06-10-2018, 09:55 AM
श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली नवम अध्याय भाग १
८०१-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिकाल दर्शिने नमः - तीनों काल संबंधी समस्त पदार्थों को देखने वाले है इसलिए ,
८०२-ॐ ह्रीं अर्हं लोकेशाय नमः - लोकों के स्वामी होने से,
८०३-ॐ ह्रीं अर्हं लोकधात्रे नमः - जीवों के पोषक एवं रक्षक होने से ,
८०४-ॐ ह्रीं अर्हं दृढ़व्रताय नमः -व्रतों को स्थिर रखने से,
८०५-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकातिगाय नमः -त्रिलोक में सर्वश्रेष्ठ होने से
८०६-ॐ ह्रीं अर्हं पूज्याय नमः -पूजा योग्य होने से,
८०७-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकैकसारथये नमः -सब लोगो को मुख्यरूप से अभीष्ट स्थान तक पहुचने में सामर्थ्यवान होने से,
८०८-ॐ ह्रीं अर्हं पुराणाय नमः -प्राचीनतम होने से,
८०९-ॐ ह्रीं अर्हं पुरुषाय नमः -आत्मा के श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त होने से,
८१०-ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वाय नमः -सर्व प्रथम होने से कहलाते है!
८११-ॐ ह्रीं अर्हं कृतपूर्वांगविस्ताराय नमः -अंग और पूर्वों का विस्तार करने से,
८१२-ॐ ह्रीं अर्हं आदिदेवाय नमः -देवो में मुख्य होने से,
८१३-ॐ ह्रीं अर्हं पुराणाद्याय नमः -पुराणों में प्रथम होने से ,
८१४ -ॐ ह्रीं अर्हं पुरुदेवाय नमः -महान अथवा प्रथम तीर्थंकर(ऋषभदेव) होने से ,
८१५-ॐ ह्रीं अर्हंअधिदेवाय नमः -देवो के देव होने से,
८१६-ॐ ह्रीं अर्हं युगमुख्याय नमः -इस अवसर्पिणी काल के मुख्य पुरुष होने से ,
८१७-ॐ ह्रीं अर्हं युगज्येष्ठाय नमः -इसी युग में सबसे बड़े होने से,
८१८-ॐ ह्रीं अर्हं युगादिंस्थितिदेशकाय नमः -कर्मभूमिरूप युग के प्रारम्भ में तत्कालोचित मर्यादा के उपदेशक होने से ,
८१९-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याणवर्णाय नमः -कल्याण अथवा सुवर्ण समान कांति धारक होने से,
८२०-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याणाय नमः -कल्याण रूप होने से,
८२१-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याय नमः -मोक्ष प्राप्ति में सज्ज /तत्पर रहने अथवा निरामय निरोग होने से,
८२२-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याणलक्षणाय नमः -कल्याणकारी लक्षणों से युक्त होने से,
८२३-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याण प्रकृतये नमः -स्वभाव कल्याण रूप होने से ,
८२४-ॐ ह्रीं अर्हं दीप्रकल्याणात्मने नमः -देदीप्यमान सुवर्ण के समान निर्मल होने से,
८२५-ॐ ह्रीं अर्हं विकल्मषाय नमः -कर्म कलिमा से रहित होने से,
८२६-ॐ ह्रीं अर्हं विकलंकाय नमः -कलंक रहित होने से,
८२७-ॐ ह्रीं अर्हं कालातीताय नमः -शरीर रहित होने से,
८२८-ॐ ह्रीं अर्हं कलिलघ्नाय नमः -पापों के क्षय करता होने से,
८२९-ॐ ह्रीं अर्हं कलाधराय नमः -अनेक कलाओं के धारक होने से,
८३०-ॐ ह्रीं अर्हं देवदेवाय नमः -देवो के देव होने से ,
८३१-ॐ ह्रीं अर्हं जगन्नाथाय नमः -जगत के स्वामी होने से,
८३२-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्बन्धवे नमः -जगत के भाई होने से,-
८३३-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्विभवे नमः -जगत के स्वामी होने से,
८३४-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्धितैषिणे नमः -जगत के हितैषी होने से,
८३५-ॐ ह्रीं अर्हं लोकज्ञाय नमः -लोक के ज्ञाता होने से,
८३६-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वांगाय नमः -सब जगह केवल ज्ञान की अपेक्षा व्याप्त होने से,
८३७-ॐ ह्रीं अर्हं जगदग्रजाय नमः -जगत में ज्येष्ठतम होने से,
८३८-ॐ ह्रीं अर्हं चराचरगुरुवे नमः -चर और स्थावर के गुरु होने से,
८३९-ॐ ह्रीं अर्हं गोप्याय नमः -अत्यंत सावधानी पूर्वक हृदय में रखने से ,
८४०-ॐ ह्रीं अर्हं गूढात्मने नमः -गूढ स्वरुप के धारक होने से,
८४१-ॐ ह्रीं अर्हं गूढ गोचराय नमः -अत्यंत गूढ़ विषयो के ज्ञाता होने से,
८४२-ॐ ह्रीं अर्हं सद्योजाताय -तत्कालों में उत्पन्न हुए के समान निर्विकार होने से,
८४३-ॐ ह्रीं अर्हं प्रकाशात्मने नमः -प्रकाश रूप होने से,
८४४-ॐ ह्रीं अर्हं ज्वलज्ज्वलनसत्प्रभाय नमः -जलती अग्नि के समान शरीर की प्रभा के धारक होने से ,
८४५-ॐ ह्रीं अर्हं आदित्यवर्णाय नमः -सूर्य के समान तेजस्वी होने से,
८४६ -ॐ ह्रीं अर्हं भर्माभाय नमः -सुवर्ण समान कांतवान होने से,
८४७ -ॐ ह्रीं अर्हं सुप्रभाय नमः -उत्तम प्रभा से युक्त होने से ,
८४८-ॐ ह्रीं अर्हं कनकप्रभाय नमः -सुवर्ण समान आभा से युक्त होने से,
८४९-ॐ ह्रीं अर्हं सुवर्णवर्णाय नमः -सुवर्ण समान आभा से युक्त होने से
८५०-ॐ ह्रीं अर्हं रुक्माभाय नमः -सुवर्ण समान आभा से युक्त होने से
८०१-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिकाल दर्शिने नमः - तीनों काल संबंधी समस्त पदार्थों को देखने वाले है इसलिए ,
८०२-ॐ ह्रीं अर्हं लोकेशाय नमः - लोकों के स्वामी होने से,
८०३-ॐ ह्रीं अर्हं लोकधात्रे नमः - जीवों के पोषक एवं रक्षक होने से ,
८०४-ॐ ह्रीं अर्हं दृढ़व्रताय नमः -व्रतों को स्थिर रखने से,
८०५-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकातिगाय नमः -त्रिलोक में सर्वश्रेष्ठ होने से
८०६-ॐ ह्रीं अर्हं पूज्याय नमः -पूजा योग्य होने से,
८०७-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकैकसारथये नमः -सब लोगो को मुख्यरूप से अभीष्ट स्थान तक पहुचने में सामर्थ्यवान होने से,
८०८-ॐ ह्रीं अर्हं पुराणाय नमः -प्राचीनतम होने से,
८०९-ॐ ह्रीं अर्हं पुरुषाय नमः -आत्मा के श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त होने से,
८१०-ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वाय नमः -सर्व प्रथम होने से कहलाते है!
८११-ॐ ह्रीं अर्हं कृतपूर्वांगविस्ताराय नमः -अंग और पूर्वों का विस्तार करने से,
८१२-ॐ ह्रीं अर्हं आदिदेवाय नमः -देवो में मुख्य होने से,
८१३-ॐ ह्रीं अर्हं पुराणाद्याय नमः -पुराणों में प्रथम होने से ,
८१४ -ॐ ह्रीं अर्हं पुरुदेवाय नमः -महान अथवा प्रथम तीर्थंकर(ऋषभदेव) होने से ,
८१५-ॐ ह्रीं अर्हंअधिदेवाय नमः -देवो के देव होने से,
८१६-ॐ ह्रीं अर्हं युगमुख्याय नमः -इस अवसर्पिणी काल के मुख्य पुरुष होने से ,
८१७-ॐ ह्रीं अर्हं युगज्येष्ठाय नमः -इसी युग में सबसे बड़े होने से,
८१८-ॐ ह्रीं अर्हं युगादिंस्थितिदेशकाय नमः -कर्मभूमिरूप युग के प्रारम्भ में तत्कालोचित मर्यादा के उपदेशक होने से ,
८१९-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याणवर्णाय नमः -कल्याण अथवा सुवर्ण समान कांति धारक होने से,
८२०-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याणाय नमः -कल्याण रूप होने से,
८२१-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याय नमः -मोक्ष प्राप्ति में सज्ज /तत्पर रहने अथवा निरामय निरोग होने से,
८२२-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याणलक्षणाय नमः -कल्याणकारी लक्षणों से युक्त होने से,
८२३-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याण प्रकृतये नमः -स्वभाव कल्याण रूप होने से ,
८२४-ॐ ह्रीं अर्हं दीप्रकल्याणात्मने नमः -देदीप्यमान सुवर्ण के समान निर्मल होने से,
८२५-ॐ ह्रीं अर्हं विकल्मषाय नमः -कर्म कलिमा से रहित होने से,
८२६-ॐ ह्रीं अर्हं विकलंकाय नमः -कलंक रहित होने से,
८२७-ॐ ह्रीं अर्हं कालातीताय नमः -शरीर रहित होने से,
८२८-ॐ ह्रीं अर्हं कलिलघ्नाय नमः -पापों के क्षय करता होने से,
८२९-ॐ ह्रीं अर्हं कलाधराय नमः -अनेक कलाओं के धारक होने से,
८३०-ॐ ह्रीं अर्हं देवदेवाय नमः -देवो के देव होने से ,
८३१-ॐ ह्रीं अर्हं जगन्नाथाय नमः -जगत के स्वामी होने से,
८३२-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्बन्धवे नमः -जगत के भाई होने से,-
८३३-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्विभवे नमः -जगत के स्वामी होने से,
८३४-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्धितैषिणे नमः -जगत के हितैषी होने से,
८३५-ॐ ह्रीं अर्हं लोकज्ञाय नमः -लोक के ज्ञाता होने से,
८३६-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वांगाय नमः -सब जगह केवल ज्ञान की अपेक्षा व्याप्त होने से,
८३७-ॐ ह्रीं अर्हं जगदग्रजाय नमः -जगत में ज्येष्ठतम होने से,
८३८-ॐ ह्रीं अर्हं चराचरगुरुवे नमः -चर और स्थावर के गुरु होने से,
८३९-ॐ ह्रीं अर्हं गोप्याय नमः -अत्यंत सावधानी पूर्वक हृदय में रखने से ,
८४०-ॐ ह्रीं अर्हं गूढात्मने नमः -गूढ स्वरुप के धारक होने से,
८४१-ॐ ह्रीं अर्हं गूढ गोचराय नमः -अत्यंत गूढ़ विषयो के ज्ञाता होने से,
८४२-ॐ ह्रीं अर्हं सद्योजाताय -तत्कालों में उत्पन्न हुए के समान निर्विकार होने से,
८४३-ॐ ह्रीं अर्हं प्रकाशात्मने नमः -प्रकाश रूप होने से,
८४४-ॐ ह्रीं अर्हं ज्वलज्ज्वलनसत्प्रभाय नमः -जलती अग्नि के समान शरीर की प्रभा के धारक होने से ,
८४५-ॐ ह्रीं अर्हं आदित्यवर्णाय नमः -सूर्य के समान तेजस्वी होने से,
८४६ -ॐ ह्रीं अर्हं भर्माभाय नमः -सुवर्ण समान कांतवान होने से,
८४७ -ॐ ह्रीं अर्हं सुप्रभाय नमः -उत्तम प्रभा से युक्त होने से ,
८४८-ॐ ह्रीं अर्हं कनकप्रभाय नमः -सुवर्ण समान आभा से युक्त होने से,
८४९-ॐ ह्रीं अर्हं सुवर्णवर्णाय नमः -सुवर्ण समान आभा से युक्त होने से
८५०-ॐ ह्रीं अर्हं रुक्माभाय नमः -सुवर्ण समान आभा से युक्त होने से