06-17-2021, 02:46 PM
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि, नि:शेष- निर्जित-जगत्त्रितयोपमानम्।
बिम्बं कलङ्क-मलिनं क्व निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम् ॥
नर सुर और नागेन्द्र नयन को जिन ने हरण किया।
तीन जगत की उपमाओं को जिनने वरण किया।
ऐसा सुन्दर अनुपम मुख है, आदीश्वर जिन का ।
कैसे मैं कह दूँ जिनमुख को मलिन निशाकर सा ।।
जो पलाश पत्ते सा दिन में फीका पड़ जाता ।
सदा प्रकाशी निर्मल मुख श्री जिनवर का रहता ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (13)
ॐ ह्रीं अर्हम् दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धये दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (13)
सम्पूर्ण मण्डल-शंशाङ्क-कला-कलाप शुभ्रा गुणास्-त्रि-भुवनं तव लङ्घयन्ति।
ये संश्रितास्-त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं, कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम् ॥
पूर्ण चन्द्र की कला युक्त हे उज्जवल गुण वाले।
नाथ आपके के आश्रय गुण सारे ।।
त्रिभुवन पति के आश्रित हैं जो उन्हें कौन रोके ?
यथेष्ट विचरण करे गुणों को कहो कौन टोके ?
भक्त आपके ही आश्रित है, सिद्धालय चाहे।
कर्म और नौकर्म इसे ना कोई रोक पावे।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (14)
ॐ ह्रीं अर्हम् चतुर्दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धये चतुर्दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (14)
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग-नाभिर् नीतं मनागपि मनो न विकार मार्गम् ।
कल्पान्त- काल- मरुता चलिताचलेन, किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥
प्रलयकाल की तीव्र वायु से पर्वत हिल जाते ।
किन्तु पवन ये मेरू शिखर को हिला नहीं पाते ।।
विकार पैदा करने वाली सुरागड़ना आई।
इसमें क्या आश्चर्य प्रभु का मन न डिगा पाई।।
अचल मेरू सी थिरताधारी आदिनाथ जिनराज ।
ब्रह्मचर्य व्रत अखण्ड धरकर पाया शिव साम्राज्य ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (15)
ॐ ह्रीं अर्हम् अष्टांग महा निमित्त बुद्धि ऋद्धये अष्टांग महा निमित्त बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। ( 15
निर्धूम- वर्ति- रपवर्जित- तैल- पूर: फुले जगत्त्रय-मिदं प्रकटीकरोपि।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश: ॥
राग बाती और तेल शून्य प्रभु द्वेप धुएँ से दूर।
त्रिभुवन को इस साथ प्रकाशित करते हो भरपूर ।।
गिरि को चला सके जो ऐसी चलती तेज बयार।
बुझा न सकती प्रभु दीपक को माने अपनी हार।।
जगत प्रकाशक अपूर्व दीपक शाश्वत हो जिननाथ ।
मेरे मन को सदा प्रकाशित करते रहना आप ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
में भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (16)
ॐ ह्रीं अर्हम् प्रज्ञा श्रमणत्व बुद्धि ऋद्धये प्रज्ञा श्रमणत्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (16)
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्- जगन्ति ।
नाम्भोधरोदर निरुद्ध महा- प्रभाव:, सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र ! लोके ॥
अस्त कभी ना होता जिनरवि ग्रसे न राहु प्रबल ।
छिपा न पाते तेज आपका कोई बादल दल ।।
युगपत् तीनों लोक प्रकाशी पूर्णज्ञान रवि आप |
गगन सूर्य से भी अतिशायी महिमाशाली नाथ ।।
कर्म से ग्रसित ज्ञान मम शक्ति दो भगवान।
राहु विभाव धन से छिपे आत्म को प्रकट करूँ धर ध्यान ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (17)
ॐ ह्रीं अर्हम् प्रत्येक बुद्धि ऋद्धये प्रत्येक बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 17 )
नित्योदयं दलित- मोह- महान्धकारं, गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् ।
विभ्राजते तव मुखाब्ज-मनल्पकान्ति, विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशाङ्कं-बिम्बम् ॥
अद्भुत है मुख चन्द्र आपका नित्य उदित रहता।
मोह महान्ध मिटाने वाला राहु न ग्रस सकता।।
मेघ आवरण रहित नित्य प्रभु जगत प्रकाशक आप।
अनन्त कान्ति युक्त जिनेश्वर शान्ति विधायक नाथ ।।
मेरे सम्यक् श्रद्धा नभ के चाँद निराले हो ।
पूर्णज्ञान की कला युक्त भविजन को प्यारे हो ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (18)
ॐ ह्रीं अर्हम् वादित्व बुद्धि ऋद्धये वादित्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (18)
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Bhaktambar stotra with meaning and riddhi mantra
बिम्बं कलङ्क-मलिनं क्व निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम् ॥
नर सुर और नागेन्द्र नयन को जिन ने हरण किया।
तीन जगत की उपमाओं को जिनने वरण किया।
ऐसा सुन्दर अनुपम मुख है, आदीश्वर जिन का ।
कैसे मैं कह दूँ जिनमुख को मलिन निशाकर सा ।।
जो पलाश पत्ते सा दिन में फीका पड़ जाता ।
सदा प्रकाशी निर्मल मुख श्री जिनवर का रहता ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (13)
ॐ ह्रीं अर्हम् दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धये दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (13)
सम्पूर्ण मण्डल-शंशाङ्क-कला-कलाप शुभ्रा गुणास्-त्रि-भुवनं तव लङ्घयन्ति।
ये संश्रितास्-त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं, कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम् ॥
पूर्ण चन्द्र की कला युक्त हे उज्जवल गुण वाले।
नाथ आपके के आश्रय गुण सारे ।।
त्रिभुवन पति के आश्रित हैं जो उन्हें कौन रोके ?
यथेष्ट विचरण करे गुणों को कहो कौन टोके ?
भक्त आपके ही आश्रित है, सिद्धालय चाहे।
कर्म और नौकर्म इसे ना कोई रोक पावे।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (14)
ॐ ह्रीं अर्हम् चतुर्दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धये चतुर्दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (14)
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग-नाभिर् नीतं मनागपि मनो न विकार मार्गम् ।
कल्पान्त- काल- मरुता चलिताचलेन, किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥
प्रलयकाल की तीव्र वायु से पर्वत हिल जाते ।
किन्तु पवन ये मेरू शिखर को हिला नहीं पाते ।।
विकार पैदा करने वाली सुरागड़ना आई।
इसमें क्या आश्चर्य प्रभु का मन न डिगा पाई।।
अचल मेरू सी थिरताधारी आदिनाथ जिनराज ।
ब्रह्मचर्य व्रत अखण्ड धरकर पाया शिव साम्राज्य ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (15)
ॐ ह्रीं अर्हम् अष्टांग महा निमित्त बुद्धि ऋद्धये अष्टांग महा निमित्त बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। ( 15
निर्धूम- वर्ति- रपवर्जित- तैल- पूर: फुले जगत्त्रय-मिदं प्रकटीकरोपि।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश: ॥
राग बाती और तेल शून्य प्रभु द्वेप धुएँ से दूर।
त्रिभुवन को इस साथ प्रकाशित करते हो भरपूर ।।
गिरि को चला सके जो ऐसी चलती तेज बयार।
बुझा न सकती प्रभु दीपक को माने अपनी हार।।
जगत प्रकाशक अपूर्व दीपक शाश्वत हो जिननाथ ।
मेरे मन को सदा प्रकाशित करते रहना आप ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
में भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (16)
ॐ ह्रीं अर्हम् प्रज्ञा श्रमणत्व बुद्धि ऋद्धये प्रज्ञा श्रमणत्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (16)
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्- जगन्ति ।
नाम्भोधरोदर निरुद्ध महा- प्रभाव:, सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र ! लोके ॥
अस्त कभी ना होता जिनरवि ग्रसे न राहु प्रबल ।
छिपा न पाते तेज आपका कोई बादल दल ।।
युगपत् तीनों लोक प्रकाशी पूर्णज्ञान रवि आप |
गगन सूर्य से भी अतिशायी महिमाशाली नाथ ।।
कर्म से ग्रसित ज्ञान मम शक्ति दो भगवान।
राहु विभाव धन से छिपे आत्म को प्रकट करूँ धर ध्यान ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (17)
ॐ ह्रीं अर्हम् प्रत्येक बुद्धि ऋद्धये प्रत्येक बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 17 )
नित्योदयं दलित- मोह- महान्धकारं, गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् ।
विभ्राजते तव मुखाब्ज-मनल्पकान्ति, विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशाङ्कं-बिम्बम् ॥
अद्भुत है मुख चन्द्र आपका नित्य उदित रहता।
मोह महान्ध मिटाने वाला राहु न ग्रस सकता।।
मेघ आवरण रहित नित्य प्रभु जगत प्रकाशक आप।
अनन्त कान्ति युक्त जिनेश्वर शान्ति विधायक नाथ ।।
मेरे सम्यक् श्रद्धा नभ के चाँद निराले हो ।
पूर्णज्ञान की कला युक्त भविजन को प्यारे हो ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (18)
ॐ ह्रीं अर्हम् वादित्व बुद्धि ऋद्धये वादित्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (18)
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