09-11-2014, 11:33 AM
श्रुत ज्ञान और उसके भेद
श्रुत ज्ञान-जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि के माध्यम से निकले निरक्षरात्मक (ओंकार रूप ) भाषाओँ /वचनों के आधार पर गांधार देवो द्वारा अंतर्मूर्हत में गुथित ग्रंथों को श्रुत/श्रुत ज्ञान कहते है ! श्रुत के कुल अक्षर १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ माने गए है!इनमें मध्यम पद के १६३४८३०७८८८ अक्षरों के भाग देने से ११२८३५८००५ पद और ८०१०८१७५ अक्षर प्राप्त होते है !श्रुत ज्ञान के;१-द्रव्यश्रुत-अक्षरात्मक द्वादशांग; जिनवाणी द्रव्यश्रुत है और २-भाव श्रुत-जो द्रव्य श्रुत के स्वाध्याय अथवा सुनने से स्वसवेदन /स्वानुभव ज्ञान होता है वह भाव श्रुत है, प्रमुखत: दो भेद है !
श्रुतज्ञान ,के भेद-
अंग प्रविष्ट; -आचारांग आदि बारह अं...गो की रचना उक्त मध्यम पदों द्वारा करी जाती है इसलिए इनकी अंग प्रविष्ट संज्ञा है !और
अंग बाह्य-शेष अक्षर अंगों के बाहर पड़ जाते है इनकी अंग बाह्य संज्ञा है !
अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य श्रुत ज्ञान में क्या अंतर है?
यद्यपि इन बाह्य अंगो और अंग प्रविष्टकी रचना गणधर देव ही करते है तथापि गणधर देव के शिष्यों और पर शिष्यों द्वारा जो शास्त्र रचे जाते है उनका समावेश अंग बाह्य श्रुत में ही होता है अंगप्रविष्ट और बाह्य अंग में यही अंतर है!
सदर्भ-अंग पण्णत्ति आचार्य शुभ चन्द्र -जैनग्रंथस.com पृष्ठ १२
श्रुत ज्ञान-जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि के माध्यम से निकले निरक्षरात्मक (ओंकार रूप ) भाषाओँ /वचनों के आधार पर गांधार देवो द्वारा अंतर्मूर्हत में गुथित ग्रंथों को श्रुत/श्रुत ज्ञान कहते है ! श्रुत के कुल अक्षर १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ माने गए है!इनमें मध्यम पद के १६३४८३०७८८८ अक्षरों के भाग देने से ११२८३५८००५ पद और ८०१०८१७५ अक्षर प्राप्त होते है !श्रुत ज्ञान के;१-द्रव्यश्रुत-अक्षरात्मक द्वादशांग; जिनवाणी द्रव्यश्रुत है और २-भाव श्रुत-जो द्रव्य श्रुत के स्वाध्याय अथवा सुनने से स्वसवेदन /स्वानुभव ज्ञान होता है वह भाव श्रुत है, प्रमुखत: दो भेद है !
श्रुतज्ञान ,के भेद-
अंग प्रविष्ट; -आचारांग आदि बारह अं...गो की रचना उक्त मध्यम पदों द्वारा करी जाती है इसलिए इनकी अंग प्रविष्ट संज्ञा है !और
अंग बाह्य-शेष अक्षर अंगों के बाहर पड़ जाते है इनकी अंग बाह्य संज्ञा है !
अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य श्रुत ज्ञान में क्या अंतर है?
यद्यपि इन बाह्य अंगो और अंग प्रविष्टकी रचना गणधर देव ही करते है तथापि गणधर देव के शिष्यों और पर शिष्यों द्वारा जो शास्त्र रचे जाते है उनका समावेश अंग बाह्य श्रुत में ही होता है अंगप्रविष्ट और बाह्य अंग में यही अंतर है!
सदर्भ-अंग पण्णत्ति आचार्य शुभ चन्द्र -जैनग्रंथस.com पृष्ठ १२