प्रवचनसारः गाथा - 50, 51, 52 क्षायिक ज्ञान , क्षयोपशम ज्ञान
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -50 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -51 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

उप्पज्जदि जदि णाणं कमसो अट्ठे पडुच्च णाणिस्स।
तण्णेव हवदि णिच्चं ण खाइयं णेव सव्वगदं ॥50॥

अन्वयार्थ - (जदि) यदि (णाणिस्स णाणं) आत्मा का ज्ञान (कमसो) क्रमशः (अट्ठे पडुच्च) पदार्थों का अवलम्बन लेकर (उप्पज्जदि) उत्पन्न होता हो, (तं) तो वह (ज्ञान) (णेव णिच्चं हवदि) नित्य नहीं है, (ण खाइगं) क्षायिक नहीं है (णेव सव्वगदं) और सर्वगत् नहीं हैं।


आगे जो ज्ञान पदार्थोंको क्रमसे जानता है, वह सर्वगत नहीं हो सकता, ऐसा सिद्ध करते हैं-[यदि जो [ज्ञानिनः] आत्माका [ज्ञानं] चैतन्यगुण [अर्थान् ] पदार्थोंको [क्रमशः] क्रमसे [प्रतीत्य] अवलम्बन करके [उत्पद्यते] उत्पन्न होता है, [तदा] तो [तत्] वह ज्ञान [नैव] न तो [नित्यं] अबिनाशी [भवति है, [न क्षायिकं] न क्षायिक है, और [नैव सर्वगतं] न सबका जाननेवाला होता है / भावार्थ-जो ज्ञान एक एक पदार्थका अवलम्बन ( ग्रहण) करके क्रमसे प्रवर्तता है, एक ही बार सबको नहीं जानता है, वह ज्ञान विनाशीक है, एक पदार्थके अवलम्बनसे उत्पन्न होता है, दूसरेके ग्रहणसे नष्ट होता है, इस कारण अनित्य है / यही ज्ञानावरणीकर्मके क्षयोपशमसे हीनाधिक होता है, इसलिये क्षायिक भी नहीं है, किंतु क्षयोपशमरूप है, और अनंत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव जाननेमें असमर्थ है, इसलिये सबके न जाननेसे असर्वगत है। सारांश यह है, कि जिस ज्ञानसे पदार्थ क्रमपूर्वक जाने जाते हैं, वह ज्ञान पराधीन है / ऐसे ज्ञानसे सर्वज्ञ पदका होना असिद्ध है, अर्थात् सर्वज्ञ नहीं कहा जाता

गाथा -51 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -52 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

तिकालणिचविसमं सयलं सव्वत्थ संभवं चित्तं /
जुगवं जाणदि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं // 51 //


अन्वयार्थ - (तक्कालणिच्चविसमं) तीनों काल में सदा विषम (असमान जाति के) (सव्वत्थ संभवं) सर्वक्षेत्र के (चित्तं) अनेक प्रकार के (सकलं) समस्त पदार्थों को (जोण्हं) जिनदेव का ज्ञान (जुगवं जाणदि) एक साथ जानता है। (अहो हि) अहो! (णाणस्स माहप्पं) ज्ञान का माहात्म्य।

आगे जो ज्ञान एक ही बार सबको जानता है, उस ज्ञानसे सर्वज्ञ पदकी सिद्धि है, ऐसा कहते हैं-[जैनं] केवलज्ञान नित्यविषमं] अतीतादि तीनों कालसे सदाकाल ( हमेशा) असम ऐसे [सर्वत्र संभवं] सब लोकमें तिष्ठते [चित्रं] नाना प्रकारके [सकलं] सब पदार्थ [युगपत् ] एक ही बार [जानाति] जानता है / [अहो] हे भव्यजीवो, [हि] निश्चयकर यह [ज्ञानस्य] ज्ञानकी [माहात्म्यं] महिमा है / भावार्थ-जो ज्ञान एक ही बार सकल पदार्थोंका अवलंबनकर प्रवर्तता है, वह नित्य है, क्षायिक है, और सर्वगत है / जिस कारण केवलज्ञानमें सब पदार्थ टंकोत्कीर्णन्यायसे प्रतिभासते हैं, और प्रकार नहीं / इस ज्ञानको कुछ और जानना अवशेष ( बाकी ) नहीं है, जो इसमें ज्ञेयाकारोंकी पलटना होवे, इस कारण यह ज्ञान नित्य है। इस ज्ञानकी कोई शक्ति कर्मसे ढंकी हुई नहीं है, अनंत शक्तियाँ खुली हैं, इसलिये यह ज्ञान क्षायिक है, और यह अनंतद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंको प्रगट करता है, इससे यह ज्ञान सर्वगत है / सारांश-केवलज्ञानकी महिमा कोई भी नहीं कह सकता, ऐसे ही ज्ञानसे सर्वज्ञ पदकी सिद्धि होती है | 

गाथा -52 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -53 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

ण वि परिणमदि ण गेण्हदि उप्पजदिणेव तेसु अढेसु /
जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो // 52 //


अन्वयार्थ - (आदा) आत्मा (केवलज्ञानी) (ते जाणण्णवि) पदार्थों को जानता हुआ भी (ण वि परिणमदि) उस रूप परिणमित नहीं होता, (ण गेण्हदि) उन्हें ग्रहण नहीं करता (अट्ठेसु णेव उप्पज्जदि) और उन पदार्थों के रूप नहीं होता (तेण) इसलिये (अबंधगो पण्णत्तो) उसे अबन्धक कहा है।

आगे केवलीके ज्ञानकी क्रिया है, परंतु क्रियाका फल-बंध नहीं है, ऐसा कथन संक्षेपसे कहकर आचार्य ज्ञानाधिकार पूरा करते हैं-आत्मा] केवलज्ञानी शुद्धात्मा [ तान् ] उन पदार्थीको [जानन् अपि] जानता हुआ भी [ येन ] जिस कारण [ अपि] निश्चय करके [न परिणमति] न तो परिणमता है, [न गृह्णाति] न ग्रहण करता है, [ नैव] और न [ तेषु अर्थेषु] उन पदार्थोंमें [ उत्पद्यते] उत्पन्न होता है, [तेन] उसी कारणसे वह [अबन्धकः] नवीन कर्मबंधसे रहित [प्रज्ञप्तः] कहा गया है। भावार्थयद्यपि केवलज्ञानी सब पदार्थोंको जानता है, तो भी उन पदार्थोंको राग, द्वेष, मोह भावसे न परिणमता है, न ग्रहण करता है, और न उनमें उत्पन्न होता है, इस कारण बंध रहित है / क्रिया दो प्रकारकी है, एक ज्ञप्तिक्रिया और दूसरी ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया, उनमें ज्ञानकी राग द्वेष मोह रहित जाननेरूप क्रियाको 'ज्ञप्तिक्रिया' और जो राग द्वेष मोहकर पदार्थका जानना, ऐसी क्रियाको 'ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया' कहते हैं। इनमें से ज्ञेयार्थपरिणमनक्रियासे बंध होता है, ज्ञप्तिक्रियासे नहीं होता / केवलीके ज्ञप्तिक्रिया है, इसलिये उनके बंध नहीं है / पहले "उदयगदा कम्मंसा" आदि गाथासे ज्ञेयार्थ परिणमन क्रियाको बँधका कारण कहा है, सो यह केवलीके नहीं है / और "गेण्हदि णेव ण मुंचदि" आदि गाथासे केवलीके देखने जाननेरूप क्रिया कही है, सो इस ज्ञप्तिक्रियासे बंध नहीं है|

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 50, 51, 52

क्षायिक ज्ञान , क्षयोपशम ज्ञान

इस विडियो के माध्यम से हम जानेंगे क्षयोपशम ज्ञान क्या जानता है और क्षायिक ज्ञान क्या जानता है? क्षयोपशम ज्ञान जिस तरह से जानता है उस तरह से क्षायिक ज्ञान नहीं जानता है!

क्षयोपशम ज्ञान पराधीन होता है जबकि क्षायिक ज्ञान पराधीन नहीं होता है!

हम कभी भी पांचो इंद्रियों से किसी भी पदार्थ को एक साथ नहीं जान सकते है! कोई भी इन्द्रिय एक समय में एक ही प्रकार का उपयोग रखती है।

मतिज्ञान हमेशा क्रम - क्रम से ही जानता है। क्रमशः होने वाला ज्ञान कभी नित्य नहीं होता है।

अंतर मुहूर्त का मतलब केवल 48 मिनट ही नहीं होता है । एक सेकंड भी  अंतर मुहूर्त में ही आता है। 1 सेकंड का  दसवॉं बीसवॉं भाग भी अंतर मुहूर्त में आता है।

क्षायिक ज्ञान एक साथ सभी पदार्थों को जानता है।



Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
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#2

Gatha -50 

The knowledge (jñāna) that originates sequentially, having recourse to one object at a time, is not eternal (avināśī), is not born out of the destruction of karmas – kÈāyika, and is not allpervasive (sarvagata). 

Explanatory Note: 
The knowledge that originates sequentially and knows the objects one by one is destructible (anitya) – it appears with focus on one object and disappears as focus shifts to
another object. It originates due to destruction-cum-subsidence (ksayopaśama) of the knowledge-obscuring (jñānāvaraõīya) karma and, therefore, changes in degree. Since it does not originate on destruction of the knowledge-obscuring (jñānāvaraõīya) karma, it is not ksāyika. Not able to know the infinitude of objects in regard to their quaternion of substance (dravya), place (ksetra), time (kāla), and being (bhāva), it is not all-pervasive (sarvagata). In essence, the knowledge that originates sequentially and knows the objects one by one is dependent; the owner of such knowledge cannot be the all-knowing Omniscient or the Sarvajña. 

Gatha-51 

The perfect-knowledge (kevalajñāna) of the Omniscient knows simultaneously and eternally the whole range of objects of the three times, in the three worlds, having dissimilar and variegated nature. O worthy souls, this is truly the glory of the perfect-knowledge (kevalajñāna).

Explanatory Note: 
As the direct, perfect knowledge (kevalajñāna) that reflects simultaneously all objects-of-knowledge (jñeya) by taking their form needs no changeover or transition, it is non-destructible (nitya). As it originates on destruction of the knowledge-obscuring (jñānāvaraõīya) karma, it is ksāyika. As it knows the infinitude of objects with regard to their quaternion of substance (dravya), place (ksetra), time (kāla), and  being (bhāva), it is all-pervasive (sarvagata). It is impossible to describe the perfect-knowledge (kevalajñāna); only the owner of such knowledge is the all-knowing (the Sarvajña). 

Gatha-52 
Because the pure soul (the Omniscient), while it knows all objects-of-knowledge (jñeya), does not undergo transformation due to these objects, does not become the owner of these objects, and does not originate in form of these objects, therefore, it is free from karmic-bondage (karmabandha). 

Explanatory Note: 
Although the Omniscient soul knows all objects-of-knowledge (jñeya), it does not undergo transformation of attachment (rāga) and aversion (dveÈa) due to these objects; it
neither accepts these nor originates in these. It is, therefore, free from karmic-bondage (karmabandha). Knowledge-activity takes two forms: the activity of knowing – jñaptikriyā,  and the activity of transformation-by-the-known – jñeyārthaparinamanakriyā. The activity of knowing – jñaptikriyā – knows without attachment (rāga) and aversion (dveÈa). The activity of transformation-by-theknown – jñeyārthapariõamanakriyā – knows with attachment (rāga) and aversion (dveÈa). The activity of knowing – jñaptikriyā – does not cause the bondage of karma; the activity of transformation-by-the-known – jñeyārthaparinamanakriyā – causes the bondage of karma. Note that earlier verse (gāthā) 32 expounds that the Omniscient soul sees and knows all objects-ofknowledge (jñeya), but neither accepts nor rejects these objects-ofknowledge; these do not transform the soul. Subsequently, verse (gāthā) 43 expounds that the soul with delusion (moha), attachment (rāga) and aversion (dveÈa), engenders four kinds of karmic-bondage (karmabandha) on fruition of karmas. 
This completes discussion on the knowledge (jñāna).
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -49,50

एक चीज में अनन्त गुण है यों अनन्त चोजें सारो ।
उन्हें नहीं सहसा यदि जाने कैसा पूर्ण बोध धारी ॥
हाँ जो ज्ञान पूरे क्रम से एकैक बात को लेकर के ।
यह अक्षायिक होता है वह कभी न सबको जान सके ॥ २५ ॥

गाथा -51,52
भूत भविष्यत वर्तमान की सब बातो को जिनजीका ।
ज्ञान जानता एक साथमें वही ज्ञान क्षायिक नीका ॥
नहीं किसी भी एक चीज को लेकर बने और बदले ।
ऐसे ज्ञानभावका धारक हो वह क्यों भव बीच रुले ॥ २६ ॥

गाथा -49,50
सारांश : - इस भूतल पर अनन्त द्रव्य हैं। इनमें से प्रत्येक में अनन्त गुण हैं और एक एक गुण की अनन्त पर्यायें होती हैं। इन सबको एक साथ न जानने वाला सर्वज्ञ कैसे हो सकता है? क्रमपूर्वक जानने वाले ज्ञान में एक को जानते समय दूसरे का ज्ञान नहीं और दूसरे को जानते समय पहिले वाले का ज्ञान नहीं रहता है, अतः क्रमबद्ध ज्ञान से सर्वज्ञता असंभव ही है।
यदि यह कहा जाय कि एक एक बात को जानकर जिस प्रकार हम बहुज्ञ बन जाते हैं वैसे ही सर्वज्ञ भी बन सकते हैं सो प्रथम तो ऐसा हो नहीं सकता क्योंकि चीजें अनन्त हैं। एक एक करके उनका अंत ही नहीं आ सकता है। कदाचित् ऐसा मान भी लिया जावे तो अन्त में सब चीजों का ज्ञान हमको एक साथ हुआ, तभी तो सर्वज्ञ हुए। जैसे कि कोई मनुष्य एक एक चीज ला लाकर अपने भण्डार में रखता जा रहा हो और यों कुछ दिनों में सब चीजें इकट्ठी करके सर्वसम्पन्न हो जाता है। उस समय उसके पास सब चीजें होती हैं इसीलिये वह सर्व सम्पन्न कहलाता है। यदि वह इतर वस्तुओंका संग्रह करते करते पूर्व वस्तुओंको नष्ट करता जाय तो सर्व सम्पन्न नहीं बन सकता है। इसी प्रकार क्रमिक ज्ञान में कुछ का ज्ञान एकसाथ होता है और फिर इतर कुछ का ज्ञान होते समय पहिले वाली वस्तु का ज्ञान नहीं रहता क्योंकि ऐसा ज्ञान कर्मोदय के कारण क्षणस्थायी होता है। ऐसी दशा में सर्वज्ञ कैसे हो सकता है?


गाथा -51,52,53,54

सारांश:- इन्द्रियजन्य और इन्द्रियातीत के भेदसे ज्ञान जैसे दो प्रकारका होता है वैसे ही सुख भी दो प्रकारका होता है क्योंकि सुखका ज्ञानके साथमें अविनाभाव सम्बन्ध है। जहाँ ज्ञान होता है, वहाँ सुख होता है और जहाँ ज्ञान नहीं होता है वहाँ सुख भी नहीं होता है।

शङ्काः- -ज्ञानके साथमें सुख ही क्यों? दुःख भी तो हुआ करता है। जब हम लोग शक्कर खाते हैं तब सुख होता है किन्तु नमक खाते हैं तो दुःख होता है।
उत्तर: - तुमने बात कही किन्तु कुछ सोच विचारकर नहीं कहीं। नमक खाने से दुःख ही होता हो, ऐसी बात नहीं है। कभी सुख भी होता है। जैसे किसी शाक में नमक न हो या कम हो तब यह कहा जाता है कि आज शाक में नमक नहीं है, इसलिये अच्छा नहीं लगता है। यहाँ नमक से सुख भी होता है। इसी प्रकार जब एक मनुष्य बरफी खाता है और बरफीमें यदि मावा (खोवा) कम होकर शक्कर अधिक होती है तब कह देता है कि इसमें तो शक्कर ही शक्कर है, इसलिये अच्छी नहीं लगती है। यहाँ शक्कर से सुख न होकर दुःख हो रहा है, अतः न नमक खाने में दुख है और न शक्कर खाने में सुख हैं किन्तु बात कुछ और ही है।
वह यह है कि संसारी आत्मा के ज्ञान के साथ में इच्छा लगी हुई होती है। इस इच्छा में जब कोई बाधा आती है तब उस विपरीत कार्य में ज्ञान सुखरूप न रह कर दुःखरूपमें  परिणत हो जाता है अर्थात् उसमें विकार आ जाता है। इच्छा के होने से ही आत्मा का ज्ञान सर्वाङ्गी व्यापक न होकर एकाङ्गी और क्रमिक बना हुआ है।

मानलो आप किसी शहरके बाजारमें पहुँचे और एक कुकर चूल्हा खरीदने की इच्छासे चले जारहे हैं। अनेक दुकानें आपकी दृष्टिमें आती हैं परन्तु उन्हें छोड़ते हुए आप सीधे किसी बरतनवाले की दुकान पर पहुँचते हैं। वहाँ पर भी कई प्रकार के बरतन रखे हुए हैं जो आपके देखने में आ रहे हैं परन्तु आपका मन तो कुकर चूल्हे की ओर ही है। उधर हो लग रहा है कि यह रहा कुकर चूल्हा । यदि वहाँ कुकर चूल्हा न हो तो आप दुकानदार से पूछते हैं कि क्या तुम्हारे पास कुकर चूल्हा है? इस पर यदि उसने उत्तर दिया कि कुकर चूल्हा तो नहीं है। तब आप शीघ्र ही कह देते हैं कि जब तुम्हारे पास कुकर चूल्हा नहीं है तो और क्या है? कुछ भी नहीं है ऐसा कहकर चल देते हैं।

मार्ग में भी यदि कोई पूछता है कि आप कहाँ गये थे? तब आप यहाँ उत्तर देते हैं कि बाजार में गया था परन्तु बाजार में क्या रक्खा है? कुछ भी तो नहीं है। मुझे एक कुकर की आवश्यकता थी, वहीं यहाँ नहीं मिला। अब विचार की बात है कि यद्यपि बाजार में बहुत सी चीजें हैं किन्तु आपका ज्ञान कुकर की इच्छा से बँधा हुआ है इसीलिये आप ऐसा कहते हैं और दुखी होते हैं। यदि आपके यह इच्छा न हो तो आप ही कह देंगे कि इस बाजार में तो बहुत सी विचित्र विचित्र वस्तुएं हैं। इनको देखकर मेरा मन प्रसन्न हो रहा है। तुम्हें क्या २ बताऊं जिनको देखा उनको मेरा मन हो जानता है। यह तो एक उदाहरण है।

इसी प्रकार संसारी जीव का ज्ञान सदा इच्छाओं में फँसा रहता है, अतः संकुचित हो रहा है। केवल इन्द्रियों के आश्वासन रूप सुखके साथ साथ श्रम रूप दुःख को भी लिये हुए होता है। जिन लोगों ने सब प्रकार की आवश्यकताओं पर विजय प्राप्त करली हो, जो निरीह हो चुके हों, उन्हें जिन कहते हैं। इसका ज्ञान अखण्ड और सबको एकसाथ जाननेवाला होता है। इनका सुख भी स्वाभाविक और शाश्वत होता है, जो उपादेय है। इन्द्रियजन्य ज्ञान और सुख पराधीन होते हैं इसलिये हेय हैं
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