श्रुत के भेद ,
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श्रुत के भेद ,

मुनिश्री पद्मनन्दि " पद्मनन्दि पंचविंशति " में कहते है .....
...
  जिनेद्र देव ने अंगश्रुत के १२ और अंगबाह्य के अनंत भेद बतलाये है !
  इन दोनों प्रकार के श्रुत में चेतन आत्मा को आत्म स्वरूपसे ,
  तथा उससे भिन्न पर पदार्थोंको हेयरूपसे निर्दिष्ट किया है।
  मतिज्ञान के निमित्तसे जो ज्ञान होता है उसे श्रुत ज्ञान कहा है !
 इस श्रुत के दो भेद है - १. अंगप्रविष्ट २. अंगबाह्य
  अंगप्रविष्ट के १२ भेद है
१. आचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानांग ४. समवायंग ५. व्याख्याप्रदज्ञस्यंग
६. ज्ञात्रु्कथांग ७. उपसकाध्ययनांग ८. अन्तकृद्दशांग ९. अनुत्तरौपपादिकदशांग
१०. प्रश्नव्याकरणांग ११. विपकसूत्रांग १२. दृष्टिवादांग
 इनमे दृष्टिवाद ५ प्रकारका है।
१. परिकर्म २. सूत्र ३. प्रथमानुयोग ४. पूर्वगत ५. चूलिका
  इनमें पूर्वगत भी निन्म १४ प्रकार के भेद
१. उत्पादपूर्व २. अग्रयणीपूर्व ३. वीर्यानुप्रवाद ४. अस्तिनास्तिप्रवाद ५. ज्ञानप्रवाद
६. सत्यप्रवाद ७. आत्मप्रवाद ८. कर्मप्रवाद ९. प्रत्याख्याननामध्येय १०. विद्यानुप्रवाद
११. कल्याणनामध्येय १२. प्राणावाय १३.क्रियाविशाल १४. लोकबिन्दुसार
  अंगबाह्य दशवैकालिक और उत्तराध्ययन आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है।
   फिर भी उसके मुख्यतासे १४ भेद बतलाये गए है।
१. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वंदना ४. प्रतिक्रमण ५. वैनयिक ६. कृतिकर्म
७. दशवैकालिक ८. उत्तराध्ययन ९.कल्पव्यवहार .१०. कल्प्याकल्प ११. महाकल्प
१२. पुण्डरीक १३. महापुण्डरीक .१४ निषिद्धिका .
   इस समस्तही श्रुत में एक मात्र आत्मा को उपादेय बतलाकर
   अन्य सभी पदार्थोंको हेय बतलाया है।
   वर्तमान काल में मनुष्य की आयु अल्प और बुद्धि मंद हो गयी है ,
   इसलिए उनमे उपर्युक्त सभी श्रुत के पाठ की शक्ति ही नहीं रही है।
   इस कारण उन्हें उतनेही श्रुत का प्रयत्न पूर्वक अध्ययन करना चाहिए
   जो मुक्ति के प्रति बीजभूत होकर आत्मा का हित करने वाला है।
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