11-27-2014, 06:50 AM
अर्हंत तीर्थंकर की दिव्य ध्वनि :-
अर्हंत तीर्थंकर की इस दिव्य ध्वनि में अक्षर नहीं होते। इसका नाम ध्वनि है भाषा नहीं है। भाषा के अक्षर होते हैं ध्वनि में अक्षर नहीं होते। यदि भगवान की वाणी साक्षर होती तो इसे भाषा कहा जाता। अत: यह ध्वनि निरक्षर होती है। प्रश्न होता है फिर इसका रूप क्या है ? इस सम्बन्ध में कहा गया है कि यह ध्वनि ओंकार स्वरूप है। जैसा कि देवशास्त्र गुरु पूजा में लिखा है ‘‘जिनकी धुनि है ओंकार रूप’’, इसी तरह सरस्वती पूजा में लिखा है ‘‘ओंकार ध्वनि सार द्वादशांगवाणी कंठ तालु आदि का उपयोग करना पड़ता है। जहाँ अक्षरोच्चारण नहीं है वहाँ कंठतालु आदि का उपयोग भी नहीं होता। इसलिये यह ध्वनि निरक्षर ही होती है। प्रश्न हो सकता है फिर द्वादशांगवाणी में अक्षर कहाँ से आये ? इसका उत्तर यह है कि द्वादशांगवाणी के दो रूप हैं—अर्थ प्रतिपादन और अक्षर रचना। इनमें अर्थ प्रतिपादन तीर्थंकर द्वारा होता है और अक्षर रचना गणधर द्वारा होती है इसीलिये शास्त्रों में तीर्थंकर सर्वज्ञ को अर्थकर्ता और गणधर श्रुत केवली को ग्रंथकर्ता कहा गया है। अर्थात् तीर्थंकर भगवान् ने अपनी वाणी के द्वारा जिस अर्थ का प्रतिपादन किया उसे विषय क्रम के अनुसार गणधरों ने अक्षर रूप में ग्रंथित किया है। यही अर्थकर्ता और ग्रंथकर्ता का अभिप्राय है। यहाँ पूछा जा सकता है कि जब भगवान का उपदेश ध्वनि रूप है अक्षर रूप नहीं है तब बिना अक्षर के गणधरों ने उसे कैसे समझा। इसका समाधान यह है कि भगवान की उस दिव्यवाणी में अनेक बीजाक्षर र्गिभत रहते हैं और प्रत्येक बीजाक्षर एक मंत्र है, जिसमें विशाल अर्थों का समुदाय है। ये बीजाक्षर उसी तरह र्गिभत हैं जिस तरह १८ महाभाषाएँ और ७०० क्षुल्लक (लघु) भाषाएँ दिव्यध्वनि में र्गिभत रहती हैं। यहाँ र्गिभत रहने का इतना ही अभिप्राय है जैसे कि यह कहा जाय कि एक वटबीज में विशाल वटवृक्ष र्गिभत है। यद्यपि बीज में वृक्ष नहीं है, किन्तु एक विशाल वृक्ष को उत्पन्न करने की जैसे एक बीज योग्यता रखता हे, इसी तरह दिव्य ध्वनि अनेक बीजाक्षरों एवं अनेक भाषाओं को उत्पन्न करने की शक्ति रखती है। इनमें बीजाक्षरों से अर्थ निकालने का काम गणधर का होता है, गणधर के अतिरिक्त दूसरा कोई उन अर्थों को नहीं निकाल सकता। तभी तो कहा जाता है कि भगवान की वाणी को गणधर ही झेल सकते हैं, अन्य कोई नहीं। प्रत्येक गणधर में भी बुद्धि—ऋद्धि के अंतर्गत एक बीज ऋद्धि भी होती है, जिसके द्वारा वे तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि में उन बीजाक्षरों को खोज निकालते हैं और उन बीजाक्षरों में जो अर्थ भरे पड़े हैं उन्हें ‘‘कोष्ठस्थ धान्योपम’’ नाम की बुद्धि ऋद्धि के द्वारा वे अपने श्रुतज्ञान में संचित करते हैं और बाद में द्वादशांक रूप श्रुतज्ञान की अक्षरूप ग्रंथ रचना करते हैं। वह रचना भी पत्रों या कागजों पर लिखी नहीं जाती। गणधरों ने उसे भगवान की दिव्यध्वनि के रूप में सुनकर और गणधर के अन्य शिष्य, प्रशिष्यों, आरातियों ने गणधर से सुनकर उसका बोध प्राप्त किया था। अत: इन द्वादशांगों की परम्परा श्रुत नाम से अर्थात् जो सुनकर प्राप्त की जाती थी, उत्तरोत्तर चलती रही इसलिये शास्त्रों को श्रुत कहा जाता है। यह परम्परा धरसेनाचार्य तक चलती रही, बाद में यह जानकर कि आगे लोग बिल्कुल मन्दबुद्धि होंगे धरसेन ने अपने ज्ञान को भूतबलि, पुष्पदन्त को दिया और इन दोनों आचार्यों ने उसे षट्खण्डागम के रूप में लिपिबद्ध किया।
अर्हंत तीर्थंकर की इस दिव्य ध्वनि में अक्षर नहीं होते। इसका नाम ध्वनि है भाषा नहीं है। भाषा के अक्षर होते हैं ध्वनि में अक्षर नहीं होते। यदि भगवान की वाणी साक्षर होती तो इसे भाषा कहा जाता। अत: यह ध्वनि निरक्षर होती है। प्रश्न होता है फिर इसका रूप क्या है ? इस सम्बन्ध में कहा गया है कि यह ध्वनि ओंकार स्वरूप है। जैसा कि देवशास्त्र गुरु पूजा में लिखा है ‘‘जिनकी धुनि है ओंकार रूप’’, इसी तरह सरस्वती पूजा में लिखा है ‘‘ओंकार ध्वनि सार द्वादशांगवाणी कंठ तालु आदि का उपयोग करना पड़ता है। जहाँ अक्षरोच्चारण नहीं है वहाँ कंठतालु आदि का उपयोग भी नहीं होता। इसलिये यह ध्वनि निरक्षर ही होती है। प्रश्न हो सकता है फिर द्वादशांगवाणी में अक्षर कहाँ से आये ? इसका उत्तर यह है कि द्वादशांगवाणी के दो रूप हैं—अर्थ प्रतिपादन और अक्षर रचना। इनमें अर्थ प्रतिपादन तीर्थंकर द्वारा होता है और अक्षर रचना गणधर द्वारा होती है इसीलिये शास्त्रों में तीर्थंकर सर्वज्ञ को अर्थकर्ता और गणधर श्रुत केवली को ग्रंथकर्ता कहा गया है। अर्थात् तीर्थंकर भगवान् ने अपनी वाणी के द्वारा जिस अर्थ का प्रतिपादन किया उसे विषय क्रम के अनुसार गणधरों ने अक्षर रूप में ग्रंथित किया है। यही अर्थकर्ता और ग्रंथकर्ता का अभिप्राय है। यहाँ पूछा जा सकता है कि जब भगवान का उपदेश ध्वनि रूप है अक्षर रूप नहीं है तब बिना अक्षर के गणधरों ने उसे कैसे समझा। इसका समाधान यह है कि भगवान की उस दिव्यवाणी में अनेक बीजाक्षर र्गिभत रहते हैं और प्रत्येक बीजाक्षर एक मंत्र है, जिसमें विशाल अर्थों का समुदाय है। ये बीजाक्षर उसी तरह र्गिभत हैं जिस तरह १८ महाभाषाएँ और ७०० क्षुल्लक (लघु) भाषाएँ दिव्यध्वनि में र्गिभत रहती हैं। यहाँ र्गिभत रहने का इतना ही अभिप्राय है जैसे कि यह कहा जाय कि एक वटबीज में विशाल वटवृक्ष र्गिभत है। यद्यपि बीज में वृक्ष नहीं है, किन्तु एक विशाल वृक्ष को उत्पन्न करने की जैसे एक बीज योग्यता रखता हे, इसी तरह दिव्य ध्वनि अनेक बीजाक्षरों एवं अनेक भाषाओं को उत्पन्न करने की शक्ति रखती है। इनमें बीजाक्षरों से अर्थ निकालने का काम गणधर का होता है, गणधर के अतिरिक्त दूसरा कोई उन अर्थों को नहीं निकाल सकता। तभी तो कहा जाता है कि भगवान की वाणी को गणधर ही झेल सकते हैं, अन्य कोई नहीं। प्रत्येक गणधर में भी बुद्धि—ऋद्धि के अंतर्गत एक बीज ऋद्धि भी होती है, जिसके द्वारा वे तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि में उन बीजाक्षरों को खोज निकालते हैं और उन बीजाक्षरों में जो अर्थ भरे पड़े हैं उन्हें ‘‘कोष्ठस्थ धान्योपम’’ नाम की बुद्धि ऋद्धि के द्वारा वे अपने श्रुतज्ञान में संचित करते हैं और बाद में द्वादशांक रूप श्रुतज्ञान की अक्षरूप ग्रंथ रचना करते हैं। वह रचना भी पत्रों या कागजों पर लिखी नहीं जाती। गणधरों ने उसे भगवान की दिव्यध्वनि के रूप में सुनकर और गणधर के अन्य शिष्य, प्रशिष्यों, आरातियों ने गणधर से सुनकर उसका बोध प्राप्त किया था। अत: इन द्वादशांगों की परम्परा श्रुत नाम से अर्थात् जो सुनकर प्राप्त की जाती थी, उत्तरोत्तर चलती रही इसलिये शास्त्रों को श्रुत कहा जाता है। यह परम्परा धरसेनाचार्य तक चलती रही, बाद में यह जानकर कि आगे लोग बिल्कुल मन्दबुद्धि होंगे धरसेन ने अपने ज्ञान को भूतबलि, पुष्पदन्त को दिया और इन दोनों आचार्यों ने उसे षट्खण्डागम के रूप में लिपिबद्ध किया।