06-04-2018, 10:16 AM
जिन सहस्रनाम अर्थसहित सप्तम अध्याय भाग १
असंस्कृत सुसंस्कार: अप्राकृतो वैकृतान्तकृत्। अन्तकृत् कान्तगु: कान्त श्चिन्तामणिर भीष्टद:॥१॥
६०१. आप स्वभावसे हि अर्थात बिना किसी संस्कारोसेहि सुसंस्कारी है, इसलिये आप"असंस्कृतसुसंस्कार: है ।
६०२. आपके स्वरुपका किसी भि प्रकृतिसे उत्पन्न अथवा कृत ना होनेसे आप"अप्राकृत" हो ।
६०३. सब विकृतियोंका नाश करनेवाले आप"वैकृतान्तकृत्" हो ।
६०४. संसार के अंत को अर्थात मोक्ष को सुगम करनेसे "अन्तकृत" हो।
६०५. आपकि वाणी सुन्दर है, आप प्रभा अथवा आभा सुन्दर है, इसलिये "कान्तगु" हो।
६०६. शोभायुक्त (समवशरण कि अगणित शोभा) होनेसे "कान्त" हो।
६०७. इच्छित फल देने वाले हो, जैसे चिंतामणि रत्न मन् कि इच्छा जानकर् उसे पुर्ण करता है, इसलिये "चिन्तामणि" हो।
६०८. शुभ फल देनेवाले अथवा भव्य जीवोंके लिये इष्ट फल देनेवाले होनेसे "अभिष्टद" भि कहे जाते है।
अजितो जितकामारि रमितोऽ मितशासन:। जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितान्तक:॥ २॥
६०९. कामक्रोधादि शत्रु आपको जित नही पाये, इसलिये आप"अजित" हो।
६१०. आपने कामक्रोधादि शत्रुओंपर विजयी होकर उन्हे ध्वस्त परास्त कर दिया है, इसलिये "जितकामारि" हो।
६११. आपके ज्ञान कि, शक्तिकि, सुख कि कोई मर्यादा नही है, इसलिये "अमित" हो।
६१२. आपने बताया हुआ मार्ग, अर्थात शासन का भि कोई अंत नही, अर्थात आपका बताया हुआ मार्ग हि सदैव एकमेव सम्यक मोक्षमार्ग होगा इसलिये "अमितशासन" हो।
६१३. क्रोधको जितनेसे अर्थात आप परमक्षमारुप होनेसे "जितक्रोध" हो।
६१४. अमित्र अर्थात कर्म शत्रुओंपर विजयी होनेसे "जितामित्र" हो।
६१५. समस्त क्लेशोंपर मात करनेसे "जितक्लेश" हो।
६१६. अंत को अर्थात यम को जितनेसे, मोक्ष को प्राप्त करने से "जितान्तक" भि कहे जाते है।
जिनेन्द्र परमानंदो मुनिन्द्रो दुन्दुभिस्वन: । महेन्द्र वन्द्यो योगीन्द्रो यतीन्द्रो नाभिनन्दन:॥३॥
६१७. गणधर आदि जिन के आप आद्य, वंद्य, पुज्य इन्द्र होनेसे "जिनेन्द्र" हो।
६१८. उत्कृष्ट आनंद स्वरुप होनेसे अथवा आप का रुप आनंदकारी होनेसे अथवा आप सदैव आत्मा के आनंद मे लीन रहनेवाले होनेसे "परमानंद" हो।
६१९. मुनियोंके इन्द्र, ज्येष्ठ, नेता होनेसे "मुनींद्र" हो।
६२०. आपकि ध्वनी दुन्दुभियोंके समान शुभ, कर्णप्रिय, आनंदकारी, सुखदायक और शुभसुचक है, इसलिए"दुन्दुभिस्वन" हो ।
६२१. शत इन्द्र, महेन्द्र के भि आप पुज्य है, इसलिये "महेन्द्रवन्द्य" हो ।
६२२. योगी, तप करनेवाले, मुनि आदियोंके इन्द्र होनेसे "योगीन्द्र" हो ।
६२३. ऋषीयोंके, यतीयोंके भि आप इन्द्र है, इसलिए आपको "यतीन्द्र" भि कहा जाता है।
६२४. नाभिराय के पुत्र होनेसे या आप स्वयं किसी का भि अभिनंदन करनेवाले नही होनेसे "नाभिनंदन" है।
नाभेयो नाभिजोऽजात: सुव्रतो मनुरुत्तम:। अभेद्योऽ नत्ययोऽनाश्वान धिकोऽधिगुरु: सुगी:॥४॥
६२५. नाभि के पुत्र"नाभेय" हो।
६२६. नाभि कुलमे जन्म लेनेसे "नाभिज" हो ।
६२७. अब फिरसे उत्पन्न नही होगे इसलिये "अजात" हो।
६२८. अहिंसादि अनेक उत्तमव्रतोके धारक"सुव्रत" हो।
६२९. कर्मभूमी कि रचना करनेसे "मनु" हो ।
६३०. श्रेष्ठ होनेसे "उत्तम" हो।
६३१. आपको कर्म शत्रू तो क्या कोई भि भेद नही सकता इसलिये "अभेद्य" हो।
६३२. आप का विनाश कभी नही होगा, इसलिये "अनत्यय" हो।
६३३. अनशनादि तप करनेसे "अनश्वान" हो।
६३४. सबसे आपमे "अधिक" है अथवा आप धिक्कारयोग्य नही है, इसलिये "अधिक" हो।
६३५. सबसे उत्तम अर्थात मोक्षमार्ग का उपदेश देनेसे अथवा गुरुओंमे प्रथम होनेसे "अधिगुरु" हो ।
६३६. आपकी वाणी अथवा दिव्यध्वनी कल्याणकारी होनेसे आप"सुगी" कहलाते है।
सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षो निरुत्सुक:। विशिष्ट शिष्टभुक शिष्ट: प्रत्यय: कामनोऽनघ:॥५
६३७. आपकि बुध्दी सर्वश्रेष्ठ होनेसे अथवा आप का ज्ञान श्रेष्ठ ( केवलज्ञान) होनेसे "सुमेधा" हो ।
६३८. पहाडो जैसे कर्मारि का पराक्रम से नाश करनेसे अथवा जन्म -मृत्युके क्रमसे मुक्त होनेसे "विक्रमी" हो ।
६३९. आप तीनो जगत के अधिपति होने से या मुक्तिलक्ष्मी को प्राप्त करने से “स्वामी” हो।
६४०. कोई भि आपको निवार नही सकता आप"दुराधर्ष" हो ।
६४१. आपने सब जान लिया है, इसलिए अब आप"निरुत्सुक" हो ।
६४२. शिष्टोमे श्रेष्ठ होनेसे "विशिष्ट" हो।
६४३. शिष्टोंका पालन करनेसे "शिष्टभुक्" हो ।
६४४. स्वयं भि राग द्वेष मोहादि दोषोंसे दुर रहनेसे "शिष्ट:” हो।
६४५. ज्ञानस्वरुप होनेसे अथवा विश्वासरुप होनेसे अथवा स्वयं प्रमाण होनेसे "प्रत्यय" हो ।
६४६. सबके इच्छेय होनेसे अथवा कामना के योग्य होनेसे अथवा काम का नाश करनेवाले होनेसे "कामन" हो ।
६४७. पापरहित होनेसे "अनघ" नामसे प्रसिध्द है।
क्षेमी क्षेमंकरोऽक्षय्य: क्षेमधर्मपति: क्षमी। अग्राह्यो ज्ञाननिग्राह्यो ध्यानगम्यो निरुत्तर॥ ६॥
६४८. आप सफल हो, अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर आपने महान सफलता पायी है, इसलिये "क्षेमी" हो ।
६४९. सबका कल्याण करने वाले होनेसे "क्षेमंकर" हो ।
६५०. आप कभी भि ध्रौव्य को प्राप्त नही होंगे अथवा क्षय नही होनेसे "अक्षय्य" हो।
असंस्कृत सुसंस्कार: अप्राकृतो वैकृतान्तकृत्। अन्तकृत् कान्तगु: कान्त श्चिन्तामणिर भीष्टद:॥१॥
६०१. आप स्वभावसे हि अर्थात बिना किसी संस्कारोसेहि सुसंस्कारी है, इसलिये आप"असंस्कृतसुसंस्कार: है ।
६०२. आपके स्वरुपका किसी भि प्रकृतिसे उत्पन्न अथवा कृत ना होनेसे आप"अप्राकृत" हो ।
६०३. सब विकृतियोंका नाश करनेवाले आप"वैकृतान्तकृत्" हो ।
६०४. संसार के अंत को अर्थात मोक्ष को सुगम करनेसे "अन्तकृत" हो।
६०५. आपकि वाणी सुन्दर है, आप प्रभा अथवा आभा सुन्दर है, इसलिये "कान्तगु" हो।
६०६. शोभायुक्त (समवशरण कि अगणित शोभा) होनेसे "कान्त" हो।
६०७. इच्छित फल देने वाले हो, जैसे चिंतामणि रत्न मन् कि इच्छा जानकर् उसे पुर्ण करता है, इसलिये "चिन्तामणि" हो।
६०८. शुभ फल देनेवाले अथवा भव्य जीवोंके लिये इष्ट फल देनेवाले होनेसे "अभिष्टद" भि कहे जाते है।
अजितो जितकामारि रमितोऽ मितशासन:। जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितान्तक:॥ २॥
६०९. कामक्रोधादि शत्रु आपको जित नही पाये, इसलिये आप"अजित" हो।
६१०. आपने कामक्रोधादि शत्रुओंपर विजयी होकर उन्हे ध्वस्त परास्त कर दिया है, इसलिये "जितकामारि" हो।
६११. आपके ज्ञान कि, शक्तिकि, सुख कि कोई मर्यादा नही है, इसलिये "अमित" हो।
६१२. आपने बताया हुआ मार्ग, अर्थात शासन का भि कोई अंत नही, अर्थात आपका बताया हुआ मार्ग हि सदैव एकमेव सम्यक मोक्षमार्ग होगा इसलिये "अमितशासन" हो।
६१३. क्रोधको जितनेसे अर्थात आप परमक्षमारुप होनेसे "जितक्रोध" हो।
६१४. अमित्र अर्थात कर्म शत्रुओंपर विजयी होनेसे "जितामित्र" हो।
६१५. समस्त क्लेशोंपर मात करनेसे "जितक्लेश" हो।
६१६. अंत को अर्थात यम को जितनेसे, मोक्ष को प्राप्त करने से "जितान्तक" भि कहे जाते है।
जिनेन्द्र परमानंदो मुनिन्द्रो दुन्दुभिस्वन: । महेन्द्र वन्द्यो योगीन्द्रो यतीन्द्रो नाभिनन्दन:॥३॥
६१७. गणधर आदि जिन के आप आद्य, वंद्य, पुज्य इन्द्र होनेसे "जिनेन्द्र" हो।
६१८. उत्कृष्ट आनंद स्वरुप होनेसे अथवा आप का रुप आनंदकारी होनेसे अथवा आप सदैव आत्मा के आनंद मे लीन रहनेवाले होनेसे "परमानंद" हो।
६१९. मुनियोंके इन्द्र, ज्येष्ठ, नेता होनेसे "मुनींद्र" हो।
६२०. आपकि ध्वनी दुन्दुभियोंके समान शुभ, कर्णप्रिय, आनंदकारी, सुखदायक और शुभसुचक है, इसलिए"दुन्दुभिस्वन" हो ।
६२१. शत इन्द्र, महेन्द्र के भि आप पुज्य है, इसलिये "महेन्द्रवन्द्य" हो ।
६२२. योगी, तप करनेवाले, मुनि आदियोंके इन्द्र होनेसे "योगीन्द्र" हो ।
६२३. ऋषीयोंके, यतीयोंके भि आप इन्द्र है, इसलिए आपको "यतीन्द्र" भि कहा जाता है।
६२४. नाभिराय के पुत्र होनेसे या आप स्वयं किसी का भि अभिनंदन करनेवाले नही होनेसे "नाभिनंदन" है।
नाभेयो नाभिजोऽजात: सुव्रतो मनुरुत्तम:। अभेद्योऽ नत्ययोऽनाश्वान धिकोऽधिगुरु: सुगी:॥४॥
६२५. नाभि के पुत्र"नाभेय" हो।
६२६. नाभि कुलमे जन्म लेनेसे "नाभिज" हो ।
६२७. अब फिरसे उत्पन्न नही होगे इसलिये "अजात" हो।
६२८. अहिंसादि अनेक उत्तमव्रतोके धारक"सुव्रत" हो।
६२९. कर्मभूमी कि रचना करनेसे "मनु" हो ।
६३०. श्रेष्ठ होनेसे "उत्तम" हो।
६३१. आपको कर्म शत्रू तो क्या कोई भि भेद नही सकता इसलिये "अभेद्य" हो।
६३२. आप का विनाश कभी नही होगा, इसलिये "अनत्यय" हो।
६३३. अनशनादि तप करनेसे "अनश्वान" हो।
६३४. सबसे आपमे "अधिक" है अथवा आप धिक्कारयोग्य नही है, इसलिये "अधिक" हो।
६३५. सबसे उत्तम अर्थात मोक्षमार्ग का उपदेश देनेसे अथवा गुरुओंमे प्रथम होनेसे "अधिगुरु" हो ।
६३६. आपकी वाणी अथवा दिव्यध्वनी कल्याणकारी होनेसे आप"सुगी" कहलाते है।
सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षो निरुत्सुक:। विशिष्ट शिष्टभुक शिष्ट: प्रत्यय: कामनोऽनघ:॥५
६३७. आपकि बुध्दी सर्वश्रेष्ठ होनेसे अथवा आप का ज्ञान श्रेष्ठ ( केवलज्ञान) होनेसे "सुमेधा" हो ।
६३८. पहाडो जैसे कर्मारि का पराक्रम से नाश करनेसे अथवा जन्म -मृत्युके क्रमसे मुक्त होनेसे "विक्रमी" हो ।
६३९. आप तीनो जगत के अधिपति होने से या मुक्तिलक्ष्मी को प्राप्त करने से “स्वामी” हो।
६४०. कोई भि आपको निवार नही सकता आप"दुराधर्ष" हो ।
६४१. आपने सब जान लिया है, इसलिए अब आप"निरुत्सुक" हो ।
६४२. शिष्टोमे श्रेष्ठ होनेसे "विशिष्ट" हो।
६४३. शिष्टोंका पालन करनेसे "शिष्टभुक्" हो ।
६४४. स्वयं भि राग द्वेष मोहादि दोषोंसे दुर रहनेसे "शिष्ट:” हो।
६४५. ज्ञानस्वरुप होनेसे अथवा विश्वासरुप होनेसे अथवा स्वयं प्रमाण होनेसे "प्रत्यय" हो ।
६४६. सबके इच्छेय होनेसे अथवा कामना के योग्य होनेसे अथवा काम का नाश करनेवाले होनेसे "कामन" हो ।
६४७. पापरहित होनेसे "अनघ" नामसे प्रसिध्द है।
क्षेमी क्षेमंकरोऽक्षय्य: क्षेमधर्मपति: क्षमी। अग्राह्यो ज्ञाननिग्राह्यो ध्यानगम्यो निरुत्तर॥ ६॥
६४८. आप सफल हो, अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर आपने महान सफलता पायी है, इसलिये "क्षेमी" हो ।
६४९. सबका कल्याण करने वाले होनेसे "क्षेमंकर" हो ।
६५०. आप कभी भि ध्रौव्य को प्राप्त नही होंगे अथवा क्षय नही होनेसे "अक्षय्य" हो।