02-18-2015, 07:15 AM
निर्विकार शुद्धसंवेदन रूप परिणमन निश्चयश्रुत है!मूलाचार,भगवती अराधना आदि द्रव्यश्रुत,तथा उसके स्वाध्याय से उत्पन्न हुआ विकार रहित निज शुद्ध आत्मा के जानने रुप ज्ञान का धारक भावश्रुत है।सर्वज्ञ हितोपदेशी अरहंत भगवान जो दिव्य ध्वनि के माध्यम से उपदेश करते हैं उसे ही जिनवाणी, श्रुतज्ञान कहते हैं। जिनवाणी जो शब्दात्मक है वह पौद्गलिक है। इसलिए उसे द्रव्यश्रुत कहते हैं। उस द्रव्यश्रुत के माध्यम से जो दूसरों को ज्ञान होता है उसे भावश्रुत कहते हैं अथवा भावश्रुत चैतन्यस्वरूप है क्योंकि उस द्रव्यश्रुत के माध्यम से ज्ञान ही जानता है, क्योंकि ज्ञान गुण में ही स्व- पर प्रकाशक, स्व-पर वेदक अनुभव करने की शक्ति है। अन्य किसी भी गुण में यह शक्ति नहीं है। इसीलिए आत्मलीन होकर निर्विकल्प समाधि में जो स्वयं को जानता है वह भावश्रुत केवली है, अन्य सब द्रव्य श्रुत केवली हैं।