06-04-2018, 09:33 AM
जिन सहस्रनाम अर्थसहित चतुर्थ अध्याय भाग १
महाऽशोक ध्वजोऽशोक: क: स्रष्टा पद्मविष्टर:। पद्मेश पद्मसम्भूति: पद्मनाभि रनुत्तर:॥१॥
३०१. आपके अष्ट प्रातिहार्योमे महा अशोकवृक्ष है, इसलिए आपको "महाऽशोकध्वजा" कहा जाता है।
३०२. आपने शोक को नष्ट किया है इसलिये "अशोक" है।
३०३. सबसे सुख देने वाले या सबमे ज्येष्ठ होनेसे "क" हो।
३०४. मोक्षमार्ग कि शुरुवात करने से "स्रष्टा" हो।
३०५. आप कमलासन पर विराजमान है, जो कि देवकृत है, इसलिये " पद्मविष्टर" है।
३०६. अंतरंग लक्ष्मी (अनंत सुख, वीर्य, ज्ञान, दर्शन) तथा बहिरंग लक्ष्मी (समवशरण, प्रातिहार्य, अतिशय) होनसे "पद्मेश" हो।
३०७. समवशरण के उपरांत जब भि आप विहार करते हो, तब आपके चरणोके निचे देवकृत अतिशयसे कमलोंकि रचना होती है, यद्यपि आप उन्हे स्पर्श करे बगैरहि अधर मे चलते है, तो उस कमल रचना से "पद्मसंभूति" कहे जाते हो।
३०८. कमल के समान नेत्रसुखद नाभि होनेसे "पद्मनाभ" हो।
३०९. आपके समान कोई और नही ना होगा इस् कारण से आपको "अनुत्तर" नामसे भि सम्बोधा जाता है।
पद्मयोनि र्जगद्यो निरित्य: स्तुत्य: स्तुतिश्वर:। स्तवनार्हो हृषीकेशो जितजेय कृतक्रिय:॥२॥
३१०. आपके अंतरंगसे और उस निमित्तसे बहिरंग लक्ष्मी कि उत्पत्तिअ होती है, इसलिये आप"पद्मयोनि" हो अर्थात लक्ष्मीको जन्म देनेवाला कहा जाता है।
३११. जगत् कि उत्पत्ती के भि कारण आप है, क्युंकि आपने हि जगत के प्राणीयोंको जिने कि राह दि है, इसलिये "जगतयोनि" हो।
३१२. आपके होने का ज्ञान होनेसे अथवा आप जो जानना चाहे उसे ज्ञान होनेसे आपको "इत्य" कहा जाता है (यहाँ यह बताये कि येशु को भि इत्य नामसे जाना जाता है, जो है = इत्य)।
३१३. सबके द्वारा प्रशंसनीय होनेसे स्तुतियोग्य होनेसे "स्तुत्य" हो।
३१४. समस्त स्तुतियोंमे आपकि स्तुति श्रेष्ठ होनेसे "स्तुतिश्वर" हो।
३१५. ऐसि उत्कृष्ट स्तुतियोंके पात्र होनेसे या ऐसी स्तुति के लिये श्रेष्ठ होनेसे " स्तवनार्ह" हो।
३१६. आपने इन्द्रियोपर विजय पाकर उन्हे दास बनाया, अपने वश मे किया है, इसलिये आप हृषिक + इश = "हृषीकेश" कहलाते हैऽ ।
३१७. जिन पर विजय पानी चाहिये अर्थात जो जेय है, उन्हे जितने के कारण आप" जितजेय" है।
३१८. शुध्दात्मा कि प्राप्ति के पुरुषार्थ के लिये आपने सारे कृत्य पुर्ण किये इस लिये आप"कृतक्रिय" है।
गणाधिपो गणज्येष्ठो गण्य: पुण्यो गणाग्रणी:। गुणाकारो गुणाम्बोधि र्गुणज्ञो गुणनायक:॥३
३१९. बारह प्रकार कि सभाए आपके स्वामित्व मे समवशरण होती है, इसलिए"गणाधिप" हो।
३२०. समस्त चतुर्विध संघ मे मुख्य होनेसे "गणज्येष्ठ" हो।
३२१. आपके केवल ज्ञानोपदेश मे जन ऐसे आनंदित होते है, जैसे दिव्य उपवन मे विहर रहे हो, इसलिये आपको "गण्य" कहते है।
३२२. आप स्वयं हि पुण्यरुप है, इसलिये "पुण्य" हो।
३२३. सब जन, गण के अग्रणी होनेसे "गणाग्रणी" हो।
३२४. गुणोके खान, भंडार होनेसे तथा गुणोकि वृध्दि करने वाला उपदेश देनेसे "गुणाकर" हो।
३२५. जितने समुद्र मे रत्न है, उतने आपके गुण है, अत:"गुणाम्बोधि" हो।
३२६. समस्त गुण, उनकि उत्पत्ती, उनके धारण करनेसे आनेवाली विशुध्दीको जाननेसे आप"गुणज्ञ" हो।
३२७. इन सब गुणोकें नेता होनेसे आपको "गुणनायक" भि कहा जाता है।
गुणादरी गुणोच्छेदी निर्गुण पुण्यगीर्गुण: । शरण्य: पुण्यवाक्पूतो वरेण्य: पुण्यनायक:॥४॥
३२८. आप मात्र गुणोके धारक हि नही, गुणोंका सम्मान भि करते है, इसलिए" गुणादरी" हो।
३२९. अवगुणोका नाश करनेसे अथवा इंद्रिय इच्छाओंका दमन करनेसे "गुणोच्छेदी" हो।
३३०. विशेष आकार रहित होनेसे या विभाव नाश करनेसे अथवा गुण होनेवाले किसी भि वस्तु का आपका संबध का अभाव होनेसे आपको "निर्गुण" कहा जाता है ।
३३१. आपकि वाणी को सुनना पुण्यार्जन करानेवाला है, इसलिये आप"पुण्यगी" हो।
३३२. आप स्वयं हि शुध्द गुणस्वरुप है,"गुण" है ।
३३३. जिसे शरण जाया जाये ऐसे एकमात्र होनेसे "शरण्यभूत" हो।
३३४. जैसा आपका उपदेश पुण्यरुप है, वैसेहि आपकि वचन मात्र सुननेसे पुण्य प्राप्त होता है, आपके वचन सुनने मात्र से पुण्य प्राप्त होता है, इसलिये "पुण्यवाक्" हो।
३३५. पुजित, पुज्य, पुण्यस्वरूप होनेसे "पूत्" हो।
३३६. आप सर्वोपरी होनेसे, सबमें श्रेष्ठ होनेसे "वरेण्य" हो।
३३७. पुण्य के स्वामी होनेसे आपको "पुण्यनायक" कहा जाता है।
अगण्य: पुण्यधीर्गुण्य: पुण्यकृत्पुण्यशासन:। धर्मारामो गुणग्राम: पुण्यापुण्य निरोधक:॥५
३३८. आप संसार के जनोमें अब गिने नही जायेंगे अर्थात आप"अगण्य" है, अथवा आपके गुण अनंत होनेसे आप "अगण्य" है. ।
३३९. आपका ज्ञान यथार्थ होनेसे साथ पूण्यकारक है, इसलिये "पुण्यधी" है.।
३४०. जिनके लिये समवशरण कि दिव्य रचना होती है, उनमे आप"गण्य" है,।
३४१. पुण्य के कर्ता है इसलिये "पुण्यकृत्" है.।
३४२. आपने उपदेशित धर्मशासन पुण्यरुप है, इसलिये "पुण्यशासन" है. ।
३४३. धर्म, सत्य, गुण तथा ज्ञान के समुहके धारक होनेसे "धर्माराम " है.।
३४४. आप“ गुणग्राम “ है. ।
३४५. मोक्षके लिये आपने पाप और पुण्य दोनो का निरोध किया है, क्योंकि मात्र पाप का नाश मोक्ष प्राप्तीके लिये पर्याप्त नही है इसलिये “पुण्यापुण्यनिरोधक” भि कहे जाते है।
पापापेतो विपापात्मा विपाप्मा वीतकल्मष: ।निर्द्वंद्वो निर्मद" शान्तो निर्मोहो निरुपद्रव:॥६
हिंसादि समस्तपापोसे रहित होनेसे.....
३४६. आप"पापापेत" है ।
३४७. “विपापात्मा” है।
३४८. “विपात्मा” है ।
३४९. कर्ममल रहित विशुध्द होनेसे आप "वीतकल्मष" है ।
३५०. स्व और् पर का द्वंद्व समाप्त करनेसे "निर्द्वंद्व" है ।
महाऽशोक ध्वजोऽशोक: क: स्रष्टा पद्मविष्टर:। पद्मेश पद्मसम्भूति: पद्मनाभि रनुत्तर:॥१॥
३०१. आपके अष्ट प्रातिहार्योमे महा अशोकवृक्ष है, इसलिए आपको "महाऽशोकध्वजा" कहा जाता है।
३०२. आपने शोक को नष्ट किया है इसलिये "अशोक" है।
३०३. सबसे सुख देने वाले या सबमे ज्येष्ठ होनेसे "क" हो।
३०४. मोक्षमार्ग कि शुरुवात करने से "स्रष्टा" हो।
३०५. आप कमलासन पर विराजमान है, जो कि देवकृत है, इसलिये " पद्मविष्टर" है।
३०६. अंतरंग लक्ष्मी (अनंत सुख, वीर्य, ज्ञान, दर्शन) तथा बहिरंग लक्ष्मी (समवशरण, प्रातिहार्य, अतिशय) होनसे "पद्मेश" हो।
३०७. समवशरण के उपरांत जब भि आप विहार करते हो, तब आपके चरणोके निचे देवकृत अतिशयसे कमलोंकि रचना होती है, यद्यपि आप उन्हे स्पर्श करे बगैरहि अधर मे चलते है, तो उस कमल रचना से "पद्मसंभूति" कहे जाते हो।
३०८. कमल के समान नेत्रसुखद नाभि होनेसे "पद्मनाभ" हो।
३०९. आपके समान कोई और नही ना होगा इस् कारण से आपको "अनुत्तर" नामसे भि सम्बोधा जाता है।
पद्मयोनि र्जगद्यो निरित्य: स्तुत्य: स्तुतिश्वर:। स्तवनार्हो हृषीकेशो जितजेय कृतक्रिय:॥२॥
३१०. आपके अंतरंगसे और उस निमित्तसे बहिरंग लक्ष्मी कि उत्पत्तिअ होती है, इसलिये आप"पद्मयोनि" हो अर्थात लक्ष्मीको जन्म देनेवाला कहा जाता है।
३११. जगत् कि उत्पत्ती के भि कारण आप है, क्युंकि आपने हि जगत के प्राणीयोंको जिने कि राह दि है, इसलिये "जगतयोनि" हो।
३१२. आपके होने का ज्ञान होनेसे अथवा आप जो जानना चाहे उसे ज्ञान होनेसे आपको "इत्य" कहा जाता है (यहाँ यह बताये कि येशु को भि इत्य नामसे जाना जाता है, जो है = इत्य)।
३१३. सबके द्वारा प्रशंसनीय होनेसे स्तुतियोग्य होनेसे "स्तुत्य" हो।
३१४. समस्त स्तुतियोंमे आपकि स्तुति श्रेष्ठ होनेसे "स्तुतिश्वर" हो।
३१५. ऐसि उत्कृष्ट स्तुतियोंके पात्र होनेसे या ऐसी स्तुति के लिये श्रेष्ठ होनेसे " स्तवनार्ह" हो।
३१६. आपने इन्द्रियोपर विजय पाकर उन्हे दास बनाया, अपने वश मे किया है, इसलिये आप हृषिक + इश = "हृषीकेश" कहलाते हैऽ ।
३१७. जिन पर विजय पानी चाहिये अर्थात जो जेय है, उन्हे जितने के कारण आप" जितजेय" है।
३१८. शुध्दात्मा कि प्राप्ति के पुरुषार्थ के लिये आपने सारे कृत्य पुर्ण किये इस लिये आप"कृतक्रिय" है।
गणाधिपो गणज्येष्ठो गण्य: पुण्यो गणाग्रणी:। गुणाकारो गुणाम्बोधि र्गुणज्ञो गुणनायक:॥३
३१९. बारह प्रकार कि सभाए आपके स्वामित्व मे समवशरण होती है, इसलिए"गणाधिप" हो।
३२०. समस्त चतुर्विध संघ मे मुख्य होनेसे "गणज्येष्ठ" हो।
३२१. आपके केवल ज्ञानोपदेश मे जन ऐसे आनंदित होते है, जैसे दिव्य उपवन मे विहर रहे हो, इसलिये आपको "गण्य" कहते है।
३२२. आप स्वयं हि पुण्यरुप है, इसलिये "पुण्य" हो।
३२३. सब जन, गण के अग्रणी होनेसे "गणाग्रणी" हो।
३२४. गुणोके खान, भंडार होनेसे तथा गुणोकि वृध्दि करने वाला उपदेश देनेसे "गुणाकर" हो।
३२५. जितने समुद्र मे रत्न है, उतने आपके गुण है, अत:"गुणाम्बोधि" हो।
३२६. समस्त गुण, उनकि उत्पत्ती, उनके धारण करनेसे आनेवाली विशुध्दीको जाननेसे आप"गुणज्ञ" हो।
३२७. इन सब गुणोकें नेता होनेसे आपको "गुणनायक" भि कहा जाता है।
गुणादरी गुणोच्छेदी निर्गुण पुण्यगीर्गुण: । शरण्य: पुण्यवाक्पूतो वरेण्य: पुण्यनायक:॥४॥
३२८. आप मात्र गुणोके धारक हि नही, गुणोंका सम्मान भि करते है, इसलिए" गुणादरी" हो।
३२९. अवगुणोका नाश करनेसे अथवा इंद्रिय इच्छाओंका दमन करनेसे "गुणोच्छेदी" हो।
३३०. विशेष आकार रहित होनेसे या विभाव नाश करनेसे अथवा गुण होनेवाले किसी भि वस्तु का आपका संबध का अभाव होनेसे आपको "निर्गुण" कहा जाता है ।
३३१. आपकि वाणी को सुनना पुण्यार्जन करानेवाला है, इसलिये आप"पुण्यगी" हो।
३३२. आप स्वयं हि शुध्द गुणस्वरुप है,"गुण" है ।
३३३. जिसे शरण जाया जाये ऐसे एकमात्र होनेसे "शरण्यभूत" हो।
३३४. जैसा आपका उपदेश पुण्यरुप है, वैसेहि आपकि वचन मात्र सुननेसे पुण्य प्राप्त होता है, आपके वचन सुनने मात्र से पुण्य प्राप्त होता है, इसलिये "पुण्यवाक्" हो।
३३५. पुजित, पुज्य, पुण्यस्वरूप होनेसे "पूत्" हो।
३३६. आप सर्वोपरी होनेसे, सबमें श्रेष्ठ होनेसे "वरेण्य" हो।
३३७. पुण्य के स्वामी होनेसे आपको "पुण्यनायक" कहा जाता है।
अगण्य: पुण्यधीर्गुण्य: पुण्यकृत्पुण्यशासन:। धर्मारामो गुणग्राम: पुण्यापुण्य निरोधक:॥५
३३८. आप संसार के जनोमें अब गिने नही जायेंगे अर्थात आप"अगण्य" है, अथवा आपके गुण अनंत होनेसे आप "अगण्य" है. ।
३३९. आपका ज्ञान यथार्थ होनेसे साथ पूण्यकारक है, इसलिये "पुण्यधी" है.।
३४०. जिनके लिये समवशरण कि दिव्य रचना होती है, उनमे आप"गण्य" है,।
३४१. पुण्य के कर्ता है इसलिये "पुण्यकृत्" है.।
३४२. आपने उपदेशित धर्मशासन पुण्यरुप है, इसलिये "पुण्यशासन" है. ।
३४३. धर्म, सत्य, गुण तथा ज्ञान के समुहके धारक होनेसे "धर्माराम " है.।
३४४. आप“ गुणग्राम “ है. ।
३४५. मोक्षके लिये आपने पाप और पुण्य दोनो का निरोध किया है, क्योंकि मात्र पाप का नाश मोक्ष प्राप्तीके लिये पर्याप्त नही है इसलिये “पुण्यापुण्यनिरोधक” भि कहे जाते है।
पापापेतो विपापात्मा विपाप्मा वीतकल्मष: ।निर्द्वंद्वो निर्मद" शान्तो निर्मोहो निरुपद्रव:॥६
हिंसादि समस्तपापोसे रहित होनेसे.....
३४६. आप"पापापेत" है ।
३४७. “विपापात्मा” है।
३४८. “विपात्मा” है ।
३४९. कर्ममल रहित विशुध्द होनेसे आप "वीतकल्मष" है ।
३५०. स्व और् पर का द्वंद्व समाप्त करनेसे "निर्द्वंद्व" है ।