04-21-2016, 07:49 AM
तत्वार्थसूत्र(मोक्षशास्त्र)जी (अध्याय ८)
बंध तत्व
(विरचित आचार्यश्रीउमास्वामीजी)
गोत्र कर्म के भेद -
उच्चैर्नीचैश्च !!१२!!
संधि विच्छेद उच्चै:+नीचै:+च
शब्दार्थ-उच्चै:-उच्च , नीचै:-नीच ,च-और
अर्थ:-उच्च और नीच गोत्र कर्म के दो भेद है !
भावार्थ -प्राणी ऊँच और नीच गोत्र कर्म के उदय में क्रमश: लोकमान्य ऊँचे (प्रतिष्ठित )और नीचे (निंदनीय )कुल में उत्पन्न होता है !इस प्रकार गोत्र कर्म के उच्च और नीच दो भेद है !
विशेष-
१-नीच गोत्र कर्मबंध प्रथम और द्वितीय गुणस्थान में तथा उच्चगोत्र का प्रथम से दसवे गुणस्थान तक होता है !नीचगोत्र कर्म का उदय प्रथम से पांचवे गुणस्थान तक होता है !
२- गोत्र कर्म इस जीव को उच्च अथवा नीचे गोत्र में उत्पन्न करवाता है!यह निमित्त नैमित्तिक संबंध है!यहाँ उच्च और नीच से अभिप्राय है-जिस कुल में माता-पिता द्वारा सदाचार की प्रवृत्ति हो,उस ओर झुकाव हो, जिन धर्म की प्रभावना,संस्कार,रत्नत्रय का पालन हो(यह संबंध शरीर रक्त से नही है,आचार-विचार से है),श्रद्धान से परिपूर्ण उच्चगोत्र में जन्म कहा जाता है,इस प्रकार उच्च कुल है जिस कुल में यह प्रभावना,आचरण, श्रद्धान नहीं है वह नीच कुल है !
अंतराय कर्म के भेद-
दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् !!१३!!
संधि विच्छेद-दान+लाभ+भोग+उपभोग+वीर्याणाम्
शब्दार्थ-
दान-दान,लाभ-लाभ,भोग-भोग,उपभोग-उपभोग,वीर्याणाम्-वीर्यान्तराय कर्म
अर्थ:-दान,लाभ,भोग,उपभोग और वीर्यान्तराय,अंतराय कर्म के ५ भेद है !
भावार्थ-किसी के द्वारा दान,लाभ,भोग,उपभोग और वीर्य में विघ्न डालने से क्रमश:दानन्तराय,लाभान्तराय, भोगान्तराय,उपभोगान्तराय,और वीर्यान्तराय कर्मबंध होता है !
विशेष:-१-दानन्तराय-कोई व्यक्ति किसी संस्था अथवा धार्मिक कार्य में दान देना चाहता है,आप उसके दान देने की प्रवृत्ति को कहकर बाधित कर दे कि,यहाँ दान देने से कोई लाभ नहीं है,क्योकि सब दान दिया द्रव्य खाया पीया जाता है,ऐसा करने से आपके दानान्तराय कर्मबंध होगा जिससे,आप जब दान देना चाहेंगे तब नहीं दे पाएंगे
२-लाभान्तराय कर्म-आप किसी प्रतिद्वंदी/सगे संबंधी के व्यापार अथवा उसके अन्य किसी प्रकार होने वाले लाभ को बाधित करते है तो आपको लाभान्तराय कर्मबंध होगा!जैसे किसी प्रतिद्वंदी का आर्डर निरस्त करवा ने,उसके लाभको बाधित करने से,आपके लाभ में भी इस कर्म के उदय में लाभ नहीं होगा !
३-भोगान्तराय-किसी वस्तु जैसे भोजन का एक ही बार उपयोग करना भोग है !घर/कार आदि बार बार भोगना उपभोग है!किसी के भोजन/जल आदि की प्राप्तिको बाधित करने पर,जैसे अपने कर्मचारी को समय पर भोजन ग्रहण करने के लिए, अधिक कार्य में व्यस्त रखने के कारण,अनुमति नहीं देने से आपको भोगान्तराय कर्मबंध होगा!आपके भी भोग की सामग्री / भोजन /जल ग्रहण करने के समय,इस कर्म के उदय में विघ्न पड़ेगा !
४-उपभोगान्तराय-किसी के उपभोग की सामग्री को बाधित करने से आपके उपभोग अंतराय कर्मबंध होता है !इस कर्म के उदय में आपके भी उपभोग की सामग्री ग्रहण करने में विघ्न पड़ेगा!जैसे;कोई आपका कोई मित्र घर या कार खरीदना जा रहा है,आप उसकी खरीद को यह कह कर बाधित कर दे कि यह कार अथवा घर बिलकुल बेकार हैक्या करोगे लेकर, तो आपके उपभोग अंतराय कर्मबंध होगा जिसके उदय के समय आपके भी उपभोग की सामग्री संचित करने में विघ्न पडेगा!और
५-वीर्यान्तराय कर्म-किसी की शक्ति को कम करने से वीर्यान्तराय कर्मबंध होता है जिसके उदय में आपकी भी शक्ति में विघ्न पड़ता है!जैसे सर्प के दांत निकलवा कर,सपेरा उस की काटने की शक्ति से उसे विहीन कर देता है,उस सपेरे के वीर्यान्तराय कर्मबंध होता है!अथवा कोई विद्यार्थी किसी प्रतियोगिता परीक्षा में बैठना चाह रहा हो,आप उसे यह कहकर रोक दे की तुम इसमें उत्तीर्ण नहीं हो पाओगे,तुम्हारे बस का नहीं है,ऐसा करने से आप के वीर्यान्तराय कर्मबंध होता है
मोहनीयकर्म के बाद सबसे खराब अंतराय कर्म है क्योकि यह कब आता है,पता ही नहीं लगता, कब चुपके से आकर अपना काम कर चला जाता है अत:अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है !
बंध तत्व
(विरचित आचार्यश्रीउमास्वामीजी)
गोत्र कर्म के भेद -
उच्चैर्नीचैश्च !!१२!!
संधि विच्छेद उच्चै:+नीचै:+च
शब्दार्थ-उच्चै:-उच्च , नीचै:-नीच ,च-और
अर्थ:-उच्च और नीच गोत्र कर्म के दो भेद है !
भावार्थ -प्राणी ऊँच और नीच गोत्र कर्म के उदय में क्रमश: लोकमान्य ऊँचे (प्रतिष्ठित )और नीचे (निंदनीय )कुल में उत्पन्न होता है !इस प्रकार गोत्र कर्म के उच्च और नीच दो भेद है !
विशेष-
१-नीच गोत्र कर्मबंध प्रथम और द्वितीय गुणस्थान में तथा उच्चगोत्र का प्रथम से दसवे गुणस्थान तक होता है !नीचगोत्र कर्म का उदय प्रथम से पांचवे गुणस्थान तक होता है !
२- गोत्र कर्म इस जीव को उच्च अथवा नीचे गोत्र में उत्पन्न करवाता है!यह निमित्त नैमित्तिक संबंध है!यहाँ उच्च और नीच से अभिप्राय है-जिस कुल में माता-पिता द्वारा सदाचार की प्रवृत्ति हो,उस ओर झुकाव हो, जिन धर्म की प्रभावना,संस्कार,रत्नत्रय का पालन हो(यह संबंध शरीर रक्त से नही है,आचार-विचार से है),श्रद्धान से परिपूर्ण उच्चगोत्र में जन्म कहा जाता है,इस प्रकार उच्च कुल है जिस कुल में यह प्रभावना,आचरण, श्रद्धान नहीं है वह नीच कुल है !
अंतराय कर्म के भेद-
दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् !!१३!!
संधि विच्छेद-दान+लाभ+भोग+उपभोग+वीर्याणाम्
शब्दार्थ-
दान-दान,लाभ-लाभ,भोग-भोग,उपभोग-उपभोग,वीर्याणाम्-वीर्यान्तराय कर्म
अर्थ:-दान,लाभ,भोग,उपभोग और वीर्यान्तराय,अंतराय कर्म के ५ भेद है !
भावार्थ-किसी के द्वारा दान,लाभ,भोग,उपभोग और वीर्य में विघ्न डालने से क्रमश:दानन्तराय,लाभान्तराय, भोगान्तराय,उपभोगान्तराय,और वीर्यान्तराय कर्मबंध होता है !
विशेष:-१-दानन्तराय-कोई व्यक्ति किसी संस्था अथवा धार्मिक कार्य में दान देना चाहता है,आप उसके दान देने की प्रवृत्ति को कहकर बाधित कर दे कि,यहाँ दान देने से कोई लाभ नहीं है,क्योकि सब दान दिया द्रव्य खाया पीया जाता है,ऐसा करने से आपके दानान्तराय कर्मबंध होगा जिससे,आप जब दान देना चाहेंगे तब नहीं दे पाएंगे
२-लाभान्तराय कर्म-आप किसी प्रतिद्वंदी/सगे संबंधी के व्यापार अथवा उसके अन्य किसी प्रकार होने वाले लाभ को बाधित करते है तो आपको लाभान्तराय कर्मबंध होगा!जैसे किसी प्रतिद्वंदी का आर्डर निरस्त करवा ने,उसके लाभको बाधित करने से,आपके लाभ में भी इस कर्म के उदय में लाभ नहीं होगा !
३-भोगान्तराय-किसी वस्तु जैसे भोजन का एक ही बार उपयोग करना भोग है !घर/कार आदि बार बार भोगना उपभोग है!किसी के भोजन/जल आदि की प्राप्तिको बाधित करने पर,जैसे अपने कर्मचारी को समय पर भोजन ग्रहण करने के लिए, अधिक कार्य में व्यस्त रखने के कारण,अनुमति नहीं देने से आपको भोगान्तराय कर्मबंध होगा!आपके भी भोग की सामग्री / भोजन /जल ग्रहण करने के समय,इस कर्म के उदय में विघ्न पड़ेगा !
४-उपभोगान्तराय-किसी के उपभोग की सामग्री को बाधित करने से आपके उपभोग अंतराय कर्मबंध होता है !इस कर्म के उदय में आपके भी उपभोग की सामग्री ग्रहण करने में विघ्न पड़ेगा!जैसे;कोई आपका कोई मित्र घर या कार खरीदना जा रहा है,आप उसकी खरीद को यह कह कर बाधित कर दे कि यह कार अथवा घर बिलकुल बेकार हैक्या करोगे लेकर, तो आपके उपभोग अंतराय कर्मबंध होगा जिसके उदय के समय आपके भी उपभोग की सामग्री संचित करने में विघ्न पडेगा!और
५-वीर्यान्तराय कर्म-किसी की शक्ति को कम करने से वीर्यान्तराय कर्मबंध होता है जिसके उदय में आपकी भी शक्ति में विघ्न पड़ता है!जैसे सर्प के दांत निकलवा कर,सपेरा उस की काटने की शक्ति से उसे विहीन कर देता है,उस सपेरे के वीर्यान्तराय कर्मबंध होता है!अथवा कोई विद्यार्थी किसी प्रतियोगिता परीक्षा में बैठना चाह रहा हो,आप उसे यह कहकर रोक दे की तुम इसमें उत्तीर्ण नहीं हो पाओगे,तुम्हारे बस का नहीं है,ऐसा करने से आप के वीर्यान्तराय कर्मबंध होता है
मोहनीयकर्म के बाद सबसे खराब अंतराय कर्म है क्योकि यह कब आता है,पता ही नहीं लगता, कब चुपके से आकर अपना काम कर चला जाता है अत:अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है !