08-25-2022, 09:12 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -59 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -61 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जादं सयं समत्तं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं /
रहियं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणियं // 59 //
आगे यही अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान निश्चयसुख है, ऐसा अभेद दिखाते हैं— [स्वयं जातं] अपने आपसे ही उत्पन्न [ समस्तं] संपूर्ण | अनन्तार्थविस्तृतं] सब पदार्थोंमें फैला हुआ विमलं] निर्मल [तु] और [अवग्रहादिभिः रहितं] अवग्रह, ईहा आदिसे रहित [ज्ञानं ] ऐसा ज्ञान [ ऐकान्तिकं सुख ] निश्चय सुख है, [इति भणितं] इस प्रकार सर्वज्ञने कहा है /
भावार्थ-जिसमें आकुलता न हो, वही सुख है / यह अतीन्द्रियप्रत्यक्षज्ञान आकुलता रहित है, इसलिये सुखरूप है / यह परोक्षज्ञान पराधीन है, क्योंकि परसे (द्रव्येन्द्रियसे ) उत्पन्न है / असंपूर्ण है। क्योंकि आवरण सहित है। सब पदार्थोंको नहीं जाननेसे सबमें विस्ताररूप नहीं है, संकुचित हैं, संशयादिक सहित होनेसे मल सहित है, निर्मल नहीं है, क्रमवर्ती है, क्योंकि अवग्रह ईहादि युक्त है, और खेद (आकुलता) सहित होनेसे निराकुल नहीं है, इसलिये परोक्षज्ञान सुखरूप नहीं है, और यह अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान पराधीनता रहित एक निज शुद्धात्माके कारगको पाकर उत्पन्न हुआ है, इसलिये आपसे ही उत्पन्न है, आवरण रहित होनेसे अपने आत्माके सब प्रदेशोंमें अपनी अनंत शक्ति सहित है, इसलिये सम्पूर्ण है, अपनी ज्ञायकशक्तिके बलसे समस्त ज्ञेयाकारों को मानों पिया ही है, इस कारण सब पदार्थोंमें विस्तीर्ण है, अनन्त शक्तिको बाधा करनेवाले कौके क्षयसे संशय, विमोह, विभ्रम दोष रहित सकल सूक्ष्मादि पदार्थों को स्पष्ट (प्रगट) जानता है, इसलिये निर्मल है, और अतीत, अनागत, वर्तमानकालरूप लोकालोकको एक ही बार जानता है, इसलिये अक्रमवर्ती है, खेदयुक्त नहीं है, निराकुल है, इस कारण प्रत्यक्षज्ञान ही अतीन्द्रियसुख है, ऐसा जानना |
गाथा -60 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -62 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जं केवलं ति णाणं तं सोक्ख परिणमं च सो चेव /
खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा // 6 0//
आगे केवलज्ञानीको सबके जाननेसे खेद उत्पन्न होता होगा, इस प्रकारके तर्कका निषेध करनेको कहते हैं--[यत् ] जो [ केवलं इति] केवल ऐसे नामवाला ज्ञानं ज्ञान है, [तत्] वह [सौख्यं] अनाकुल सुख है, [च] और [स एवं] वही सुख परिणामः] सबके जाननेरूप परिणाम है / [तस्य] उस केवलज्ञानके [खेदः] आकुलभाव [न भणितः] नहीं कहा है, [यस्मात् ] क्योंकि [घातीनि ] ज्ञानावरणादि चार घातियाकर्म [क्षयं] नाशको [जातानि] प्राप्त हुए हैं।
भावार्थ-मोहकर्मके उदयसे यह आत्मा मतवालासा होकर असत्य वस्तुमें सत् बुद्धिको धारता हुआ ज्ञेय पदार्थोंमें परिणमन करता है, जिससे कि वे घातियाकर्म इसे इन्द्रियोंके आधीन करके पदार्थक जाननेरूप परिणमाते खेदके कारण होते हैं। इससे सिद्ध हुआ, कि घातियाकौके होनेपर आत्माके जो अशुद्ध ज्ञानपरिणाम हैं, वे खेदके कारण हैं-अर्थात् ज्ञानको खेदके कारण घातियाकर्म हैं / परंतु जहाँ इन घातियाकर्मीका अभाव है, वहाँ केवलज्ञानावस्थामें खेद नहीं हो सकता, क्योंकि "कारणके अभावसे कार्यका भी अभाव हो जाता है" ऐसा न्याय है। एक ही समय त्रिकालवर्ती सब ज्ञेयोंको जाननेमें समर्थ चित्र विचित्र भीतकी तरह अनन्तस्वरूप परिणाम हैं, वह केवलज्ञान परिणाम है / इस स्वाधीन परिगाममें खेदके उत्पन्न होनेकी संभावना कैसे हो सकती है ? ज्ञान स्वभावके घातनेवाले कमौका नाश होनेसे ज्ञानकी अनंतशक्ति प्रगट होती है, उससे समस्त लोकालोकके आकारको व्याप्त कर कूटस्थ अवस्थासे, अत्यंत निश्चल तथा आत्मासे, अभिन्न अनन्तसुखरूप अनाकुलता सहित केवलज्ञान ही सुख है, ज्ञान और सुखमें कोई भेद नहीं है / इस कारण सब तरहसे निश्चयकर केवलज्ञानको ही सुख मानना योग्य है |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 59, 60
गाथा 59
अन्वयार्थ - (सयं जादं) अपने आप ही उत्पन्न (समतं) समस्त (सर्व प्रदेशों से जानता हुआ) (अणंतत्थवित्थडं) अनन्त पदार्थों में विस्तृत (विमलं) विमल (तु) और (ओग्गहादिहि रहिदं) अवग्रहादि से रहित (णाणं) ज्ञान (एयंतियं सुहं) ऐकान्तिक सुख हैं, (त्ति भणिदं) ऐसा (सर्वज्ञदेव ने) कहा हैं।
यहाँ यह बताया है कि केवल ज्ञान और अनंत सुख आत्मा में एक साथ पैदा होते हैं। सुख जो होता है वह स्वयं में उत्पन्न होता है।भगवान का ज्ञान संशय रहित और निर्मल होता है जबकि हमारे ज्ञान में संशय रहता है।
गाथा 60
अन्वयार्थ - (जं) जो (केवलं त्ति णाणं) केवल नाम का ज्ञान है, (तं सोक्खं) वह सुख है, (परिणमं च) परिणाम भी (सो चेव) वही है, (तस्स खेदो ण भणिदो) उसे खेद नहीं कहा है, (केवलज्ञान में सर्वज्ञदेव ने खेद नहीं कहा) (जम्हा) क्योंकि (घादी) घाति कर्म (खयं जादा) क्षय को प्राप्त हुए हैं।
भगवान का केवलज्ञान ही होना सुखमय हैं ,यही कारण है कि अनंत पदार्थो के ज्ञान होने पर उनको मोह या खेद नहीं होता,,क्योकि उन केवली भगवान के घाती कर्मो का नाश हो गया है।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -59 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -61 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जादं सयं समत्तं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं /
रहियं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणियं // 59 //
आगे यही अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान निश्चयसुख है, ऐसा अभेद दिखाते हैं— [स्वयं जातं] अपने आपसे ही उत्पन्न [ समस्तं] संपूर्ण | अनन्तार्थविस्तृतं] सब पदार्थोंमें फैला हुआ विमलं] निर्मल [तु] और [अवग्रहादिभिः रहितं] अवग्रह, ईहा आदिसे रहित [ज्ञानं ] ऐसा ज्ञान [ ऐकान्तिकं सुख ] निश्चय सुख है, [इति भणितं] इस प्रकार सर्वज्ञने कहा है /
भावार्थ-जिसमें आकुलता न हो, वही सुख है / यह अतीन्द्रियप्रत्यक्षज्ञान आकुलता रहित है, इसलिये सुखरूप है / यह परोक्षज्ञान पराधीन है, क्योंकि परसे (द्रव्येन्द्रियसे ) उत्पन्न है / असंपूर्ण है। क्योंकि आवरण सहित है। सब पदार्थोंको नहीं जाननेसे सबमें विस्ताररूप नहीं है, संकुचित हैं, संशयादिक सहित होनेसे मल सहित है, निर्मल नहीं है, क्रमवर्ती है, क्योंकि अवग्रह ईहादि युक्त है, और खेद (आकुलता) सहित होनेसे निराकुल नहीं है, इसलिये परोक्षज्ञान सुखरूप नहीं है, और यह अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान पराधीनता रहित एक निज शुद्धात्माके कारगको पाकर उत्पन्न हुआ है, इसलिये आपसे ही उत्पन्न है, आवरण रहित होनेसे अपने आत्माके सब प्रदेशोंमें अपनी अनंत शक्ति सहित है, इसलिये सम्पूर्ण है, अपनी ज्ञायकशक्तिके बलसे समस्त ज्ञेयाकारों को मानों पिया ही है, इस कारण सब पदार्थोंमें विस्तीर्ण है, अनन्त शक्तिको बाधा करनेवाले कौके क्षयसे संशय, विमोह, विभ्रम दोष रहित सकल सूक्ष्मादि पदार्थों को स्पष्ट (प्रगट) जानता है, इसलिये निर्मल है, और अतीत, अनागत, वर्तमानकालरूप लोकालोकको एक ही बार जानता है, इसलिये अक्रमवर्ती है, खेदयुक्त नहीं है, निराकुल है, इस कारण प्रत्यक्षज्ञान ही अतीन्द्रियसुख है, ऐसा जानना |
गाथा -60 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -62 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जं केवलं ति णाणं तं सोक्ख परिणमं च सो चेव /
खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा // 6 0//
आगे केवलज्ञानीको सबके जाननेसे खेद उत्पन्न होता होगा, इस प्रकारके तर्कका निषेध करनेको कहते हैं--[यत् ] जो [ केवलं इति] केवल ऐसे नामवाला ज्ञानं ज्ञान है, [तत्] वह [सौख्यं] अनाकुल सुख है, [च] और [स एवं] वही सुख परिणामः] सबके जाननेरूप परिणाम है / [तस्य] उस केवलज्ञानके [खेदः] आकुलभाव [न भणितः] नहीं कहा है, [यस्मात् ] क्योंकि [घातीनि ] ज्ञानावरणादि चार घातियाकर्म [क्षयं] नाशको [जातानि] प्राप्त हुए हैं।
भावार्थ-मोहकर्मके उदयसे यह आत्मा मतवालासा होकर असत्य वस्तुमें सत् बुद्धिको धारता हुआ ज्ञेय पदार्थोंमें परिणमन करता है, जिससे कि वे घातियाकर्म इसे इन्द्रियोंके आधीन करके पदार्थक जाननेरूप परिणमाते खेदके कारण होते हैं। इससे सिद्ध हुआ, कि घातियाकौके होनेपर आत्माके जो अशुद्ध ज्ञानपरिणाम हैं, वे खेदके कारण हैं-अर्थात् ज्ञानको खेदके कारण घातियाकर्म हैं / परंतु जहाँ इन घातियाकर्मीका अभाव है, वहाँ केवलज्ञानावस्थामें खेद नहीं हो सकता, क्योंकि "कारणके अभावसे कार्यका भी अभाव हो जाता है" ऐसा न्याय है। एक ही समय त्रिकालवर्ती सब ज्ञेयोंको जाननेमें समर्थ चित्र विचित्र भीतकी तरह अनन्तस्वरूप परिणाम हैं, वह केवलज्ञान परिणाम है / इस स्वाधीन परिगाममें खेदके उत्पन्न होनेकी संभावना कैसे हो सकती है ? ज्ञान स्वभावके घातनेवाले कमौका नाश होनेसे ज्ञानकी अनंतशक्ति प्रगट होती है, उससे समस्त लोकालोकके आकारको व्याप्त कर कूटस्थ अवस्थासे, अत्यंत निश्चल तथा आत्मासे, अभिन्न अनन्तसुखरूप अनाकुलता सहित केवलज्ञान ही सुख है, ज्ञान और सुखमें कोई भेद नहीं है / इस कारण सब तरहसे निश्चयकर केवलज्ञानको ही सुख मानना योग्य है |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 59, 60
गाथा 59
अन्वयार्थ - (सयं जादं) अपने आप ही उत्पन्न (समतं) समस्त (सर्व प्रदेशों से जानता हुआ) (अणंतत्थवित्थडं) अनन्त पदार्थों में विस्तृत (विमलं) विमल (तु) और (ओग्गहादिहि रहिदं) अवग्रहादि से रहित (णाणं) ज्ञान (एयंतियं सुहं) ऐकान्तिक सुख हैं, (त्ति भणिदं) ऐसा (सर्वज्ञदेव ने) कहा हैं।
यहाँ यह बताया है कि केवल ज्ञान और अनंत सुख आत्मा में एक साथ पैदा होते हैं। सुख जो होता है वह स्वयं में उत्पन्न होता है।भगवान का ज्ञान संशय रहित और निर्मल होता है जबकि हमारे ज्ञान में संशय रहता है।
गाथा 60
अन्वयार्थ - (जं) जो (केवलं त्ति णाणं) केवल नाम का ज्ञान है, (तं सोक्खं) वह सुख है, (परिणमं च) परिणाम भी (सो चेव) वही है, (तस्स खेदो ण भणिदो) उसे खेद नहीं कहा है, (केवलज्ञान में सर्वज्ञदेव ने खेद नहीं कहा) (जम्हा) क्योंकि (घादी) घाति कर्म (खयं जादा) क्षय को प्राप्त हुए हैं।
भगवान का केवलज्ञान ही होना सुखमय हैं ,यही कारण है कि अनंत पदार्थो के ज्ञान होने पर उनको मोह या खेद नहीं होता,,क्योकि उन केवली भगवान के घाती कर्मो का नाश हो गया है।