जैनधर्म के मूलभूत सिद्धांत
#1

तीन काल - (भूतकाल , वर्तमान काल और भविष्यतकाल) ;

छह द्रव्य - (जीव , पुद्गल , धर्म , अधर्म , आकाश और काल)
और नौ पदार्थों - (जीव , अजीव , आस्रव , बंध ,पुण्य , पाप , संवर , निर्जरा और मोक्ष )
तथा सात तत्त्व - (जीव , अजीव , आस्रव , बंध , संवर , निर्जरा और मोक्ष) ;
पाँच पंचास्तिकाय - (जीव , पुद्गल , धर्म , अधर्म और आकाश)
और षट्कायिक जीवों ( जलकायिक , अग्निकायिक , वायुकायिक , पृथ्वीकायिक , वनस्पतिकायिक तथा त्रस कायिक ) पर दया भाव रखने का निधान भी जैन धर्म में ही बताया गया हैं।
इसके अतिरिक्त आठ कर्म - ( ज्ञानावरणी , दर्शनावरणी , वेदनीय , मोहनीय , आयु , नाम , गोत्र तथा अंतराय ) ;
सम्यक्त्व के आठ ही गुण ( संवेग , निर्वेद , अनुकम्पा , आस्तिक्य , निंदा , गर्हा ,भक्ति , वात्सल्य)
और छह लेश्याएँ -( कृष्ण लेश्या , नील लेश्या , कापोत लेश्या , पीत लेश्या , पद्म लेश्या तथा शुक्ल लेश्या )भी जानने योग्य हैं।
पाँच व्रत - ( अहिंसाणुव्रत , सत्याणुव्रत , अचौर्याणुव्रत , ब्रह्मचर्याणुव्रत तथा अपरिग्रहाणुव्रत ) ;
पाँच समिति - ( ईर्या समिति , भाषा समिति , एषणा समिति , आदान - निक्षेपण समिति और प्रतिष्ठापना समिति ) ;
पाँच चारित्र - ( सामायिक , छेदोस्थापना , परिहार विशुद्धि , सूक्ष्मसांपराय तथा यथाख्यात चारित्र ) ;
पाँच गति - ( नर्कगति , देवगति , मनुष्यगति , तिर्यंचगति तथा सिद्धगति )
और पाँच ज्ञान - ( मतिज्ञान , श्रुतज्ञान , अवधिज्ञान , मन:पर्ययज्ञान तथा केवलज्ञान )
 सम्यक्त्व के आठ अंग  होते हैं :-

1.
नि:शंकित अंग
2.
नि:कांक्षित अंग
3.
निर्विचिकित्सक अंग
4.
प्रभावना अंग
5.
वात्सल्य अंग
6.
अमूढ़दृष्टि अंग
7.
स्थितिकरण अंग
8.
उपगूहन अंग
तथा सिद्ध भगवान के भी आठ गुण होते हैं जो कि आठों कर्मों का क्षय होने से प्रकट होते हैं :-

. अनंतज्ञान
. अनंतदर्शन
. अनंतवीर्य
. अनंतसुख
. अवगाहनत्व
. सूक्ष्मत्व
. अगुरुलघुत्व
. अव्याबाधत्व
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