वामि होनेसे "धर्मपति" हो।
१५५. सबके स्वामी होनेसे "भर्ता" हो।
१५६. बैल का चिन्ह होनेसे अथवा बैल आपका लांछन होनेसे आप"वृषभांक" हो।
१५७. माता के स्वप्नमे शुभ चिन्ह वृषभ दिखनेसे एवं उसके उपरांत आप पैदा हुए है, इसलिये आप"वृषभोद्भव" है।
हिरण्यनाभि र्भूतात्मा भूतभृद् भूतभावन:। प्रभवो विभवो भास्वान् भवो भावो भवान्तक:॥७
१५८. आप हिरण्यगर्भ थे, नाभिराज के संतति है, इसलिये आप"हिरण्यनाभि" कहलाते है।
१५९. आप अविनाशी है, यथार्थ आत्मस्वरूप है, इसलिए आपको "भूतात्मा" कहा जाता है।
१६०. आप समस्त जीवोंकि रक्षा बंधू के समान"भूतभृत" कहलाते है।
१६१. यथार्थ मंगलस्वरूप भावना के होनेसे "भूतभावन" है।
१६२. आपके जन्मसे आपके वंश कि वृध्दी हुई है, आपका जन्म प्रशंसनीय तथा प्रभावशाली है, इसलिये "प्रभव" हो।
१६३. आपके भव समाप्त हुए है, अर्थात यह आपका अंतीम भव है, इसलिए"विभव" हो।
१६४. आप केवलज्ञान रूप कांतिसे प्रकाशमान है इसलिये "भास्वान" हो।
१६५. समय समयसे आपमे उत्पाद होता रहता है, इसलिये "भव" हो।
१६६. आत्मस्वभाव मे सदैव लीन होनेसे "भाव" है।
१६७. समस्त भवोंका नाश करनेवाले होनेसे आपको "भवान्तक" कहा जाता है।
हिरण्यगर्भ: श्रीगर्भ: प्रभूत विभवोद्भव: स्वयंप्रभु प्रभूतात्मा भूतनाथो जगत्प्रभु:॥८॥
१६८. गर्भावतर के समय हिरण्य कि वृष्टी होनेसे "हिरण्यगर्भ" अथवा आपकि माता को गर्भकाल मे कोई भि वेदना तथा दु:ख नहि हुआ इसलिये आपको "हिरण्यगर्भ" कहा जाता है।
१६९. आपके गर्भमे होते हुए श्री आदि देवीयाँ आपके माता कि सेवा करती थि अथवा आपके अंतरंग के स्फुरायमान लक्ष्मी विराजमान है, इसलिये "श्रीगर्भ" हो।
१७०. भवोका नाश करनेवाले मे आप प्रभु है, अथवा आप अनन्तविभूति के स्वामी है इसलिये "प्रभूतविभव" है।
१७१. अब जन्मरहित है, इसलिये "अभव" है।
१७२. स्वयं समर्थ होनेसे अथवा आपहि खुद आपके स्वामी होनेसे अथवा आपका कोई स्वामी ना होनेसे आपको "स्वयंप्रभु" भि कहा जाता है।
१७३. केवलज्ञान के द्वारा आप सब आत्माओमे व्याप्त होनेसे अर्थात जो भि जिसकि अंतर मे है, आपके जानने से "प्रभूतात्मा" है।
१७४. समस्त जीवोंके नाथ अथवा स्वामी होने से " भूतनाथ" हो।
१७५. तीनो लोक अर्थात सम्पुर्ण जगत के स्वामी होनेसे आप“जगत्पति” भि कहे जाते है।
सर्वादि: सर्वदृक् सार्व: सर्वज्ञ: सर्वदर्शन:। सर्वात्मा सर्वलोकेश: सर्ववित् सर्व लोकजित्॥९
१७६. आप सब मे प्रथम होनेसे "सर्वादि" है ।
१७७. केवलज्ञान द्वारा लोकालोक सहज हि देखनेसे "सर्वदृक्" है।
१७८. कल्याणकारी हितोपदेश देनेसे "सार्व" है।
१७९. सर्व विश्व का सर्व विषय एक साथ जाननेसे "सर्वज्ञ" है।
१८०. सर्वार्थ से सम्यक दर्शन धारी होनेसे "सर्वदर्शन" है ।
१८१. समस्त जगत के जीवोंके प्रिय रहनेसे "सर्वात्मा" है।
१८२. समस्त लोक अर्थात तीन लोक के स्वामी होनेसे "सर्वलोकेश" है।
१८३. आपको सर्व विद् है, अर्थात ज्ञात है, इसलिये "सर्वविद्" हो।
१८४. तीन लोक को जीतनेसे या अनंतवीर्य होनेसे आपको "सर्वलोकजित्" भि कहा जाता है।
सुगति: सुश्रुत: सुश्रुत सुवाक सुरि र्बहुश्रुत:। विश्रुतो विश्वत: पादो विश्वशिर्ष: शुचिश्रवा:॥१०॥
१८५. आपका ज्ञान प्रशंसनीय है, सुगति देनेवाला है, तथा आपकि अगली गति पंचम गति अर्थात मोक्ष है, इसलिए आपको "सुगति" कहते है।
१८६. आपका ज्ञान अत्युत्तम है तथा आपके बारेमे सबने सुना है, अर्थात आप प्रसिध्द है इसलिये "सुश्रुत:" हो।
१८७. आप समस्त भक्तोंकि भावना अच्छे से सुनते है इसलिये "सुश्रुत्" है।
१८८. आपकी वाणी हितोपदेशी है तथा सप्तभंगरूप होनेसे सम्पुर्ण है इसलिये "सुवाक्" है।
१८९. सबके गुरु होनेसे "सुरि" हो।
१९०. शास्त्रोंमे पारंगत होनेसे "बहुश्रुत" हो।
१९१. आप जगत मे प्रसिध्द है तथा कोई भि शास्त्र मे आपका यथार्थ वर्णन ना पाया जानेसे आप"विश्रुत" हो।
१९२.
१९३. लोक के अग्र मे जाकर आप विराज मान होने वाले है, इसलिये "विश्वशिर्ष" हो।
१९४. आप का ज्ञान निर्दोष है, निर्मल है, शुचित है, इसलिये आपको "शुचिश्रवा" भि कहा जाता है ।
सहस्रशीर्ष: क्षेत्रज्ञ: सहस्राक्ष: सहस्रपात्। भूतभव्य भवद्भर्ता विश्वविद्या महेश्वर:॥११॥
१९५. आप के मानो सहस्र शीर्ष है, अर्थात सहस्र प्रकारके बुध्दीके धारक है इसलिए"सहस्रशीर्ष" हो।
१९६. आप लोकालोक समस्त क्षेत्र के समस्त्र पदार्थोंके समस्त पर्यायोंको जानते है, या आप समस्त क्षेत्रोंमे केवलज्ञान द्वारा व्याप्त है, इसलिये "क्षेत्रज्ञ" है।
१९७. आप मानो सहस्र नेत्रोंसे देख रहे हो, अर्थात आपके दृष्टी अपार, अथाह है, इसलिये "सहस्रदर्शी" है।
१९८. अनंतवीर्य होनेसे आपके बल के बारेमे आपको "सहस्रपात्" भि कहा जाता है।
१९९. वर्तमान, भूत तथा भविष्य तीनो काल के स्वामी तथा तिनो काल के जीवोंके बंधुसमान होनेसे "भूतभव्यभवद्भर्ता" हो।
२००. समस्त विश्वके समस्त श्रेष्ठ विद्याओमें पारंगत होनेसे तथा आपके समान इन विद्याओ मे कोई और पारंगत नही है, इसलिये " विश्वविद्यामहेश्वर" भि आपको हि कहा जाता है, यह नाम आपके अलावा किसी और का हो हि नही सकता ॥