तीर्थ और तीर्थंकर
#1

तीर्थ और तीर्थंकर

संसार से पार लगाने वाले मोक्ष-मार्ग को तीर्थ कहते है!
उस तीर्थ को चलाने, अथवा अपनी दिव्य-ध्वनि के द्वारा मोक्ष-मार्ग की प्रवृत्ति कराने वालों ...को तीर्थंकर कहते है!
तीर्थंकर जम्बू,,घातकी-खंड और पुष्कार्द्ध द्वीप; के भरत,ऐरावत क्षेत्र में नियम से गर्भ,जन्म,तप,ज्ञान और मोक्ष ५ कल्याणक और विदेहक्षेत्र से कदाचित ५ कल्याणक, कदाचित ३-तप,ज्ञान और मोक्ष कल्याणक और कदाचित २-ज्ञान एवं मोक्ष कल्याणक वाले होते है!ये इन कर्म भूमियों में ही होते है! क्योकि भरत और ऐरावत क्षेत्र में जो तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते है,वे अगली पर्याय में देव/नारकी बनते है,उससे अगली मनुष्य पर्याय प्राप्त कर तीर्थंकर बनते है! उसी भव में तीर्थंकर नहीं बनते है! किन्तु विदेह क्षेत्र में उसी भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर तीर्थंकर बन सकते है! किसी जीव ने गृहस्थ या मुनि अवस्था में तेर्थंकर प्रकृति का बंध किया तो उनके क्रमश: दीक्षा,ज्ञान और ताप ३ कल्याणक और ज्ञान,मोक्ष २ कल्याणक होते है !
क्या मात्र १६ कारण भावनाए भाने से तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है?
जो जीव दर्शनविशुद्धि भावना के साथ कुछ अन्य भावनाए भाते है तथा विश्व कल्याण की भावना रखते है, (यह भावना अत्यंत आवश्यक है),उनके तीर्थंकर प्रकृत्ति का आस्रव-बंध होता है!
तीर्थंकर प्रकृत्ति का आस्रव कौन जीव और कब कर सकता है?
तीर्थंकर प्रकृत्ति के आस्रव का प्रारंभ कर्म भूमि का जीव चौथे गुण स्थान से आठवे गुण स्थान के छ्टे भाग तक (इससे पहले नहीं) केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही करता है क्योकि इन के अभाव में तीर्थंकर-नामकर्म प्रकृत्ति के योग्य भावों की विशुद्धि होना असंभव है! नारकी,तिर्यंच,और देव तीर्थंकर प्रकृत्ति का प्रारंभ नहीं करते !
क्या तीर्थंकर प्रकृति का आस्रव करने वाला जीव चारों गतियों में जा सकता है?
तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव का प्रारंभ किसी जीव ने कर्म भूमि के मनुष्य ने किया, वह उसी भव में, विदेह क्षेत्र के जीवों की तरह,मोक्ष प्राप्त कर सकता है! यदि किसी जीव, जैसे श्रेणिक महाराज,ने तीर्थंकर प्रकृति के बंध से पूर्व नरक आयु का बंध कर लिया हो,तब वह नरक गति को जा सकता है अन्यथा मरण कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले जीव नियम से स्वर्ग ही जाते है! तीर्थंकर प्रकृत्ति का बंध करने वाले जीव तिर्यन्चों में कभी नहीं पाए जाते क्योकि जिनके तिर्यंच आयु का आस्रव हो चुका है उनके तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारम्भ ही नहीं होता है!
तीर्थंकर प्रकृति का आस्रव-बंध करने वाले जीव कितने भवों में मोक्ष प्राप्त करते है?
वे या तो उसी भव से मोक्ष प्राप्त करते है अन्यथा नियम से एक ( देव/नारकी) भव छोड़कर तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त करते है!
क्या तीर्थंकर प्रकृति का बंध निरंतर होता है?
तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारम्भ होने के बाद निरंतर होता है, दो अपवाद ओ छोड़कर!,जैसे -
1- तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाला जाव क्षयोपशमिक हो,उसने पहले नराकयु का बंध करा हो तो वह मरकर नरक में जाएगा तब उसके मनुष्य पर्याय के अंतिम अन्तरमूर्हत में उसका सम्यक्त्व भी छूट जाएगा और तीर्थंकर प्रकृत्ति का बंध भी रुक जाएगा! नरक में जन्म लेने के एक अन्तरमूर्हत में पुनः सम्यगदृष्टि हो जाएगा और तीर्थंकर प्रकृत्ति का बंध शुरू हो जाएगा!
२- तीर्थंकर प्रकृति का बंध ४थे गुण स्थान से ८वे गुण स्थान के ६ठे भाग तक होता है,! कोई जीव इसका बंध करने वाला हो और वह पहले भव में यदि उपशम श्रेणी चड़े, तो ८वे गुण स्थान के ६ठे भाग के बाद तीर्थंकर प्रकृति का बंध रुक जाता है,वह इससे ऊपर चड़कर जब पुनःवापिस आता है तो उसके ८वे गुण स्थान के ६ठे भाग पर पहुचने के बाद पुनः तीर्थंकर प्रकृति का बंध शुरू हो जाएगा!
इन दो अपवादों के अतिरिक्त तीर्थंकर प्रकृति का बंध एक बार शुरू होने के बाद रुकता नहीं है!
तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले जीव कौन से स्वर्ग और नरक तक जा सकते है?
तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले जीव,तीर्थंकर प्रकृति से पूर्व नरकायु का बंध करने वाले जीव ,यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि है तो पहले नरक तक जायेगे,क्षायोपशमिक जीव तीसरे नरक के ऊपरी भाग तक जा सकते है, तथा स्वर्ग में सर्वार्थसिद्धि तक जा सकते है! भगवान् ऋषभदेव सर्वार्थसिद्धि से पधारे थे!
तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले जीव नरक में और भी है क्या ?
आगम के अनुसार वर्तमान में तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले असंख्यात जीव पहले से तीसरे नरक में है जो अगले भव में तीर्थंकर बन कर मोक्ष पधारेंगे !
किस गति से आकर जीव तीर्थंकर बन सकते है ?
नरक और देव गति से आकर,मनुष्य गति में,जीव तीर्थंकर बन सकता है,तिर्यंच गति से आने वाला जीव तीर्थंकर नहीं बन सकते !
क्या पंचम काल में तीर्थंकर प्रकृति का बंध संभव है?
यद्यपि पंचम काल में तीर्थंकर नहीं हुए किन्तु केवली और उनके बाद श्रुत केवली भी हुए!
तीर्थंकर प्रकृति के बंध के लिए केवली अथवा श्रुत केवली का पादमूल आवश्यक है! जब तक पंचम काल में केवली और श्रुत केवली थे ,तब तक किसी जीव ने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया हो तो आगम सम्मत है! किन्तु वर्तमान में, इस समय,केवली/श्रुत केवली के पाद मूल का अभाव होने के कारण तीर्थंकर प्रकृति का बंध असंभव है!
तीर्थंकर प्रकृति का उदय बंध होने पश्चात् कितने समय बाद आता है?
कर्म का उदय, दो प्रकार का-स्वमुख उदय और परमुख उदय होता है! तीर्थंकर प्रकृति की स्थिति अंत: कोड़ा-कोडी सागर प्रमाण होती है तथा उसका अबाधा काल अंतरमूहर्त होता है! अंतरमूहर्त के बाद तीर्थंकर प्रकृति को उदय में आना ही है किन्तु उसका स्वमुख उदय उस जीव के १३ वे गुण स्थान में प्रवेश करने पर आता है! अर्थात तीर्थंका प्रकृति का बंध करने वाले जीव के अन्य शुभ प्रकृति रूप परमुख उदय होना प्रारंभ हो जाता है किन्तु स्वमुख उदय १३ वे गुण स्थान में प्रवेश करने पर शुरू होता है!
अर्हन्त और तीर्थंकर में क्या अंतर है?
सभी तीर्थंकर अर्हन्त होते है,किन्तु सभी अर्हन्त तीर्थंकर नहीं होते है!
Reply


Forum Jump:


Users browsing this thread: 2 Guest(s)