09-10-2021, 11:12 AM
दसलक्षण मण्डल विधान
पं. टेक चंद जी
कवि श्री टेकचन्दजी कृत - श्री दशलक्षण मण्डल विधान
जोगी रासा
नेमीनाथो, देतो साथो, भव भव और न चाहूँ। भक्ति तिहारी, निशदिन मन वच, काय लाय करि गाऊं ॥ धर्म कह्यो तुम, वानी दश विधि, सो मोहि होउ सहाई। करुणासागर, स..रस गर्भित, शीश नमो थुति गाई ।
गीता छन्द
धर्मके दश कहे लक्षण, तिन थकी जिय सुख लहै। भवरोगको यह महा औषधि, मरण जामन दुख दहै ॥ यह वरत नीका मीत जीका, करो आदरतें सही। मैं जजों दश विधि धर्मके अंग, तासु फल है शिवमही ॥
पद्धड़ी छन्द
यह धर्म भवोदधि नाव जान, या सेयें भव दुख होइ हान यह धर्म कल्पतरु सुक्ख पूर, मैं पूजों भव दुख करन दूर ॥ मैं
गीता छन्द
यह वरत मन कपि गले माहीं, सांकली सम जानिये। गज-अक्ष जीतन सिंह जैसो, मोहतम रवि मानिये ॥
सुरथान' माहीं वरत नाहीं, मनुज हूँ शुभ कुल लहँ।
तातै सुअवसर है भलो, अब करौ पूजा धुनि कहै ॥ बेसरी छन्द
जाने दशलक्षण व्रत कीना, से सत्पुरुषनिमें परवीना। भवसागर फिरनो मिट जावै, जो नर दशलक्षण वृष' भावै ॥
भुजंगप्रयात छन्द
यही धर्म सारं करै पाप क्षारं, यही धर्म सारं, करै सुख अपारं। यही धर्म धीरा, हरै लोक पीरा, यही धर्म मीरा करै लोकतीरा ।
त्रिभंगी छन्द
यह धर्म हमारा, सब जग प्यारा, जगत उधारा हितदानी। यह दशविधि गाया, जन मन भाया, उच्च बताया जिनवानी ॥ यह शिव करतारा, अघतैं न्यारा, भवि उद्धारा मुनि धारा। ताकौ मैं ध्याऊं शीश नवाऊं, अर्घ चढ़ाऊं सुखकारा ॥
चौपाई छन्द
या व्रतकी महिमा कहि वीर, दशविधि धर्म हरै भवपीर। इसी धर्म बिन जग भरमाय, जजहु धरम अति दुरलभ पाय॥ दोहा-दश प्रकारको धर्म यह, दशविधि सुरतरु जान।
वांछित पद सेवक लहैं, अधिक कहा सुखदान ॥ सोरठा-धर्म हमारा नाथ, धर्म जगतका सेहरा। भव भवमें हो साथ, और न वांछा मन विषै ॥
मण्डल मध्ये पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
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पं. टेक चंद जी
कवि श्री टेकचन्दजी कृत - श्री दशलक्षण मण्डल विधान
जोगी रासा
नेमीनाथो, देतो साथो, भव भव और न चाहूँ। भक्ति तिहारी, निशदिन मन वच, काय लाय करि गाऊं ॥ धर्म कह्यो तुम, वानी दश विधि, सो मोहि होउ सहाई। करुणासागर, स..रस गर्भित, शीश नमो थुति गाई ।
गीता छन्द
धर्मके दश कहे लक्षण, तिन थकी जिय सुख लहै। भवरोगको यह महा औषधि, मरण जामन दुख दहै ॥ यह वरत नीका मीत जीका, करो आदरतें सही। मैं जजों दश विधि धर्मके अंग, तासु फल है शिवमही ॥
पद्धड़ी छन्द
यह धर्म भवोदधि नाव जान, या सेयें भव दुख होइ हान यह धर्म कल्पतरु सुक्ख पूर, मैं पूजों भव दुख करन दूर ॥ मैं
गीता छन्द
यह वरत मन कपि गले माहीं, सांकली सम जानिये। गज-अक्ष जीतन सिंह जैसो, मोहतम रवि मानिये ॥
सुरथान' माहीं वरत नाहीं, मनुज हूँ शुभ कुल लहँ।
तातै सुअवसर है भलो, अब करौ पूजा धुनि कहै ॥ बेसरी छन्द
जाने दशलक्षण व्रत कीना, से सत्पुरुषनिमें परवीना। भवसागर फिरनो मिट जावै, जो नर दशलक्षण वृष' भावै ॥
भुजंगप्रयात छन्द
यही धर्म सारं करै पाप क्षारं, यही धर्म सारं, करै सुख अपारं। यही धर्म धीरा, हरै लोक पीरा, यही धर्म मीरा करै लोकतीरा ।
त्रिभंगी छन्द
यह धर्म हमारा, सब जग प्यारा, जगत उधारा हितदानी। यह दशविधि गाया, जन मन भाया, उच्च बताया जिनवानी ॥ यह शिव करतारा, अघतैं न्यारा, भवि उद्धारा मुनि धारा। ताकौ मैं ध्याऊं शीश नवाऊं, अर्घ चढ़ाऊं सुखकारा ॥
चौपाई छन्द
या व्रतकी महिमा कहि वीर, दशविधि धर्म हरै भवपीर। इसी धर्म बिन जग भरमाय, जजहु धरम अति दुरलभ पाय॥ दोहा-दश प्रकारको धर्म यह, दशविधि सुरतरु जान।
वांछित पद सेवक लहैं, अधिक कहा सुखदान ॥ सोरठा-धर्म हमारा नाथ, धर्म जगतका सेहरा। भव भवमें हो साथ, और न वांछा मन विषै ॥
मण्डल मध्ये पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
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