06-10-2018, 08:27 AM
श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली अष्टम अध्याय भाग २
७५१- ॐ ह्रीं अर्हं समाहिताय नमः -समाधानरूप होने से,
७५२- ॐ ह्रीं अर्हं सुस्थिताय नमः -सुखपूर्वक स्थित होने से,
७५३- ॐ ह्रीं अर्हं स्वास्थ्यभाजे नमः -आरोग्य अथवा आत्मस्वरूप की निश्चलता को प्राप्त होने से,
७५४- ॐ ह्रीं अर्हं स्वस्थाय नमः -आत्मस्वरूप में स्थित होने से
७५१- ॐ ह्रीं अर्हं समाहिताय नमः -समाधानरूप होने से,
७५२- ॐ ह्रीं अर्हं सुस्थिताय नमः -सुखपूर्वक स्थित होने से,
७५३- ॐ ह्रीं अर्हं स्वास्थ्यभाजे नमः -आरोग्य अथवा आत्मस्वरूप की निश्चलता को प्राप्त होने से,
७५४- ॐ ह्रीं अर्हं स्वस्थाय नमः -आत्मस्वरूप में स्थित होने से,
७५५-ॐ ह्रीं अर्हं नीरजस्काय नमः - कर्मरूप रज रहित होने से,
७५६- ॐ ह्रीं अर्हं निरुद्धवाय नमः -सांसारिक उत्सवों रहित होने से,
७५७- ॐ ह्रीं अर्हं अलेपाय नमः -कर्मरूपी लेप रहित होने से,
७५८-ॐ ह्रीं अर्हं निष्कलंकात्माने नमः -कलंकरहित आत्मा से युक्त होने से,
७५९-ॐ ह्रीं अर्हं वीतरागाय नमः -रागद्वेष रहित होने से,
७६०-ॐ ह्रीं अर्हं गतस्पृहाय नमः -विषयों की इच्छा से रहित होने से
७६१-ॐ ह्रीं अर्हं वश्येन्द्रीयाय नमः -इन्द्रियों को वश में होने से,
७६२-ॐ ह्रीं अर्हं विमुक्तात्मने नमः - आत्माकर्मबन्धनो से मुक्त होने से,
७६३-ॐ ह्रीं अर्हं नि: सप्तनाय नमः -कोई शत्रु अथवा प्रतिद्वंदी नही होने से,
७६६-ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तधामर्षये नमः -अनन्त तेज के धारक होने से,
७६७-ॐ ह्रीं अर्हं मंगलाय नमः -मंगलरूप होने से,
७६८-ॐ ह्रीं अर्हं मलघ्ने नमः -मल नष्ट करने से,
७६९-ॐ ह्रीं अर्हं अनपाय नमः -व्यसनों अथवा दुखो से रहित होने से,
नोट-यद्यपि ६४७ वां नाम भी अनघ है अत: ७६९ वां अनघ नाम पुनरुक्त सा !'अघ' शब्द के 'अघं तु व्यसने दुःखे दुरिते च नपुंसकम्' अनेक अर्थ होने से पुनरुक्ति दोष दूर हो जाता है
७७०-ॐ ह्रीं अर्हं अनीदृशे नमः -के समान अन्य कोई नही है अत:
७७१-ॐ ह्रीं अर्हं उपमाभूताय नमः -सबके लिए उपमा देने योग्य होने से,
७७२-ॐ ह्रीं अर्हं दिष्टये नमः -सब जीवों के भाग्यस्वरूप होने से ,
७७३-ॐ ह्रीं अर्हं दैवाय नमः -सब जीवों के भाग्यस्वरूप होने से,
७७४-ॐ ह्रीं अर्हं अगोचर नमः -इन्द्रियों द्वारा जाने नही जा सकते अथवा केवलज्ञान होने के बाद पृथ्वी पर 'गो' अर्थात विहार नही करते अत:
७७५-ॐ ह्रीं अर्हं अमूर्ताय नमः -रूप,रस,गंध ,स्पर्श रहित होने से,
७७६-ॐ ह्रीं अर्हं मूर्तिमते नमः -संसार में शरीर सहित है इसलिए ,
७७७-ॐ ह्रीं अर्हं एकस्मै नमः -अद्वितीय होने से,
७७८-ॐ ह्रीं अर्हं नैकस्मै नमः -अनेक गुणों सहित होने से,
७७९-ॐ ह्रीं अर्हं नानैकतत्वकदृशे नमः -आत्मा के अतिरिक्त अन्य अनेक परपदार्थों को नही देखते , उन में तल्लीन नही होने से,
७८०-ॐ ह्रीं अर्हं अध्यात्मगम्याय नमः - अध्यात्म शास्त्रों के द्वारा जानने योग्य होने से,
७८१-ॐ ह्रीं अर्हं अगम्यात्मने नमः - मिथ्यादृष्टि जीवों द्वारा जानने योग्य नही होने से,
७८२-ॐ ह्रीं अर्हं योगविदे नमः -योगों के ज्ञाता होने से,
७८३-ॐ ह्रीं अर्हं योगिवन्दिताय नमः -योगियों द्वारा वन्दित होने से,
७८४-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वत्रगाय नमः -केवलज्ञान की अपेक्षा सर्वत्र व्याप्त होने से,
७८५-ॐ ह्रीं अर्हं सदभावीने -सदा विद्यमान रहने से,
७८६-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिकालविषार्थकदृशे नमः -समस्त पदार्थों को देखने से ,
७८७-ॐ ह्रीं अर्हं शंकराय नमः -सबको सुख प्रदाता होने से,
७८८-ॐ ह्रीं अर्हं शंवदाय नमः -सुख बतलाने वाले होने से,
७८९-ॐ ह्रीं अर्हं दान्ताय नमः -मन को वश में करने से,
७९०-ॐ ह्रीं अर्हं दमीने नमः - इन्द्रियों का दमन करने से,
७९१-ॐ ह्रीं अर्हं क्षान्तिपरायणाय नमः -क्षमा धारण करने में ततपर रहने से,
७९२-ॐ ह्रीं अर्हं अधिपाय नमः -सबके स्वामी होने से,
७९३-ॐ ह्रीं अर्हं परमानन्दाय नमः -उत्कृष्ट आनंद रूप होने से ,
७९४-ॐ ह्रीं अर्हं परात्मज्ञाय नमः -उत्कृष्ट अथवा पर और निज की आत्मा को जानने से ,
७९५-ॐ ह्रीं अर्हं परात्पराय नमः -श्रेष्ठ से श्रेष्ठ होने से,
७९६-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिजगद्वल्लभाय नमः -त्रिलोक के स्वामी अथवा प्रिय होने से,
७९७-ॐ ह्रीं अर्हं अभ्यचर्याय नमः -पूजनीय होने से,
७९८-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिजगन्मंगलोदयाय नमः -त्रिलोक में मंगलदाता होने से,
७९९-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिजगत्पतिपूजयाङ्घ्रये नमः -तीनोंलोकों के इन्द्रों द्वारा पूजनीय चरणों से युक्त होने से ,
८००-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिलोकाग्र शिखामणये नमः -कुछ समय बाद त्रिलोक अग्रभाग पर चूड़ामणि के समान विराजमान होने से,
७५१- ॐ ह्रीं अर्हं समाहिताय नमः -समाधानरूप होने से,
७५२- ॐ ह्रीं अर्हं सुस्थिताय नमः -सुखपूर्वक स्थित होने से,
७५३- ॐ ह्रीं अर्हं स्वास्थ्यभाजे नमः -आरोग्य अथवा आत्मस्वरूप की निश्चलता को प्राप्त होने से,
७५४- ॐ ह्रीं अर्हं स्वस्थाय नमः -आत्मस्वरूप में स्थित होने से
७५१- ॐ ह्रीं अर्हं समाहिताय नमः -समाधानरूप होने से,
७५२- ॐ ह्रीं अर्हं सुस्थिताय नमः -सुखपूर्वक स्थित होने से,
७५३- ॐ ह्रीं अर्हं स्वास्थ्यभाजे नमः -आरोग्य अथवा आत्मस्वरूप की निश्चलता को प्राप्त होने से,
७५४- ॐ ह्रीं अर्हं स्वस्थाय नमः -आत्मस्वरूप में स्थित होने से,
७५५-ॐ ह्रीं अर्हं नीरजस्काय नमः - कर्मरूप रज रहित होने से,
७५६- ॐ ह्रीं अर्हं निरुद्धवाय नमः -सांसारिक उत्सवों रहित होने से,
७५७- ॐ ह्रीं अर्हं अलेपाय नमः -कर्मरूपी लेप रहित होने से,
७५८-ॐ ह्रीं अर्हं निष्कलंकात्माने नमः -कलंकरहित आत्मा से युक्त होने से,
७५९-ॐ ह्रीं अर्हं वीतरागाय नमः -रागद्वेष रहित होने से,
७६०-ॐ ह्रीं अर्हं गतस्पृहाय नमः -विषयों की इच्छा से रहित होने से
७६१-ॐ ह्रीं अर्हं वश्येन्द्रीयाय नमः -इन्द्रियों को वश में होने से,
७६२-ॐ ह्रीं अर्हं विमुक्तात्मने नमः - आत्माकर्मबन्धनो से मुक्त होने से,
७६३-ॐ ह्रीं अर्हं नि: सप्तनाय नमः -कोई शत्रु अथवा प्रतिद्वंदी नही होने से,
७६४-ॐ ह्रीं अर्हं जितेन्द्रियाय नमः -इन्द्रियों पर विजयी होने से,
७६५-ॐ ह्रीं अर्हं प्रशांताय नमः -शान्त होने से,,७६६-ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तधामर्षये नमः -अनन्त तेज के धारक होने से,
७६७-ॐ ह्रीं अर्हं मंगलाय नमः -मंगलरूप होने से,
७६८-ॐ ह्रीं अर्हं मलघ्ने नमः -मल नष्ट करने से,
७६९-ॐ ह्रीं अर्हं अनपाय नमः -व्यसनों अथवा दुखो से रहित होने से,
नोट-यद्यपि ६४७ वां नाम भी अनघ है अत: ७६९ वां अनघ नाम पुनरुक्त सा !'अघ' शब्द के 'अघं तु व्यसने दुःखे दुरिते च नपुंसकम्' अनेक अर्थ होने से पुनरुक्ति दोष दूर हो जाता है
७७०-ॐ ह्रीं अर्हं अनीदृशे नमः -के समान अन्य कोई नही है अत:
७७१-ॐ ह्रीं अर्हं उपमाभूताय नमः -सबके लिए उपमा देने योग्य होने से,
७७२-ॐ ह्रीं अर्हं दिष्टये नमः -सब जीवों के भाग्यस्वरूप होने से ,
७७३-ॐ ह्रीं अर्हं दैवाय नमः -सब जीवों के भाग्यस्वरूप होने से,
७७४-ॐ ह्रीं अर्हं अगोचर नमः -इन्द्रियों द्वारा जाने नही जा सकते अथवा केवलज्ञान होने के बाद पृथ्वी पर 'गो' अर्थात विहार नही करते अत:
७७५-ॐ ह्रीं अर्हं अमूर्ताय नमः -रूप,रस,गंध ,स्पर्श रहित होने से,
७७६-ॐ ह्रीं अर्हं मूर्तिमते नमः -संसार में शरीर सहित है इसलिए ,
७७७-ॐ ह्रीं अर्हं एकस्मै नमः -अद्वितीय होने से,
७७८-ॐ ह्रीं अर्हं नैकस्मै नमः -अनेक गुणों सहित होने से,
७७९-ॐ ह्रीं अर्हं नानैकतत्वकदृशे नमः -आत्मा के अतिरिक्त अन्य अनेक परपदार्थों को नही देखते , उन में तल्लीन नही होने से,
७८०-ॐ ह्रीं अर्हं अध्यात्मगम्याय नमः - अध्यात्म शास्त्रों के द्वारा जानने योग्य होने से,
७८१-ॐ ह्रीं अर्हं अगम्यात्मने नमः - मिथ्यादृष्टि जीवों द्वारा जानने योग्य नही होने से,
७८२-ॐ ह्रीं अर्हं योगविदे नमः -योगों के ज्ञाता होने से,
७८३-ॐ ह्रीं अर्हं योगिवन्दिताय नमः -योगियों द्वारा वन्दित होने से,
७८४-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वत्रगाय नमः -केवलज्ञान की अपेक्षा सर्वत्र व्याप्त होने से,
७८५-ॐ ह्रीं अर्हं सदभावीने -सदा विद्यमान रहने से,
७८६-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिकालविषार्थकदृशे नमः -समस्त पदार्थों को देखने से ,
७८७-ॐ ह्रीं अर्हं शंकराय नमः -सबको सुख प्रदाता होने से,
७८८-ॐ ह्रीं अर्हं शंवदाय नमः -सुख बतलाने वाले होने से,
७८९-ॐ ह्रीं अर्हं दान्ताय नमः -मन को वश में करने से,
७९०-ॐ ह्रीं अर्हं दमीने नमः - इन्द्रियों का दमन करने से,
७९१-ॐ ह्रीं अर्हं क्षान्तिपरायणाय नमः -क्षमा धारण करने में ततपर रहने से,
७९२-ॐ ह्रीं अर्हं अधिपाय नमः -सबके स्वामी होने से,
७९३-ॐ ह्रीं अर्हं परमानन्दाय नमः -उत्कृष्ट आनंद रूप होने से ,
७९४-ॐ ह्रीं अर्हं परात्मज्ञाय नमः -उत्कृष्ट अथवा पर और निज की आत्मा को जानने से ,
७९५-ॐ ह्रीं अर्हं परात्पराय नमः -श्रेष्ठ से श्रेष्ठ होने से,
७९६-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिजगद्वल्लभाय नमः -त्रिलोक के स्वामी अथवा प्रिय होने से,
७९७-ॐ ह्रीं अर्हं अभ्यचर्याय नमः -पूजनीय होने से,
७९८-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिजगन्मंगलोदयाय नमः -त्रिलोक में मंगलदाता होने से,
७९९-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिजगत्पतिपूजयाङ्घ्रये नमः -तीनोंलोकों के इन्द्रों द्वारा पूजनीय चरणों से युक्त होने से ,
८००-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिलोकाग्र शिखामणये नमः -कुछ समय बाद त्रिलोक अग्रभाग पर चूड़ामणि के समान विराजमान होने से,