03-16-2016, 11:14 AM
उच्च गोत्र के आस्रव के कारण-
तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्य नुत्सेकौ चोत्तरस्य !!२६!!-
उक्त सूत्र २५ में बताये नीच गोत्र के कारणों के विपरीत उच्च गोत्र के आस्रव के कारण है !अर्थात
“परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोंच्छादनोद्भावने च” तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्य नुत्सेकौ चोत्तरस्य
संधि विच्छेद -(परनिंदा)+(आत्म+प्रशंसा)+असदसद्गुणो+उच्छादन+उद्भावने+च+”) तद्विपर्यय:+नीचैर्वृत्त्य+अनुत्सेक+चो+उत्तरस्य
अर्थात –आत्मनिंदापरप्रशंसे आत्मसद्गुणोंच्छादन परअसद्गुणोंद्भावननीचैर्वृत्त्य नुत्सेकौ चोत्तरस्य!
शब्दार्थ
आत्मनिंदा=अपनी निंदा करना और परप्रशंसे=दूसरों की प्रशंसा करना,आत्मसद्गुणोंच्छादन-अपने विद्यमान गुणों को ढकना और परअसद्गुणोंद्भावन=दूसरों के अविद्यामन गुणों को प्रकाशित करना, नीचैर्वृत्त्य=नीचैवृत्ति,नम्र वृत्ति होना; अत्यंतज्ञानीएवं धनी होने पर भी,सबके समक्ष झुक कर चलना-विनम्र रहना,अनुत्सेक-बड़े बड़े कार्य करने के बावजूद भी घमंड नहीं करना जैसे मंदिर बनवाने के बाद,दान देने के बाद भी घमंड का अभाव होना! च-और अर्थात कषायों की मंद प्रवृत्ति,सप्त व्यसनों के सेवन का अभाव,पापों की मंद प्रवृत्ति,देवपूजा गुरुपास्ती,संयम,तप,दान व्रत आदि शुभ कार्यों में से,उत्तरस्य-अर्थात दुसरे -उच्च गोत्र का आस्रव होता है!
भावार्थ -स्वयं की निंदा और पर के प्रशंसा तथा दूसरों के अविद्यमान गुणों को प्रकाशित करने से और अपने विध्यमान गुणों को ढकने से,नम्र प्रवृत्ति होने से,बड़े बड़े कार्य जैसे मंदिर आदि बनवाने पर भी रंच मात्र भी घमण्डित नहीं होने से ,तथा अन्य अच्छे धार्मिक कार्य पूजा,गुरु उपास्ति, स्वाध्याय आदि करने से दुसरे अर्थात उच्च गोत्र नाम कर्म का आस्रव होता है!
अन्तराय कर्मों के आस्रव का कारण -
विघ्नकरणमन्तरायस्य !!२७!!
संधि विच्छेद:-विघ्नकरणं+अंतरायस्य
शब्दार्थ -विघ्नकरणं-विघ्न डालने से,अंतरायस्य -अंतराय कर्म का आस्रव होता है !
अर्थ-पर के दान,लाभ,भोग,उपभोग और वीर्य में बाधा डालने से अंतराय कर्म का आस्रव होता है! भावार्थ -दानान्तराय कर्म -किसी को दान देने से यह कह कर रोकना कि कोई लाभ नहीं है सब दान दिया हुआ खाया पीया जायेगा! ऐसा करने से दानान्तराय कर्म का आस्रव होता है!
अंतराय कर्म के निम्न ५ भेद है !
लाभांतराय कर्म-किसी व्यापारी के आर्डर आदि को निरस्त करवाने से, उसके लाभ में विघ्न डालने के कारण, लाभ अंतराय कर्म का अस्राव होता है!
भोगान्तराय कर्म-किसे के भोग की सामग्री में विघ्न डालने से भोगांतराय कर्म का आस्रव होता है !
जैसे किसी मजदूर के भोजन का समय है ,उसे किसी काम को करने के लिए उस समय विवश कर ,उसके भोजन ग्रहण करने में बाधा डालने से भोगान्तराय आस्रव होता है !
उपभोगान्तराय कर्म-किसी की उपभोग की सामग्री में विघ्न डालने से उपभोग अन्तराय कर्म का आस्रव होता है!जैसे कोई कार क्रय करने जा रहा है उसे यह कहकर रोकना की यह कार बेकार है ,इसे मत क्रय करो !
वीर्यान्तराय कर्म-किसी के वीर्य में विघ्न डालना से वीर्यान्तराय कर्म का आस्रव होता है ! जैसे कोई १० दिन का उपवास करना कहते हो उसे यह कह कर रोक देना की तुम में इतनी शक्ति नहीं है,इससे वीर्य अन्तराय कर्म का आस्रव होता है !
तत्वार्थसूत्र आचर्यश्री उमास्वामी विरचित,अध्याय ६ इतिश्री !
इस अध्याय का आप निम्न लिंक पर भी स्वाध्याय कर सकते है!
तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्य नुत्सेकौ चोत्तरस्य !!२६!!-
उक्त सूत्र २५ में बताये नीच गोत्र के कारणों के विपरीत उच्च गोत्र के आस्रव के कारण है !अर्थात
“परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोंच्छादनोद्भावने च” तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्य नुत्सेकौ चोत्तरस्य
संधि विच्छेद -(परनिंदा)+(आत्म+प्रशंसा)+असदसद्गुणो+उच्छादन+उद्भावने+च+”) तद्विपर्यय:+नीचैर्वृत्त्य+अनुत्सेक+चो+उत्तरस्य
अर्थात –आत्मनिंदापरप्रशंसे आत्मसद्गुणोंच्छादन परअसद्गुणोंद्भावननीचैर्वृत्त्य नुत्सेकौ चोत्तरस्य!
शब्दार्थ
आत्मनिंदा=अपनी निंदा करना और परप्रशंसे=दूसरों की प्रशंसा करना,आत्मसद्गुणोंच्छादन-अपने विद्यमान गुणों को ढकना और परअसद्गुणोंद्भावन=दूसरों के अविद्यामन गुणों को प्रकाशित करना, नीचैर्वृत्त्य=नीचैवृत्ति,नम्र वृत्ति होना; अत्यंतज्ञानीएवं धनी होने पर भी,सबके समक्ष झुक कर चलना-विनम्र रहना,अनुत्सेक-बड़े बड़े कार्य करने के बावजूद भी घमंड नहीं करना जैसे मंदिर बनवाने के बाद,दान देने के बाद भी घमंड का अभाव होना! च-और अर्थात कषायों की मंद प्रवृत्ति,सप्त व्यसनों के सेवन का अभाव,पापों की मंद प्रवृत्ति,देवपूजा गुरुपास्ती,संयम,तप,दान व्रत आदि शुभ कार्यों में से,उत्तरस्य-अर्थात दुसरे -उच्च गोत्र का आस्रव होता है!
भावार्थ -स्वयं की निंदा और पर के प्रशंसा तथा दूसरों के अविद्यमान गुणों को प्रकाशित करने से और अपने विध्यमान गुणों को ढकने से,नम्र प्रवृत्ति होने से,बड़े बड़े कार्य जैसे मंदिर आदि बनवाने पर भी रंच मात्र भी घमण्डित नहीं होने से ,तथा अन्य अच्छे धार्मिक कार्य पूजा,गुरु उपास्ति, स्वाध्याय आदि करने से दुसरे अर्थात उच्च गोत्र नाम कर्म का आस्रव होता है!
अन्तराय कर्मों के आस्रव का कारण -
विघ्नकरणमन्तरायस्य !!२७!!
संधि विच्छेद:-विघ्नकरणं+अंतरायस्य
शब्दार्थ -विघ्नकरणं-विघ्न डालने से,अंतरायस्य -अंतराय कर्म का आस्रव होता है !
अर्थ-पर के दान,लाभ,भोग,उपभोग और वीर्य में बाधा डालने से अंतराय कर्म का आस्रव होता है! भावार्थ -दानान्तराय कर्म -किसी को दान देने से यह कह कर रोकना कि कोई लाभ नहीं है सब दान दिया हुआ खाया पीया जायेगा! ऐसा करने से दानान्तराय कर्म का आस्रव होता है!
अंतराय कर्म के निम्न ५ भेद है !
लाभांतराय कर्म-किसी व्यापारी के आर्डर आदि को निरस्त करवाने से, उसके लाभ में विघ्न डालने के कारण, लाभ अंतराय कर्म का अस्राव होता है!
भोगान्तराय कर्म-किसे के भोग की सामग्री में विघ्न डालने से भोगांतराय कर्म का आस्रव होता है !
जैसे किसी मजदूर के भोजन का समय है ,उसे किसी काम को करने के लिए उस समय विवश कर ,उसके भोजन ग्रहण करने में बाधा डालने से भोगान्तराय आस्रव होता है !
उपभोगान्तराय कर्म-किसी की उपभोग की सामग्री में विघ्न डालने से उपभोग अन्तराय कर्म का आस्रव होता है!जैसे कोई कार क्रय करने जा रहा है उसे यह कहकर रोकना की यह कार बेकार है ,इसे मत क्रय करो !
वीर्यान्तराय कर्म-किसी के वीर्य में विघ्न डालना से वीर्यान्तराय कर्म का आस्रव होता है ! जैसे कोई १० दिन का उपवास करना कहते हो उसे यह कह कर रोक देना की तुम में इतनी शक्ति नहीं है,इससे वीर्य अन्तराय कर्म का आस्रव होता है !
तत्वार्थसूत्र आचर्यश्री उमास्वामी विरचित,अध्याय ६ इतिश्री !
इस अध्याय का आप निम्न लिंक पर भी स्वाध्याय कर सकते है!