प्रवचनसारः गाथा -6
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः

गाथा -6


संपज्जदि णिव्याणं देवासुरमणुयरायविहवेहिं /
जीवस्स चरित्तादो दसणणाणप्पहाणादो // 6 //


आगे श्रीकुंदकुंदाचार्य वीतराग-सरागचारित्रके उपादेय-हेयफलका खुलासा गाथासूत्रमें कहते हैं

[जीवस्य चरित्रात् निर्वाणं संपद्यते ] जीवको चारित्रगुणके आचरणसे मोक्ष प्राप्त होती है। कैसे चारित्रसे ? [ दर्शनज्ञानप्रधानात् ] सम्यग्दर्शन-ज्ञान हैं मुख्य जिसमें / किन विभूतियों सहित मोक्ष पाता है ? [ देवासुरमनुजराजविभवैः सह ] स्वर्गवासी देव, पातालवासी देव तथा मनुष्योंके स्वामियोंकी संपदा सहित / भावार्थ- चारित्र दो प्रकारका है, वीतराग तथा सराग / 
वीतरागचारित्रसे मोक्ष होती है, इस कारण वीतराचारित्र आप मोक्षरूप है, और सरागचारित्रसे इंद्र, धरणेंद्र, चक्रवर्तीकी विभूतिस्वरूप बंध होता है, क्योंकि सरागचारित्र कषायोंके अंशोंके मेलसे आत्माके गुणोंका घात करनेवाला है | इस कारण आप बंधरूप है। इसीलिये ज्ञानी पुरुषोंको सरागचारित्र त्यागने योग्य कहा है, और वीतरागचारित्र ग्रहण करने योग्य कहा गया है 

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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#2

The soul attains liberation (nirvāna, moksa) by virtue of conduct (cāritra), characterized by right faith (samyagdarśana) and right knowledge (samyagjñāna). The path to liberation is
accompanied by the glory of the lords of the heavenly devas (kalpavāsī devas), other devas (bhavanavāsī, vyantara and jyotiska devas), and humans.

Explanatory Note: 
Conduct is of two kinds: 
1) conduct-without attachment (vitarāga cāritra), and 
2) conduct-with-attachment  (sarāga cāritra). 
Conduct-without-attachment (vitarāga cāritra) leads to liberation, and 
conduct-with-attachment (sarāga cāritra) leads to attainment of glories of the lords of the celestial beings and the humans. 
Tinged with passions (kasāya), conduct-with attachment (sarāga cāritra) causes bondage of karmas and, therefore, needs to be discarded.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -5,6
उनके प्रवचनसारको यहाँ हिन्दी छन्दोंमें गाऊँ
अपना और भद्रलोगोंका जिसपरसे हित कर पाऊँ ॥
सम्यग्ज्ञानसहित चेतनका चरित सदा सुख भरता है।
श्री सुरेश (देवासुर) मानवराज विभवयुत शिवपदको करता है ॥ ३ ॥


गाथा -5,6
सारांश: – सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान सहित जो सम्यक्चारित्र है वह सराग और वीतराग के भेदसे दो प्रकारका होता है। वीतराग चारित्रसे तो साक्षात् निर्वाणकी प्राप्ति होती है किन्तु सराग चारित्रसे देवेन्द्रपद प्राप्त करके तदुपरान्त मनुष्यभवमें चक्रवर्ती या बलदेव वगैरह की राजविभूतिको प्राप्त करके फिर मुनि होकर मुक्ति प्राप्त करता है। एवं सरागचारित्र परम्परा मुक्तिका कारण माना गया है; यही यहाँ बतलाया है। मूलग्रंथकी छठी गाथाका शुद्ध पाठ 'संपज्जदि णिव्वाणं देवेसुरमणुयरायविहेवेहिं' ऐसा है क्योंकि सम्यकुदृष्टि जीव मरकर असुरोंमें कभी भी उत्पन्न नहीं होता है। यह बात दूसरी है कि कोई सम्यग्दृष्टि जीव चारित्र धारण करके भी किसी असुरकुमारकी विभूतिको देखकर उसका सम्यक्त्व नष्ट हो जानेसे लालायित होकर निदान बंध करले तो वह मरकर धरणीन्द्र जैसी अवस्था भी प्राप्त कर लेता है। इस अपेक्षा 'देवासुरमणुयरायविहेवेहिं' ऐसा पाठ भी हो सकता है।
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