08-08-2022, 09:49 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -41
अपदेस सपदेस मुत्तममुत्तं च पजयमजादं /
पलयं गयं च जाणदि तं णाणमदिदियं भणियं // 41 //
अन्वयार्थ- (अपदेसं) जो अप्रदेश को (सपदेसं) सप्रदेश को (मुत्तं) मूर्त को (अमुत्तं च) और अमूर्त को तथा (अजादं) अनुत्पन्न (च) और (पलयं गदं) नष्ट (पज्जयं) पर्याय को (जाणदि) जानता है (तं णाणं) वह ज्ञान (अदिंदियं) अतीन्द्रिय (भणिदं) कहा गया है।
आगे अतीन्द्रियज्ञान सबको जानता है, ऐसा कहते हैं-[यत् जो ज्ञान [अप्रदेश प्रदेश रहित कालाणु तथा परमाणुओंको, [सप्रदेश प्रदेश सहितको अर्थात् पंचास्तिकायोंको मृत] पुद्गलोंकोच और अमूर्त शुद्ध जीवादिक द्रव्योंको [अजातं पर्यायं] अनागत पर्यायोंको [च] और [प्रलयं गतं] अतीत पर्यायोंको [जानाति] जानता है [तत् ज्ञानं] उस ज्ञानको [अतीन्द्रियं] अतीन्द्रिय [भणितं कहा है।
भावार्थ
अतीन्द्रियज्ञान सबको जानता है, इसलिये अतीन्द्रियज्ञानीको ही सर्वज्ञ पद है / जो इन्द्रियज्ञानसे सर्वज्ञ मानते हैं, वे प्रत्यक्ष मिथ्या बोलते हैं। क्योंकि जो पदार्थ वर्तमान होवे, मूर्तीक स्थूल प्रदेश सहित होवे, तथा निकट होवे, उसीको इन्द्रियज्ञान क्रमसे कुछेक जानसकता है / अप्रदेशी, अमूर्तीक तथा अतीत अनागतकाल संबंधी जो पदार्थ हैं, उनको नहीं जान सकता / ऐसे ज्ञानसे सर्वज्ञ पदवी कहाँसे मिल सकती है ? कहींसे भी नहीं
गाथा -42
परिणमदि णेयमढे णादा जदि णेव खाइगं तस्स /
णाणं ति तं जिणिदा खवयंतं कम्ममेवुत्ता // 42 //
अन्वयार्थ- (णादा) ज्ञाता (जदि) यदि (णेयमट्ठं) ज्ञेय पदार्थ रूप (परिणमदि) परिणमित होता हो तो (तस्स) उसके (खाइगं णाणं) क्षायिक ज्ञान (णेव त्ति) होता ही नहीं, (जिणिंदा) जिनेन्द्र देवों ने (तं) उसे (कम्ममेव) कर्म को ही (खवयंतो) अनुभव करने वाला (उत्ता) कहा है।
आगे अतीन्द्रियज्ञानमें इष्ट अनिष्ट पदार्थों में सविकल्परूप परिणमन क्रिया नहीं है, ऐसा दिखलाते हैं—[यदि] जो [ज्ञाता] जाननेवाला आत्मा [ज्ञेयमर्थ] ज्ञेयपदार्थको [परिणमति] संकल्प विकल्परूप होकर परिणमन करता है, [तदा] तो [तस्य] उस आत्माके [क्षायिकं ज्ञानं] कर्मके क्षयसे उत्पन्न हुआ अतीन्द्रियज्ञान [नैव] निश्चयसे नहीं है, [इति 'हेतोः'] इसलिये [जिनेन्द्राः ] सर्वज्ञदेव [तं] उसविकल्पी जीवको [कर्म क्षपयन्तं] कर्मका अनुभव करनेवाला [एव] ही [उक्तवन्तः] कहते हैं /
भावार्थ-
जबतक आत्मा सविकल्परूप पदार्थोको जानता है, तबतक उसके क्षायकज्ञान नहीं होता, क्योंकि जो जीव सविकल्पी है, वह प्रत्येक पदार्थमें रागी हुआ मृगतृष्णा-उग्र गर्मीमें तपी हुई बालमें जलकी सी बुद्धि रखता हुआ, कर्मीको भोगता है / इसी लिये उसके निर्मल ज्ञानका लाभ नहीं है / परन्तु क्षायिकज्ञानीके भावरूप इन्द्रियों के अभावसे पदार्थोंमें सविकल्परूप परिणति नहीं होती है, क्योंकि निरावरण अतीन्द्रियज्ञानसे अनंत सुख अपने साक्षात् अनुभव गोचर है। परोक्षज्ञानीके इन्द्रियोंके आधीन सविकल्परूप परिणति है, इसलिये वह कर्मसंयोगसे प्राप्त हुए पदार्थोंको भोगता है
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 41, 42
गाथा 041 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि अतींद्रिय ज्ञान वह ज्ञान है जो
• जो द्रव्य प्रदेश रहित हैं, जो द्रव्य प्रदेश सहित हैं- वह ज्ञान ऐसे पदार्थों को जानता है
• मूर्तिक एवं अमूर्तिक पदार्थ को जानता है
• सभी पदार्थ और उनकी सभी पर्याएँ
• जो पर्याय अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं और जो उत्पन्न होके नष्ट हो गई हैं
• भविष्य, भूत काल की पर्याय को जानता है ।
• ज्ञेय,पदार्थ को पकड़ रहा है।
पूज्य श्री कहते हैं कि हमें इन्द्रिय ज्ञान को छोढ़कर अतींद्रिय ज्ञान को अपने ध्यान का विषय बनाना चाहिए। हमें आत्मा के अविमुख अपने ध्यान को ले जाना है। उन ज्ञान मय आत्माओं का ध्यान करना चाहिए।
गाथा 042 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि
• यदि ज्ञाता ज्ञेय भूत पदार्थों में परिणमन करेगा तो क्षायिक ज्ञान नहीं हो पाएगा।
• क्षायिक ज्ञान ज्ञेयों के अनुसार परिणमन नहीं करता। ज्ञेय में परिणमन नहीं करता।
• सर्वज्ञ भगवान पदार्थों को क्रम से नहीं जानते। उनके ज्ञान में सब कुछ एक साथ झलकता है।
• पूज्य श्री कहते हैं कि हमें इंद्रियो के विषय से हटकर पदार्थ को बिना राग द्वेष के जानना चाहिए।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -41
अपदेस सपदेस मुत्तममुत्तं च पजयमजादं /
पलयं गयं च जाणदि तं णाणमदिदियं भणियं // 41 //
अन्वयार्थ- (अपदेसं) जो अप्रदेश को (सपदेसं) सप्रदेश को (मुत्तं) मूर्त को (अमुत्तं च) और अमूर्त को तथा (अजादं) अनुत्पन्न (च) और (पलयं गदं) नष्ट (पज्जयं) पर्याय को (जाणदि) जानता है (तं णाणं) वह ज्ञान (अदिंदियं) अतीन्द्रिय (भणिदं) कहा गया है।
आगे अतीन्द्रियज्ञान सबको जानता है, ऐसा कहते हैं-[यत् जो ज्ञान [अप्रदेश प्रदेश रहित कालाणु तथा परमाणुओंको, [सप्रदेश प्रदेश सहितको अर्थात् पंचास्तिकायोंको मृत] पुद्गलोंकोच और अमूर्त शुद्ध जीवादिक द्रव्योंको [अजातं पर्यायं] अनागत पर्यायोंको [च] और [प्रलयं गतं] अतीत पर्यायोंको [जानाति] जानता है [तत् ज्ञानं] उस ज्ञानको [अतीन्द्रियं] अतीन्द्रिय [भणितं कहा है।
भावार्थ
अतीन्द्रियज्ञान सबको जानता है, इसलिये अतीन्द्रियज्ञानीको ही सर्वज्ञ पद है / जो इन्द्रियज्ञानसे सर्वज्ञ मानते हैं, वे प्रत्यक्ष मिथ्या बोलते हैं। क्योंकि जो पदार्थ वर्तमान होवे, मूर्तीक स्थूल प्रदेश सहित होवे, तथा निकट होवे, उसीको इन्द्रियज्ञान क्रमसे कुछेक जानसकता है / अप्रदेशी, अमूर्तीक तथा अतीत अनागतकाल संबंधी जो पदार्थ हैं, उनको नहीं जान सकता / ऐसे ज्ञानसे सर्वज्ञ पदवी कहाँसे मिल सकती है ? कहींसे भी नहीं
गाथा -42
परिणमदि णेयमढे णादा जदि णेव खाइगं तस्स /
णाणं ति तं जिणिदा खवयंतं कम्ममेवुत्ता // 42 //
अन्वयार्थ- (णादा) ज्ञाता (जदि) यदि (णेयमट्ठं) ज्ञेय पदार्थ रूप (परिणमदि) परिणमित होता हो तो (तस्स) उसके (खाइगं णाणं) क्षायिक ज्ञान (णेव त्ति) होता ही नहीं, (जिणिंदा) जिनेन्द्र देवों ने (तं) उसे (कम्ममेव) कर्म को ही (खवयंतो) अनुभव करने वाला (उत्ता) कहा है।
आगे अतीन्द्रियज्ञानमें इष्ट अनिष्ट पदार्थों में सविकल्परूप परिणमन क्रिया नहीं है, ऐसा दिखलाते हैं—[यदि] जो [ज्ञाता] जाननेवाला आत्मा [ज्ञेयमर्थ] ज्ञेयपदार्थको [परिणमति] संकल्प विकल्परूप होकर परिणमन करता है, [तदा] तो [तस्य] उस आत्माके [क्षायिकं ज्ञानं] कर्मके क्षयसे उत्पन्न हुआ अतीन्द्रियज्ञान [नैव] निश्चयसे नहीं है, [इति 'हेतोः'] इसलिये [जिनेन्द्राः ] सर्वज्ञदेव [तं] उसविकल्पी जीवको [कर्म क्षपयन्तं] कर्मका अनुभव करनेवाला [एव] ही [उक्तवन्तः] कहते हैं /
भावार्थ-
जबतक आत्मा सविकल्परूप पदार्थोको जानता है, तबतक उसके क्षायकज्ञान नहीं होता, क्योंकि जो जीव सविकल्पी है, वह प्रत्येक पदार्थमें रागी हुआ मृगतृष्णा-उग्र गर्मीमें तपी हुई बालमें जलकी सी बुद्धि रखता हुआ, कर्मीको भोगता है / इसी लिये उसके निर्मल ज्ञानका लाभ नहीं है / परन्तु क्षायिकज्ञानीके भावरूप इन्द्रियों के अभावसे पदार्थोंमें सविकल्परूप परिणति नहीं होती है, क्योंकि निरावरण अतीन्द्रियज्ञानसे अनंत सुख अपने साक्षात् अनुभव गोचर है। परोक्षज्ञानीके इन्द्रियोंके आधीन सविकल्परूप परिणति है, इसलिये वह कर्मसंयोगसे प्राप्त हुए पदार्थोंको भोगता है
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 41, 42
गाथा 041 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि अतींद्रिय ज्ञान वह ज्ञान है जो
• जो द्रव्य प्रदेश रहित हैं, जो द्रव्य प्रदेश सहित हैं- वह ज्ञान ऐसे पदार्थों को जानता है
• मूर्तिक एवं अमूर्तिक पदार्थ को जानता है
• सभी पदार्थ और उनकी सभी पर्याएँ
• जो पर्याय अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं और जो उत्पन्न होके नष्ट हो गई हैं
• भविष्य, भूत काल की पर्याय को जानता है ।
• ज्ञेय,पदार्थ को पकड़ रहा है।
पूज्य श्री कहते हैं कि हमें इन्द्रिय ज्ञान को छोढ़कर अतींद्रिय ज्ञान को अपने ध्यान का विषय बनाना चाहिए। हमें आत्मा के अविमुख अपने ध्यान को ले जाना है। उन ज्ञान मय आत्माओं का ध्यान करना चाहिए।
गाथा 042 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि
• यदि ज्ञाता ज्ञेय भूत पदार्थों में परिणमन करेगा तो क्षायिक ज्ञान नहीं हो पाएगा।
• क्षायिक ज्ञान ज्ञेयों के अनुसार परिणमन नहीं करता। ज्ञेय में परिणमन नहीं करता।
• सर्वज्ञ भगवान पदार्थों को क्रम से नहीं जानते। उनके ज्ञान में सब कुछ एक साथ झलकता है।
• पूज्य श्री कहते हैं कि हमें इंद्रियो के विषय से हटकर पदार्थ को बिना राग द्वेष के जानना चाहिए।