सिद्ध परमेष्ठी के आठ मूल गुण
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सिद्ध परमेष्ठी के आठ मूल गुण -

१-क्षायिकसमयक्त्व:-मोहनीयकर्म के क्षय से परम विशुद्ध उत्कृष्ट समय्ग्दर्शन होना !
२-केवलदर्शन:-दर्शानावरणकर्म के क्षय से अपनी आत्मा को भली भाँती दृष्टा होना!
३-केवलज्ञान:-ज्ञानावरणकर्म के क्षय से,लोक मे समस्त वस्तुओं की अनंतानंत पर्यायों के अक्रमवत युगपत प्रति समय दृष्टा/ज्ञाता होना !अर्थात उनके पूर्व,वर्तमान और भविष्य के स्वरुप स्वरुप,तीनो को प्रतिसमय युगपत जानना !
४-अगुरुलघु-गोत्रकर्म के क्षय से, कोई छोटा/बड़ा नही होना! अर्थात सामान पदवी धारी होना!
५-अव्गाहनत्व-आयुकर्म के क्षय से,एक सिद्ध में अनेको सिद्ध का प्रवेश होना!मुनि महाराज ठीक ऊपर लोकांत मे सिद्ध होकर विराजमान होते है!इसी स्थान से कुछ समय बाद यदि कोई मुनि राज सिद्ध होते है तो उनकी आत्मा भी पहले सिद्ध भगवान् की आत्मा में प्रवेश कर जायेगी!दूसरी आत्मा के मार्ग मे पहली आत्मा शुद्ध होने के कारण कोई रूकावट नहीं डालती है!यह गुण अव्गाहंत्व कहलाता है!
६-सूक्षमत्व-नामकर्म के क्षय से किसी को दिखाई नहीं पड़ना!
७-अनंत वीर्य-अन्तरायकर्म के क्षय से अनंतशक्ति वाले होना!
८-अनंतसुख -उनके सुख में असाता वेदनीय कर्म के अभाव में बाधा नही आना!
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