सबसे पहले सम्यग्दर्श न होगा तो व्यवहार सम्यग्दर्श न होगा
जैन आचार्य क्या कह रहे हैं? अगर आपको सबसे पहले सम्यग्दर्श न होगा तो व्यवहा र सम्यग्दर्श न होगा। नि श्चय पहले नहीं होता। कान खोल कर सुन लेना, कि ताब में पढ़ा हुआ है, तो उसको underline कर लेना और नहीं लि खा हुआ हो तो copy में लि ख लेना। जिन कि ताबों में यह लि खा है कि नि श्चय पहले होता है, व्यवहा र बाद में होता है, तो उन कि ताबों को पढ़ना बन्द कर देना। सुन रहे हो? सबसे पहले व्यवहा र सम्यग्दर्श न। इन्द्रभूति को भी हुआ, सबसे पहले तो यह ी प्रश्न पूछा गया और यह ी हुआ। त्रै काल्यं द्रव्य-षट्कं ्कं , पहले यह बताओ कि तीन काल कौन से है? समझ आ रहा ? उसने तो वे सुन रखे थे त्रा ता, योग, त्रेपर, द्वा पर, सतयुग, कलयुग, ये तीन कहा ँ से आ गए? और छ: द्रव्य, द्रव्य तो एक ही है, ‘एकं सत् द्वि तीयो नास्ति, एकं ब्रह्मा द्वि तीयो नास्ति’, यह सुन रखा था उसने। बस! एक ब्रह्मा के अलावा कुछ है ही नहीं दुनिया में। छ: चीजें कहा ँ से आ गई? जब उसके सामने प्रश्न उठा तब उसके दिमाग में आया कि कहीं कुछ है, जो अभी हमारे ज्ञा न में नहीं है। जब वह समवशरण में गया और उसने भगवा न के दर्श न कि ए तो उसके अन्दर अपने आप यह ज्ञा न आ गया कि हमें पहले भगवा न को यथा र्थ रूप में स्वी कार कर लेना है। यह माया नहीं है, जो हमें अब दिखाई दे रही है। समझ आ रहा है न? अभी तक संसार माया थी लेकि न उसी संसार में समवशरण है। अब यह समवशरण माया नहीं है। अगर उसके लिय े समवशरण भी माया दिखाई देगा तो सम्यग्दर्श न नहीं होगा। जब उसने देख लिया कि यह माया नहीं है, यह यथा र्थ है। जिनबि म्ब को देखने से उसको पहले जो सम्यग्दर्श न हुआ, उसको आचार्य कहते हैं- उपशम सम्यग्दर्श न। वह सबसे पहले होता है तो इन्हीं छ: द्रव्यों पर विश्वा स करने से होता है और वह छ: द्रव्यों का विश्वा स इसी रूप में आ जाता है कि नहीं! यहा ँ पर जीव द्रव्य भी है, अजीव द्रव्य भी है। यहा ँ पर पुद्गल भी है, धर्म , अधर्म , आकाश, काल सब हैं। इन द्रव्यों पर विश्वा स करो माने दुनिया पर विश्वा स करो पहले। अपनी आत्मा का विश्वा स बाद में करना और दुनिया के विश्वा स करने का नाम ही व्यवहा र सम्यग्दर्श न है। व्यवहा र क्योंकि पर के आश्रि त है, तो हमने पर का आश्रय लिया न। सबसे पहले छ: द्रव्यों पर विश्वा स करने से सम्यग्दर्श न होगा। आत्म द्रव्य पर विश्वा स करने से नहीं होगा। हा ँ! जिन ग्र न्थों में आत्म द्रव्य की विश्वा स की बात है, वह तब की है जब पहले आपने छ: द्रव्यों पर कर लिया हो। उसके बाद में उनको पढ़ना। हा ँ! अब आत्म द्रव्य पर विश्वा स करो, अब आत्म तत्व पर विश्वा स करो। पहले कि स पर करना? पहले छ: द्रव्यों पर विश्वा स करो, पहले दुनिया की बात पर विश्वा स करो। आज तक तुम दुनिया में घूम रहे हो, पर्याय मूढ़ होकर घूम रहे हो। द्रव्य तुमने जाना कहा ँ? हा ँ! पर्याय को ही पकड़ते रहे, पर्याय को ही जानते रहे, पर्याय से ही अपना सब कुछ लेन-देन करते रहे। तुमने द्रव्य जाना ही कहा ँ? एकदम से ज्ञा न हुआ हमें सम्यग्दर्श न होना चाहि ए। सम्यग्दर्श न होते ही तुम्हा रे अन्दर भाव आ गया कि पहले मुझे आत्म दर्श न हो जाए। अरे! भले आदमी पहले ही तुझे आत्मदर्श न हो गया तो तू सर्वज्ञ पहले ही बन गया । श्रद्धा न तुझे अभी कुछ हुआ नहीं, सर्व दर्शी तू पहले बन गया । आत्मदर्शी माने सर्व दर्शी । जिसे आत्मा का दर्श न हो गया , आत्मा का ज्ञा न हो गया माने केवलज्ञा न हो गया । पहले वह नहीं करो। पहले क्या करो? पहले यथा र्थ को समझो। आँख खोलकर जो हम दुनिया देख रहे है न, इसका पहले अस्तित्व स्वी कार करो। इसका अस्तित्व एक रूप के साथ है कि अन्य रूपों के साथ है। एक रूप है कि छह द्रव्यों के रूप में है। इस पहले अस्तित्व को यथा र्थ मानो। पहले संसार का सही विश्वा स करो। इसका नाम है व्यवहा र सम्यग्दर्श न और यह व्यवहा र सम्यग्दर्श न गलत नहीं होता है। जो हमें उपशम सम्यग्दर्श न छह द्रव्यों के श्रद्धा न से प्राप्त होगा इसी का नाम व्यवहा र सम्यग्दर्श न कहा जाता है। यह व्यवहा र क्यों है? क्योंकि पर के आश्रि त है, पर यानि क्या ? संसार पर है, छ: द्रव्य हमारा स्व भाव थोड़े ही न है। पुद्गल द्रव्य को पुद्गल द्रव्य मानना, धर्म द्रव्य को धर्म मानना, आकाश को आकाश मानना, काल को काल मानना, हम पर द्रव्य को मान रहे है न। अतः पर द्रव्य के श्रद्धा न के साथ में जो हमारा श्रद्धा न जुड़ा हुआ है, जो समीचीन बन गया है, हमारा श्रद्धा न, अभी तक तो हमने क्या माना था ? दुनिया भ्रम है, माया है। उधर बौद्धों की तरफ चले जाओ ‘सर्व म् क्ष णिकं’- सब कुछ क्षणि क है, सब कुछ क्षणि क है। इधर वेदों की तरफ चले जाओ तो सब ब्रह्म है, सब ब्रह्म है, सब ब्रह्म है और बौद्धों में चले जाओ तो सब क्षणि क है, सब क्षणि क है, सब क्षणि क है। बस इसी में घूमते रहे आप अभी तक। समझ आ रहा न? अब क्या पकड़ना, अब क्या समझना? कुछ क्षणि क है, कुछ ब्रह्म है। दोनों चीजें पकड़ो। समझ आ रहा है? जो क्षणि क है उसको क्षणि क की दृष्टि से देखो। जो सत् है, जो ब्रह्म स्व रूप है, उसको ब्रह्म की दृष्टि से देखो। सब कुछ ब्रह्म स्व रूप नहीं है। अगर सब कुछ ब्रह्म हो जाएगा तो फिर यह कि ताब भी ब्रह्म हो जाएगी, यह कपड़ा भी ब्रह्म हो जाएगा। समझ आ रहा है? ब्रह्म तो चेतना का ही परि णाम है। अजीव द्रव्य को हम ब्रह्म कैसे कह सकते है? अगर हमने सब कुछ ब्रह्म कह दिया तो अजीव द्रव्य भी ब्रह्म हो गया न। फिर तो अजीव और जीव में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। हम अजीव को खा रहे हैं कि जीव को खा रहे हैं। कभी हम यह difference ही नहीं कर सकेंगे। अजीव का भोग कर रहे हैं या जीव का भोग कर रहे हैं। अजीव और जीव के बीच का अन्तर तभी ज्ञा न में आता है जब हम छः द्रव्यों का ज्ञा न करते हैं। इसलि ए सबसे पहले तीर्थं करों ने कहा कि जिस कि सी भी जीव को सम्यग्दर्श न होगा तो वह उसका सबसे पहला व्यवहा र सम्यग्दर्श न होगा। क्यों होगा? क्योंकि एकदम उसका आत्म द्रव्य पर श्रद्धा न नहीं बनेगा। पहले तो उसे श्रद्धा न कहा ँ करना पड़ेगा? जो मैं बता रहा हूँ। तीर्थं कर भगवा न ने पहले छः द्रव्य का व्याख्या न किया है, सात तत्व का व्याख्या न किया है, आत्म तत्व का बाद में। पहले ये जो बाह र की चीजें हैं, पहले वह नि श्चि त कर लो। ये सब हो जाएगा, उसके बाद में अब क्या करना? अब चलो अपनी आत्मा की ओर तब चलो नि श्चय सम्यग्दर्श न की ओर। पहले ही नि श्चय हो गया तो फिर व्यवहा र की जरूरत ही क्या है? नि श्चय में जो केवल अपने आत्म आश्रि त है, स्व द्रव्य के आश्रि त है, वो नि श्चय कहलाता है और जो पर द्रव्य के आश्रि त है वह व्यवहा र कहलाता है। यह आचार्यों की परि भाषा है।
कोई भी व्यवहार अगर झूठा है, तो निश्चय झूठा हो जायेगा
जो श्रद्धा हमारी पर द्रव्यों के आश्रि त है, वह सारी की सारी श्रद्धा अभी यथा र्थ है क्योंकि वह तीर्थं करों के द्वा रा कही हुई वा णी पर विश्वा स करके बनी है। इसलि ए भगवा न की वा णी पर विश्वा स करके जो हमारे अन्दर सम्यग्दर्श न होता है, वह व्यवहा र सम्यग्दर्श न यथा र्थ होता है। कुछ लोग इस व्यवहा र को झूठ बोलते हैं, यह सबसे बड़ा झूठ है। समझ आ रहा है? कुछ लोग व्यवहा र सम्यग्दर्श न को झूठा कहते हैं, अभूतार्थ है, अयथा र्थ है, असत्य है ऐसे शब्दों से नकारते हैं। उन्हें ज्ञा न ही नहीं होता कि व्यवहा र झूठा हो ही कैसे सकता है? कोई भी व्यवहा र झूठा नहीं। व्यवहा र झूठा हो जाएगा तो झूठे से कभी भी सत्य की ओर हम जा ही नहीं सकते। व्यवहा र झूठा हो जाएगा तो नि श्चय भी झूठा हो जाएगा क्योंकि हमें उसी व्यवहा र से नि श्चय को प्राप्त करना है। क्या समझ आ रहा ? संसार अगर झूठा हो गया तो मोक्ष भी झूठा हो गया । बंधन अगर झूठा है, तो फिर मुक्ति भी झूठी है। व्यवहा र अगर झूठा है, तो नि श्चय भी झूठा है। सब कुछ झूठा हो जाएगा। फिर एक और उड़ जाएँगे, फिर सफेद भी नहीं रहेंगे, सब उड़ जाएँगे। कहीं-कहीं, वह ीं-वह ीं पर घुमाते रहते हो महा राज। वह ी सत्, वह ी द्रव्य और कि तने दिन से सब चल रहा है। यथा र्थ को समझने के लि ए कि तना ही हम उसको समझने की कोशि श करें लेकि न जब हम उस चीज का यथा र्थ समझ लेंगे तभी हमें समझ आएगा और उससे पहले हमें वह घूमना जैसा ही लगेगा। यह ध्या न में रखो। इन छः द्रव्यों के अस्तित्व को स्वी कार करना, संसार के द्रव्यों का अस्तित्व को स्वी कार करना, यह हमारे सम्यग्दर्श न का कारण है। तभी जिनवा णी को पढ़ने से सम्यग्दर्श न होगा। प्रवचनसार में यह जो chapter चल रहा है, ज्ञेय तत्व अधि कार का, ज्ञेय की जरूरत क्या है इतना जानने की? ज्ञा न ही ज्ञा न की बात करते, आत्मा ही आत्मा की बात करते, आचार्य कुन्दकुन्द देव जैसे महा न आचार्य, आध्यात्मि क आचार्य जब से और ज्ञेय ों के पीछे पड़े हैं। सुनते-सुनते थक गए हैं, द्रव्य, गुण, पर्याय , वह ी सत्, वह ी असत् हैं। केवल आत्म तत्त्व की बात करते, उन्हें भी सब मालूम है और वह भी यह ी चाह रहे हैं कि आप भी सब कुछ मालूम करो। आप झुठला कर कि भाई! मुझे तो आत्मा की आराधना करनी है, मुझे मतलब नहीं है ज्ञेय से। समझ आ रहा है न? ऐसे भागने वा लों को मोक्ष नहीं मि लता। यह भी ध्या न रखना। भागो नहीं कि सी चीज से, हर चीज़ को स्वी कार करो। जो है सो है। अब इसको जब नकारोगे तो फिर कैसे काम चलेगा? स्वी कार करो। जो जिस रूप में है, उसको उसी रूप में स्वी कार करने का नाम यथा र्थ ज्ञा न इसलि ए कहा गया है। सम्यग्ज्ञा न की कोई परि भाषा नहीं है। सम्यग्ज्ञा न की परि भाषा यह ी है कि ‘यथार्थ परिगमनम्’। मतलब यथा र्थ का ज्ञा न करना बस, इसी का नाम सम्यग्ज्ञा न ज्ञा न है। यथा र्थ क्या है? केवल तुम्हा री आत्मा ही यथा र्थ है, बस? एकदम से हमको अपना कुछ भान हो गया , भाई! हमको तो बस आत्मा का ज्ञा न करना, बस आत्मा ही आत्मा की चर्चा करो, आत्मा ही आत्मा बताओ बस, वो ही यथा र्थ है बाकी सब अयथा र्थ। ऐसा सोचने वा ला भी कभी व्यवहा र सम्यग्दर्श न के लाय क नहीं होगा, नि श्चय की तो बात बहुत दूर की। जब तुझे संसार की वस्तु व्यवस्था ही नहीं मालूम तो तू ध्या न कि स का करेगा?
धर्म ध्या न की उपयोगि ता
अरे! धर्म ध्या न में भी यह ी चिन्तन करना पड़ता है। सबसे पहले धर्म ध्या न का लक्ष ण ‘आज्ञा वि चय’ धर्म ध्या न कहा है और सीधे लोग शुक्ल ध्या न की बातें करते हैं। समझ आ रहा है न? सीधा शुद्धो पयोग होता है। हा ँ! अभी शुभोपयोग के तो लक्ष ण नहीं आए और शुद्धो पयोग की बातें करते है। पहला धर्म ध्या न कि सको कहा है? आज्ञा वि चय धर्म ध्या न। सम्यग्दृष्टि जीव को धर्म ध्या न होता है, तो सबसे पहले कौन-सा होगा? आत्मा का नहीं होता, सबसे पहले आज्ञा -विचय धर्म ध्या न होगा। आज्ञा माने भगवा न जो कह रहे हैं पहले उनकी सुन, उनकी बात को श्रद्धा में लाओ तब धर्म -ध्या न की बातें करना। सीधा-सीधा आत्मा , शुद्धो पयोग, शुद्ध ध्या न, शुद्धो पयोग के बि ना तो कही संसार में कुछ है ही नहीं। सब बंध है, शुभ-अशुभ भाव तो संसार में हमने अनन्त बार कर लि ए हैं। इन सब बातों से कुछ होना नहीं है। तू अपना यथा र्थ देख, कहा ँ stand कर रहा
ह ै। तेरा level क्या है? पहले तू यह तो देख आज ही तेरी आँखें खुली। अभी तक विषया न्ध बना था , अंधकूप में पड़ा था , मोह में पड़ा था और अभी भी पड़ा हुआ है। थोड़े से शास्त्र पढ़ लि ए तो तू अपने आपको सम्यग्दृष्टि समझने लगा। शुद्धो पयोग से नीचे बात ही नहीं होती है। अभी तो आज्ञा विचय धर्म -ध्या न भी करना नहीं आ रहा । आज्ञा विचय का मतलब क्या है? जो भगवा न ने आज्ञा दी है। आज्ञा माने ये छः द्रव्य उन्हों ने अपनी देशना में बताए हैं- इसका नाम आज्ञा है। इसका विचय माने चिन्तन कर, इसी से धर्म ध्या न होगा। आत्मा के चिन्तन से धर्म -ध्या न नहीं हो रहा । छः द्रव्यों का चिन्तन कर पहले। यह तीर्थं करों की आज्ञा है, यह आचार्यों की आज्ञा है। समझ आ रहा है? हमारी आज्ञा नहीं है, मैं तो उनकी भाषा में बोल रहा हूँ। मैं कौन होता हूँ आज्ञा देने वा ला। मुझे जो आज्ञा मि ली है, वह आपके लि ए प्रेषि त कर रहा हूँ। हा ँ! मैं जो यह language बोल रहा हूँ न ‘कर’ मतलब मैं जो आज्ञावा ची बोल रहा हूँ-- यह कर, वह मुझे ऐसे सि खाया गया है। ज्या दा की कोई बात नहीं है लेकि न समझने की बात यह है कि व्यक्ति का भ्रम कि तना बढ़ता जा रहा है। संसार को भी यथा र्थ स्व रूप में समझना नहीं चाह ता और समझ कर भी उसे बिल्कु बिल्कु ल नकारता है। उसकी कोई उपयोगि ता नहीं समझना चाह ता। धर्म -ध्या न में उसकी कोई उपयोगि ता ही समझना नहीं चाह ता। थोड़ा-सा भी ज्ञा न होता है, तो आत्मा -आत्मा दिखने लग जाती है। आत्मा के नीचे कुछ उसको कि सी चीज में interest नहीं आता। अरे भाई! सब चीज को स्वी कार कर, सब चीज का श्रद्धा न कर। नहीं! वह तो मैंने कर लिया । अरे भाई! कैसे कर लिया ? जब तक तूने उसको गुना नहीं, जब तक तूने उसे माना नहीं, जब तक तूने उसको अपने अस्तित्व में स्वी कार किया नहीं तो कैसे कर लिया ? अरे! उससे क्या होना है, काम तो आखि र अपना आत्म तत्त्व ही आना है। इसलि ए आप देख लो पंचास्तिकाय में लि खा है- सब द्रव्य हेय है, आत्म तत्त्व उपादेय है। बस! फिर उसने एक नई चीज और पढ़ ली। अरे भाई! ये सब हेय उपादेय हमें भी मालूम है लेकि न तेरे लि ए सबसे पहले अगर धर्म -ध्या न होगा तो इसी base पर होगा। ज्ञेय तत्वों का पहले सही ढंग से ज्ञा न कर क्योंकि ज्ञेय में तू भी एक ज्ञेय है। जब तुझको सब ज्ञेय सही ढंग से आने लगेंगे तो अपना ज्ञेय भी उसी में आएगा न। जैसे- हमने कहा हे! भगवा न्! सबका कल्या ण हो तो सबका हो। हमारा भी तो हो जाएगा उसी में कि मैं रह जाऊँगा। सबका कल्या ण हो तो मेरा भी हो जाय ेगा। अगर सब ज्ञेय को जान लेगा तो अपने आप को भी जान लेगा। मैं भी एक ज्ञेय हूँ। जैसे हम दूसरे के लि ए जान रहे हैं, दूसरा हमारे लि ए ज्ञेय है वैसे ही मैं भी अपने लि ए ज्ञेय हूँ, दूसरे के लि ए भी ज्ञेय हूँ। ज्ञेय को जाने बि ना ज्ञा ता का ज्ञा न कैसे होगा? छ: द्रव्यों का आज यह व्यक्ति चिन्तन करता ही नहीं। आज्ञा विचय धर्म ध्या न जिन्दगी में कभी किया ही नहीं और अपने को सम्यग्दृष्टि की हूँके मारता फिरता है। शुद्धो पयोग से नीचे बात ही नहीं करता है। कहा ँ से हो जाय ेगा शुद्धो पयोग पहले? शुभोपयोग की सीढ़ी पर तो आया नहीं और शुद्धो पयोग हो गया है। ये छः द्रव्यों का श्रद्धा न, ज्ञा न होने पर ही जब तुझे लगेगा कि अब इन छः द्रव्यों के अस्तित्व के बीच में मुझे अपना ही अस्तित्व केवल ग्रह ण करने योग्य रह गया है क्योंकि मैंने सबका अस्तित्व देख लिया तो क्या मतलब हुआ? तूने सबका अस्तित्व स्वी कार कर लिया , माया नहीं स्वी कार की, सबकी reality स्वी कार की।
भ्रम हमारे अन्दर है, संसार में नहीं
“This world is also real world” मतलब ये कोई artifical चीज नहीं है, संसार कोई illusion नहीं है। illusion हमारा एक कर्म है, illusion हमारी आत्मा में है। संसार को illusion नहीं कहना चाहि ए कि माया जो है, भ्रम जो है, ये सब संसार है। भ्रम हमारे अन्दर है, संसार में भ्रम नहीं हैं। हमारे अन्दर का भ्रम छूटेगा तो तुझे संसार भी भ्रम नहीं लगेगा। संसार, संसार है, जो है सो है। जब तुझे यथा र्थ सब कुछ समझ में आ जाय ेगा तो जो जैसा है उसको वैसा स्वी कार कर लेगा। तुझे कहीं भागने की जरूरत नहीं है। कहीं भी रह जाए, कहीं भी बैठ जाए, वह ीं तेरी आत्मा तेरे साथ है। भाग करके कहीं पर जाना, यह भ्रम के कारण से हो सकता है। लेकि न कभी भी यथा र्थ को पाने के लि ए कुछ भी भागने की जरूरत नहीं पड़ती है। इसलि ए जो व्यक्ति सम्यग्ज्ञा नी हो जाता है वह कहीं पर भी अपने लि ए अपनी आत्मा का ज्ञा न और संसार का ज्ञा न यथा र्थ बनाए रखता है। उसे कि सी भी स्था न के लिय े कोई भी ऐसी निया मकता नहीं होती कि मुझे इसी स्था न पर आत्मा का ज्ञा न होगा और इसी स्था न पर मुझे आत्मा का ध्या न होगा। कहीं नहीं गई आत्मा , कहीं नहीं गया संसार। तू संसार में है और तेरा भी अस्तित्व है, बस! वह ीं जहा ँ अस्तित्व है, वह ीं अपने अस्तित्व को पहचान। भागने की कहीं कोई जरूरत नहीं है, जागने की जरूरत है। क्या समझ आ रहा है? कि सकी जरूरत है? बस!, जहा ँ लेटा पड़ा है न, वह ीं से उठ कर बैठ जा। हा ँ! जहा ँ सोया पड़ा है, वह ीं जाग जा। जहा ँ भ्रम में खोया है, वह ीं से नींद भगा दे। सब कुछ तुझे वह ीं दिखेगा। छः द्रव्यों का पहले चिन्तन करो। आज्ञा विचय धर्म -ध्या न करना है, सबसे पहले धर्म -ध्या न की शुरुआत करना है। क्या कहा है? हा ँ! छः द्रव्यों का चिन्तन।
मोक्ष किसका नाम है? जीव और कर्म का अत्य न्त वि श्लेष हो जाना
भगवा न ऋषभदेव ने भी यह ी कहा है:- ‘जीवमजीवं दव्वं , जि णवरवसहे हेण जेण णिद्दिट्ठं िद्दिट्ठं’ हा ँ! यह ी तो कहा है। दो द्रव्य हम मान नहीं पा रहे हैं, जो कुछ है बस, एक ही एक है। द्रव्य कि तने है? छः हैं। छह तो और classified करके हो जाते हैं लेकि न मूल रूप में कम से कम दो तो मानो। वह दो भी नहीं मान रहा । ‘एको ब्रह्मा , द्विति यो नास्ति’ के अलावा तीसरी कोई बात ही नहीं। ब्रह्मा ही ब्रह्मा है सब जगह। इसलि ए कहा है कि दो द्रव्य मानो। एक जीव द्रव्य है, एक अजीव द्रव्य और ये द्रव्य जबरदस्ती नहीं हैं। आप अपने conscious से खुद सोचो। खुद आपको यह सब देखने में आएगा। जीव, अजीव के अलावा और दिख क्या रहा है? कहा ँ ब्रह्मा दिख रहा है? जीव और अजीव के अलावा हमें दुनिया मे दिखता ही क्या है। जिसमें चेतना है, ज्ञा न दर्श न है, वह जीव है। जिसमें नहीं है, वह अजीव है। कुछ नई बात तो है नहीं, न थोपने की बात है, न जबरदस्ती की बात है। बिल्कु बिल्कु ल यथा र्थ है। अब इसी का नाम संसार है। जो जीव और अजीव दो द्रव्य से मि लकर बना है तो संसार हो गया । संसार से मोक्ष जाना है, तो क्या करना है? जीव में जो अजीव घुस गया है, उसको नि काल देना है। जीव, जीव pure रह जाएगा ‘that is moksha, salvation’। हो गया सब solve। Salvation मतलब सब solve हो गया । बहुत simple ही तो है। स्वी कार करोगे तो सब simple है और नहीं स्वी कार करो तो कुछ भी simple नहीं है। आखि र और क्या है? अब भ्रम है, तो भ्रम कहा ँ है? हमारे कर् मों के कारण से हमारी आत्मा में भ्रम आ रहा न। कर्म क्या हो गया ? अजीव हो गया । जीव में जो अजीव घुस कर बैठा है न, उसने सब मटिया मेट कर रखा है। उसने जीव को जीव नहीं मान कर रखा, उसने जीव को बिल्कु बिल्कु ल भ्रम में डाल कर रखा। जीव को अनेक मान्यताओं में डाल कर रखा। कि सने? जो हमारा कर्म है। वह कर्म भी क्या है? वह अजीव द्रव्य ही है, वह पौद्गलि क कर्म है, पुद्गल की ही परि णति है। पुद्गल परमाणुओं के, कर्म परमाणुओं के सम्बन्ध से उस आत्मा में ऐसा एक bondage हो गया कि अब उसी को हटाने का नाम मोक्ष है और क्या है? संसार को हटाने का नाम मोक्ष थोड़ा न है। यह परि भाषा कहीं भी लि खी हो तो दिखा दो। है ही नहीं। न संसार से भागने का नाम मोक्ष है, न संसार को अपने से हटाने का नाम मोक्ष है। मोक्ष कि सका नाम है? जीव और कर्म का अत्यन्त विश्लेष हो जाना, अत्यन्त पृथक हो जाना, इस का नाम मोक्ष है। जीव से कर् मों को पृथक करो। बस!, मोक्ष हो गया और क्या है? इस theory को हम जान ही नहीं पाते हैं और फिर बीच में नए-नए भ्रम ले आते हैं।
धर्म
ध्या न के लिए छः द्रव्यों पर श्र द्धा न होना आवश्यक
अब कर्म को कर्म नहीं मानोगे तो कैसे तुम्हा रा श्रद्धा न बनेगा कि छह द्रव्यों में तुम्हें श्रद्धा न है और आत्म द्रव्य पर कैसे श्रद्धा न बन जाय ेगा? जब तक तुम कर्म को नहीं मानोगे कि मेरी आत्मा में कर्म घुसा हुआ है, उसी के कारण से ये सब हमारे अन्दर मि थ्या त्व, प्रमाद, अविरति , कषाय , योग मि थ्या भाव चल रहे हैं। जब तक आपको यह ज्ञा न नहीं होगा तो कहा ँ से इन सब चीजों का, आत्मा का ध्या न कैसे कर लोगे? आत्मा की बातें कर सकते हो, ध्या न तो कहीं से कहीं तक हमें नहीं लगता कि हो रहा है। उस ध्या न को धर्म -ध्या न कहना भी मुश् किल हो जाएगा अगर आपका छह द्रव्य के चिन्तन में मन नहीं लगता, भगवा न की कही हुई वा णी में आपका मन नहीं लग रहा । नहीं समझ आ रहा ? छः द्रव्य भगवा न ने कहे तो भगवा न की वा णी चिन्तन के योग्य है कि नहीं, मानने के योग्य है कि नहीं है जिस पर सम्यग्दर्श न टिका हुआ है। आचार्यकुन्दकुन्द देव कहते हैं:- ‘छ दव्व णव पयत्थ सद्दयहणं होई सम्मतं’ अष्ट पाहुड़ में लि खा हुआ है। छः द्रव्यों और नौ पदार्थों पर श्रद्धा न करने का नाम ही सम्यग्दर्श न है। छह द्रव्यों पर श्रद्धा न किया नहीं, नौ पदार्थों पर श्रद्धा न होता नहीं, सीधा आत्म द्रव्य के नीचे कुछ दिखता नहीं तो तुम्हा रे लि ए र्श न कहा ँ से हो जाएगा। अरे भाई! सम्यग्दर्श न ही कराने की ही बात बता रहा हूँ। वह सम्यग्दर्श न करने के लि ए भी अगर ध्या न करना है, तो आत्मा का ध्या न नहीं करना, धर्म ध्या न करना है। छः द्रव्यों का ध्या न करने से ही सम्यग्दर्श न होगा। कि सी भी जीव को इस संसार में आत्मा का पहले ध्या न करने से कुछ नहीं हो रहा । बात आपको उल्टी भी लग सकती है, कठोर भी लग सकती है लेकि न यथा र्थ बोल रहा हूँ। आपने ऐसा अभी तक कभी नहीं सुना होगा। सब क्या कहते हैं? आत्मा का ध्या न करो। सबसे पहले धर्म -ध्या न होगा तो छः द्रव्यों के ध्या न से ही होगा। पहले छः द्रव्यों का ध्या न करो। उसमें क्या ध्या न करना? जैसा भगवा न ने कहा कि छः द्रव्यों का जो स्व रूप है उसी का ध्या न करो, उसी का चिन्तन करो। उसमें मन नहीं लगता तो कि स में मन लगता है तेरा? कभी तेरा आत्मा में मन लग ही नहीं सकता। इसका मतलब है, तेरा मन उखड़ा हुआ है। मन तेरा केवल बातों में लगता है, ऊँची-ऊँची बातों में लगता है। इसका मतलब यह नि कलता है कि कुछ भी करने में तुम्हा रा मन नहीं लगता। अरे! बैठ न। क्या चिन्तन करना? छः द्रव्यों में क्या चिन्तन करने लाय क है? ठीक है! धर्म द्रव्य है, अधर्म द्रव्य है। देख! ऐसे नहीं बोलना, नहीं तो पि टाई कर दूँगा। मतलब आचार्य उसको ऐसे ही समझाते हैं कि ऐसे नहीं बोलना मतलब मुँह बि गाड़ कर मत बोल। धर्म द्रव्य को धर्म द्रव्य स्वी कार कर, अधर्म द्रव्य को अधर्म द्रव्य स्वी कार कर। मुँह बि गाड़ कर नहीं, यथा र्थ स्वी कार कर पहले। मुँह बि गाड़ कर स्वी कार करेगा तो श्रद्धा नहीं कहलाएगी। जिनवा णी का अपमान कहलाय ेगा। क्या सुन रहे हो? मैं आपको ऐसे बता रहा हूँ जैसे आज सम्यग्दर्श न करा कर ही उठूँगा। ऐसे ही होता है, समझ आ रहा न? मेरा मन ऐसा ही करता है इसलि ए इस मन को सम्भा लो। इतने बड़े-बड़े भ्रम हम छोड़कर कर आते हैं और यहा ँ आकर फिर जैनी बन कर हम भ्रम में पड़ जाते हैं। यह फिर और भ्रम देने वा ली बात है जो मैं आपको बता रहा हूँ और सब इसी प्रकार के भ्रम में पड़े हैं। क्या चिन्तन करना? धर्म द्रव्य है और हमें मालूम है यह गति में सहाय क होता है, अधर्म द्रव्य स्थिति में सहाय क होता है। आकाश तो सब फैला हुआ है। कोरा आकाश द्रव्य ही तो खाली है। काल है सो उसके अनुसार सबका परि णमन होता रहता है। आदमी बोलता है कि बैठे-बैठे इसमें क्या चिन्तन करना। इसका मतलब है कि तुझे अभी इन छः द्रव्यों का भी कोई सही ज्ञा न नहीं है, कोई रुचि छः द्रव्यों में अभी नहीं है और जब रुचि नहीं है, तो श्रद्धा नहीं है। माने छः द्रव्यों की श्रद्धा नहीं हुई तो तुझे कभी आत्म द्रव्य की श्रद्धा भी हो नहीं सकती और जो कुछ करेगा सब तेरा भ्रम में जाय ेगा, तू ध्या न रखना। धर्म -ध्या न हो ही नहीं सकता।
आज्ञा -वि चय धर्म -ध्या न- पहला धर्म -ध्या न
सबसे पहला धर्म -ध्या न बताया - आज्ञा -विचय धर्म -ध्या न। कोई भी सिद्धा न्त ग्रन्थ खोल कर देख लो। आचार्य कुन्दकुन्द से भी पहले गणधर परमेष्ठि हुए, उन्हों ने भी ‘धम्मज्झा णं दसविह ं’ दस प्रकार के धर्म -ध्या न कहे। सबसे पहला धर्म -ध्या न- आज्ञा विचय धर्म -ध्या न कहा है। अगर धर्म -ध्या न पर आना चाह ते हो तो सबसे पहला आज्ञा विचय धर्म -ध्या न और जिस शुद्धो पयोग की बातें करते हो वह शुक्ल ध्या न है जो वर्त मान में होता नहीं। केवल बातों में ही खोना चाह ते हो तो तुम्हा री मर् जी लेकि न कुछ करना चाह ते हो तो धर्म -ध्या न करना सीखो। छः द्रव्यों का चिन्तन करना सीखो। जैसे बने वैसे करो। ज्ञा न में नहीं आता तो अब खोजो। यह इतना बड़ा प्रवचनसार कि सलि ए लि खा है, खोजो। ये द्रव्य, गुण, पर्याय का चिन्तन करो। छः द्रव्यों का, पंचास्तिकाय का वर्ण न क्यों किया ? एक लाइन बस पढ़ लेंगे, छः द्रव्यों में सब द्रव्य हेय हैं, एक उपादेय है। जब इतना ही कहना था तो पंचास्तिकाय लि खने की ज़रूरत क्या थी? द्रव्य संग्रह लि खने की ज़रूरत क्या थी? सीधे एक लाइन में बोल देते कि सब द्रव्य हेय हैं, एक उपादेय है। बस उपादेय की बातें कर रहा हूँ, हेय की बात करना ही क्यों और बताना ही क्यों । एक-एक द्रव्य का, एक-एक पर्याय का, एक-एक गुण का, बि लकुल ऐसा यथा र्थ नि रूपण करने की जरूरत ही क्या थी? यह समझने की कोशि श करो। हम जिनवा णी का अभी भी सत्का र नहीं कर पा रहे हैं, हम अपनी बुद्धि के अहं में अभी भी जिनवा णी का अपमान कर रहे हैं। जिनवा णी का मतलब जिनेन्द्र भगवा न की वा णी। जो छः द्रव्यों के आधार पर हमारा सम्यग्दर्श न टिका है, आचार्य कुन्द-कुन्द देव यूँ ही नहीं कहते अष्ट पाहुड में:- ‘छद्दव्व णवपयत्थं सद्दहणं होई सम्मत्तं ’ पहले छः द्रव्य, नौ पदार् थो का श्रद्धा न करो। इसी श्रद्धा न को अगर उन्हों ने सम्यग्दर्श न कहा है, तो इसलि ए कहा है कि जब तक हम जिनेन्द्र भगवा न के द्वा रा बताए हुए तत्त्व पर, इस पूरे द्रव्य पर विश्वा स नहीं करेंगे, हमारे अन्दर धर्म -ध्या न की परि णती है, उसकी शुरुआत भी नहीं होगी। शुक्ल ध्या न तो ख्वा ब देखने की बातें
ह ैं। क्या करना है? धर्म -ध्या न ही करने का मन बना लो, समझ आ रहा है न? शुक्ल ध्या न तो शुद्धो पयोग की ही स्थिति है। हम भले ही शुद्धो पयोग, शुद्धो पयोग करते रहें लेकि न शुक्लध्या न जब वर्त मान में नहीं होता तो शुद्धो पयोग भी कुछ नहीं होता। गृहस्थों के तो बिल्कु बिल्कु ल ही नहीं होता। क्या करना? ये द्रव्य, गुण, पर्याय का चिन्तन करना। कैसे करना? जो लि खा है, उसे ही बार-बार पढ़ो, दोहराओ, मन में लाओ, उसके अस्तित्व को स्वी कार करो। हर एक द्रव्य का, हर एक entity जो हमें इस universe में दिखाई दे रही है, ये सत् है, सत् है, existence है इसका। हर चीज का existence है, हमारी स्वी कृति में यह आएगा तो फिर हमारे अन्दर जो अग्रह ीत मि थ्या त्व पड़ा हुआ है कि यह कि स ने बनाया ? यह कब से बना? यह कि सी के द्वा रा कब बनाया हुआ है? कि सी ने उसकी शुरुआत की है या कि सी ने इसको रचा है, ये सब मि थ्या अहंकार उस समय पर टूट जाएगा। ज्या दा ऊपर से तो नहीं जा रहा ? अतः हमें क्या करना चाहि ए? इस सत् का चिन्तन करना चाहि ए। अब देखो! कि तना सरल है। दुनिया में जो कुछ भी हमें दिखाई दे, बस उसको सत् के रूप में देखो। कल्पना करो दुनिया मे कि तनी greenery है, कि तने plants है, कि तने grass आदि है और इन सब चीजों में अनन्त जीव पड़े हुए हैं। हर जीव का अस्तित्व स्वी कार करो। उस जीव के अलावा पृथ्वी में भी जीव हैं, जल में भी जीव हैं, अग् नि में भी जीव हैं, वाय ु में भी जीव हैं। उसके अलावा जो चीजें हमें दिखाई देती हैं- लकड़ी, फर्नी चर, घर, मकान, इन सब को अजीव द्रव्य के रूप में इनको स्वी कार करो। ये सब पुद्गल हैं, इनका भी अस्तित्व है। एक-एक अणु इसका अस्तित्व है, सत् है, सत् है। कुछ भी यहा ँ माया , मि थ्या कुछ भी नहीं हैं। संसार माया है!, संसार माया है!, कुछ भी माया नहीं है संसार में, संसार में यथा र्थ है। जैन आचार्य संसार को क्या बोलते हैं? यथा र्थ बोलते हैं। माया तुम्हा रे लि ए है, संसार माया नहीं है। माया तुम्हा रे अन्दर पड़ी है, तो तुम उस माया को नहीं समझने के कारण से संसार को ही अपना मान करके चलते हो और संसार में ही अपने आपको बनाए रखने के लि ए हमेशा दौड़ते रहते हो। इसलि ए कहना पड़ता है कि तुम्हा रे अन्दर की माया जब छूट जाएगी तो तुम्हा रे लि ए समझ में आ जाएगा कि संसार माया है। छोड़ना कि सको है? भीतर का भ्रम छोड़ना, भीतर की माया छोड़ना। संसार में न भ्रम है, न संसार में माया है। संसार तो संसार है ऐसे ही चलता आया है, चलता रहेगा। समझ आ रहा है? इसलि ए आचार्य कहते हैं:- ‘हवदि पुणो अण्णं वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता ’ इसलि ए द्रव्य स्वय ं सत्ता है। सत्ता और द्रव्य दोनो अलग-अलग चीजें नहीं हैं। जो द्रव्य है, वह सत्ता है और जो सत्ता है वह ी द्रव्य है। सत् का भाव - सत्ता । पहले बताया था न, सत् का भाव - सत्ता । जैसे हम बोलते हैं- इयत्ता , नियन्ता तो ‘ता’ जो लग जाता है वह उसके भाव के रूप में लग जाता है। कभी कृत्रि म प्रत्यय में भी ‘ता’ लग जाता है। जैसे- कर्ता तो वह कर्ति र्तिम प्रत्यय हो गया लेकि न जहा ँ पर कई बार- अस्मि ता, अस्मि का भाव उसमें ता लग गया , अस्मि ता। स्वायत्त ता, ये जो ‘ता’ प्रत्यय लगता है, भाव अर्थ में लगता है। इसी सत् में ‘ता’ लगाया तो सत्ता । माने सत् का भाव ही द्रव्य है। माने हर द्रव्य सत् स्व रूप है और उसी द्रव्य के साथ में वह सत् तत्त्व जुड़ा हुआ है। सत् कोई अलग से चीज नहीं हैं। जो सत् है, वह द्रव्य है। जो द्रव्य है, वह सत् है। इसलि ए ‘सद् द्रवयस्य लक्ष णम्’ ऐसा कहा गया है।
होता न द्रव्य यदि सत् मत हो तुम्हा रा, कैसा बने ध्रुव असत् यह द्रव्य प्या रा।
या सत्व से यदि निरा वह द्रव्य होवे, सत्ता स्वयं इसलिए, फि र क्यों न होवे।।
Manish Jain Luhadia
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