प्रवचनसारः गाथा -59, 60 - दुख का कारण ज्ञान/मन की आकुलता
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -59 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -61 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


जादं सयं समत्तं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं /
रहियं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणियं // 59 //


आगे यही अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान निश्चयसुख है, ऐसा अभेद दिखाते हैं— [स्वयं जातं] अपने आपसे ही उत्पन्न [ समस्तं] संपूर्ण | अनन्तार्थविस्तृतं] सब पदार्थोंमें फैला हुआ विमलं] निर्मल [तु] और [अवग्रहादिभिः रहितं] अवग्रह, ईहा आदिसे रहित [ज्ञानं ] ऐसा ज्ञान [ ऐकान्तिकं सुख ] निश्चय सुख है, [इति भणितं] इस प्रकार सर्वज्ञने कहा है / 

भावार्थ-जिसमें आकुलता न हो, वही सुख है / यह अतीन्द्रियप्रत्यक्षज्ञान आकुलता रहित है, इसलिये सुखरूप है / यह परोक्षज्ञान पराधीन है, क्योंकि परसे (द्रव्येन्द्रियसे ) उत्पन्न है / असंपूर्ण है। क्योंकि आवरण सहित है। सब पदार्थोंको नहीं जाननेसे सबमें विस्ताररूप नहीं है, संकुचित हैं, संशयादिक सहित होनेसे मल सहित है, निर्मल नहीं है, क्रमवर्ती है, क्योंकि अवग्रह ईहादि युक्त है, और खेद (आकुलता) सहित होनेसे निराकुल नहीं है, इसलिये परोक्षज्ञान सुखरूप नहीं है, और यह अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान पराधीनता रहित एक निज शुद्धात्माके कारगको पाकर उत्पन्न हुआ है, इसलिये आपसे ही उत्पन्न है, आवरण रहित होनेसे अपने आत्माके सब प्रदेशोंमें अपनी अनंत शक्ति सहित है, इसलिये सम्पूर्ण है, अपनी ज्ञायकशक्तिके बलसे समस्त ज्ञेयाकारों को मानों पिया ही है, इस कारण सब पदार्थोंमें विस्तीर्ण है, अनन्त शक्तिको बाधा करनेवाले कौके क्षयसे संशय, विमोह, विभ्रम दोष रहित सकल सूक्ष्मादि पदार्थों को स्पष्ट (प्रगट) जानता है, इसलिये निर्मल है, और अतीत, अनागत, वर्तमानकालरूप लोकालोकको एक ही बार जानता है, इसलिये अक्रमवर्ती है, खेदयुक्त नहीं है, निराकुल है, इस कारण प्रत्यक्षज्ञान ही अतीन्द्रियसुख है, ऐसा जानना | 

गाथा -60 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -62 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

जं केवलं ति णाणं तं सोक्ख परिणमं च सो चेव /
खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा // 6 0//


आगे केवलज्ञानीको सबके जाननेसे खेद उत्पन्न होता होगा, इस प्रकारके तर्कका निषेध करनेको कहते हैं--[यत् ] जो [ केवलं इति] केवल ऐसे नामवाला ज्ञानं ज्ञान है, [तत्] वह [सौख्यं] अनाकुल सुख है, [च] और [स एवं] वही सुख परिणामः] सबके जाननेरूप परिणाम है / [तस्य] उस केवलज्ञानके [खेदः] आकुलभाव [न भणितः] नहीं कहा है, [यस्मात् ] क्योंकि [घातीनि ] ज्ञानावरणादि चार घातियाकर्म [क्षयं] नाशको [जातानि] प्राप्त हुए हैं। 
भावार्थ-मोहकर्मके उदयसे यह आत्मा मतवालासा होकर असत्य वस्तुमें सत् बुद्धिको धारता हुआ ज्ञेय पदार्थोंमें परिणमन करता है, जिससे कि वे घातियाकर्म इसे इन्द्रियोंके आधीन करके पदार्थक जाननेरूप परिणमाते खेदके कारण होते हैं। इससे सिद्ध हुआ, कि घातियाकौके होनेपर आत्माके जो अशुद्ध ज्ञानपरिणाम हैं, वे खेदके कारण हैं-अर्थात् ज्ञानको खेदके कारण घातियाकर्म हैं / परंतु जहाँ इन घातियाकर्मीका अभाव है, वहाँ केवलज्ञानावस्थामें खेद नहीं हो सकता, क्योंकि "कारणके अभावसे कार्यका भी अभाव हो जाता है" ऐसा न्याय है। एक ही समय त्रिकालवर्ती सब ज्ञेयोंको जाननेमें समर्थ चित्र विचित्र भीतकी तरह अनन्तस्वरूप परिणाम हैं, वह केवलज्ञान परिणाम है / इस स्वाधीन परिगाममें खेदके उत्पन्न होनेकी संभावना कैसे हो सकती है ? ज्ञान स्वभावके घातनेवाले कमौका नाश होनेसे ज्ञानकी अनंतशक्ति प्रगट होती है, उससे समस्त लोकालोकके आकारको व्याप्त कर कूटस्थ अवस्थासे, अत्यंत निश्चल तथा आत्मासे, अभिन्न अनन्तसुखरूप अनाकुलता सहित केवलज्ञान ही सुख है, ज्ञान और सुखमें कोई भेद नहीं है / इस कारण सब तरहसे निश्चयकर केवलज्ञानको ही सुख मानना योग्य है | 

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 59, 60

गाथा 59
अन्वयार्थ - (सयं जादं) अपने आप ही उत्पन्न (समतं) समस्त (सर्व प्रदेशों से जानता हुआ) (अणंतत्थवित्थडं) अनन्त पदार्थों में विस्तृत (विमलं) विमल (तु) और (ओग्गहादिहि रहिदं) अवग्रहादि से रहित (णाणं) ज्ञान (एयंतियं सुहं) ऐकान्तिक सुख हैं, (त्ति भणिदं) ऐसा (सर्वज्ञदेव ने) कहा हैं।
यहाँ यह बताया है कि केवल ज्ञान और अनंत सुख आत्मा में एक साथ पैदा होते हैं। सुख जो होता है वह स्वयं में उत्पन्न होता है।भगवान का ज्ञान संशय रहित और निर्मल होता है जबकि हमारे ज्ञान में संशय रहता है।

गाथा 60
अन्वयार्थ - (जं) जो (केवलं त्ति णाणं) केवल नाम का ज्ञान है, (तं सोक्खं) वह सुख है, (परिणमं च) परिणाम भी (सो चेव) वही है, (तस्स खेदो ण भणिदो) उसे खेद नहीं कहा है, (केवलज्ञान में सर्वज्ञदेव ने खेद नहीं कहा) (जम्हा) क्योंकि (घादी) घाति कर्म (खयं जादा) क्षय को प्राप्त हुए हैं।
भगवान का केवलज्ञान ही होना सुखमय हैं ,यही कारण है कि अनंत पदार्थो के ज्ञान होने पर उनको मोह या खेद नहीं होता,,क्योकि उन केवली भगवान के घाती कर्मो का नाश हो गया है।

Manish Jain Luhadia 
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#2

Gatha 59 
The Omniscient Lord has proclaimed that the knowledge that is self-born, perfect, spread over every object, stainless, and free from stages – including apprehension (avagraha) and speculation (īhā) – is certainly the absolute (pure) happiness. 

Explanatory Note: Happiness or bliss has no associated anxiety. Direct, sense-independent knowledge is without anxiety; therefore, it is happiness. Indirect knowledge is dependent, as it takes help from outside agents (like the mind and the senses). It is incomplete, as it has envelopment of the karmic bonds. It is diminutive, as it does not cover the whole range of objects-of-knowledge (jñeya). It is murky, as it is accompanied by imperfections like doubt (saśaya), delusion (vimoha) and misapprehension (vibhrama). It knows in stages, including apprehension (avagraha) and speculation (īhā). Indirect knowledge is with anxiety, not the natural state of the soul, therefore, not happiness. Direct, sense-independent knowledge, on the other hand, is wholly independent, self-born out of the pure soul. It is complete and without envelopment as it pervades every space-point (pradeśa) of the soul with its infinite energy. It  encompasses all objects-of-knoweldge (jñeya). Rid of the karmic dirt that hinders infinite energy and causes of imperfections like
doubt, it is pristine (nirmala). It knows without stages; it knows simultaneously the whole range of objects-of-knowledge (jñeya) in the universe and beyond, covering the three times. Direct, sense independent knowledge is without-anxiety (nirākula); it is the natural state of the soul, therefore, happiness.

Gatha 60
Perfect knowledge – omniscience (kevalajñāna) – is happiness without anxiety and this happiness is the consequence of knowing everything. There is no anxiety in omniscience
(kevalajñāna) since it is the result of complete destruction of the four inimical (ghātī) karmas. 

Explanatory Note: Due to presence of the deluding (mohanīya) karmas, the soul relates itself to the external objects-of-knowledge (jñeya), turning away from the Reality, as if inebriated. Under the  influence of the inimical (ghātī) karmas, not able to discriminate between the right and the wrong, it continues to dwell in the objects-of-knowledge (jñeya) through the senses and experience anxiety. It is clear, therefore, that presence of the inimical (ghātī) karmas contaminates knowledge; contamination of knowledge causes anxiety. In perfect knowledge – omniscience (kevalajñāna) – the inimical (ghātī) karmas are absent and, therefore, there is no anxiety; there is no effect without the cause. Knowledge of the infinite objects-of-knowledge, of the three times, is reflected simultaneously in the canvas of omniscience (kevalajñāna). Being independent of all external influence, there is no scope for anxiety in the state of omniscience (kevalajñāna). On destruction of all karmas that hinder the knowledge-nature of the soul, pristine knowledge, with infinite glory and strength, appears. The knowledge of the Omniscient pervades the whole of the universe and beyond; this supreme knowledge is utterly steady, no different from the soul and, being the nature of the soul, without anxiety. Therefore, omniscience (kevalajñāna) is real happiness; there is no difference between knowledge and happiness.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -59,60
सहज समस्त अनन्त अर्थगत विमल क्रमार्जित जो है | 
ऐसा केवल बोध विश्वमें वहाँ वास्तविक सुख सो है ॥
विपरिणमनसे रहित केवल ज्ञान सदा सुख करता है।
घातिनाश करनेके कारण वे कदापि न धरता है ॥ ३० ॥


गाथा -59,60

सारांश :- ज्ञानावरणादि आठकों ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय घातिया कर्म हैं। ये आत्माके अनुजीवी गुणोंका घात करते हैं। ज्ञानावरण ज्ञान को नहीं होने देता है, २. दर्शनावरण देखने नहीं देता है, ३. मोहनीय कर्म मुख नहीं होने देता है। और ४. अन्तराय कर्म आत्मबल नहीं होने देता है।
शेष चार कर्म अघाति हैं। ये आत्माके मुख्य गुणोंका घात न करके, उन्हीं घातिया कर्मोकी सहायताके लिए परिकर के रूपमें होते हैं। जैसे १. वेदनीय कर्म और इष्ट व अनिष्ट वस्तुओं का संयोग कराता है, २. आयुकर्म मनुष्यादिरूप किसी भी एक शरीरमें रोककर रखता है, ३. नामकर्म काणा, खोड़ा आदि अनेक प्रकारकी शरीरकी अवस्थायें बना देता है और ४. गोत्र कर्म इस जीव को कभी उच्च और कभी नीच बना देता है। इसप्रकार इन आठ कर्मोका यह संक्षिप्त कार्य है। इनमेंसे श्री अरहंत देवके चार घातिया कर्मों का नाश हो जाता है। इसलिये वे भगवान् अपने पूर्ण आत्मबलसे सम्पूर्ण पदार्थोंके ज्ञाता, द्रष्टा और सदा के लिए सुखी होजाते हैं। इनके सुखके साथमें अब खेदका नाम लेश भी नहीं रहता है।
शङ्काः – अरहंत भगवान्‌के भी खेद का सर्वथा अभाव तो नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इनके भी साता और असाता नामके दोनों प्रकारके वेदनीय कर्मका सद्भाव रहता है। इनका कार्य सुख और दुख देना है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि जो कर्म जिस कारणसे बनता है, वह कर्म अपने फलकाल में उसी को उत्पन्न भी करता है। जैसे कषायें करनेसे मोहनीय कर्म बनता है तो वह कषायोंको ही उत्पन्न कराता है।

तत्वार्थसूत्रके कथनानुसार भी दुःख शोक आदि से असातावेदनीय कर्मका बंध होता है और वह दुःख शोकादिको ही उत्पन्न करता है। इसीका समर्थन आगे नवमें अध्यायमें परिषहोंके वर्णनमें मिलता है। यहाँ पर भी यह बताया है कि- बाईस परिषहोंमें से प्रज्ञा और अज्ञान ये दो परिषह ज्ञानावरणीय कर्मसे होते हैं। अदर्शन परिषह और अलाभ परिषह दर्शनमोह तथा अंतराय कर्मके कारणसे होते हैं। नग्न, अरति, स्वी, आसन, दुर्वचन, याचना और सत्कारपुरस्कार परिषह चारित्रमोह के उदयसे होते हैं। शेष क्षुधा, तृषा, शोत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये ग्यारह परिषह वेदनीय कर्मके उदयसे होते हैं। ये जिन भगवान के  भी होते हैं ऐसा स्पष्ट वर्णन है।

उत्तर:- सभी कर्मोंका बंध मोह राग द्वेष से अर्थात् कषाय भावोंसे होता है। कषाय रहित जीवके किसी भी कर्मका बंध नहीं होता है। ऐसा भी तत्वार्थसूत्रही में लिखा हुआ है। वहाँ बंधकारक साम्परायिकाश्रव और अबंधकारक ईर्यापथाश्रव है, इसप्रकार आश्रवके दो भेद बतलाये हैं। साम्परायिक आश्रव कषाय सहित जीवोंके होता है और कषाय रहित संसारी जीवोंके ईर्यापथ आश्रव होता है, यह एक अनपवाद नियम है। यहाँ पर विशेष विशेष कमौ के विशेष विशेष कारण बताये हैं, वे सब तो तादृश कषायोंके विशेष हैं। उन उन जातिके कषायविशेषों से उनजातिके कर्मोंका विशेष बंध होता है।

जैसे दुःखादिरूप कषाय भाव होनेसे असाता वेदनीयका और दयादिरूप सरल कपाय भाव होनेसे साता वेदनीयका बंध होता है। साता वेदनीयका उदय नियमसे अनुकम्पादिकको उत्पन्न करे ऐसी बात नहीं है। सरागसंयमादिरूप भावसे देवायुका बंध होता है किन्तु देवायुका उदय सरागसंयमादिभावोंको कभी भी उत्पन्न नहीं करता है, वह तो सरागसंयमादिरूप भावोंका विरोधी है।
अपने कारण कलापसे बना हुआ वेदनीय कर्म भी अपने उदयकालमें संसारी रागी द्वेषी जीवको इष्ट और अनिष्ट पदार्थोंका संयोग कराता है। जिनको अपने कषायांशके अनुसार इष्ट और अनिष्ट मानकर यह मोही जीव सुखी और दुखी होता है। वेदनीय कर्म इस जीवको सुखी और दुखी नहीं बनाता है। जैसे एक नगरमें रहने वालोंको निश्चित समाचार मिला कि कल यहाँ बड़े जोरसे भूकम्प होगा जिससे सब मकान नष्ट हो जावेंगे, लोगों को सावधान हो जाना चाहिये। इससे नगरके सब लोग नगरको छोड़कर जंगलमे जाने लगे। सभी नगर निवासियोंके अकस्मात् अशुभका (असातावेदनीयका ) उदय आया जिससे उनका स्थान छूट गया. अब चलते-चलते सामनेसे आता हुआ एक डाकू दिखाई दिया। जो मनुष्य अपने साथ सामान लेकर निकला था, वह सोचने लगा कि कैसा घोर पाप कर्मका उदय आया है। घर तो छूट ही गया परन्तु जो कुछ पासमें है उसे भी यह छीन लेगा। अब क्या किया जावे? ऐसा विचार करके वह घोर दुखी होता है।
दूसरा मनुष्य जो गरीब मजदूर था, जिसके पास कुछ भी नहीं था, वह सोचता है। कि यद्यपि सामने से डाकू आ रहा है परन्तु मेरे पास क्या है? घर तो छूट ही गया अब तो मजदूरी करके पेट भरना है अतः यह डाकू मेरा क्या करेगा? मेरे पास है ही क्या जिसे छीनेगा। ज्यादा करेगा तो मुझे अपने साथ रख लेगा, इसका काम करूंगा और पेट भरूंगा। इसप्रकार वह अत्यन्त विह्वल न होकर कुछ अर्द्ध सुखी सा बनकर तटस्थ होजाता है।

दूसरी ओरसे जानेवाले लोगों की एक साहूकारसे भेंट हो गई। तब जो कुछ काम करने लायक वह विचार है कि घर तो छूटा सो छूटा परन्तु इन सेठ साहबसे भेट होगई अच्छा हुआ, इनकी सहायता कुछ कार्य करूंगा जिससे सब ठीक हो जावेगा | एक मनुष्य वृद्ध है और भी काम धन्धा करनेके योग्य नही है, वह यह सोचता है कि, क्योंकि सेठ है इसलिये कुछ भी काम धन्धा बता सकता है, फिर भी इससे क्या जबकि मै स्वयं भी करनेके योग्य नही हूँ। ऐसा विचार करके वह मध्यस्थ होजाता है।

इन सब उदाहरणोंसे स्पष्ट है कि जिसको जितना मोह है उसको इष्ट और अनिष्ट पदार्थोंके संयोगसे उतना हर्ष और विषाद है। पदार्थोंके प्रति इष्ट अनिष्टकी कल्पना मोहभावसे हुआ करती है इनका संयोग वेदनीय कर्मके उदयसे होता है जिससे यह अज्ञानी संसारी अपनेको सुखी दुखी माना करता है भगवान् केवली के मोहका सर्वथा अभाव होता अत: उन्हें उनके द्वारा सुख दुख न होकर उनकी सदा आनन्दरूप अवस्था बनी रहती है।

शङ्काः- जब भगवान् केवलीके पदार्थ और अनिष्टरूप नही होता है तब उनके लिए वेदनीय कर्मका फल ही क्या रह जाता है?

उत्तरः- आयु कर्म शरीरकी रखता है |नाम तीर्थङ्करत्त्व या अरहन्त करता है | गोत्र कर्मके उदयसे परम परिमेष्टित्व होता और वेदनीय कर्म तत् समयोचित बाह्य पदार्थों संयोग कराता रहता है |जब भगवान् चलते हैं तब उनके चरणोंके नीचे स्वर्ण कमलों की रचना होती रहती परन्तु भगवान् वीतराग होनेके कारण स्पर्श न करके उनके ऊपर अधर चलते अरहन्तोंको प्रकारका खेद न होकर सदा अखण्ड सुख होता |
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