जीवके धर्म तथा गुण
#1

प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6
जिनेन्द्र वर्णी



१. जीव, अन्तःकरण तथा शरीरका पार्थक्य

इस जन्म मरणरूप संसारमे गोते खाते अनन्त काल बीत गया पर आज तक जीवनको जान न सका । जीवन सार है, जीवन रस है, जीवन आनन्द है, जीवन सुन्दर है—ऐसा केवलज्ञानी जनोंसे सुना परन्तु उसे देख न सका । हे नाथ । अब करुणा कीजिए, जगत् के इस तप्त कीटपर और दर्शाइए इसे जीवनका वैभव । भैया । जीवन शरीरमे नही है, बल्कि अन्त करणमे गुप्त उस परम तत्त्वमे है जिसका परिचय कि पहले चेतनके नामसे दिया गया है। उसके अनेको गुण ही उसकी ध्रुव सम्पत्ति है जो उससे कभी भी नहीं छूटती । आ । हम तुझे उस चेतन तत्त्वके अनेको गुणोका परिचय दें ।
चेतन तत्व अत्यन्त गुप्त है, अतः उसको पढ़नेके लिए जीव पदार्थको पढनेका प्रयत्न करें। जीव-पदार्थपर से ही चेतन तत्वको जाना जा सकता है, क्योकि जैसा कि पहले बताया गया है जीव पदार्थ ही चेतन तत्त्व है, जीव ही परब्रह्म परमेश्वर तथा प्रभु है, यदि शरीर तथा अन्त. करणसे मुक्त हो जाये तो आप स्वय जोव है, अतः आप भी स्वय प्रभु बन सकते हैं या परमानन्दको प्राप्त कर सकते हैं, यदि शरीर तथा अन्त करणसे मुक्त हो जायें तो। परन्तु यह तभी सम्भव है जब कि आप जीव, शरीर तथा अन्त. करण इन तीनोको ठीक-ठीक जान सकें। ससारी-जीव शरीर, अन्त करण तथा चेतना इन तीन पदार्थोंसे मिलकर बना है। इसलिए तीनोको पृथक्-पृथक् पहचानने की आवश्यकता है। जबतक शरीर ही शरीर को जानते रहेगे तबतक आपके लिए शरीर ही जीव या चेतन पदार्थ बना रहेगा |

किसी भी पदार्थको जान लेनेके लिए उसके गुण तथा उसकी विशेषताएँ जानी व जनायी जाती है, क्योकि जैसा कि पहले बताया गया है, पदार्थ गुणोका समुदाय है। उन गुणो या विशेषताओपर-से हम उस पदार्थको अच्छी तरह पहचान सकते है । अत. जीव, अन्त. करण तथा शरीर इन तीनोके पृथक्-पृथक् क्या गुण या विशेष ताएँ है यह जानना अत्यावश्यक है। ये तीनो पृथक्-पृथक् पदार्थ हैं, यह बात पहले बतायी जा चुकी है। जीव चेतन है, शरीर जड है और अन्त करण इन दोनोके मध्यवर्ती एक विचित्र पदार्थ है जिसने इन दोनोको मिलाकर एकमेक कर रखा है, और यह जानने नही देता कि इनमे क्या भेद है। ज्ञानीजन ही किसी विशेष अन्तचंक्षु द्वारा इस रहस्यको जान पाते हैं। उसो रहस्यका कुछ परिचय देते है। तनिक विचार व मनन द्वारा अपने अन्दरमे खोजकर उसे जानने तथा उसकी सत्यता का निर्णय करनेका प्रयत्न कीजिए ।


२. जीव सामान्यके धर्म तथा गुण

गुण, स्वभाव व धर्म ये एकार्थवाची शब्द है। इसलिए धर्म कहो या गुण कहो एक ही बात है। यद्यपि चेतन तथा अन्त. करणके पृथक्-पृथक् गुण बताये जाने चाहिए, परन्तु उनका भेद अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण अभी आप उसे समझ न सकेंगे । इसलिए पहले चेतन तथा अन्त करणका मिश्रण जो यह जीव पदार्थ है इसके गुण चताता हूँ। उनके पृथक्-पृथक् गुण पीछे बताऊँगा जब कि आप इस स्थूल तत्वको ठीक प्रकारसे समझ चुकेंगे ।

जीव पदार्थमे वैसे तो अनन्तो गुण तथा शक्तियाँ या विशेषताएँ है, जिनमे से सबका कहा जाना असम्भव है। हां कुछ प्रमुख गुणोका परिचय देना यहां पर्याप्त है। जीवके चार प्रमुख गुण आगममे कहे गये है- ज्ञान, दर्शन, सुख व वीयं । इन चारो गुणो की चौकडीका नाम अनन्त चतुष्टय है। ये कुछ ऐसे विशेष लक्षण है, जिनपर से आबाल-गोपाल इसको जान सकते हैं, क्योंकि ये चारो सबके प्रत्यक्ष हैं। इनके अतिरिक्त भी जीवमें अनेक गुण हैं, जिनमे अनुभव, रुचि, श्रद्धा, सकोच-विस्तार विशेष वर्णनीय हैं।




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#2

३ ज्ञान

ज्ञान कहते हैं जाननेको। क्या बच्चा और क्या बड़ा सभी कुछ न कुछ जानते है, इन्द्रियोंसे जानें या मनसे । परन्तु साधारणत. ऐसा भ्रम पडा हुआ है कि इन्द्रियां ही जानती है अर्थात् आंख ही देखती है, कान हो सुनते है, नाक ही सूँघती है। परन्तु वास्तवमे ऐसा नही है। ये इन्द्रियां या मन जाननेके साधन तो अवश्य है, परन्तु स्वयं जाननेवाले नही हैं। जिस प्रकार चश्मा आँखोंके लिए देखनेका साधन तो अवश्य है पर स्वय नही देख सकता । इस बातकी परीक्षा तब होती है जब कि मृत्यु हो जानेपर ये इन्द्रियाँ शरीरमे रहते हुए भी कुछ नही जान पाती । इन इन्द्रियोंके पीछे गुप्त रूपसे बैठा हुआा जो जीव पदार्थ है वही जानता है । यह जानना ही उसका सर्व-प्रमुख गुण है।


४. दर्शन

दर्शन कहते हैं देखनेको। देखनेका अर्थ यहां इन धन, कुटुम्ब, पुस्तक आदि वाहरके पदार्थोंको देखनेका नही है, बल्कि अन्तर्चक्षु द्वारा अपने भीतर झांककर देखनेका है । आँख भी दो प्रकारको है - एक बाहरको ओर दूसरी भीतरको। बाहरकी आंखको तो सब जानते हैं पर भीतरकी आँख कौन-मी है यह पता नही चलता। अरे । हम नित्य प्रति उसका प्रयोग करते हैं, फिर भी उसे भूल जाते हैं। यह महान् आश्चर्य है। बाहरकी आंखसे देखने को यहां दर्शन नही कहा गया है। भले ही लोकमे उसे दर्शन करना या देखना कहे पर यहां तो वह रूप सम्बन्धी ज्ञान ही है । दर्शन तो भीतरी चक्षु द्वारा भीतरमे ही देखनेका नाम है। कोई भी वस्तु दो स्थानोपर देखी जा सकती है- एक बाहरमे और एक भीतरमे । बाहरमे तो वह उसी समय देखी जा सकती है जबकि आपको वति खुली हो, बाहरमे सूर्य या दीपक आदिका प्रकाश हो और वह वस्तु सामने पड़ी हो, जैसे कि अपने सामने खडे पुत्रको देखते दर्शन' है ।
यह गुण कुछ सूक्ष्म है अत. अन्य प्रकारसे भी इसका लक्षण  किया जाता है। आप यदि बहुत अधिक सावधान होकर विचार करें तभी आपको इसकी प्रतीति हो सकती है। आप जब कभी भो किसी एक इन्द्रियसे देखते या जानते हुए उसे छोड़कर किसी अन्यसे देखने या जाननेका उद्यम करते हैं तब एक सूक्ष्म-सा प्रकाश अन्दर ही अन्दर पहली इन्द्रियसे उस दूसरी इन्द्रियकी तरफ दौड कर जाता हुआ प्रतीत होता है। यह काम इतनी जल्दी हो जाता है कि साधारण दृष्टिसे पकडा नही जा सकता। परन्तु गौर करके देखनेका प्रयत्न करें तो अवश्य उसका पता चल जाता है । बस अन्दरमे दौडनेवाला यह क्षणिक प्रकाश ही दर्शन (वास्तवमे यह ज्ञान ही है, परन्तु प्राथमिक जनोको दर्शन तक पहुंचाने के लिए इसका अवलम्बन लिया जा रहा है|) है।
ज्ञानका सम्बन्ध क्योकि बाह्य पदार्थोंको इन्द्रियो आदिके द्वारा जाननेसे है, इसलिए वह स्थूल है। परन्तु दर्शनका सम्बन्ध किसी अन्तरंग प्रकाशसे है, इसलिए वह सूक्ष्म है। स्थूल पदार्थको आसानीसे जाना जा सकता है, परन्तु सूक्ष्मको जाननेमे कठिनाई पड़ती है। यही कारण है कि ज्ञानको तो सहज ही सब समझ जाते हैं, परन्तु दर्शनको जाननेमे कुछ कठिनाई पड़ती है । ऊपर दर्शनका लक्षण करनेके लिए जो दृष्टान्त दिये गये हैं वे केवल स्थूल रूपसे उसे समझाने के लिए दिए गये हैं। सूक्ष्म रूपसे बतानेपर उस प्रकार अन्दरमे देखना भी ज्ञान हो है । परन्तु यहां उतनी सूक्ष्म बात बताने से आप भ्रममे न पड जायें, इसलिए इतना हो समझें कि भीतर झांककर किसी भी विपयको देखनेपर जो अन्दर मे कुछ प्रकाश-सा दिखाई देता है, या एक इन्द्रियसे दूसरी इन्द्रियकोतरफ झपटता प्रतीत होता है, जिस प्रकाशके कारण कि वह विषय स्पष्ट दोखता है उस प्रकाशका नाम ही दर्शन है, और बाहरके पदार्थोंको देखनेका नाम ज्ञान है । इसीको यो कह सकते है कि बाह्य पदार्थको देखे तो ज्ञान है और जीव स्वयं अपनेको देखे तो दर्शन है। ज्ञान सदा ही इस दर्शन-पूर्वक हुआ करता है । क्योकि जबतक वह अन्दरका प्रकाश पहली इन्द्रियसे हटकर अगली इन्द्रियपर नही जायेगा, तबतक वह इन्द्रिय जाननेको समर्थ नही हो सकती। जैसे कि किसीके साथ बातें करनेमे तन्मय होनेके कारण आप अपने सामनेसे गुजरते हुए व्यक्तिको भी देख नही सकते ।

इस प्रकार ज्ञान और दर्शन लगभग एक ही जातिके होनेके कारण यद्यपि पृथक्-पृथक् बतानेकी बजाय एक ज्ञानमे ही गर्भित करके बताये जा सकते हैं, तदपि इनको पृथक्-पृथक् करके दो गुणोके रूपसे बतानेमे आचार्योंका एक विशेष प्रयोजन है, जो अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टिसे ही जाना सकता है। उस प्रकारकी सूक्ष्म दृष्टिसे वस्तुका विवेचन क्योकि इस पुस्तकका विषय नही है इसलिए उसे यहाँ नही बताया जा सकता । हाँ, स्थूल रूपसे पदार्थ विज्ञान पढ़ लेनेके पश्चात् जब आप सूक्ष्म रूपसे भी इसे पढनेके योग्य हो जायेंगे, तब वह सूक्ष्म रहस्य भी बता दिया जायेगा। यहाँ तो केवल इतना ही जानिए कि क्योकि विषय दो प्रकारके है-चाहरी व भीतरी, इसलिए उनको जाननेके साधन भी दो प्रकारके हैं। वाहरके विषयोको जानना ज्ञान है। भीतरके विषयोको अर्थात् अन्त. करणको देखना दर्शन है।

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#3

५ सुख

तीसरा गुण हे सुख । सुख भो दो प्रकारका होता है- एक बाहरी तथा दूसरा भीतरी बाहरी सुख तो शरीर सम्बन्धी है और वह इन्द्रिय-भोगोको भोगने से उत्पन्न होता है, परन्तु भीतरी सुख शान्तिरूप है । सुखका विपक्षी दुःख है । वह भी दो प्रकारका है-वाहरी तथा भोतरी। बाहरी दुःख तो जरीरको पोड़ा आदि रूप है और भीतरी दुःख, चिन्ता व व्याकुलता रूप है। बाहरी सुख-दुख तो ज्ञानके द्वारा जाने जाते हैं, और भीतरी मुख-दृ.ख दर्शनके द्वारा देखे जाते हैं या महसूस किये जाते है ।

यद्यपि जीवमे सुख नामका गुण कहा गया है परन्तु इसका यह अर्थ नही कि जीवमे सुख ही नामका गुण हो दुख न हो, क्योकि ये दोनो ही प्रत्यक्ष देखनेमे आते हैं। फिर भी गुणका नाम सुख रखा गया है दुख नही, और न ही दुख नामका कोई पृथक् गुण बताया गया है। इसका कोई विशेष प्रयोजन है। वह यह कि दुख जीवको उसी समय तक रहता है जिस समय तक कि वह शरीर व अन्त करणके साथ बँघा रहता है। परन्तु उनके बँघन से छूटनेपर उसे सुख हो होता है, दु.ख नहीं। यहां क्योकि चेतन या जीवके गुण बताये जा रहे हैं इसलिए उन्ही गुणोका विचार करना युक्त है जो कि शरीर व अन्त करणसे पृथक् हो जानेपर जीवमे पाये जाते हैं। इसलिए जीवमें सुख नामका हो गुण है दुख नामका नही और वह सुख भी भोगो सम्बन्धी न समझकर शान्ति सम्बन्धी ही समझना ।

६. वीर्य

वीर्यका अर्थ शक्ति है। प्रत्येक पदार्थमे कोई न कोई शक्ति अवश्य होती है । शक्ति नाम भार सहन करने तथा टिकनेका है। कोई भी पदार्थ जितनी देर तक टिका रह सके, बिगड़े या गले नही, कमजोर नही हो, उतनी ही उसकी शक्ति है। जैसे कि स्तम्भकी शक्ति इतनी है कि इतनी भारी दीवारको अपने ऊपर धारण कर लेनेपर भी दवे नहीं, टूटे नही और सैकड़ो वर्षों तक क्षीण न हो। इसी प्रकार जीवकी भी कोई न कोई शक्ति है। ध्यान रहे कि यहाँ शरीरकी शक्तिको नही कहा जा रहा है बल्कि जीवकी शक्तिको कहा जा रहा है। शरीरकी शक्ति तो कोई बोझ उठाते समय तथा कुश्ती लडते समय देखी जाती है, परन्तु जीवकी शक्ति रोग, मरण, हानि आदि चिन्ताके कारण उपस्थित होनेपर देखी जाती है। ऐसे अनिष्ट सयोग हो जानेपर उन्हे कौन जीव कितना सहन कर सकता है, तथा कितनी देर तक सहन कर सकता है यही उसकी शक्ति है। चिन्ताके कारणोको सहन करनेका अर्थ है शान्तिमे स्थिति । जो जीव प्रतिकूलताओ मे जितना अधिक शान्त रह सकता है उतनी ही उसको शक्ति या बल है। इसका कारण भी यह है कि, जिस प्रकार स्तम्भका स्वभाव भार वहन करनेका है, उसी प्रकार जीवका स्वभाव शान्त रहनेका है । जिस प्रकार स्तम्भका अपने रूपमे टिके रहना उसकी शक्ति है, इसी प्रकार जीवका अपने स्वभाव मे टिके रहना उसकी शक्ति है और वही उसका वीर्य है। इस प्रकार परीक्षा करनेपर बडे बडे वलवान् पुरुष भी नपुसकवत् शक्तिहीन सिद्ध होते हैं, क्योकि तनिक-सी बात सुनकर या स्त्री आदिका रूप देखकर वे तुरन्त धैर्य खो बैठते हैं, क्रोध तथा कामके अधीन हो जाते है। वास्तविक वोर्य तो मुनिजनोमे हो है कि कैसे भी घोर सकट या परीक्षाके अवसर आनेपर अपनी साधनासे नही डिगते ।

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