10-24-2022, 08:37 AM
भगवान महावीर के 34 पूर्व भव की कथा
1. पुरूरवा भील
पुंडरीकिणी नगरी के समीपवर्ती मधुक वन का निवासी भील । यह स्वयं भद्र प्रकृति का था और इसकी प्रिया कालिका भी वैसे ही स्वभाव की थी । एक दिन सागरसेन मुनि उस वन में आये । वे अपने संघ से बिछुड़ गये थे । दूर से पुरुरवा ने उन्हें मृग समझकर अपने बाण से मारना चाहा । कालिका ने उसे बाण चढ़ाते देखा । उसने कहा कि ये मृग नहीं है ये तो वन देवता है, वंदनीय हैं । यह उनके पास गया उनकी इसने वंदना की । व्रत अंगीकार किये और मांस का त्याग किया । सत्तों का निर्वाह करते हुए इसने अंत में समाधिमरण किया जिससे यह सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ ।
2. पहले स्वर्ग में देव
3. भरत पुत्र मरीच -
प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के प्रथम पुत्र भरत चक्रवर्ती हुए जिनकी अनंतमति नामक रानी से मरीचि नामक पुत्र हुआ। जब भगवान ऋषभदेव को वैराग्य हुआ और उन्होंने दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण कर ली तब देखा देखी में चार हजार राजाओं के साथ मरीचि ने भी दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण कर ली। पतन का प्रारम्भ भूख प्यास की बाधा न सहन करने के कारण चार हजार राजाओं के साथ मरीचि मुनि भी भ्रष्ट हो गए। और वे सभी तालाबों से पानी पीने लगे, जंगलों में कंद मूल फल आदि खाने लगे। तब वन देवता ने प्रकट होकर कहा यदि तुम लोग मुनि भेष में रहकर यह अनाचार करोगे तो हम तुम्हें दंडित करेंगे । देवता के वचन सुनकर मरीचि ने वृक्षों के बल्कल पहन कर दिगम्बर वेश को छोड़ दिया और मनमानी प्रवृति करने लगा तथा उपदेश देकर एक अन्य झूठा मत खड़ा कर दिया। जब भगवान आदिनाथ को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, तब उन्होंने समवसरण के मध्य में विराजमान होकर दिव्य उपदेश दिया जिसे सुनकर चार हजार राजाओं में से प्रायः साधु पुनः जैन धर्म को समझकर सच्चे मुनि बन गए । किन्तु मरीचि ने अपना हट नहीं छोड़ा और कहने लगा की जिस तरह आदिनाथ ने अपना मत चलाकर ईश्वर पदवी प्राप्त की है उसी तरह मैं भी अपना मत चला कर ईश्वर पद प्राप्त करूंगा। इस तरह वह कंद मूल का भक्षण करता हुआ, नदी तालाबों में स्नान करता हुआ, वृक्षों के बल्कल को पहनता हुआ और मनगढंत अपने मत का प्रचार-प्रसार करता हुआ घूमता रहा और आयु के अंत में शांत परिणामों से मरकर पांचवे स्वर्ग में देव हुआ।
4. पाँचवे स्वर्ग में देव
5 जटिल ब्राह्मण -
वहाँ से मरकर साकेत नगर के कपिल ब्राह्मण की काली नामक स्त्री से जटिल नामका पुत्र हुआ। जब वह बड़ा हुआ तब वह साधू का भेष धारण करके मनगढंत मत का प्रचार प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ।
6. पहले स्वर्ग में देव
7. पुष्यमित्र ब्राह्मण -
वहाँ से मरकर भरत क्षेत्र के स्थूणागार नगर में भारद्वाज के घर में पुष्पदत्ता से पुष्पमित्र नाम का पुत्र हुआ और मनगढंत मत का प्रचार प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ।
8. पहले स्वर्ग में देव
9.अग्निसम ब्राह्मण -
आयु पूर्ण कर वहाँ से मरण प्राप्त करके जंबूद्वीप भरत क्षेत्र के सूतिका नगर में अग्निभूति की गौतमी स्त्री से अग्निसह नाम का पुत्र हुआ । पुनः मनगढंत मत का प्रचार प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ।
10. तीसरे स्वर्ग में देव
11. अग्निमित्र ब्राह्मण -
आयु पूर्ण करके भरतक्षेत्र के मंदिर नामक नगर में गौतम नामक व्यक्ति की कौशांबी नामक स्त्री से अग्निमित्र नामक पुत्र हुआ और जीवन भर मनगढंत मत का प्रचार-प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर माहेंद्र स्वर्ग में देव पद प्राप्त किया
12. चौथे स्वर्ग में देव,
13. भारद्वाज ब्राह्मण -
वहाँ से मरण करके उसी मंदिर नगर में सालंकायन के घर में मंदिरा नामक भार्या से भारद्वाज नाम का पुत्र हुआ। वहाँ पर उसने त्रिदण्ड लेकर मनगढंत मत का प्रचार प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ।
14. चौथे स्वर्ग में देव
15. मनुष्य (नरकनिगोदआदि भव) वहाँ से मरण कर मनुष्य तथा त्रस, स्थावर आदि अनेक योनियों में घूम-घूम कर दुख भोगता रहा।
16. स्थावर ब्राह्मण -
तत्पश्चात मगध (बिहार) देश के राजगृह नगर में स्थावर नाम से प्रसिद्ध हुआ और अन्य मतों का जानकार होता हुआ सम्यकदर्शन के बिना वह मिथ्या मत का प्रचार करता रहा तथा शांत भाव से मर कर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ ।
17. चौथे स्वर्ग में देव
18. विश्वनंदी -
आयु पूर्ण कर राजगृह नगर में विश्वभूति राजा की जैनी नामक महारानी से विश्वनंदी नाम का पुत्र हुआ । जो बहुत सूरवीर था । राजा विश्वभूति के छोटे भाई का नाम विशाखभूति था उसकी स्त्री लक्ष्मणा से विशाखनन्द नाम का पुत्र हुआ था । जो बुद्धिमान नहीं था । यह परिवार जैन धर्म में बहुत रुचि रखता था । मरीचि का जीव विश्वनंदी भी जैन धर्म में आस्था रखता था ।
एक दिन राजा विश्वभूति शरद ऋतु के भंगुर (नाशशील) बादल देखकर दिगंबर मुनि हो गये। और अपना राज्य छोटे भाई विशाखभूति को दे गए तथा अपने पुत्र विश्वनंदी को युवराज बना गए । एक दिन युवराज विश्वनंदी अपने मित्रों के साथ राज उद्यान में क्रीडा कर रहा था इतने में वहाँ से चचेरा भाई विशाखनंद गुजरा । राज उद्यान की शोभा देख कर उसका मन ललचा गया । उसने झट से अपने पिता से कहा की आपने जो उद्यान विश्वनंदी को दे रखा है, वो मुझे दीजिये नही तो मैं घर छोड़ कर परदेश को भाग जाऊंगा । तब राजा विशाखभूति पुत्र मोह में पडकर बोला "बेटा यह कौनसी बड़ी बात है, मैं अभी तुम्हारे लिए वह उझ्यान दिये देता हूँ।" ऐसा कह कर उसने युवराज विश्वनंदी को अपने पास बुला कर कहा "मुझे कुछ आतताईयों को रोकने के लिए पर्वतीय प्रदेशों में जाना है सो जब तक मैं लोट कर वापस ना आऊँ तब तक राज कार्यों की देखभाल करना ।" काका के वचन सुन कर भोले विश्वनंदी ने कहा "नहीं आप यहीं पर सुख से रहिए, मैं पर्वतीय प्रदेशों मे जाकर उपद्रवियों को नष्ट किए आता हूँ" राजा ने विश्वनंदी को कुछ सेना के साथ पर्वतीय प्रदेशों में भेज दिया और उसके अभाव में उसका बगीचा अपने पुत्र को दे दिया।
जब विश्वनंदी को राजा के इस कपट का पता चला तब वह बीच से ही लौट कर वापस चला आया और विशाखनंद को मारने के लिए उद्योग करने लगा । विशाखनंद भी उसके भय से भाग कर एक कैंथ के पेड़ पर चढ़ गया परंतु कुमार विश्वनंदी ने उसे मारने के लिए वह कैंथ का पेड़ ही उखाड़ डाला। तदनंतर वह भाग कर एक पत्थर के खंभे में जा छिपा । परंतु विश्वनंदी ने अपनी कलाई की चोट से उस खंभे को भी तोड़ डाला जिस से वह वहाँ से भागा। उसे भागता हुआ देख कर युवराज विश्वनंदी को दया आ गयी । उसने कहा "भाई मत भागो, तुम खुशी से मेरे बगीचे में क्रीडा करो, अब मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है, अब मुझे जंगल के सूखे कंटीले झाड-झंखाड़ ही अच्छे लगेंगे ऐसा कह कर उसने संसार की कपट भारी अवस्था का विचार करके संभूत नामक मुनिराज के पास जिन दीक्षा ले ली।
इस घटना से राजा विशाखभूति को भी बहुत पश्चाताप हुआ उसने मन में सोचा मैंने व्यर्थ ही पुत्र मोह में आकर साधु स्वभावी विश्वनंदी के साथ कपट किया है। सच पूछो तो यह राज्य भी उसी का है। ऐसा विचार कर उसे वैराग्य हो गया और विशाखभूति ने अपना राज्य विशाखनंदी को देकर जिन दिक्षा ले ली। राज्य पाकर विशाखनंदी मदोन्मत्त होगया दुराचार करने लगा । प्रजा ने दुखी होकर उसे राजगद्दी से च्युत कर देश से बाहर निकाल दिया । विशाखनंदी वह से भटकता हुआ एक राजा के यहाँ नौकरी करने लगा।
एक बार वह राजा के कार्य से मथुरा नगरी गया वहाँ पर एक वेश्या के घर की छत पर बेठा हुआ था तब मुनिराज विश्वनंदी कठोर तपस्या करते हुए कृशकाय हो गए थे और उसी समय मथुरा नगरी में पहुंचे और आहार की इच्छा से मथुरा नगरी की गलियों में घूमते हुए वेश्या के मकान के नीचे से निकले तभी असाता कर्म के उदय से मुनिराज विश्वनंदी को एक नवप्रसूता गाय ने धक्का देकर जमीन पर गिरा दिया। उन्हें गिरा हुआ देख छत पर से विशाखनंदी ने हंसते हुए कहा "कलाई की चोट से पत्थर के खंभे को गिरा देने वाला तुम्हारा वह बल आज कहाँ गया ?" उसके वचन सुनकर विश्वनंदी मुनिराज को कुछ क्रोध आगया, उन्होने लड़खड़ाती हुई आवाज में कहा “ तुझे इस हंसी का फल अवश्य मिलेगा" और वन की ओर चले गए। आयु के अंत में मुनिराज ने निदान बंध कर सन्यासपूर्वक शरीर छोड़ा और महाशुक्र नामक स्वर्ग में देव हुए। और मुनिराज विशाखभूति आयु के अंत में समता भावों से मरकर उसी स्वर्ग में देव हुए।
19. दशवें स्वर्ग में देव
20. त्रिपृष्ठ नारायण -
दोनों देवों में बहुत अधिक स्नेह था । वहाँ से आयु पूर्ण कर विशाखभूति का जीव जंबुद्वीप के भरत क्षेत्र में सुरम्य देश के पोदानपुर नगर के राजा प्रजापति की जयावती रानी का विजय नामक पुत्र हुआ। और विश्वनंदी का जीव उसी राजा की दूसरी रानी मृगावती का त्रिपृष्ठ नामका पुत्र हुआ । पूर्व भव के संस्कार से इन दोनों में बड़ा भारी स्नेह था । विजय बलभद्र पदवी का धारक हुआ और त्रिपृष्ठ नारायण पदवी का धारक हुआ।
मुनि निंदा के कारण विशाखनंदी का जीव अनेक कुयोनियों में भ्रमण करता हुआ विजया पर्वत की उत्तर श्रेणी में अलका नगरी के राजा मयूरग्रीव की नीलांजना रानी से अश्वग्रीव नाम का पुत्र हुआ। वह बचपन से ही उदंड प्रकृति का था बड़ा होने पर उसकी उइंडता का पार नहीं रहा । पूर्व पुण्य के प्रभाव से उसको चक्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसके बल पर वह तीन खंड का अधिपति बन गया । किसी कारणवश त्रिपृष्ठ और अश्वग्रीव में युद्ध हुआ और अश्वग्रीव ने क्रोधित होकर त्रिपृष्ठ पर चक्र चला दिया किन्तु चक्ररत्न तीन प्रदक्षिणा देकर त्रिपृष्ठ के हाथ में आ गया तब उसी चक्र रत्न के प्रहार से अश्वग्रीव को मार गिराया और त्रिपृष्ठ तीन खंडो का अधिपति बन गया । अत्यधिक विषयभोग और निदानबंध से त्रिपृष्ठ ने आर्तध्यान के करण सातवें नरक का नारकी हुआ ।
21. सातवें नरक में -
वहाँ के भयंकर दुख 33 सागर तक भोगता रहा ।
22. सिंह -
वहाँ से निकाल कर जंबुद्वीप के भरत क्षेत्र में गंगा नदी के किनारे सिंहगिरी पर्वत पर सिंह हुआ । पाप के कारण पुनः नरक गया ।
23. पहले नरक में,
24. सिंह, -
पुनः नरक से आयु पूर्ण कर जंबूद्वीप में सिंहकूट के पूर्व की ओर हिमवान पर्वत के शिखर पर पुनः सिंह हुआ और एक दिन वह मृग का शिकार करके खा रहा था तभी करुणाधारी चारणरिद्धीधारी मुनि अजितञ्जय और अमितगुण नाम के मुनिराज निकले। सिंह को देखते ही उन्हें तीर्थंकर वचनों का स्मरण हो आया वे समवसरण में सुनकर आए थे की हिमकूट पर्वत पर सिंह दसवें भव में महावीर नाम का तीर्थंकर होगा। अजितञ्जय मुनिराज ने अपने अवधिज्ञान के द्वारा उसे झटसे पहचान लिया। उक्त दोनों मुनिराज आकाशसे उतर कर सिंहके सामने एक शिलापर ! बैठ गये। सिंह भी चुपचाप वहीं पर बैठा रहा। कुछ देर बाद अजितञ्जय मुनिराजने उस सिंहको सारगर्भित शब्दोंमें समझाया-'अय मृगराज ! तुम इस तरह प्रतिदिन निर्बल प्राणियोंको क्यों मारा करते हो ? इस पापके फलसे ही तुमने अनेक बार कुयोनियोंमें दुःख उठाये हैं'–इत्यादि कहते हुए उन्होंने उसके पहलेके समस्त भव कह सुनाये। मुनिराजके वचन सुन कर सिंहको भी जातिस्मरण हो गया जिससे उसकी आंखोंके सामने पहलेके समस्त भव प्रत्यक्ष झलकने लगे। उसे अपने दुष्कार्यों पर इतना अधिक पश्चाताप हुआ कि उसकी आंखोंसे आंसुओंकी धारा बह निकली। मुनिराजने फिर उसे शान्त करते हुए कहा-तुम आजसे अहिंसा व्रतका पालन करो। तुम इस भवसे दशवें भवमें जगत्पूज्य वर्द्धमान तीर्थंकर होगे। मुनिराजके उपदेशसे वनराज सिंहने सन्यास धारण किया और विशुद्ध-चित्त होकर आत्म-ध्यान किया। जिससे वह मर कर सौधर्म स्वर्गमें सिंहकेतु नामका देव हुआ।
25. पहले स्वर्ग में
26. कनकोज्जवल विद्याधर -
सिंहकेतु दो सागर तक स्वर्गके सख भोगनेके बाद धातकी खण्ड द्वीपके पूर्व मेरुसे पूर्वकी ओर विदेहक्षेत्रमें मंगलावती देशके विजया पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें कनकप्रभ नगरके राजा कनकपुंख्य और उनकी महारानी कनकमालाके कनकोज्वल नामका पुत्र हुआ। बड़े होने पर उसका राजकुमारी कनकवतीके साथ विवाह हुआ। एक दिन वह अपनी स्वीके साथ मंदराचल पर्वत पर क्रीड़ा करनेके लिये गया था। वहां पर उसे प्रियमित्र नामके अवधिज्ञानी मनिराज मिले। कनकोज्वलने प्रदक्षिणा देकर उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और फिर धर्मका स्वरूप पूछा। उत्तरमें प्रियमित्र महाराजने कहा कि -
धर्मो दयामयो धर्मे श्रयधर्मेण नायसे, मुक्तिधर्मण कर्माणि हन्ता धर्माय सन्मतिम् । देहि भापेहिधर्मात्त्वं याहिधर्मस्यभृत्यताम्,धर्मतिष्ठ चिरंधर्मपाहिमामिति चिंतय॥
अर्थात्-धर्म दयामय है, तुम धर्मका आश्रय करो, धर्मसे ही मुक्ति प्राप्त होती है, धर्मके लिये उत्तम बुद्धि लगाओ, धर्मसे विमुख मत होवो, धर्मके भृत्य ( दास) बन जाओ, धममें लीन रहो और हे धर्म ! हमेशा मेरी रक्षा करो इस तरह चिन्तवन करो।
मुनिराजके वचन सुन कर उसके हृदयमें वैराग्य-रस समा गया। जिससे उसने कुछ समय बाद हा जिन-दीक्षा लेकर सब पग्ग्रिहोंका परित्याग कर दिया। अन्तमें वह सन्यासपूर्वक शरीर छोड़ कर सातव कल्पस्वर्गमें देव हुआ।
27. सातवें स्वर्ग में
28. हरिषेण राजा -
लगातार तेरह सागर तक स्वर्गके सुख भोग कर वह वहांसे च्युत हुआ और जम्बूद्वीप भरतक्षेत्रके कौशण देशमें साकेत नगरके स्वामी राजा वज्रसेनकी रानी शीलवतीके हरिषेण नामका पुत्र हुआ। हरिषेणने अपने बाहबलसे विशाल राज-लक्ष्मीका उपभोग किया था और अन्त समय में उस विशाल राज्यको जीर्ण तृणके समान छाड़ कर श्रुतसागर मुनिराजके पास जिन-दीक्षा ले ली तथा उग्र तपस्याएं की। उनके प्रभावसे वह महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ।
29. दशवें स्वर्ग में - यहां उसकी आयु सोलह सागर प्रमाण थी।
30. चक्रवर्ती प्रियमित्र -
आयुके अन्तमें स्वर्ग वसुन्धरासे सम्बन्ध तोड़ कर वह धातकीखण्डके पूर्व मेरुसे पूर्वकी ओर विदेहक्षेत्रके पुष्कलावली देशकी पुण्डरीकिणी नगरीमें वहांके राजा सुमित्र और उनकी सुत्रता रानीसे प्रियमित्र नामका पुत्र हुआ। सुमित्र चक्रवर्ती था—उसने अपने पुरुषार्थसे छः खण्डोंको वशमें कर लिया था। किसी समय उसने क्षेमंकर जिनेन्द्रके मुखसे संसारका स्वरूप सुना और विषय-वासनाओंसे विरक्त होकर जिन-दीक्षा धारण कर ली। अन्तमें समाधिपूर्वक मर कर बारहवें सहस्रार स्वर्गमें सूर्यप्रभ देव हआ।
31. बारहवें स्वर्ग में - वह अठारह सागर तक यथेष्ठ सुख भागता रहा।
32. राजा नन्द -
फिर आयुके अन्तमें वहांसे च्युत होकर जम्बूद्वीपके क्षेत्रपुर नगरमें राजा नन्दवर्धनकी रानी वीरवतीसे नन्द नामका पुत्र हआ। वह बचपन से ही धर्मात्मा और न्यायप्रिय था। कुछ समय तक राज्य भोगनेके बाद उसने किन्हीं प्रोष्टिल नामक मुनिराजके पास जिन-दीक्षा ले ली। मुनिराज नन्दने गुरु-चरणोंकी सेवा कर ग्यारह अंगोंका ज्ञान प्राप्त किया और दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन कर तीर्थकर नामक महापुण्य प्रकृतिका बन्ध किया। फिर आयुके अन्तमें आराधना पूर्वक शरीर त्यागकर सोलहवें अच्युत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानमें इन्द्र हुआ।
33. सोलहवें स्वर्ग में - यहां पर उसकी बाईस सागर प्रमाण आयु थी। तीन हाथका शरीर था, शुक्ल लेश्या थी। वह बाईस हजार वर्षमें एक बार मानसिक आहार ग्रहण करता और बाईस पक्षके बाद एक बार श्वासोच्छ्वास लेता था।
34. तीर्थंकर महावीर - जम्बूद्वीप-भरतक्षेत्रके मगध (बिहार) देशमें एक कुण्डलपुर नामक नगर था , कुण्डलपुरका शासन-सूत्र महाराज सिद्धार्थके हाथमें था। उनकी मुख्य स्त्रीका नाम प्रियकारिणी (त्रिशला) था। आषाढ़ शुक्ला षष्ठीके दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्रमें रात्रिके पिछले पहरमें त्रिशलाने सोलह स्वप्न देखे और स्वप्न देखनेके बाद मुंहमें प्रवेश करते हुए एक हाथीको देखा। उसी समय उस इन्द्रने अच्युत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानसे मोह छोड़ कर उसके गर्भमें प्रवेश किया। प्रातः होते ही रानीने स्नान कर पतिदेव सिद्धार्थ महाराजसे स्वप्नोंका फल पूछा। उन्होंने भी अवधिज्ञानसे विचार कर कहा--तम्हारे गर्भसे नव माह बाद तीर्थंकर पुत्र उत्पन्न होगा। जो कि सारे संसारका कल्याण करेगा-लोगोंको सच्चे रास्ते पर लगावेगा। पतिके वचन सुन कर त्रिशला मारे हर्षके फूली न समाती थी। उसी समय चारों निकायके देवोंने आकर भावी भगवान् महावीरके गर्भावतरणका उत्सव किया तथा उनके मातापिता त्रिशला और सिद्धार्थका खूब सत्कार किया।
गर्भकालके नौ माह पूर्ण होने पर चैत्र शुक्ला त्रयोदशीके दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रमें प्रातः समय त्रिशलाके गर्भसे भगवान् वर्द्धमानका जन्म हुआ। जब धीरे-धीरे उनकी आयुके तीस वर्ष बीत गये और उनके शरीरमें यौवनका पूर्ण विकास हो गया, तब एक दिन महाराज सिद्धार्थने उनसे कहा-'प्रिय पुत्र ! अब तुम पूर्ण युवा हो, तुम्हारी गम्भीर और विशाल आंखें, उन्नत ललाट, प्रशान्त वदन, मन्द मुसकान, चतुर वचन, विस्तृत वक्षस्थल और घटनों तक लम्बी भुजाएं तुम्हें महापुरुष बतला रही हैं। अब खोजने पर भी तुममें वह चंचलता नहीं पाता है। अब तुम्हारा यह समय राज-कार्य संभालने का है। मैं एक वृद्ध मनुष्य हैं और कितने दिन तक तुम्हारा साथ दंगा ? मैं तुम्हारा विवाह करने के बाद ही तुम्हें राज्य देकर संसारकी झंझटोंसे बचना चाहता हूँ।.... पिताके वचन सुन कर महावीरका प्रफुल्ल मुखमण्डल एकदम गम्भीर हो गया। मानो वे किसी गहरी समस्याके सुलझानेमें लग गये हों। कुछ देर बाद उन्होंने कहा-पिता जी! यह मुझसे नहीं होगा | भला , जिस जंजालसे आप बचना चाहते हैं उसी जंजालमें आप मझे क्योंकर फंसाना ! आह ! मरी आयु केवल बहत्तर वर्षकी है जिसमें आज तीस वर्ष व्यतीत हो चके। अब इतने से जीवन में मुझे बहुत कुछ कार्य करना बाकी है।
उन्होंने स्थिरचित्त होकर संसारकी परिस्थितिका विचार किया और वनमें जाकर दीक्षा लेनेका दृढ़ निश्चय कर लिया। उसी समय पीताम्बर पहिने हुए लौकान्तिक देवोंने आकर उनकी स्तुति की और दीक्षा धारण करनेके विचारोंका समर्थन किया। अपना कार्य पूराकर लौकान्तिक देव अपने स्थानोंपर वापिस चले गये। उनके जाते ही असंख्य देव-गण जय-जय घोषणा करते हुए आकाशमार्गसे कुण्डलपुर आये । वहां उन्होंने भववान महावीरका दीक्षाभिषेक किया तथा अनेक सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहिनाये । भगवान् भी देवनिर्मित चन्द्रप्रभा पालकीपर सवार होकर षण्डवनमें गये और वहां अगहन वदी दशमी के दिन हस्त नक्षत्रमें संध्याके समय ॐ नमः सिद्धेभ्यः' कहकर वस्त्राभूषण उतारकर फेंक दिये । पंच मष्टियोंसे केश उखाड़ डाले। इस तरह वाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहोंका त्यागकर आत्मध्यानमें लीन हो गये। विशुद्धिके बढ़नेसे उन्हें उसी समय मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया। दीक्षा कल्याणकका उत्सव समाप्त कर देवलोग अपने-अपने स्थानों पर चले गये।
अबतक छद्मस्थ अवस्थामें विहार करते हुए भगवान्के बारह वर्ष बीत गये थे। एक दिन वे जम्भिका गांवके समीप ऋजुकूला नदीके किनारे मनोहर नामके वनमें सागोन वृक्षके नीचे पत्थरकी शिलापर विराजमान थे। वहींपर उन्हें शुक्ल ध्यानके प्रपापसे घातिया कर्मोका क्षय होकर वैशाख शुक्ला दशमीके दिन हस्त नक्षत्रमें संध्या समय उन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया। देवोंने आकर ज्ञान-कल्याणकका उत्सव किया। इन्द्रकी आज्ञासे धनपति कुबेरने समवशरण की रचना की। भगवान् महावीर उसके मध्य भागमें विराजमान हुए। धीरे-धीरे समवशरणकी बारहों सभायें भर गई।
भगवान महावीरका विहार, बिहार प्रान्तमें बहुत अधिक हुआ है। राजगृहके विपुलाचल पर तो उनक कई बार आनेके कथानक मिलते हैं। इस तरह समस्त भारतवर्ष में जैन-धर्मका प्रचार करते-करते जब उनकी आयु बहुत थोड़ी रह गई तब वे पावापुरमें आये और वहां योग निरोध कर आत्म-ध्यानमें लीन हो विराजमान हो गये। वहीं पर उन्होंने सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपाति और व्युपरत-क्रिया-निवृत्ति नामक शुक्लध्यानके द्वारा अघातिया कर्मोका नाश कर कार्तिक वदी अमावस्याके दिन प्रातःकालके समय बहत्तर वर्ष की अवस्थामें मोक्ष लाभ किया। देवोंने आकर निर्वाण-क्षेत्रकी पूजा की और उनके गुणों की स्तुति की।
1. पुरूरवा भील
पुंडरीकिणी नगरी के समीपवर्ती मधुक वन का निवासी भील । यह स्वयं भद्र प्रकृति का था और इसकी प्रिया कालिका भी वैसे ही स्वभाव की थी । एक दिन सागरसेन मुनि उस वन में आये । वे अपने संघ से बिछुड़ गये थे । दूर से पुरुरवा ने उन्हें मृग समझकर अपने बाण से मारना चाहा । कालिका ने उसे बाण चढ़ाते देखा । उसने कहा कि ये मृग नहीं है ये तो वन देवता है, वंदनीय हैं । यह उनके पास गया उनकी इसने वंदना की । व्रत अंगीकार किये और मांस का त्याग किया । सत्तों का निर्वाह करते हुए इसने अंत में समाधिमरण किया जिससे यह सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ ।
2. पहले स्वर्ग में देव
3. भरत पुत्र मरीच -
प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के प्रथम पुत्र भरत चक्रवर्ती हुए जिनकी अनंतमति नामक रानी से मरीचि नामक पुत्र हुआ। जब भगवान ऋषभदेव को वैराग्य हुआ और उन्होंने दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण कर ली तब देखा देखी में चार हजार राजाओं के साथ मरीचि ने भी दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण कर ली। पतन का प्रारम्भ भूख प्यास की बाधा न सहन करने के कारण चार हजार राजाओं के साथ मरीचि मुनि भी भ्रष्ट हो गए। और वे सभी तालाबों से पानी पीने लगे, जंगलों में कंद मूल फल आदि खाने लगे। तब वन देवता ने प्रकट होकर कहा यदि तुम लोग मुनि भेष में रहकर यह अनाचार करोगे तो हम तुम्हें दंडित करेंगे । देवता के वचन सुनकर मरीचि ने वृक्षों के बल्कल पहन कर दिगम्बर वेश को छोड़ दिया और मनमानी प्रवृति करने लगा तथा उपदेश देकर एक अन्य झूठा मत खड़ा कर दिया। जब भगवान आदिनाथ को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, तब उन्होंने समवसरण के मध्य में विराजमान होकर दिव्य उपदेश दिया जिसे सुनकर चार हजार राजाओं में से प्रायः साधु पुनः जैन धर्म को समझकर सच्चे मुनि बन गए । किन्तु मरीचि ने अपना हट नहीं छोड़ा और कहने लगा की जिस तरह आदिनाथ ने अपना मत चलाकर ईश्वर पदवी प्राप्त की है उसी तरह मैं भी अपना मत चला कर ईश्वर पद प्राप्त करूंगा। इस तरह वह कंद मूल का भक्षण करता हुआ, नदी तालाबों में स्नान करता हुआ, वृक्षों के बल्कल को पहनता हुआ और मनगढंत अपने मत का प्रचार-प्रसार करता हुआ घूमता रहा और आयु के अंत में शांत परिणामों से मरकर पांचवे स्वर्ग में देव हुआ।
4. पाँचवे स्वर्ग में देव
5 जटिल ब्राह्मण -
वहाँ से मरकर साकेत नगर के कपिल ब्राह्मण की काली नामक स्त्री से जटिल नामका पुत्र हुआ। जब वह बड़ा हुआ तब वह साधू का भेष धारण करके मनगढंत मत का प्रचार प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ।
6. पहले स्वर्ग में देव
7. पुष्यमित्र ब्राह्मण -
वहाँ से मरकर भरत क्षेत्र के स्थूणागार नगर में भारद्वाज के घर में पुष्पदत्ता से पुष्पमित्र नाम का पुत्र हुआ और मनगढंत मत का प्रचार प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ।
8. पहले स्वर्ग में देव
9.अग्निसम ब्राह्मण -
आयु पूर्ण कर वहाँ से मरण प्राप्त करके जंबूद्वीप भरत क्षेत्र के सूतिका नगर में अग्निभूति की गौतमी स्त्री से अग्निसह नाम का पुत्र हुआ । पुनः मनगढंत मत का प्रचार प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ।
10. तीसरे स्वर्ग में देव
11. अग्निमित्र ब्राह्मण -
आयु पूर्ण करके भरतक्षेत्र के मंदिर नामक नगर में गौतम नामक व्यक्ति की कौशांबी नामक स्त्री से अग्निमित्र नामक पुत्र हुआ और जीवन भर मनगढंत मत का प्रचार-प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर माहेंद्र स्वर्ग में देव पद प्राप्त किया
12. चौथे स्वर्ग में देव,
13. भारद्वाज ब्राह्मण -
वहाँ से मरण करके उसी मंदिर नगर में सालंकायन के घर में मंदिरा नामक भार्या से भारद्वाज नाम का पुत्र हुआ। वहाँ पर उसने त्रिदण्ड लेकर मनगढंत मत का प्रचार प्रसार करता हुआ शांत भाव से मरकर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ।
14. चौथे स्वर्ग में देव
15. मनुष्य (नरकनिगोदआदि भव) वहाँ से मरण कर मनुष्य तथा त्रस, स्थावर आदि अनेक योनियों में घूम-घूम कर दुख भोगता रहा।
16. स्थावर ब्राह्मण -
तत्पश्चात मगध (बिहार) देश के राजगृह नगर में स्थावर नाम से प्रसिद्ध हुआ और अन्य मतों का जानकार होता हुआ सम्यकदर्शन के बिना वह मिथ्या मत का प्रचार करता रहा तथा शांत भाव से मर कर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ ।
17. चौथे स्वर्ग में देव
18. विश्वनंदी -
आयु पूर्ण कर राजगृह नगर में विश्वभूति राजा की जैनी नामक महारानी से विश्वनंदी नाम का पुत्र हुआ । जो बहुत सूरवीर था । राजा विश्वभूति के छोटे भाई का नाम विशाखभूति था उसकी स्त्री लक्ष्मणा से विशाखनन्द नाम का पुत्र हुआ था । जो बुद्धिमान नहीं था । यह परिवार जैन धर्म में बहुत रुचि रखता था । मरीचि का जीव विश्वनंदी भी जैन धर्म में आस्था रखता था ।
एक दिन राजा विश्वभूति शरद ऋतु के भंगुर (नाशशील) बादल देखकर दिगंबर मुनि हो गये। और अपना राज्य छोटे भाई विशाखभूति को दे गए तथा अपने पुत्र विश्वनंदी को युवराज बना गए । एक दिन युवराज विश्वनंदी अपने मित्रों के साथ राज उद्यान में क्रीडा कर रहा था इतने में वहाँ से चचेरा भाई विशाखनंद गुजरा । राज उद्यान की शोभा देख कर उसका मन ललचा गया । उसने झट से अपने पिता से कहा की आपने जो उद्यान विश्वनंदी को दे रखा है, वो मुझे दीजिये नही तो मैं घर छोड़ कर परदेश को भाग जाऊंगा । तब राजा विशाखभूति पुत्र मोह में पडकर बोला "बेटा यह कौनसी बड़ी बात है, मैं अभी तुम्हारे लिए वह उझ्यान दिये देता हूँ।" ऐसा कह कर उसने युवराज विश्वनंदी को अपने पास बुला कर कहा "मुझे कुछ आतताईयों को रोकने के लिए पर्वतीय प्रदेशों में जाना है सो जब तक मैं लोट कर वापस ना आऊँ तब तक राज कार्यों की देखभाल करना ।" काका के वचन सुन कर भोले विश्वनंदी ने कहा "नहीं आप यहीं पर सुख से रहिए, मैं पर्वतीय प्रदेशों मे जाकर उपद्रवियों को नष्ट किए आता हूँ" राजा ने विश्वनंदी को कुछ सेना के साथ पर्वतीय प्रदेशों में भेज दिया और उसके अभाव में उसका बगीचा अपने पुत्र को दे दिया।
जब विश्वनंदी को राजा के इस कपट का पता चला तब वह बीच से ही लौट कर वापस चला आया और विशाखनंद को मारने के लिए उद्योग करने लगा । विशाखनंद भी उसके भय से भाग कर एक कैंथ के पेड़ पर चढ़ गया परंतु कुमार विश्वनंदी ने उसे मारने के लिए वह कैंथ का पेड़ ही उखाड़ डाला। तदनंतर वह भाग कर एक पत्थर के खंभे में जा छिपा । परंतु विश्वनंदी ने अपनी कलाई की चोट से उस खंभे को भी तोड़ डाला जिस से वह वहाँ से भागा। उसे भागता हुआ देख कर युवराज विश्वनंदी को दया आ गयी । उसने कहा "भाई मत भागो, तुम खुशी से मेरे बगीचे में क्रीडा करो, अब मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है, अब मुझे जंगल के सूखे कंटीले झाड-झंखाड़ ही अच्छे लगेंगे ऐसा कह कर उसने संसार की कपट भारी अवस्था का विचार करके संभूत नामक मुनिराज के पास जिन दीक्षा ले ली।
इस घटना से राजा विशाखभूति को भी बहुत पश्चाताप हुआ उसने मन में सोचा मैंने व्यर्थ ही पुत्र मोह में आकर साधु स्वभावी विश्वनंदी के साथ कपट किया है। सच पूछो तो यह राज्य भी उसी का है। ऐसा विचार कर उसे वैराग्य हो गया और विशाखभूति ने अपना राज्य विशाखनंदी को देकर जिन दिक्षा ले ली। राज्य पाकर विशाखनंदी मदोन्मत्त होगया दुराचार करने लगा । प्रजा ने दुखी होकर उसे राजगद्दी से च्युत कर देश से बाहर निकाल दिया । विशाखनंदी वह से भटकता हुआ एक राजा के यहाँ नौकरी करने लगा।
एक बार वह राजा के कार्य से मथुरा नगरी गया वहाँ पर एक वेश्या के घर की छत पर बेठा हुआ था तब मुनिराज विश्वनंदी कठोर तपस्या करते हुए कृशकाय हो गए थे और उसी समय मथुरा नगरी में पहुंचे और आहार की इच्छा से मथुरा नगरी की गलियों में घूमते हुए वेश्या के मकान के नीचे से निकले तभी असाता कर्म के उदय से मुनिराज विश्वनंदी को एक नवप्रसूता गाय ने धक्का देकर जमीन पर गिरा दिया। उन्हें गिरा हुआ देख छत पर से विशाखनंदी ने हंसते हुए कहा "कलाई की चोट से पत्थर के खंभे को गिरा देने वाला तुम्हारा वह बल आज कहाँ गया ?" उसके वचन सुनकर विश्वनंदी मुनिराज को कुछ क्रोध आगया, उन्होने लड़खड़ाती हुई आवाज में कहा “ तुझे इस हंसी का फल अवश्य मिलेगा" और वन की ओर चले गए। आयु के अंत में मुनिराज ने निदान बंध कर सन्यासपूर्वक शरीर छोड़ा और महाशुक्र नामक स्वर्ग में देव हुए। और मुनिराज विशाखभूति आयु के अंत में समता भावों से मरकर उसी स्वर्ग में देव हुए।
19. दशवें स्वर्ग में देव
20. त्रिपृष्ठ नारायण -
दोनों देवों में बहुत अधिक स्नेह था । वहाँ से आयु पूर्ण कर विशाखभूति का जीव जंबुद्वीप के भरत क्षेत्र में सुरम्य देश के पोदानपुर नगर के राजा प्रजापति की जयावती रानी का विजय नामक पुत्र हुआ। और विश्वनंदी का जीव उसी राजा की दूसरी रानी मृगावती का त्रिपृष्ठ नामका पुत्र हुआ । पूर्व भव के संस्कार से इन दोनों में बड़ा भारी स्नेह था । विजय बलभद्र पदवी का धारक हुआ और त्रिपृष्ठ नारायण पदवी का धारक हुआ।
मुनि निंदा के कारण विशाखनंदी का जीव अनेक कुयोनियों में भ्रमण करता हुआ विजया पर्वत की उत्तर श्रेणी में अलका नगरी के राजा मयूरग्रीव की नीलांजना रानी से अश्वग्रीव नाम का पुत्र हुआ। वह बचपन से ही उदंड प्रकृति का था बड़ा होने पर उसकी उइंडता का पार नहीं रहा । पूर्व पुण्य के प्रभाव से उसको चक्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसके बल पर वह तीन खंड का अधिपति बन गया । किसी कारणवश त्रिपृष्ठ और अश्वग्रीव में युद्ध हुआ और अश्वग्रीव ने क्रोधित होकर त्रिपृष्ठ पर चक्र चला दिया किन्तु चक्ररत्न तीन प्रदक्षिणा देकर त्रिपृष्ठ के हाथ में आ गया तब उसी चक्र रत्न के प्रहार से अश्वग्रीव को मार गिराया और त्रिपृष्ठ तीन खंडो का अधिपति बन गया । अत्यधिक विषयभोग और निदानबंध से त्रिपृष्ठ ने आर्तध्यान के करण सातवें नरक का नारकी हुआ ।
21. सातवें नरक में -
वहाँ के भयंकर दुख 33 सागर तक भोगता रहा ।
22. सिंह -
वहाँ से निकाल कर जंबुद्वीप के भरत क्षेत्र में गंगा नदी के किनारे सिंहगिरी पर्वत पर सिंह हुआ । पाप के कारण पुनः नरक गया ।
23. पहले नरक में,
24. सिंह, -
पुनः नरक से आयु पूर्ण कर जंबूद्वीप में सिंहकूट के पूर्व की ओर हिमवान पर्वत के शिखर पर पुनः सिंह हुआ और एक दिन वह मृग का शिकार करके खा रहा था तभी करुणाधारी चारणरिद्धीधारी मुनि अजितञ्जय और अमितगुण नाम के मुनिराज निकले। सिंह को देखते ही उन्हें तीर्थंकर वचनों का स्मरण हो आया वे समवसरण में सुनकर आए थे की हिमकूट पर्वत पर सिंह दसवें भव में महावीर नाम का तीर्थंकर होगा। अजितञ्जय मुनिराज ने अपने अवधिज्ञान के द्वारा उसे झटसे पहचान लिया। उक्त दोनों मुनिराज आकाशसे उतर कर सिंहके सामने एक शिलापर ! बैठ गये। सिंह भी चुपचाप वहीं पर बैठा रहा। कुछ देर बाद अजितञ्जय मुनिराजने उस सिंहको सारगर्भित शब्दोंमें समझाया-'अय मृगराज ! तुम इस तरह प्रतिदिन निर्बल प्राणियोंको क्यों मारा करते हो ? इस पापके फलसे ही तुमने अनेक बार कुयोनियोंमें दुःख उठाये हैं'–इत्यादि कहते हुए उन्होंने उसके पहलेके समस्त भव कह सुनाये। मुनिराजके वचन सुन कर सिंहको भी जातिस्मरण हो गया जिससे उसकी आंखोंके सामने पहलेके समस्त भव प्रत्यक्ष झलकने लगे। उसे अपने दुष्कार्यों पर इतना अधिक पश्चाताप हुआ कि उसकी आंखोंसे आंसुओंकी धारा बह निकली। मुनिराजने फिर उसे शान्त करते हुए कहा-तुम आजसे अहिंसा व्रतका पालन करो। तुम इस भवसे दशवें भवमें जगत्पूज्य वर्द्धमान तीर्थंकर होगे। मुनिराजके उपदेशसे वनराज सिंहने सन्यास धारण किया और विशुद्ध-चित्त होकर आत्म-ध्यान किया। जिससे वह मर कर सौधर्म स्वर्गमें सिंहकेतु नामका देव हुआ।
25. पहले स्वर्ग में
26. कनकोज्जवल विद्याधर -
सिंहकेतु दो सागर तक स्वर्गके सख भोगनेके बाद धातकी खण्ड द्वीपके पूर्व मेरुसे पूर्वकी ओर विदेहक्षेत्रमें मंगलावती देशके विजया पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें कनकप्रभ नगरके राजा कनकपुंख्य और उनकी महारानी कनकमालाके कनकोज्वल नामका पुत्र हुआ। बड़े होने पर उसका राजकुमारी कनकवतीके साथ विवाह हुआ। एक दिन वह अपनी स्वीके साथ मंदराचल पर्वत पर क्रीड़ा करनेके लिये गया था। वहां पर उसे प्रियमित्र नामके अवधिज्ञानी मनिराज मिले। कनकोज्वलने प्रदक्षिणा देकर उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और फिर धर्मका स्वरूप पूछा। उत्तरमें प्रियमित्र महाराजने कहा कि -
धर्मो दयामयो धर्मे श्रयधर्मेण नायसे, मुक्तिधर्मण कर्माणि हन्ता धर्माय सन्मतिम् । देहि भापेहिधर्मात्त्वं याहिधर्मस्यभृत्यताम्,धर्मतिष्ठ चिरंधर्मपाहिमामिति चिंतय॥
अर्थात्-धर्म दयामय है, तुम धर्मका आश्रय करो, धर्मसे ही मुक्ति प्राप्त होती है, धर्मके लिये उत्तम बुद्धि लगाओ, धर्मसे विमुख मत होवो, धर्मके भृत्य ( दास) बन जाओ, धममें लीन रहो और हे धर्म ! हमेशा मेरी रक्षा करो इस तरह चिन्तवन करो।
मुनिराजके वचन सुन कर उसके हृदयमें वैराग्य-रस समा गया। जिससे उसने कुछ समय बाद हा जिन-दीक्षा लेकर सब पग्ग्रिहोंका परित्याग कर दिया। अन्तमें वह सन्यासपूर्वक शरीर छोड़ कर सातव कल्पस्वर्गमें देव हुआ।
27. सातवें स्वर्ग में
28. हरिषेण राजा -
लगातार तेरह सागर तक स्वर्गके सुख भोग कर वह वहांसे च्युत हुआ और जम्बूद्वीप भरतक्षेत्रके कौशण देशमें साकेत नगरके स्वामी राजा वज्रसेनकी रानी शीलवतीके हरिषेण नामका पुत्र हुआ। हरिषेणने अपने बाहबलसे विशाल राज-लक्ष्मीका उपभोग किया था और अन्त समय में उस विशाल राज्यको जीर्ण तृणके समान छाड़ कर श्रुतसागर मुनिराजके पास जिन-दीक्षा ले ली तथा उग्र तपस्याएं की। उनके प्रभावसे वह महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ।
29. दशवें स्वर्ग में - यहां उसकी आयु सोलह सागर प्रमाण थी।
30. चक्रवर्ती प्रियमित्र -
आयुके अन्तमें स्वर्ग वसुन्धरासे सम्बन्ध तोड़ कर वह धातकीखण्डके पूर्व मेरुसे पूर्वकी ओर विदेहक्षेत्रके पुष्कलावली देशकी पुण्डरीकिणी नगरीमें वहांके राजा सुमित्र और उनकी सुत्रता रानीसे प्रियमित्र नामका पुत्र हुआ। सुमित्र चक्रवर्ती था—उसने अपने पुरुषार्थसे छः खण्डोंको वशमें कर लिया था। किसी समय उसने क्षेमंकर जिनेन्द्रके मुखसे संसारका स्वरूप सुना और विषय-वासनाओंसे विरक्त होकर जिन-दीक्षा धारण कर ली। अन्तमें समाधिपूर्वक मर कर बारहवें सहस्रार स्वर्गमें सूर्यप्रभ देव हआ।
31. बारहवें स्वर्ग में - वह अठारह सागर तक यथेष्ठ सुख भागता रहा।
32. राजा नन्द -
फिर आयुके अन्तमें वहांसे च्युत होकर जम्बूद्वीपके क्षेत्रपुर नगरमें राजा नन्दवर्धनकी रानी वीरवतीसे नन्द नामका पुत्र हआ। वह बचपन से ही धर्मात्मा और न्यायप्रिय था। कुछ समय तक राज्य भोगनेके बाद उसने किन्हीं प्रोष्टिल नामक मुनिराजके पास जिन-दीक्षा ले ली। मुनिराज नन्दने गुरु-चरणोंकी सेवा कर ग्यारह अंगोंका ज्ञान प्राप्त किया और दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन कर तीर्थकर नामक महापुण्य प्रकृतिका बन्ध किया। फिर आयुके अन्तमें आराधना पूर्वक शरीर त्यागकर सोलहवें अच्युत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानमें इन्द्र हुआ।
33. सोलहवें स्वर्ग में - यहां पर उसकी बाईस सागर प्रमाण आयु थी। तीन हाथका शरीर था, शुक्ल लेश्या थी। वह बाईस हजार वर्षमें एक बार मानसिक आहार ग्रहण करता और बाईस पक्षके बाद एक बार श्वासोच्छ्वास लेता था।
34. तीर्थंकर महावीर - जम्बूद्वीप-भरतक्षेत्रके मगध (बिहार) देशमें एक कुण्डलपुर नामक नगर था , कुण्डलपुरका शासन-सूत्र महाराज सिद्धार्थके हाथमें था। उनकी मुख्य स्त्रीका नाम प्रियकारिणी (त्रिशला) था। आषाढ़ शुक्ला षष्ठीके दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्रमें रात्रिके पिछले पहरमें त्रिशलाने सोलह स्वप्न देखे और स्वप्न देखनेके बाद मुंहमें प्रवेश करते हुए एक हाथीको देखा। उसी समय उस इन्द्रने अच्युत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानसे मोह छोड़ कर उसके गर्भमें प्रवेश किया। प्रातः होते ही रानीने स्नान कर पतिदेव सिद्धार्थ महाराजसे स्वप्नोंका फल पूछा। उन्होंने भी अवधिज्ञानसे विचार कर कहा--तम्हारे गर्भसे नव माह बाद तीर्थंकर पुत्र उत्पन्न होगा। जो कि सारे संसारका कल्याण करेगा-लोगोंको सच्चे रास्ते पर लगावेगा। पतिके वचन सुन कर त्रिशला मारे हर्षके फूली न समाती थी। उसी समय चारों निकायके देवोंने आकर भावी भगवान् महावीरके गर्भावतरणका उत्सव किया तथा उनके मातापिता त्रिशला और सिद्धार्थका खूब सत्कार किया।
गर्भकालके नौ माह पूर्ण होने पर चैत्र शुक्ला त्रयोदशीके दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रमें प्रातः समय त्रिशलाके गर्भसे भगवान् वर्द्धमानका जन्म हुआ। जब धीरे-धीरे उनकी आयुके तीस वर्ष बीत गये और उनके शरीरमें यौवनका पूर्ण विकास हो गया, तब एक दिन महाराज सिद्धार्थने उनसे कहा-'प्रिय पुत्र ! अब तुम पूर्ण युवा हो, तुम्हारी गम्भीर और विशाल आंखें, उन्नत ललाट, प्रशान्त वदन, मन्द मुसकान, चतुर वचन, विस्तृत वक्षस्थल और घटनों तक लम्बी भुजाएं तुम्हें महापुरुष बतला रही हैं। अब खोजने पर भी तुममें वह चंचलता नहीं पाता है। अब तुम्हारा यह समय राज-कार्य संभालने का है। मैं एक वृद्ध मनुष्य हैं और कितने दिन तक तुम्हारा साथ दंगा ? मैं तुम्हारा विवाह करने के बाद ही तुम्हें राज्य देकर संसारकी झंझटोंसे बचना चाहता हूँ।.... पिताके वचन सुन कर महावीरका प्रफुल्ल मुखमण्डल एकदम गम्भीर हो गया। मानो वे किसी गहरी समस्याके सुलझानेमें लग गये हों। कुछ देर बाद उन्होंने कहा-पिता जी! यह मुझसे नहीं होगा | भला , जिस जंजालसे आप बचना चाहते हैं उसी जंजालमें आप मझे क्योंकर फंसाना ! आह ! मरी आयु केवल बहत्तर वर्षकी है जिसमें आज तीस वर्ष व्यतीत हो चके। अब इतने से जीवन में मुझे बहुत कुछ कार्य करना बाकी है।
उन्होंने स्थिरचित्त होकर संसारकी परिस्थितिका विचार किया और वनमें जाकर दीक्षा लेनेका दृढ़ निश्चय कर लिया। उसी समय पीताम्बर पहिने हुए लौकान्तिक देवोंने आकर उनकी स्तुति की और दीक्षा धारण करनेके विचारोंका समर्थन किया। अपना कार्य पूराकर लौकान्तिक देव अपने स्थानोंपर वापिस चले गये। उनके जाते ही असंख्य देव-गण जय-जय घोषणा करते हुए आकाशमार्गसे कुण्डलपुर आये । वहां उन्होंने भववान महावीरका दीक्षाभिषेक किया तथा अनेक सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहिनाये । भगवान् भी देवनिर्मित चन्द्रप्रभा पालकीपर सवार होकर षण्डवनमें गये और वहां अगहन वदी दशमी के दिन हस्त नक्षत्रमें संध्याके समय ॐ नमः सिद्धेभ्यः' कहकर वस्त्राभूषण उतारकर फेंक दिये । पंच मष्टियोंसे केश उखाड़ डाले। इस तरह वाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहोंका त्यागकर आत्मध्यानमें लीन हो गये। विशुद्धिके बढ़नेसे उन्हें उसी समय मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया। दीक्षा कल्याणकका उत्सव समाप्त कर देवलोग अपने-अपने स्थानों पर चले गये।
अबतक छद्मस्थ अवस्थामें विहार करते हुए भगवान्के बारह वर्ष बीत गये थे। एक दिन वे जम्भिका गांवके समीप ऋजुकूला नदीके किनारे मनोहर नामके वनमें सागोन वृक्षके नीचे पत्थरकी शिलापर विराजमान थे। वहींपर उन्हें शुक्ल ध्यानके प्रपापसे घातिया कर्मोका क्षय होकर वैशाख शुक्ला दशमीके दिन हस्त नक्षत्रमें संध्या समय उन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया। देवोंने आकर ज्ञान-कल्याणकका उत्सव किया। इन्द्रकी आज्ञासे धनपति कुबेरने समवशरण की रचना की। भगवान् महावीर उसके मध्य भागमें विराजमान हुए। धीरे-धीरे समवशरणकी बारहों सभायें भर गई।
भगवान महावीरका विहार, बिहार प्रान्तमें बहुत अधिक हुआ है। राजगृहके विपुलाचल पर तो उनक कई बार आनेके कथानक मिलते हैं। इस तरह समस्त भारतवर्ष में जैन-धर्मका प्रचार करते-करते जब उनकी आयु बहुत थोड़ी रह गई तब वे पावापुरमें आये और वहां योग निरोध कर आत्म-ध्यानमें लीन हो विराजमान हो गये। वहीं पर उन्होंने सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपाति और व्युपरत-क्रिया-निवृत्ति नामक शुक्लध्यानके द्वारा अघातिया कर्मोका नाश कर कार्तिक वदी अमावस्याके दिन प्रातःकालके समय बहत्तर वर्ष की अवस्थामें मोक्ष लाभ किया। देवोंने आकर निर्वाण-क्षेत्रकी पूजा की और उनके गुणों की स्तुति की।