06-04-2018, 09:38 AM
जिन सहस्रनाम अर्थसहित चतुर्थ अध्याय भाग २
३५१. अहंकार, मान, मद रहित होनेसे "निर्मद" है ।
३५२. मृदू होनेसे आपके भाव शान्त होनेसे "शान्त" है।
३५३. मोह, इच्छा आदि रहित होनेसे "निर्मोह" है।
३५४. आपसे किसी को भि उपद्रव नही होता, आपके चलनेसे (अधर), बैठनेसे (अधर) वचनसे (ओष्ठ ना हिलनेसे) किसी को भि कोई भि उपद्रव अथवा आक्रमण नही होता इसलिये "निरुपद्रव" कहा जाता है।
निर्निमेषो निराहारो निष्क्रियो निरुपप्लव:। निष्कलंको निरस्तैना निर्धूतांगो निरास्रव:॥७॥
३५५. आपके परिषह जयी होनेसे आपके पलक नही झपकते अर्थात आपकि दॄष्टी अपलक इसलिये आपको "निर्निमेष" कहते है।
३५६. आपको द्रव्याहार कि जरुरत नही है, आपको दिव्य वर्गणासे आहार प्राप्त होता है, अर्थात आप"निराहार" हो; ।
३५७. आपने सब क्रियाए बंद करी है, अथवा आपके कोई भि क्रियासे चलन वलन से कोई हिंसा नही होती, इसलिये आप"निष्क्रिय" है; ।
३५८. आपने सारे कर्मरुपी संकटोका नाश किया अथवा आप संकटरहित है, अथवा आपके सानिध्य मे संकट नही आ सकता इसलिये आप"निरुपप्लव " हो; ।
३५९. सर्व कर्म मैल हट जानेसे, अथवा आपके आत्मा मे कलुषितता का अभाव होने से " निष्कलंक" हो।
३६०. पापोंको, पुण्य को, कर्म को अर्थात मोक्ष के मार्ग मे अटकाव करनेवाले सबको आपने परास्त किया है, इसलिये आप" निरस्तैना" हो; ।
३६१. अपने स्वयं से चिपके हुए सब मैल को आपने धो दिया है, अपनी आत्मा को परमशुक्ल बनाया है, इसलिये आपको "निर्धूतांग" कहा है।
३६२. आपके कर्म आस्रव बंद होनेसे, रुकनेसे, फिर कभी ना आ पानेसे आपको "निरास्रव" भि कहा जाता है।
विशालो विपुल ज्योतिरतिलोऽ चिन्त्यवैभव:। सुसंवृत: सुगुप्तात्मा सुभूत् सुनय तत्त्ववित्॥८
३६३. आप बृहद् है, महान है इसलिये "विशाल" है; ।
३६४. केवलज्ञान रुप अपार, अखण्ड ज्योतिके धारक"विपुलज्योति" है।
३६५. आप अनुपम है, आपकि तुलना किसीसे भि नही हो सकती अथवा किसीभि वस्तु के साथ आपको तोला नही जा सकता इस लिये " अतुल" है ।
३६६. आपका केवलज्ञानरुपी अंतरंग वैभव कल्पना से परे है, अथवा आपके विभुति का कोई भि यथार्थ समुचित चिंतवन नही कर सकता इतनी आपकि विभुति अगम्य है, आप"अचिन्त्यवैभव" हैऽ ।
३६७. आपके सर्व ओर ज्ञानी गणधर विराजमान रहते है, अर्थात आप सुजनोसे घिरे हुए रहते है, अथवा सुजन सदैव आपके आसपास आके रुके रहते है, इसलिये "सुसंवृत्" हो।
३६८. अभि आपकि आत्मा किसी भि कर्मास्रव को दृगोचर नही होती, उनके लिये वह गुप्त हो गयी है, इसलिये "सुगुप्तात्मा" हो।
३६९. आप उत्तम ज्ञाता होनेसे अथवा आप का होना उत्तम होनेसे अथवा आप सर्वोत्तम होनेसे आप"सुभूत" है;।
३७०. सप्तनयोंकि यथार्थ मे जानने से, अथवा सब वस्तु तथा घटनाओंको सप्तनयोंसे समझानेसे आपको "सुनयतत्त्ववित्" भि कहा जाता है।
एकविद्यो महाविद्यो मुनि: परिवृढ: पति:। धीशो विद्यानिधि: साक्षी विनेता विहतान्तक:॥९
३७१. एक ज्ञान के धारी "एकविद्य" हो।
३७२. अनेक विद्याओंके ज्ञान तथा पारंगत होनेसे "महाविद्य" हो।
३७३. प्रत्यक्ष ज्ञान के धारी होनेसे "मुनि" हो।
३७४. तपस्वीयोंके भि ज्ञान वृध्द होनेसे "परिवृढ" हो।
३७५. जगतरक्षक होनेसे "पति" हो।
३७६. बुध्दी आपकि दासी है इसलिये "धीश" हो।
३७७. सागर मे जितना जल है, उससे भि ज्यादा आपका ज्ञान होनेसे अथवा ज्ञान के सागर होनेसे "विद्यानिधी" है ।
३७८. त्रैलोक्य मे घटने वाली घटना आपको ऐसे झलकती है, जैसे आप वहा हो, इस तरह से हर घटनाके आप"साक्षी" हो ।
३७९. मात्र मोक्षमार्ग कथन करनेमे हि दृढ रहनेसे "विनेता" हो।
३८०. मृत्यु का नाश करनेसे आपको "विहतांतक" भि कहा जाता है।
पिता पितामह पाता पवित्र: पावनो गति:। त्राता भिषग्वरो वर्यो वरद: परम: पुमान्॥ १०॥
३८१. एक"पिता" के समान आप भव्योंको नरकादि गतियोंसे बचने का उपदेश देते है अथवा बचाते है; ।
३८२. सबके गुरु होनेसे सबमे ज्येष्ठ होनेसे आप"पितामह" है;।
३८३. सबको रास्ता दिखानेसे अथवा सब हि जीव आगे आपके हि मार्गपर चलने से जैसे आपके वंशज है, इसलिये आप"पाता " हो; ।
३८४. आप स्वयं पवित्र हो तथा समस्त जनोंके लिये भि "पवित्र" हो; ।
३८५. दुरितोंको पवित्र करनेसे आप"पावन" हो; ।
३८६. आप ज्ञानस्वरुप अर्थात"गति" हो, ।
३८७. भवतारक होनेसे आप"त्राता " हो; ।
३८८. जैसे उत्तम वैद्य का नाम लेते हि अनेक रोग दूर हो जाते है, तत्सम आपका नाममात्र भि जन्म, जरा, मरणरुपी रोगोंसे मुक्ति दिलानेवाला है इसलिये आप उत्तम वैद्य अर्थात"भिषग्वर" कहलाते होऽ ।
३८९. आप सबमे श्रेष्ठ होनेसे "वर्य" हो।
३९०. मोक्षका वरदान देनेसे "वरद" हो तथा आप समस्त जनोंको वरदान से प्राप्त हुए है, इसलिये भि "वरद" कहलाते है ।
३९१. इच्छा पुर्ण करने वाले आप"परम" हो ।
३९२. आप स्वयंकि आत्मा को तथा भक्तोंको पवित्र करनेवाले होनेसे "पुमान्" हो ।
कवि: पुराणपुरुषो वर्षीयान्वृषभ: पुरु:। प्रतिष्ठाप्रसवो हेतुर्भुवनैकपितामह:॥११॥
३९३. अनेक दृष्टांतोसे, उपमाओसे धर्माधर्म का निरुपण किया करते है, इसलिये आप"कवि" हो ।
३९४. आप अनादिकालीन हो तथा सर्व पुराणोंमे आपकि चर्चा पायी जाती है, इसलिए"पुराणपुरुष" हो।
३९५. आप इतने वृध्द हो, कि आपका जन्म किसीने देखा नही है, इसलिये "वर्षीयान्" हो।
३९६. अनंतवीर्य होनेसे "वृषभ" हो।
३९७. आप सबसे अग्रगामी है, महाजनोंमें श्रेष्ठ है, इसलिये "पुरु" है।
३९८. आपके भक्ति, सेवा करनेवालोंको अनायास हि प्रतिष्ठा प्राप्ति हो जाती है, अथवा स्थैर्य आपसे उत्पन्न हुआ है इसलिये "प्रतिष्ठाप्रसव" हो।
३९९. मोक्षके कारण आप"हेतु" हो ।
४००. तिनों लोकोंमें मात्र एक आपहि ऐसे हो जो सबका कल्याण करनेवाला, मोक्षमार्ग बतानेवाला हितोपदेश देते है, इसलिये हे विभो आपको "भुवनैकपितामह" भि कहा जाता है।
३५१. अहंकार, मान, मद रहित होनेसे "निर्मद" है ।
३५२. मृदू होनेसे आपके भाव शान्त होनेसे "शान्त" है।
३५३. मोह, इच्छा आदि रहित होनेसे "निर्मोह" है।
३५४. आपसे किसी को भि उपद्रव नही होता, आपके चलनेसे (अधर), बैठनेसे (अधर) वचनसे (ओष्ठ ना हिलनेसे) किसी को भि कोई भि उपद्रव अथवा आक्रमण नही होता इसलिये "निरुपद्रव" कहा जाता है।
निर्निमेषो निराहारो निष्क्रियो निरुपप्लव:। निष्कलंको निरस्तैना निर्धूतांगो निरास्रव:॥७॥
३५५. आपके परिषह जयी होनेसे आपके पलक नही झपकते अर्थात आपकि दॄष्टी अपलक इसलिये आपको "निर्निमेष" कहते है।
३५६. आपको द्रव्याहार कि जरुरत नही है, आपको दिव्य वर्गणासे आहार प्राप्त होता है, अर्थात आप"निराहार" हो; ।
३५७. आपने सब क्रियाए बंद करी है, अथवा आपके कोई भि क्रियासे चलन वलन से कोई हिंसा नही होती, इसलिये आप"निष्क्रिय" है; ।
३५८. आपने सारे कर्मरुपी संकटोका नाश किया अथवा आप संकटरहित है, अथवा आपके सानिध्य मे संकट नही आ सकता इसलिये आप"निरुपप्लव " हो; ।
३५९. सर्व कर्म मैल हट जानेसे, अथवा आपके आत्मा मे कलुषितता का अभाव होने से " निष्कलंक" हो।
३६०. पापोंको, पुण्य को, कर्म को अर्थात मोक्ष के मार्ग मे अटकाव करनेवाले सबको आपने परास्त किया है, इसलिये आप" निरस्तैना" हो; ।
३६१. अपने स्वयं से चिपके हुए सब मैल को आपने धो दिया है, अपनी आत्मा को परमशुक्ल बनाया है, इसलिये आपको "निर्धूतांग" कहा है।
३६२. आपके कर्म आस्रव बंद होनेसे, रुकनेसे, फिर कभी ना आ पानेसे आपको "निरास्रव" भि कहा जाता है।
विशालो विपुल ज्योतिरतिलोऽ चिन्त्यवैभव:। सुसंवृत: सुगुप्तात्मा सुभूत् सुनय तत्त्ववित्॥८
३६३. आप बृहद् है, महान है इसलिये "विशाल" है; ।
३६४. केवलज्ञान रुप अपार, अखण्ड ज्योतिके धारक"विपुलज्योति" है।
३६५. आप अनुपम है, आपकि तुलना किसीसे भि नही हो सकती अथवा किसीभि वस्तु के साथ आपको तोला नही जा सकता इस लिये " अतुल" है ।
३६६. आपका केवलज्ञानरुपी अंतरंग वैभव कल्पना से परे है, अथवा आपके विभुति का कोई भि यथार्थ समुचित चिंतवन नही कर सकता इतनी आपकि विभुति अगम्य है, आप"अचिन्त्यवैभव" हैऽ ।
३६७. आपके सर्व ओर ज्ञानी गणधर विराजमान रहते है, अर्थात आप सुजनोसे घिरे हुए रहते है, अथवा सुजन सदैव आपके आसपास आके रुके रहते है, इसलिये "सुसंवृत्" हो।
३६८. अभि आपकि आत्मा किसी भि कर्मास्रव को दृगोचर नही होती, उनके लिये वह गुप्त हो गयी है, इसलिये "सुगुप्तात्मा" हो।
३६९. आप उत्तम ज्ञाता होनेसे अथवा आप का होना उत्तम होनेसे अथवा आप सर्वोत्तम होनेसे आप"सुभूत" है;।
३७०. सप्तनयोंकि यथार्थ मे जानने से, अथवा सब वस्तु तथा घटनाओंको सप्तनयोंसे समझानेसे आपको "सुनयतत्त्ववित्" भि कहा जाता है।
एकविद्यो महाविद्यो मुनि: परिवृढ: पति:। धीशो विद्यानिधि: साक्षी विनेता विहतान्तक:॥९
३७१. एक ज्ञान के धारी "एकविद्य" हो।
३७२. अनेक विद्याओंके ज्ञान तथा पारंगत होनेसे "महाविद्य" हो।
३७३. प्रत्यक्ष ज्ञान के धारी होनेसे "मुनि" हो।
३७४. तपस्वीयोंके भि ज्ञान वृध्द होनेसे "परिवृढ" हो।
३७५. जगतरक्षक होनेसे "पति" हो।
३७६. बुध्दी आपकि दासी है इसलिये "धीश" हो।
३७७. सागर मे जितना जल है, उससे भि ज्यादा आपका ज्ञान होनेसे अथवा ज्ञान के सागर होनेसे "विद्यानिधी" है ।
३७८. त्रैलोक्य मे घटने वाली घटना आपको ऐसे झलकती है, जैसे आप वहा हो, इस तरह से हर घटनाके आप"साक्षी" हो ।
३७९. मात्र मोक्षमार्ग कथन करनेमे हि दृढ रहनेसे "विनेता" हो।
३८०. मृत्यु का नाश करनेसे आपको "विहतांतक" भि कहा जाता है।
पिता पितामह पाता पवित्र: पावनो गति:। त्राता भिषग्वरो वर्यो वरद: परम: पुमान्॥ १०॥
३८१. एक"पिता" के समान आप भव्योंको नरकादि गतियोंसे बचने का उपदेश देते है अथवा बचाते है; ।
३८२. सबके गुरु होनेसे सबमे ज्येष्ठ होनेसे आप"पितामह" है;।
३८३. सबको रास्ता दिखानेसे अथवा सब हि जीव आगे आपके हि मार्गपर चलने से जैसे आपके वंशज है, इसलिये आप"पाता " हो; ।
३८४. आप स्वयं पवित्र हो तथा समस्त जनोंके लिये भि "पवित्र" हो; ।
३८५. दुरितोंको पवित्र करनेसे आप"पावन" हो; ।
३८६. आप ज्ञानस्वरुप अर्थात"गति" हो, ।
३८७. भवतारक होनेसे आप"त्राता " हो; ।
३८८. जैसे उत्तम वैद्य का नाम लेते हि अनेक रोग दूर हो जाते है, तत्सम आपका नाममात्र भि जन्म, जरा, मरणरुपी रोगोंसे मुक्ति दिलानेवाला है इसलिये आप उत्तम वैद्य अर्थात"भिषग्वर" कहलाते होऽ ।
३८९. आप सबमे श्रेष्ठ होनेसे "वर्य" हो।
३९०. मोक्षका वरदान देनेसे "वरद" हो तथा आप समस्त जनोंको वरदान से प्राप्त हुए है, इसलिये भि "वरद" कहलाते है ।
३९१. इच्छा पुर्ण करने वाले आप"परम" हो ।
३९२. आप स्वयंकि आत्मा को तथा भक्तोंको पवित्र करनेवाले होनेसे "पुमान्" हो ।
कवि: पुराणपुरुषो वर्षीयान्वृषभ: पुरु:। प्रतिष्ठाप्रसवो हेतुर्भुवनैकपितामह:॥११॥
३९३. अनेक दृष्टांतोसे, उपमाओसे धर्माधर्म का निरुपण किया करते है, इसलिये आप"कवि" हो ।
३९४. आप अनादिकालीन हो तथा सर्व पुराणोंमे आपकि चर्चा पायी जाती है, इसलिए"पुराणपुरुष" हो।
३९५. आप इतने वृध्द हो, कि आपका जन्म किसीने देखा नही है, इसलिये "वर्षीयान्" हो।
३९६. अनंतवीर्य होनेसे "वृषभ" हो।
३९७. आप सबसे अग्रगामी है, महाजनोंमें श्रेष्ठ है, इसलिये "पुरु" है।
३९८. आपके भक्ति, सेवा करनेवालोंको अनायास हि प्रतिष्ठा प्राप्ति हो जाती है, अथवा स्थैर्य आपसे उत्पन्न हुआ है इसलिये "प्रतिष्ठाप्रसव" हो।
३९९. मोक्षके कारण आप"हेतु" हो ।
४००. तिनों लोकोंमें मात्र एक आपहि ऐसे हो जो सबका कल्याण करनेवाला, मोक्षमार्ग बतानेवाला हितोपदेश देते है, इसलिये हे विभो आपको "भुवनैकपितामह" भि कहा जाता है।