07-02-2022, 03:27 PM
प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6- जीवके धर्म तथा गुण
जिनेन्द्र वर्णी
७. अनुभव
अनुभव दुःख-सुख, चिन्ता अथवा शान्तिको अन्दरमे महसूस करनेका नाम है। किसी पदार्थका जानना और बात है और उसका अनुभव करना और बात है । जाना तो दूरवती तथा निकटवर्ती दोनो पदार्थोंको जा सकता है, परन्तु अनुभव तो उस समय तक नही हो सकता है जब तक कि जीव उस पदार्थके साथ तन्मय न हो जाये ।
साधारणतः पांचो इन्द्रियोमे आँख तथा कान ये दो इन्द्रियाँ रूप व शब्दको जान सकती हैं पर अनुभव नही कर सकती, क्योकि ये दोनो विषय सदा दूर ही रहते हैं, कभी भी इन्द्रियोको स्पर्श नही करते। परन्तु स्पर्शन, जिह्वा तथा नाक ये तीन इन्द्रियाँ जाननेके साथ-साथ अनुभव भी करती है, क्योकि इनके विषयोका ज्ञान उस समय तक नही होता जब तक कि वे इन इन्द्रियोको स्पर्श न कर जायें। जैसे कि भोजन दूर रहकर आंखसे देखा जा सकता है, परन्तु चखा नही जा सकता जब तक कि जिह्वापर रख न लिया जाये। देखनेसे स्वाद या आनन्द नही आता, पर खाने या चखनेसे यदि मीठा हो तो आनन्द आता है और यदि कडवा हो तो कष्ट होता है। इसी प्रकार सुगन्धिके नाकमे आनेपर उसको जाननेके साथ-साथ कुछ मजा भी आता है । इसी प्रकार सदियोमे गर्म स्पर्श और गर्मियोमे शीत स्पर्शको जाननेके साथ-साथ आनन्द आता है तथा इससे उलटा होनेपर ठण्डा-गर्म जाननेके साथ-साथ कष्ट होता है।
जानना जबतक केवल जानना हो तब तक वह ज्ञान कहलाता है जैसे कि पदार्थको दूरसे देखकर जानना, परन्तु जब जाननेके साथ साथ दु.ख-सुखका वेदन भी हो तो उसे अनुभव कहते हैं. जैसे गर्म च ठण्डे स्पर्शको जानना । यद्यपि दोनो ही ज्ञान हैं, परन्तु दोनोमे कुछ अन्तर है । ऊपर जो तीन इन्द्रियो द्वारा अनुभव करना दर्शाया गया है सो बहुत स्थूल वात है। वास्तवमे अनुभव करना इन्द्रियोका नहीं वल्कि मनका काम है, इसलिए वह शरीरका नही जीवका गुण है। सो कैसे वही बताता हूँ ।
जबतक मन इन्द्रियके साथ नही होता तबतक आपको सुख या दुख नही हो सकता। क्योकि मन जब अपने विषयके साथ तन्मय हो जाता है, उसीमे तल्लीन हो जाता है, तब दु.ख-सुख, हर्ष
विषाद हुआ करता है। फिर भले ही वह विषय नेत्र इन्द्रियसे देखनेका हो या जिह्वासे चखनेका । जैसे कि बनको शोमा देखनेपर यदि मन सब तरफसे हटकर केवल उसे ही देखनेमे लीन हो जाये तो आनन्द आता है, परन्तु यदि किसी कार्य-विशेषवश किसी गाँव जाते हुए उसी वनमेसे आपको गुजरना पडे तब वह वन देखकर जाना तो जाता है परन्तु मन उसमे रूप न होनेके कारण आनन्द नही आता । इसी प्रकार भोजन करते हुए यदि मन उसमे हो लय हो जाये तो जानन्द जाता है, परन्तु यदि अन्य जिन्ताओं व सकल्प-विकल्पोमे उलझा रहे तो आनन्द नही बाता, साधारण-सा खट्टा-मीठा स्वाद ही जाननेसे आता है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना। जाननेके अति रिक्त जीवमे यह अनुभव करनेका एक पृथक् गुण है जिसका सम्बन्ध विषयके साथ तन्मय होकर दुखी या सुखी होनेसे है।
८. श्रद्धा और रुचि
"यह बात जैसो जानी वैसे ही है, अन्य प्रकार नहीं" ऐसी आन्तरिक दृढताको श्रद्धा या विश्वास कहते हैं। जानने व श्रद्धा करने मे अन्तर है। श्रद्धाका सम्बन्ध हित अहितसे होता है। इन्द्रियसे केवल इतना जाना जा सकता है कि यह पदार्थ रूप-रंग आदि वाला है, परन्तु 'यह मेरे लिए इट है' यह बात कौन बताता है ? सर्प काला तथा लम्बा है यह तो बोखने बता दिया, परन्तु 'यह अनिष्ट है, यहांने दूर हट जाओ यह प्रेरणा किसने को ? बस उसीका नाम श्रद्धा है। श्रद्धा उस आन्तरिक प्रेरणाका नाम है जो कि व्यक्तिको किसी विषयको तरफ तत्परता से उन्मुख होनेके लिए या वहसि हटने के लिए अन्दर बैठी हुई कहती रहती है।
श्रद्धाका यह अर्थ नहीं कि वह विषय आपके सामने हो तभी वह कुछ कहे। नही, विषय हो अथवा न हो यदि एक बार वह जान लिया गया है तो उसके सम्बन्धमे इष्ट-अनिष्टकी बुद्धि अन्दरमे बैठी
ही रहती है। कोई कितना भी समझाये कि सर्प तो बहुत अच्छा तथा सुन्दर होता है परन्तु आप उसकी बात माननेको तेयार नही । इसी आन्तरिक दृढताका नाम श्रद्धा है।
श्रद्धासे ही रुचि या अरुचि प्रकट होती है । जो वस्तु इष्ट मान ली गयी है वह सदा ही प्राप्त करनेकी इच्छा वनी रहती है जैसे कि धन कमानेकी इच्छा। इसे रुचि कहते हैं । यदि धनकी इष्टता सम्बन्धी श्रद्धा न हो तो यह रुचि नही हो सकती। रुचिका भी यह अर्थ नही कि आप वह काम हर समय करते रहे। परन्तु यह तो केवल एक भाव विशेष है जो अन्दरमे वेठा रहता है और अन्दर ही अन्दर चुटकियाँ भरा करता है, जैसे कि यहां पुस्तक पढते या उपदेश सुनते हुए यद्यपि आप धन कमानेका कोई काम नही कर रहे है, परन्तु उसकी रुचि तो आपको है ही ।
इस प्रकार श्रद्धा व रुचि एक दूसरेके पूरक है। श्रद्धा मान्त रिक दृढताको कहते हैं और रुचि उस आन्तरिक प्रेरणाको कहते है जिसके कारण कि व्यक्ति वस्तु विशेषको प्राप्त करनेके प्रति उद्यम शील बना रहता है। अनुभव और श्रद्धाका भी परस्पर सम्बन्ध है — जिस पदार्थका अनुभव सुखरूप हुआ है उसके सम्बन्ध इष्टपनेकी श्रद्धा होती है और उसीको प्राप्त करनेकी रुचि होती है । जिस पदार्थका अनुभव दु खरूप हुआ है उसके सन्बन्धमे अनिष्टपनेकी श्रद्धा होती है, और उससे किसी प्रकार भी बचे रहने की रुचि या प्रेरणा होती है। इस प्रकार अनुभव, श्रद्धा तथा रुचि ये कुछ मान्त रिल सूक्ष्म भाव है जो प्रत्येक जीवमे पाये जाते हैं।
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जिनेन्द्र वर्णी
७. अनुभव
अनुभव दुःख-सुख, चिन्ता अथवा शान्तिको अन्दरमे महसूस करनेका नाम है। किसी पदार्थका जानना और बात है और उसका अनुभव करना और बात है । जाना तो दूरवती तथा निकटवर्ती दोनो पदार्थोंको जा सकता है, परन्तु अनुभव तो उस समय तक नही हो सकता है जब तक कि जीव उस पदार्थके साथ तन्मय न हो जाये ।
साधारणतः पांचो इन्द्रियोमे आँख तथा कान ये दो इन्द्रियाँ रूप व शब्दको जान सकती हैं पर अनुभव नही कर सकती, क्योकि ये दोनो विषय सदा दूर ही रहते हैं, कभी भी इन्द्रियोको स्पर्श नही करते। परन्तु स्पर्शन, जिह्वा तथा नाक ये तीन इन्द्रियाँ जाननेके साथ-साथ अनुभव भी करती है, क्योकि इनके विषयोका ज्ञान उस समय तक नही होता जब तक कि वे इन इन्द्रियोको स्पर्श न कर जायें। जैसे कि भोजन दूर रहकर आंखसे देखा जा सकता है, परन्तु चखा नही जा सकता जब तक कि जिह्वापर रख न लिया जाये। देखनेसे स्वाद या आनन्द नही आता, पर खाने या चखनेसे यदि मीठा हो तो आनन्द आता है और यदि कडवा हो तो कष्ट होता है। इसी प्रकार सुगन्धिके नाकमे आनेपर उसको जाननेके साथ-साथ कुछ मजा भी आता है । इसी प्रकार सदियोमे गर्म स्पर्श और गर्मियोमे शीत स्पर्शको जाननेके साथ-साथ आनन्द आता है तथा इससे उलटा होनेपर ठण्डा-गर्म जाननेके साथ-साथ कष्ट होता है।
जानना जबतक केवल जानना हो तब तक वह ज्ञान कहलाता है जैसे कि पदार्थको दूरसे देखकर जानना, परन्तु जब जाननेके साथ साथ दु.ख-सुखका वेदन भी हो तो उसे अनुभव कहते हैं. जैसे गर्म च ठण्डे स्पर्शको जानना । यद्यपि दोनो ही ज्ञान हैं, परन्तु दोनोमे कुछ अन्तर है । ऊपर जो तीन इन्द्रियो द्वारा अनुभव करना दर्शाया गया है सो बहुत स्थूल वात है। वास्तवमे अनुभव करना इन्द्रियोका नहीं वल्कि मनका काम है, इसलिए वह शरीरका नही जीवका गुण है। सो कैसे वही बताता हूँ ।
जबतक मन इन्द्रियके साथ नही होता तबतक आपको सुख या दुख नही हो सकता। क्योकि मन जब अपने विषयके साथ तन्मय हो जाता है, उसीमे तल्लीन हो जाता है, तब दु.ख-सुख, हर्ष
विषाद हुआ करता है। फिर भले ही वह विषय नेत्र इन्द्रियसे देखनेका हो या जिह्वासे चखनेका । जैसे कि बनको शोमा देखनेपर यदि मन सब तरफसे हटकर केवल उसे ही देखनेमे लीन हो जाये तो आनन्द आता है, परन्तु यदि किसी कार्य-विशेषवश किसी गाँव जाते हुए उसी वनमेसे आपको गुजरना पडे तब वह वन देखकर जाना तो जाता है परन्तु मन उसमे रूप न होनेके कारण आनन्द नही आता । इसी प्रकार भोजन करते हुए यदि मन उसमे हो लय हो जाये तो जानन्द जाता है, परन्तु यदि अन्य जिन्ताओं व सकल्प-विकल्पोमे उलझा रहे तो आनन्द नही बाता, साधारण-सा खट्टा-मीठा स्वाद ही जाननेसे आता है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना। जाननेके अति रिक्त जीवमे यह अनुभव करनेका एक पृथक् गुण है जिसका सम्बन्ध विषयके साथ तन्मय होकर दुखी या सुखी होनेसे है।
८. श्रद्धा और रुचि
"यह बात जैसो जानी वैसे ही है, अन्य प्रकार नहीं" ऐसी आन्तरिक दृढताको श्रद्धा या विश्वास कहते हैं। जानने व श्रद्धा करने मे अन्तर है। श्रद्धाका सम्बन्ध हित अहितसे होता है। इन्द्रियसे केवल इतना जाना जा सकता है कि यह पदार्थ रूप-रंग आदि वाला है, परन्तु 'यह मेरे लिए इट है' यह बात कौन बताता है ? सर्प काला तथा लम्बा है यह तो बोखने बता दिया, परन्तु 'यह अनिष्ट है, यहांने दूर हट जाओ यह प्रेरणा किसने को ? बस उसीका नाम श्रद्धा है। श्रद्धा उस आन्तरिक प्रेरणाका नाम है जो कि व्यक्तिको किसी विषयको तरफ तत्परता से उन्मुख होनेके लिए या वहसि हटने के लिए अन्दर बैठी हुई कहती रहती है।
श्रद्धाका यह अर्थ नहीं कि वह विषय आपके सामने हो तभी वह कुछ कहे। नही, विषय हो अथवा न हो यदि एक बार वह जान लिया गया है तो उसके सम्बन्धमे इष्ट-अनिष्टकी बुद्धि अन्दरमे बैठी
ही रहती है। कोई कितना भी समझाये कि सर्प तो बहुत अच्छा तथा सुन्दर होता है परन्तु आप उसकी बात माननेको तेयार नही । इसी आन्तरिक दृढताका नाम श्रद्धा है।
श्रद्धासे ही रुचि या अरुचि प्रकट होती है । जो वस्तु इष्ट मान ली गयी है वह सदा ही प्राप्त करनेकी इच्छा वनी रहती है जैसे कि धन कमानेकी इच्छा। इसे रुचि कहते हैं । यदि धनकी इष्टता सम्बन्धी श्रद्धा न हो तो यह रुचि नही हो सकती। रुचिका भी यह अर्थ नही कि आप वह काम हर समय करते रहे। परन्तु यह तो केवल एक भाव विशेष है जो अन्दरमे वेठा रहता है और अन्दर ही अन्दर चुटकियाँ भरा करता है, जैसे कि यहां पुस्तक पढते या उपदेश सुनते हुए यद्यपि आप धन कमानेका कोई काम नही कर रहे है, परन्तु उसकी रुचि तो आपको है ही ।
इस प्रकार श्रद्धा व रुचि एक दूसरेके पूरक है। श्रद्धा मान्त रिक दृढताको कहते हैं और रुचि उस आन्तरिक प्रेरणाको कहते है जिसके कारण कि व्यक्ति वस्तु विशेषको प्राप्त करनेके प्रति उद्यम शील बना रहता है। अनुभव और श्रद्धाका भी परस्पर सम्बन्ध है — जिस पदार्थका अनुभव सुखरूप हुआ है उसके सम्बन्ध इष्टपनेकी श्रद्धा होती है और उसीको प्राप्त करनेकी रुचि होती है । जिस पदार्थका अनुभव दु खरूप हुआ है उसके सन्बन्धमे अनिष्टपनेकी श्रद्धा होती है, और उससे किसी प्रकार भी बचे रहने की रुचि या प्रेरणा होती है। इस प्रकार अनुभव, श्रद्धा तथा रुचि ये कुछ मान्त रिल सूक्ष्म भाव है जो प्रत्येक जीवमे पाये जाते हैं।
Taken from प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6 - जीवके धर्म तथा गुण - जिनेन्द्र वर्णी
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