08-28-2022, 02:55 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -65 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -67 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
पप्पा इट्ठे विसये फासेहिं समाहिदे सहावेण।
परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहण्णवि देहो॥ 65॥
अब कहते हैं, कि मुक्तात्माओंको शरीरके विना भी सुख है, इसलिये शरीर सुखका कारण नहीं है— [स्पशैंः ] स्पर्शनादि पाँच इंद्रियोंसे [समाश्रितान् ] भलेप्रकार आश्रित [इष्टान् विषयान् ] प्यारे भोगोंको [प्राप्य] पाकर [स्वभावेन] अशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावसे [परिणममानः आत्मा] परिणमन करता हुआ आत्मा [स्वयमेव] आप ही [सुखं] इंद्रिय-सुखस्वरूप [ भवति ] है, [ देहः ] शरीर ['सुखं' ] सुखरूप [ न ] नहीं है। भावार्थ-इस आत्माके शरीर अवस्थाके होते भी हम यह नहीं देखते हैं, कि सुखका कारण शरीर है / क्योंकि यह आत्मा मोह प्रवृत्तिसे मदोन्मत्त इंद्रियोंके वशमें पड़कर निंदनीय अवस्थाको धारण करता हुआ अशुद्ध ज्ञान, दर्शन, वीर्य, स्वभावरूप परिणमन करता है, और उन विषयोंमें आप ही सुख मान लेता है / शरीर जड़ है, इसलिये सुखरूप कार्यका उपादान कारण अचेतन शरीर कभी नहीं हो सकता / सारांश यह है, कि संसार अवस्थामें भी शरीर सुखका कारण नहीं है, आत्मा ही सुखका कारण हैं |
गाथा -66 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -68(आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा।
विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा // 66 //
आगे "संसार अवस्थामें भी आत्मा ही सुखका कारण है" इसी बातको फिर दृढ़ करते हैं-[एकान्तेन ] सब तरहसे [ हि] निश्चय कर [ देह ] शरीर [देहिनः] देहधारी आत्माको [स्वर्ग वा] स्वर्गमें भी [सुखं.] सुखरूप [ न करोति ] नहीं करता [तु] किंतु [विशयवशेन ] विषयोंके आधीन होकर [आत्मा स्वयं] यह आत्मा आप ही [सौख्यं वा दुःखं] सुखरूप अथवा दुःखरूप [ भवति ] होता है।
भावार्थ-सब गतियोंमें स्वर्गगति उत्कृष्ट है, परंतु उसमें भी उत्तम वैक्रियकशरीर सुखका कारण नहीं है, औरोंकी तो बात क्या है। क्योंकि इस आत्माका एक ऐसा स्वभाव है, कि वह इष्ट अनिष्ट पदार्थोके वश होकर आप ही सुख दुःखकी कल्पना कर लेता है / यथार्थमें शरीर सुख दुःखका कारण नहीं है|
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 65,66
श्री इस गाथा 65 के माध्यम से बताते हैं कि
*संसारी प्राणी का सुख कैसा होता है ? *
* इंद्रियों के आशय से जब इष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाती है तो संसारि प्राणी को सुख होता है।
* इष्ट की प्राप्ति न होने से आत्मा दुःख रूप परिणमन कर लेता है।
* सुख और दुःख केवल अपने मन की कल्पना से आता है। शरीर सुख नहीं देता।
* राग/द्वेष में परिणमन करने से आत्मा को सुख और दुःख होता है।
गाथा 66 से बताते हैं कि एकांत रूप से देह ही सुख नहीं देता है क्योंकि स्वर्ग में भी देह के कारण दुःख उत्पन्न हो सकता है।
गाथा 65
अन्वयार्थ - (फासेहिं समाहिदे) स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ जिनका आश्रय लेती हैं, ऐसे (इट्ठे विसये) इष्ट विषयों को (पप्पा) पाकर (सहावेण) अपने अशुद्ध स्वभाव से (परिणममाणो) परिणमन करता हुआ (अप्पा) आत्मा (सयमेव) स्वयं ही (सुहं) सुखरूप (इन्द्रिय सुखरूप) होता है, (देहो ण) देह सुखरूप नहीं होती।
गाथा 66
अन्वयार्थ - (एगंतेण हि) एकांत से अर्थात् नियम से (सग्गे वा) स्वर्ग में भी (देहो) शरीर (देहिस्स) शरीरी (आत्मा को) (सुहं ण कुणदि) सुख नहीं देता (विसयवसेण दु) परन्तु विषयों के वश से (सोक्खं दुक्खं वा) सुख अथवा दुःख रूप (सयमादा हवदि) स्वयं आत्मा होता है।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -65 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -67 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
पप्पा इट्ठे विसये फासेहिं समाहिदे सहावेण।
परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहण्णवि देहो॥ 65॥
अब कहते हैं, कि मुक्तात्माओंको शरीरके विना भी सुख है, इसलिये शरीर सुखका कारण नहीं है— [स्पशैंः ] स्पर्शनादि पाँच इंद्रियोंसे [समाश्रितान् ] भलेप्रकार आश्रित [इष्टान् विषयान् ] प्यारे भोगोंको [प्राप्य] पाकर [स्वभावेन] अशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावसे [परिणममानः आत्मा] परिणमन करता हुआ आत्मा [स्वयमेव] आप ही [सुखं] इंद्रिय-सुखस्वरूप [ भवति ] है, [ देहः ] शरीर ['सुखं' ] सुखरूप [ न ] नहीं है। भावार्थ-इस आत्माके शरीर अवस्थाके होते भी हम यह नहीं देखते हैं, कि सुखका कारण शरीर है / क्योंकि यह आत्मा मोह प्रवृत्तिसे मदोन्मत्त इंद्रियोंके वशमें पड़कर निंदनीय अवस्थाको धारण करता हुआ अशुद्ध ज्ञान, दर्शन, वीर्य, स्वभावरूप परिणमन करता है, और उन विषयोंमें आप ही सुख मान लेता है / शरीर जड़ है, इसलिये सुखरूप कार्यका उपादान कारण अचेतन शरीर कभी नहीं हो सकता / सारांश यह है, कि संसार अवस्थामें भी शरीर सुखका कारण नहीं है, आत्मा ही सुखका कारण हैं |
गाथा -66 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -68(आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा।
विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा // 66 //
आगे "संसार अवस्थामें भी आत्मा ही सुखका कारण है" इसी बातको फिर दृढ़ करते हैं-[एकान्तेन ] सब तरहसे [ हि] निश्चय कर [ देह ] शरीर [देहिनः] देहधारी आत्माको [स्वर्ग वा] स्वर्गमें भी [सुखं.] सुखरूप [ न करोति ] नहीं करता [तु] किंतु [विशयवशेन ] विषयोंके आधीन होकर [आत्मा स्वयं] यह आत्मा आप ही [सौख्यं वा दुःखं] सुखरूप अथवा दुःखरूप [ भवति ] होता है।
भावार्थ-सब गतियोंमें स्वर्गगति उत्कृष्ट है, परंतु उसमें भी उत्तम वैक्रियकशरीर सुखका कारण नहीं है, औरोंकी तो बात क्या है। क्योंकि इस आत्माका एक ऐसा स्वभाव है, कि वह इष्ट अनिष्ट पदार्थोके वश होकर आप ही सुख दुःखकी कल्पना कर लेता है / यथार्थमें शरीर सुख दुःखका कारण नहीं है|
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 65,66
श्री इस गाथा 65 के माध्यम से बताते हैं कि
*संसारी प्राणी का सुख कैसा होता है ? *
* इंद्रियों के आशय से जब इष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाती है तो संसारि प्राणी को सुख होता है।
* इष्ट की प्राप्ति न होने से आत्मा दुःख रूप परिणमन कर लेता है।
* सुख और दुःख केवल अपने मन की कल्पना से आता है। शरीर सुख नहीं देता।
* राग/द्वेष में परिणमन करने से आत्मा को सुख और दुःख होता है।
गाथा 66 से बताते हैं कि एकांत रूप से देह ही सुख नहीं देता है क्योंकि स्वर्ग में भी देह के कारण दुःख उत्पन्न हो सकता है।
गाथा 65
अन्वयार्थ - (फासेहिं समाहिदे) स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ जिनका आश्रय लेती हैं, ऐसे (इट्ठे विसये) इष्ट विषयों को (पप्पा) पाकर (सहावेण) अपने अशुद्ध स्वभाव से (परिणममाणो) परिणमन करता हुआ (अप्पा) आत्मा (सयमेव) स्वयं ही (सुहं) सुखरूप (इन्द्रिय सुखरूप) होता है, (देहो ण) देह सुखरूप नहीं होती।
गाथा 66
अन्वयार्थ - (एगंतेण हि) एकांत से अर्थात् नियम से (सग्गे वा) स्वर्ग में भी (देहो) शरीर (देहिस्स) शरीरी (आत्मा को) (सुहं ण कुणदि) सुख नहीं देता (विसयवसेण दु) परन्तु विषयों के वश से (सोक्खं दुक्खं वा) सुख अथवा दुःख रूप (सयमादा हवदि) स्वयं आत्मा होता है।